प्रेमसागर/श्री लल्लूजीलाल का जीवन-चरित
श्री लल्लूजीलाल का जीवन-चरित
इनका नाम लल्लूलाल, लालचंद या लल्लूजी था और कविता में उपनाम लाल कवि था। ये आधुनिक हिंदी गद्य के और उसके आधुनिक स्वरूप के प्रथम लेखक माने जाते हैं। ये आगरा निवायी गुजराती औदीच्य ब्राह्मण थे और उस नगर के बलका की बस्ती गोकुलपुरा में रहते थे। इनके पिता का नाम चैनसुखजी था जो बड़ी दरिद्रावस्था में रहते थे और पुरोहिताई तथा आकाशवृत्ति से किसी प्रकार अपना कार्य चलाते थे। इनके चार पुत्र थे जिनके नाम क्रमशः लल्लूजी, दयालजी, मोतीरामजी और चुन्नीलालजी थे। सब से बड़े लल्लूजीलाल थे जिनके जन्म का समय निश्चित रूप से अभी तक ज्ञात नहीं हुआ है; पर संभवतः इनका जन्म सं० १८२० वि० के लगभग हुआ होगा। इन्होने घर ही पर कुछ संस्कृत, फ़ारसी और ब्रज भाषा का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। जब सं० १८४० वि० में इनके पिता स्वर्ग को सिधारे, तब अधिक कष्ट होने के कारण यह सं० १८४३ वि० में जीविका की खोज में मुर्शिदाबाद आए। यहाँ कृपासखी के शिष्य गोस्वामी गोपालदासजी के परिचय और सत्संग से इनकी पहुँच वहाँ के नवाब मुबारकुद्दौला के दरबार में हो गई। नवाब ने इनपर प्रसन्न होकर इनकी जीविका बाँध दी जिससे ये आराम से वहाँ सात वर्ष तक रहे। सं० १८५० वि० में गोस्वामी गोपालदासजी की मृत्यु हो जाने और उनके भाई गोस्वामी रामरंग कौशल्यादासजी के बर्दबान चले जाने से इनका चित्त उस स्थान से ऐसा उचाट हुआ कि नवाब के आग्रह करने पर भी उनसे विदा हो ये कलकत्ते चले गए।
नाटौर की प्रसिद्ध रानी भवानी के दत्तक पुत्र महाराज रामकृष्ण से कलकत्ते में इनका परिचय हो गया और यह कुछ दिन उन्हींके आश्रय में वहाँ रहे। जब उनके राज्य का नए रूप से प्रबंध हो गया और उन्हें उनका राज्य भी मिल गया, तब यह भी उनके साथ नादौर गए। कई वर्ष के अनंतर जब उनके राज्य में उपद्रव मचा और वह कैद किए जाकर मुर्शिदबाद लाए गए, तब यह भी उनसे विदा होकर सं॰१८५३ वि॰ में कलकत्ते लौट आए जहाँ कुछ दिन तक चितपुर रोड पर रहे। यहाँ के कुछ बाबू लोगों ने प्रकट मैं तो इनका बहुत कुछ आदर सत्कार किया, पर कुछ सहायता न की, क्योंकि वे लिखते हैं कि "उन्ही के थोथे शिष्टाचार में जो कुछ वहाँ से लाया था सो बैठकर खाया।" जब कई वर्ष इन्हें जिविका का कष्ट बना रहा, तब अंत में घबराकर जिविका की खोज में यह जगन्नाथपुरी गए। जब जगदीश का दर्शन करने गए थे, तब स्वरचित निर्वेदाष्टक सुनाकर उनकी स्तुति की थी, जिसका प्रथम दोही यों है―
विश्वभर बनि फिरत हौ, भले बने महराज।
हमरी ओर निहारि कै, लखौ आपुनो काज॥
