प्रेमसागर/८० सुदामाचरित्र

प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ३८४ से – ३८७ तक

 
अस्सीवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, अब मैं सुदामा की कथा कहती हूँ कि जैसे वह प्रभु के पास गया औ उसका दरिद्र कटा, सो तुम मन दे सुनौ। दक्षिन दिसा की ओर है एक द्रविड़ देश, तहॉ विप्र औ बलिक बसते थे नरेस। जिनके राज मै घर घर होता था भजन सुमिरन औ, हरि का ध्यान, पुनि सव करते थे तर्प यज्ञ धर्म दान और साध संत गौ ब्राह्मन का सनमान।

ऐसे बसे सबै तिहि ठौर। हरि बिन कछू न जाने और॥

तिसी देस में सुदामा नाम ब्राह्मन श्रीकृष्णचंद को गुरुभाई, अ दीन तन छ न महा दरिद्री ऐसा कि जिसके घर पै न घास, में खाने को कुछ पास रहता था। एक दिन सुदामा की स्त्री दरिद्र से अति घबराय महा दुख पाय पति के निकट जाय भय खाय डरतो कॉपती बोली कि महाराज, अब इस दरिद्र के हाथ से महा दुख पाते हैं, जो आप इसे खोया चाहिये तो मै एक उपाय बताऊँ। ब्राह्मन बोला, सो क्या, कहाँ―तुम्हारे परम मित्र त्रिलोकी नाथ द्वारकावासी श्रीकृष्णचंद आनंदकंद हैं, जो उनके पास जाओ तो यह जाय, क्यौंकि वे अर्थ धर्म काम मोक्ष के दाता है।

महाराज, जैव ब्राह्मनी ने ऐसे समझायकर कहा, तब सुदामा बोला कि हे प्रिये विन दिये श्रीकृष्णचंद भी किमीको कुछ नहीं देते। मैं भली भॉति से जानता हूँ कि जन्म भर मैंने किसीको कभी कुछ नहीं दिया, बिन दिये कहॉ से पाऊँगा। हॉ तेरे कहे। से जाऊँगा, तो श्रीकृष्णजी के दरसन कर आऊँगा। इस बात के सुनतेही ब्राह्मनी ने एक अति पुराने धौले वस्त्र मे थोड़े से चावल बांध ला दिये प्रभू की भेट के लिये और डोर लोटा औ लाठी आगे धरी। तब तो सुदामा डोर लोटा कॉधे पर डाल चॉवल कीं पोटली कॉख मे दबाय, लाठी हाथ में ले गनेस को मनाय, श्रीकृष्णचंदजी का ध्यान कर द्वारकापुरी को पधारा।

महाराज, बाट ही में चलते चलते सुदामा मन ही मन कहने लगा कि भला धन तो मेरी प्रारब्ध में नहीं पर द्वारका जाने से श्रीकृष्णचंद आनंदकंद का दरसन तो करूँँगा। इस भॉति से सोच विचार करता करता सुदामा तीन पहर के बीच द्वारकापुरी में पहुँँचा, तो क्या देखता है कि नगर के चारो ओर समुद्र है औ बीच में पुरी, वह पुरी कैसी है कि जिसके चहुँ ओर बन उपवन फूल फल रहे है, तड़ाग वापी इंदारो पर रहट परोहे चल रहे हैं, ठौर ठौर गायो के यूथ के यूथ चर रहे है, तिनके साथ साथ ग्वाल बाल न्यारे ही कुतूहल करते है।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, सुदामा बन उपबन की शोभा निरख पुरी के भीतर जाय देखे तो कंचन के मनिमय मंदिर महा सुंदर जगमगाय रहे हैं. ठॉव ठाँव अयाइयो में यदुवंसी इंद्र की सी सभा किये बैठे है। हाट वाट चौहटों में नाना प्रकार की वस्तु बिक रही है, घर घर जिधर तिधर गान दान हरिभजन औ प्रभु को जस हो रहा है औ सारे नगर निवासी महा आनंद में है। महाराज, यह चरित्र देखता देखता औ श्रीकृष्णचंद का मंदिर पूछता पूछता सुदामा जी प्रभु की सिहपौर पर खड़ा हुआ। इसने किसी से डरते डरते पूछा कि श्रीकृष्णचंदजी कहॉ विराजते है? उसने कहा कि देवता, आप मंदिर भीतर जाओ सनमुख ही श्रीकृष्णचंदजी रत्न सिंहासन पर बैठे हैं।

महाराज, इतना बचन सुन सुदामा जी भीतर गया, तो देखते ही श्रीकृष्णचंद सिहासन से उतर, आगू बढ़ भेट कर अति प्यार से हाथ पकड़ उसे ले गए। पुनि सिहासन पर बिठाय पॉव धोय चरनामृत लिया, आगे चंदन चरच, अक्षत लगाय, पुष्प चढ़ाय, धूप दीप कर प्रभु ने सुदामा की पूजा की।

इतनौ करिकै जोरे हाथ! कुशल क्षेम पूछत यदुनाथ॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा से कहा कि महाराज, यह चरित्र देख श्रीरुक्मिनीजी समेत आठो पटरानियाँ औ सोलह सहस्र आठ सौ रानियॉ और सब यदुवंसी जो उस समय वहॉ थे, मन ही मन यो कहने लगे कि इस दरिद्री, दुर्बल, मलीन, वस्त्रहीन, ब्राह्मन ने ऐसा क्या अगले जन्म पुन्य किया था जो त्रिलोकीनाथ ने इसे इतना माना। महाराज, अंतरजामी श्रीकृष्णचंद उस काल सब के मन की बात समझ उनका संदेह मिटाने को, सुदामा से गुरु के घर की बाते करने लगे कि भाई तुम्हें वह सुध है जो एक दिन गुरुपत्नी ने हमै तुम्हे ईंधन लेने भेजा था और जब बन से ईंधन ले गटड़ियॉ बॉध सिर पर धर धर को चले, तब आँधी और मेह आया औ लगा मूसलाधार बरसने, जल थल चारो ओर भर गया, हम तुम भींगकर महादुख पाय जाड़ा खाय रात भर एक वृक्ष के नीचे रहे। भोर ही गुरुदेव बन में ढूंढने आये औ अति करुना कर असीस दे हमें तुम्हें अपने साथ घर लिवाय लाए।

इतना कह पुनि श्रीकृष्णचंदजी बोले कि भाई, जब से तुम गुरुदेव के ह्यॉ से बिछड़े, तब से हमने तुम्हारा समाचार न पाया था कि कहॉ थे औ क्या करते थे। अब आय दरस दिखाय तुमने हमे महासुख दिया औ घर पवित्र किया। सुदामा बोला―हे कृपासिधु, दीनबंधु, स्वामी, अंतरजामी तुम सब जानते हो, कोई बात संसार मे ऐसी नहीं जो तुमसे छिपी है।