प्रेमसागर/गद्य साहित्य का विकास

प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ इतिहास से – ४० तक

 
गद्य साहित्य का विकास

मनुय्य जिसके द्वारा अपने विचारों को एक दूसरे पर प्रकट करता है, उसे बोली या भाषा कहते हैं । भाषा की यह परिभाषा एक प्रकार से रूढ़ि सी मान ली गई है, यद्यपि इसके अंतर्गत वे संकेतादि भी आ जाते है जिनसे आपस में बहुत कुछ विचार प्रकट किए जाते हैं या किए जा सकते है। परंतु वे इस परिभाषा के अंतर्गत नहीं समझे जाते। इन भाषाओ का नामकरण प्रायः उन देशो, प्रातो या जातियों के नाम पर किया जाता है जिन देशो, प्रांतो या जातियो मे वे बोली जाती हैं। संसार की लगभग सभी भाषाओ का नाम किसी देश या जाति के नाम पर होता है।

आपस मे बात-चीत करते या आवश्यकतानुसार कुछ बोलते समय पद्य का कभी व्यवहार नहीं किया जाता, सर्वदा गद्य मे ही विचार प्रकट किया जाता है। परंतु यह एक आश्चर्य की बात है कि जिस किसी भाषा के साहित्य को उठाकर देखिए, सब का आरंभ पध से ही हुआ है। क्या उन प्रतिभाशाली आदि कवियो के मस्तिष्क में छंद ही भरे थे ? क्या वे छंदो में ही बातचीत करते थे ? हर एक साहित्य के प्रारंभिक ग्रंथों में बहुधा देखा जाता है कि उनमें मनुष्यो के धार्मिक विचारो, हर्ष, शोक आदि मानसिक विकारो और दैवी चरित्रो का वर्णन होता है। कविता मनुष्य का हार्दिक उद्गार होने के कारण पहले ही निकल पड़ती है। इन विषयो के लिए पद्य ही अधिक उपयुक्त है और कविता ही के द्वारा धार्मिक विचारों में प्रोत्साहन, मानसिक विकारों में उत्तेजना और देवता पर श्रद्धा झटपट उत्पन्न कराई जा सकती है। गहन विषयो के ग्रंथ भिन्न भिन्न देशी या जातियों की सभ्यता के अनुगामी होते है। ज्यों ज्यो कोई जाति अधिक उन्नति करती जाती है, त्यो त्यो उसके साहित्य के विषय भी अधिक गहन होते जाते है। कुछ समय पहले जिस एक शब्द से एक विषय के सब शास्त्री का बोध हो जाता था, उससे अब उस विषय की किसी एक शाखा मात्र का बोध होता है। इन गहन विषयों के लिए जब गद्य की आवश्यकता पड़ती है, तब उसकी उत्पत्ति आप से आप हो जाती है।

हिंदी साहित्य में भी यही हुआ है। पद्य जो अस्वाभाविक है। वह तो पहिले ही बिना प्रयत्न के बन गया, पर जो स्वाभाविक और नित्यप्रयुक्त है, उसे बनाने का अभी तक प्रयत्न होता जा रहा है। हिंदी कविता का आरंभ-काल तो आठवीं शताब्दी से माना जाता है और गद्य का जन्म हुए केवल एक शताब्दी माना गया है। इस पर भी अभी इस गद्य का स्वरूप पूर्ण रूप से निश्चित और सर्वग्राह्य नहीं हुआ है। कोई उसे अपने देश के अलंकारों से सजाना चाहता है तो कोई उसे फारस के अलंकारों और वस्त्रों से अच्छादित करना चाहता है। पद्य में ब्रज भाषा, अवधी, खड़ी बोली आदि का जो झमेला है, वही बहुत है। फिर गद्य को जिसे बहुत सा रास्ता तै करना है, क्यो व्यर्थ इतनी ड्रिल कराई जाती है, यह नहीं कहा जा सकता।