संयोग से नागपुर के राजा मनियाँ बाबू भी उसी समय जगदीश के दर्शन को आए हुए थे और वे खड़े खड़े इनकी इस दैन्य स्तुति को जिसे यह बड़ी दीनता के साथ पढ़ रहे थे, सुनते रहे । इससे उन्हें इनपर बड़ी दया आई और उन्होने इनसे परिचय करके अपने साथ मागपुर लिया जाने के लिये बहुत आग्रह दिखलाया । इनका विचार भी वहाँ जाने का पक्का हो गया था। पर अभी तक इनके अदृष्ट ने इनका साथ नहीं छोड़ा था जिससे यह उनके साथ नहीं जा सके और कलकत्ते लौट आए। विदा होते समय मनियाँ बाबू ने सौ रुपये भेट देकर इनका सत्कार किया था।
इन्हीं दिनो साहब के पठन पाठन के लिये जब कलकत्ते में एक पाठशाला खुलीं, तब इन्होने गोपीमोहन ठाकुर से जाकर प्रार्थना की। उन्होंने अपने भाई हरिमोहन ठाकुर के साथ इन्हें भेजकर पादरी बुरन साहब से इनकी भेट करा दी। उन्होने आशा भरोसा तो बहुत दिया, पर एक महीना व्यतीत हो जाने पर भी जब उनका किया कुछ नहीं हुआ, तब दीवान काशीनाथ खत्री के छोटे पुत्र श्यामाचरण के द्वारा डाक्टर रसेल से एक अनुरोध-पन्न पाप्त करके इन्होंने डाक्टर गिलक्राइस्ट से भेद की जो उन दिनों फोर्ट विलियम कॅालेज के प्रिंसिपल थे । इन्हीं गिलक्राइस्ट साहब का, जो उस समय हिंदी और उर्दू भाषाओं को स्वरूप निश्चित कर रहे थे, सत्संग ललूलालजी की विख्याति का मूल कारण हुआ ।
साहब ने इन्हें ब्रज भाषा की किसी कहानी को हिंदी गद्य में लिखने की आज्ञा दी और अर्थ-साहाय्य के साथ साथ इनके पार्थनानुसार दो मुसलमान लेखक को, जिनका नाम मजहरअली खों चिली और काजिम अली जब था, सहायतार्थ नियुक्त कर दिया । तब इन्होने एक वर्ष ( सं० १८५६ वि०) में परिश्रम करके चार पुस्तक का ब्रज भाषा से रेखते की बोली मैं अनुवाद किया। इन पुस्तकों के नाम सिहासनबत्तीसी, बैतालपचीसी, शकुंतला नाटक और माधोनल है ।
आगरे के तैराक बहुत प्रसिद्ध होते है और लल्लजी भी वहाँ के निवासी होने के कारण तैरना अच्छा जानते थे । दैवात् एक दिन उन्होने तट पर टहलते समय एक अँगरेज को गंगाजी में डूबते देखा । तब उन्होंने निडर होकर झटपट कपड़े उतार डाले और गंगाजी में कूद दो ही गोते में उसे निकाल लिया । वह अँगरेज ईस्ट इंडिया कंपनी का कोई पदाधिकारी था। उसने अपने ! णिरक्षक की पूरी सहायता की और इन्हें कुछ धन देकर छापाखाना खुलवा दिया । उसी के अनुरोध से फोर्ट विलियम कालेज में इनकी वि० सं० १८५७'भे पचास रुपए मासिक की आजीविका लग गई। बस इसके अनंतर इनकी प्रतिष्ठा और ख्याति बराबर बृढ़ती चली गई। उन्होंने अपने प्रेस में, जिसका नाम संस्कृत प्रेस रखा था, अपनी पुस्तके छपवाकर बेचना आरंभ कर दिया । कंपनी ने भी इस प्रेस के लिये बहुत कुछ सहायता दी जिससे इसमें छपाई का अच्छा पबंध हो गया । यह यंत्रालय पहले पदलडॉगा में खोला गया था। इनके प्रेस की पुस्तक पर सर्वसाधारण की इतनी श्रद्धा हो गई थी कि इनकी प्रकाशित रामायण ३०) ४०), ५०) को और प्रेमसागर १५), २०), ३०) को थिक जाते थे । इनके छापेखाने के छपे हुए ग्रंथो को एक शताब्दी से अधिक _________________________________________________
