प्रेमसागर/२ देवकीविवाह बालकवध
दूसरा अध्याय
इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा―हे महाराज, कंस तो इस अनीति से मथुरा में राज करने लगा औ उग्रसेन दुख भरने। देवक जो कंस का चाचा था, विसकी कन्या देवकी जब ब्याहन जोग हुई तब विनने जा कंस से कहा कि यह लड़की किसको दें, वह बोली सूरसेन के पुत्र बसुदेव को दीजिये। इतनी बात सुनतेही देवक ने एक ब्राह्मण को बुलाय, शुभ लग्न ठहराय सूरसेन के घर टीका भेज दिया। तब तो सूरसेन भी बड़ी धूम धाम से बरात बनाय, सब देस देस के नरेस साथ ले मथुरा में बसुदेव को ब्याहने आए।
बरात नगर के निकट आई सुन उग्रसेन देवक और कंस अपना दल साथ ले आगे बढ़ नगर में ले गये, अति आदर मान से अगोनी कर जनवासा दिया, खिलाय पिलाय सब बरातियों को मढ़े के नीचे ले जा बैठाया और बेद की विधि से कंस ने बसुदेव को कन्यादान दिया। तिसके यौतुक में पंद्रह सहस्र घोड़े, चार सहस्र हाथी, अठारह सौ रथ, दास दासी अनेक दे, कंचन के थाल वस्त्र आभूषन रतनजटित से भर भर अनगिनत दिये और सब बरातियों को भी अलंकार समेत बागे पहराय सब मिल पहुँचावन चले। तहाँ आकाशबानी हुई कि अरे कंस, जिसे तू पहुँचावने चला है तिजका आठवां लड़का तेरा काल उपजेगा, विसीके हाथ तेरी मीच है।
यह सुनते ही कंस डरकर काँप उठा औ क्रोध कर देवकी को झोटे पकड़ रथ से नीचे खेंच लाया। खड़ग हाथ में ले दाँत पीस पीस लगा कहने, जिस पेड़ को जड़ही से उखाड़िये तिसमें फूल फल काहे को लगेगा, अब इसी को मारूँ तो निर्भय राज करूँ। यह देख सुन बसुदेव मन में कहने लगे―इस मूरख ने दिया संताप, जानता नहीं है पुन्य औ पाप, जो मैं अब क्रोध करता हूँ तो काज बिगड़ेगा; तिससे इस समै क्षमा करनी जोग है। कहा है,
जो बैरी खैंचे तरवार, करे साध तिस की मनुहार।
समझ मूढ़ सोई पछताय, जैसे पानी आग बुझाय॥
यह सोच समझ बसुदेव कंस के सोहीं जा हाथ जोड़ बिनती कर कहने लगे कि सुनो पृथ्वीनाथ, तुम-सा बली संसार में कोई नहीं और सब तुम्हारी छाँह तले बसते हैं। ऐसे सूर हो स्त्री पर शस्त्र करो, यह अति अनुचित है और बहन के मारने से महा पाप होता है, तिसपर भी मनुष्य अधर्म तो करे जो जाने कि मैं कभी न मरूँगा। इस संसार की तो यह रीति है, इधर जन्मा, उधर मरा, करोड़ जतन से पाप पुन्य कर कोई इस देह को पोखे, पर यह कभी अपनी न होयगी और धन, जोबन, राज भी न आवेगा काज। इससे मेरा कहा मान लीजे औ अपनी अबला अधीन बहन को छोड़ दीजे। इतना सुन वह अपना काल जान घबराकर और भी झुँझलाया। तब बसुदेव सोचने लगे कि यह पापी तो असुर बुद्धि लिये अपने हठ की टेक पर है, जिसमें इसके हाथ से यह बचे सो उपाय किया चाहिये। ऐसे विचार मन में कहने लगे, अब तो इससे यों कह देवकी को बचाऊँ कि जो पुत्र मेरे होगा सो तुम्हे दूंगा, पीछे किसने देखी है लड़काही न होय, कै यही दुष्ट मरे, यह औसर तो टले फेर समझी जायगी। इस भाँति मन में ठान बसुदेव ने कंस से कहा—महाराज, तुम्हारी मृत्यु इनके पुत्र के हाथ न होयगी, क्योंकि मैंने एक बात ठहराई है कि देवकी के जितने लड़के होंगे तितने मैं तुम्हें ला दूंगा। यह बचन मैंने तुमको दिया। ऐसी बात जब बसुदेव ने कही तब समझके कंस ने मान ली और देवकी को छोड़ कहने लगा―हे बसुदेव, तुमने अच्छा बिचार किया जो ऐसे भारी पाप से मुझे बचा लिया। इतना कह बिदा दी, वे अपने घर गये।
कितने एक दिन मथुरा में रहते भये जब पहला पुत्र देवकी के हुआ, तब बसुदेव ले कंस पै गये और रोता हुआ लड़का आगे धर दिया। देखते ही कंस ने कहा―बसुदेव, तुम बड़े सतबादी हो, मैंने सो आज जाना क्योंकि तुमने मुझसे कपट न किया, निरमोही हो अपना पुत्र ला दिया। इससे डर नहीं है कुछ मुझे, यह बालक मैंने दिया तुझे। इतना सुन बालक ले दंडवत कर बसुदेव जी तो अपने घर आये और किसी समै नारद मुनिजी ने जाय कंस से कहा―राजा, तुमने यह क्या किया जो बालक उलटा फेर दिया, क्या तुम नहीं जानते कि वासुदेव की सेवा करने को सब देवताओं ने ब्रज में आय जन्म लिया है और देवकी के आठवें गर्भ में श्रीकृष्ण जन्म ले सब राक्षसों को मार भूमि का भार उतारेंगे। इतना कह नारद मुनि ने अठ लकीर खेंच गिनवाईं, जब आठही आठ गिनती में आई तब डरकर कंस ने लड़के समेत बसुदेव जी को बुला भेजा। नारद मुनि तो यों समझाय बुझाय चले गये और कंस ने बसुदेव से बालक ले मार डाला। ऐसे जब पुत्र होय तब वसुदेव ले आवे औ कंस मार डाले। इसी रीति से छः बालक मारे तब सातवें गर्भ में शेषरूप जो श्रीभगवान तिन्होंने आ बास लिया। यह कथा सुन राजा परीक्षित ने शुकदेव मुनि से पूछा―महाराज, नारद मुनिजी ने जो अधिक पाप करवाया तिसका ब्योरा समझा कर कहो, जिससे मेरे मन का संदेह जाय। श्रीशुकदेवजी बोले―राजा, नारदजी ने तो अच्छा बिचारा कि यह अधिक अधिक पाप करे तो श्रीभगवान तुरंत ही प्रकट होवें।