प्रेमसागर/८१ सुदामादरिद्रगमन, सुदामा का ऐश्वर्य

प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ३८८ से – ३९० तक

 
एक्यासीवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, अंतरजामी श्रीकृष्णजी ने सुदामा की बात सुन औ उसके अनेक मनोरथ समझ हँसकर कहा कि भाई, भाभी ने हमारे लिये क्या भेट भेजी है सो देते क्यो नहीं, कॉख में किस लिये दबाय रहे हो। महाराज, यह बचन सुन सुदामा तो सकुचाय मुरझाय रहा औ प्रभु ने झट चावल की पोटली उसकी कॉख से निकाल ली। पुनि खोल उसमे से अति रुचि कर दो मुट्ठी चावल खाए औ जो तीसरी मुट्ठी भरी, तो श्रीरुक्मिनीजी ने हरि का हाथ पकड़ा औ कहा कि महाराज, आपने दो लोक तो इसे दिये अब अपने रहने को भी कोई ठौर रक्खोगे कै नहीं। यह सो ब्राह्मन सुसील कुलीन अति बैरागी महात्याग सा दृष्ट आता है, क्योकि इसे विभौ पाने से कुछ हर्प न हुआ। इससे मैने जाना कि लाभ हानि समान जानते है, इन्हे पाने को हर्प न जाने का शोक।

इतनी बात रुक्मिनीजी के मुख से निकलते ही श्रीकृष्णचंदजी ने कहा कि हे प्रिये, यह मेरा परम मित्र है इसके गुन मै कहॉ तक बखानूँँ। सदा सर्वदा मेरे स्नेह में मगन रहता है और उसके आगे संसार के सुख को तृनवत समझता है।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, ऐसे अनेक अनेक प्रकार की बाते कर प्रभु रुक्मिनीजी को समझाय, सुदामा को संदिर में लिवाय ले गये। आगे षटरस भोजन करवाय, पान खिलाय हरि ने सुदामा को फेन सी सेज पर ले जाय बैठाया। वह पथ का हारा थका तो था ही, सेज पर जाय सुख पाय सो गया। प्रभु ने उस समय विश्वकर्मा को बुलायके कहा― तुम अभी जाय सुदामा के मंदिर अति सुन्दर कंचन रत्न के बनाय, तिनमे अष्टसिद्धि नवनिद्धि धर आओ जो इसे किसी बात की कांक्षा न रहे। इतना बचत प्रभु के मुख से निकलते ही विश्वकर्मा वहॉ जाये बात की बात मे बनाये आया औ इरि से कह अपने स्थान को गया।

भोर होते ही सुदामी उठ स्नान ध्यान भजन पूजा से निचिंत हो प्रभु के पास विदा होने गया, उस समय श्रीकृष्णचंदजी मुख से तो कुछ न बोल सके, पर प्रेम मैं मगन हो ऑखे डबड वाय सिथिल हो देख रहे। सुदामा बिदा हो प्रनाम कर अपने घर को चला औ पंथ मे जाये मन ही मन विचार करने लगा कि भला भया जो मैने प्रभु से कुछ न मॉगा जो उनसे कुछ मॉगता तो वे देते तो सही पर मुझे लोभी लालच समझते। कुछ चिन्ता नहीं ब्राह्मनी को मै समझाय लूंंगा। श्रीकृष्णचंदजी ने मेरा अति मान सनमान किया औ मुझे निर्लोभी जाना यही मुझे लाख है। महाराज, ऐसे सोच विचार करता करता सुदामा अपने गॉव के निकट आया, तो क्या देखता है कि न वह ठॉव है न वह टूटी मड़ैया, वहॉ तो एक इंद्रपुरी सी बस रही है। देखते ही सुदामा अति दुखित हो कहने लगा कि हे नाथ, तूने यह क्या किया? एक दुख तो था ही दूसरा और दिया। ह्यॉ से मेरी झोपड़ी क्या हुई और ब्राह्मनी कहॉ गईं, किससे पूछूं हो किधर ढूंढूँ?

इतना कह द्वार पर जाय सुदामा ने द्वारपाल से पूछा कि यह मंदिर अति सुंदर किसके है? द्वारपाल ने कहा― श्रीकृष्णाचंद के मित्र सुदामा के हैं। यह बात सुन जो सुदामा कुछ कहने को हुआ तों भीतर से देख उसकी ब्राह्मनी, अच्छे वस्त्र आभूषण पहने नख सिख से सिंगार किए, पान खाए, सुगंध लगाए, सखियो को साथ लिए पति के निकट आई।

पायन पर पाटम्बर डारे। हाथ जोड़ ये बचन उचारे॥
ठाढ़े क्यो मन्दिर पर धारो। मन सो सोच करो तुम न्यारौ॥
तुम पाछे विश्वकर्मा आए। तिन मन्दिर पल मॉझ धनाए॥

महाराज, इतनी बात ब्रह्मानी के मुख से सुन सुदामाजी मंदिर में गए औ अति विभौ देख महा उदास भए। ब्राह्मनी बोली― स्वामी, धन पाय लोग प्रसन्न होते हैं, तुम उदास हुए इसका कारन क्या है सो कृपा कर कहिए जो मेरे मनका संदेह जाय। सुदामा बोला कि हे प्रिये, यह माया बड़ी ठगनी है, इसने सारे संसार को ठगा है, ठगती है औ ठगेगी, सो प्रभु ने मुझे दी औ मेरे प्रेम की प्रतीत न की। मैंने उनसे कब माँगी थी जो उन्होने मुझे दी, इसीसे मेरा चित्त उदास है। ब्राह्मनी बोली― स्वामी, तुमने तो श्रीकृष्णचंदजी से कुछ न मॉगा था, पर वे अंतरजामी घट घट की जानते हैं। मेरे मन में धन की बासना थी सो प्रभु ने पूरी की, तुम अपने मन में और कुछ मत समझो। इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इस प्रसंग को जो सदा सुने सुनावेगा सो जन जगत में आय दुख कभी न पावेगा औ अंत काल बैकुंठ धाम जावेगा।