१ विहारीविहार और सरस्वती के द्वितीय वर्ष की २ री सख्या में स० १८५७ वि० को सन् १८०४ ई० माना है, जो अशुद्ध है । सन् १८०० इ० चाहिए। देखिये जी. ए. प्रिअर्सन संपादित लालचद्रिका पु० १२ ।
होगया, पर वे ऐसे उत्तम, मोटे और सफेद बाँसी कागज पर छपे थे कि अब तक नए और दृढ़ बने हुए हैं ।
लल्लूजी चौबीस वर्ष तक फोर्ट विलियम कालेज में अध्यापक रहे और वि० सं० १८८१ मे पेंशन लेकर स्वदेश लौटे । वे अपना छापाखाना भी आते समय नाव पर लादकर साथ ही आगरे लाए और वहाँ उसे खोला । अगरे में इस छापेखाने को जमाकर ये कलकत्ते लौट गए और वहीं इनकी मृत्यु हुई। इनकी कब और कैसे मृत्यु हुई, इसका नुते इनके जन्म के समय के समान निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हुआ । परंतु पैशन लेते समय इनकी अवस्था लगभग ६० वर्ष के हो चुकी थी ।
यद्यपि इनके भाइयों को संतान थी, पर ये निस्संतान ही रहे । इनकी पत्नी को इन पर असाधारण प्रम था और वे इनके कष्ट के समय बराबर इनके साथ रहो । ये वैष्णव तो अवश्य ही थे, पर किस संप्रदाय के थे, सो ठीक नहीं कहा जा सकता । संभवतः ये राधावल्लभीय ज्ञात होते है ।
इतना तो स्पष्ट ही विदित है कि ये कोई उत्कट विद्वान् नहीं थे और न किसी विद्या के आचार्य होने का गर्व ही कर सकते थे । संस्कृत का बहुत कम ज्ञान रखते थे, उर्दू और अंगरेजी भी कुछ कुछ जानते थे, पर व्रज भाषा अच्छी जानते थे। कवि भी ये कोई उच्च कोटि के नहीं थे । परंतु जिस समय थे अपनी लेखनी चला रहे थे, उस समय ये वास्तव में ठेठ हिंदी का स्वरूप स्थिर कर रहे थे । हिदी गद्य के कारण ही ये प्रसिद्ध और विख्यात हुए हैं। कुछ लोगो का यह कथन है कि यदि येआजक तोल होते
कदापि इतने यश के भागी न होते। पर यह तो न्यूटन आदि जगत्पसिद्ध विद्वानों के लिये भी कहा जा सकता है।
( १ ) सिंहासनबत्तीसी―इस पुस्तक में प्रसिद्ध राजा विक्रम के सिहासन की ३२ पुतलियो की कहानियाँ हैं, जिसे सुंदरदास ने संस्कृत से ब्रज भाषा में लिखा था। उसी का वि॰ सं॰ १८५६ में लल्लूजी ने हिंदी में अनुवाद किया। उदाहरण― खुदा ने जब से उसे दुनिया के परदे पर उतारा सब बेसहारों का किया सहारा और रूप उसको देखकर चौदहवीं रात के चाँद को चकाचौध आती, बड़ा चतुर सुघर और गुणी था, अच्छी जितनी बात सब उसमें समाई थी।
( २ ) बैतालपचीसी―संस्कृत में शिवदास कृत वेलालपंचविंशतिका नामक ग्रंथ है, जिसका सुरति मिश्र ने ब्रज भाषा में अनुवाद किया था। उसी का हिंदी अनुवाद मजहरअली विला की सहायता से हुआ था। उदाहरण―इबतिदाय दास्तान यो है कि मुहम्मद शाह बादशाह के जमाने में राजा जैसिह सवाई ने जो मालिक जैनगर को थी सुरति नामक कवीश्वर से कहा कि वैतालपचीसी को जो जबान संस्कृत में है तुम ब्रजभाषा में कहो। तब मैने बमूजिब हुकुम राजा के ब्रज की बोली में कही। सो हम उसको ज़बान उर्दू में छापा करते हैं जो खास और आम के समझने में आवै।
( ३ ) शकुन्तला नाटक―संस्कृत से हिंदी अनुवाद। ( ४ ) माधोनल-( माधवानल ) नामक संस्कृत की पुस्तक सं० १५८७ वि० की लिखी हुई बंगाल एशाटिक सोसाएदी में सुरक्षित है। इसी के आधार पर सं० १७५५ वि० के लगभग मोतीराम कवि ने ब्रज भाप में एक कहानी लिखी थी, जिसकी यह हिंदी अनुवाद है।
( ५ ) माधवविलास-रघुराम नामक गुजराती कवि के समासार और कृपाराम कवि द्वारा पद्मपुराण से संग्रहीत योगसार नामक दोनों ग्रंथो को मिलाकर लल्लूजी ने माधवविलास नाम से इस पुस्तक को पहले छपवाया । इस पुस्तक में गद्य पद्य दोनो हैं और यह ब्रज भाषा में है । रधुराम नागर की एक अन्य रचना माधव-विलास शतक खोज में मिली है।
( ६ ) सभाबिलास-यह एक प्रसिद्ध पुस्तक है जिसमें माना प्रकार के नीति विषयक पद्यों का संग्रह है। |
( ७ ) प्रेमसागर-सं० १६२४ वि० में चतुभुजदास जी ने ब्रज भाषा में श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध का दोहों और चपाइयों में अनुवाद किया था। इसी ग्रंथ के आधार पर वि० सं० १८६० में लल्लूजी लाल ने प्रेमसागर की रचना की । यह भागवत का पूर्ण अनुवाद न होकर उसका संक्षिप्त रूप है। इसका प्रथम संस्करण वि० सं० १८६७ में प्रकाशित हुआ था। यह एक प्रसिद्ध ग्रंथ है अर पाठ्य पुस्तक में इसका कुछ न कुछ अंश अवश्य संगृहीत रहता है।
( ८ ) राजनीति- ब्रज भाषा में हितोपदेश का सं० १८६९ वि० में अनुवाद करके यह नाम रखा था ।। |
( ६ ) भाषा क़ायदा-हिंदी भाषा का व्याकरण । उर्दू में
छोटे व्याकरण को कायदा कहते हैं। ऐसा नाम रखने से यह ज्ञात होता है कि इसके प्रणयन में इन्हें मुसलमान लेखको से सहायता मिली होगी। यह ग्रंथ छपा था, पर प्रकाशित नहीं हो सका। इसकी एक प्रति बंगाल एशाटिक सोसाएटी में सुरक्षित है।
( १० ) लतायफ़ हिंदी―उर्दू, हिंदी और ब्रज भाषा की १०० कहानियों का संग्रह है। छोटी छोटी कहानियों और चुटकुले को लतीफ कहते हैं, जिसका बहुवचन लतायफ है। यह न्यू-एन्साइक्लोपीडिया-हिंदुस्तानी के नाम से प्रकाशित हुआ था।
( ११ ) लालचँद्रिका―सं० १८७५ वि० में अनवरचंद्रिका अमरचंद्रिका, हरिप्रकाश टीका, कृष्ण कवि की कवितवाली टीका, कृष्णलाल की टीका, पठान सुलाने की कुँडलियो-वाली टीका और संस्कृत टीका की सहायता से उन्होंने महाकवि बिहारीलाल की सतसई पर इस नाम की गद्य टीका तैयार की। इसमें नायिका भेद और अलंकार भी दिए है और इसे आज़मशाही क्रम के अनुसार रखा है। डाक्टर ग्रियर्सन ने इसे संपादित करके सं॰ १९५२ वि॰ में पुनः प्रकाशित किया।
उदा॰—उमग के, अश्य और ही लिये, बात करती थी। सो रहीं अबकहीं बातें। देखकर खिसानी नायक की आँखें, करीं रिस भरीं आँखै नायका ने।