हिंदी की उत्पत्ति के विषय में अभी तक यही निश्चित हुआ है कि यह प्राकृत के रूपांतर अपभ्रंश अर्थात् चीन हिंदी से बिगड़ कर बनी है अब यह देखना चाहिए कि यह हिंदी शब्द कहाँ से आया और इसकी क्या व्युत्पत्ति है। पश्चिम के विदेशियों ने भारत वर्ष का नाम हिंद या हिंदोस्तान रखा। मुसलमानों ने अपनी मनोवृत्ति के अनुसार हिंदू या हिंदी शब्द का अर्थ चोर, डाकू या दास कर दिया, शायद इस कारण कि जब उनका भारत पर अधिकार हुआ तब उन्होंने इस देश के निवासियो को दास कहना उचित समझा। फारसी में जादूगरनी के लिए 'हिदूजन' शब्द का प्रयोग होता है जिसका अर्थ 'हिदू स्त्री' है। तात्पर्य्य यह है कि हिंद या इससे बने हुए शब्दों का घृणित अर्थ कर दिया गया। इसी हिद या हिंदुओं की बोली हिंदुवी या हिदी कहलाई। अब यह विचारणीय है कि मुसलमानों और हिंदुओं के संपर्क के पहिले यह शब्द बन चुका था जिसका मुसलमानों ने पीछे बुरा अर्थ अपने कोष में लिख दिया या उसी समय गढ़ा गया। यह बात सिद्ध है कि यह शब्द मुहम्मद साहब से हजारों वर्ष पहले प्राचीन पारसियों के द्वारा प्रयुक्त हुआ जो यहाँ के 'स' का उच्चारण प्रायः 'ह' के समान किया करते थे। वे सिंधु नद के किनारे के प्रदेश को 'हिद' और वहाँ के निवासियों को 'हिदी' कहा करते थे। उनके चित्त में इन शब्दों का कोई बुरा अर्थ नहीं था। इस देश के रहनेवालो पर घृणा रखने के कारण मुसलमानों ने बाद को इसका घृणित अर्थ रख लिया।

निर्विवाद रूप से यह मान लिया गया है कि हिंदी साहित्य के गद्य का और ईसवी उन्नीसवीं शताब्दी का जन्म साथ ही हुआ है और हिंदी गद्य के जन्मदाता श्रीलल्लूजी लाल हुए है। परंतु देखा जाता है तो ये दोनों बाते ठीक नहीं जान पड़ती हैं। इनके कई शताब्दी पहिले की गद्य पुस्तके वर्तमान हैं, यद्यपि वे ब्रज भाषा,
अवधी आदि में होने से खड़ी बोली, रेख्ते की बोली या हिंदुवी की कक्षा में नहीं आ सकतीं। तब यदि लल्लूजी खड़ी बोली के गद्य के जन्मदाता कहे जायँ तो यह भी अयुक्त होगा, क्योकि उस पद के लिए और भी कई अधिकारी खड़े है, जिनमें पं॰ सद्ल मिश्र, मुं॰ सदासुखलाल और हकीम इंशाअल्लाखाँ मुख्य हैं। साथ ही यह भी विचारणीय है कि लल्लूजी के प्रेमसागर आदि ग्रंथो के लिखे जाने के लगभग पचास वर्ष अनंतर तक कोई दूसरी उत्तम गद्य पुस्तक नहीं प्रस्तुत हुई। कदाचित् इसी कारण भारतेदुजी मृत हिंदी को जिलानेवाले या आधुनिक हिंदी के जन्मदाता कहे जाते है।

गद्य की भाषा का प्रारंभिक विकास दिखलाने के अनंतर अब लल्लूजी के समय तक के गद्य लेखको का संक्षिप्त जीवन-वृत्तांत उनकी भाषा के उदाहरणों के साथ दिया जायगा।

किसी भाषा का समय निर्णय करना कठिन होता है, क्योकि मनुष्यो के जन्म आदि की तरह किसी दिन या वर्ष में उसकी उत्पत्ति होना नहीं बतलाया जा सकता। पत्येक भाषा अपने से प्राचीनतर भाषा का रूपांतर मात्र होती है, और यह रूपांतर इतने लंबे समय में होता है कि वह समय अनिश्चित रूप में ही कहा जा सकता है। मनुष्य के जन्म का समय घड़ी पल तक में बतलाया जा सकता है, परंतु उसकी अवस्था के किसी रूपांतर का समय निश्चित नहीं हो सकता कि कब बोलने लगा या कब युवा से वृद्ध हुआ। हिंदी का आरंभिक काल आठवीं शताब्दी के साथ आरंभ हुआ माना गया है। बोल-चाल और व्यवहार में हिंदी इससे पहिले ही प्रचलित हो गई होगी, फिर कुछ परिपक होने पर वह कविता की भाषा बनाई गई होगी। मौखिक गद्य के आरंभ होने के कई शताब्दियों के अनंतर लिखित गद्य का आरम्भ होना निश्चित समझना चाहिए। हिंदी गद्य का सबसे प्राचीन नमूना महाराज पृथ्वीराज और रावल समरसिंह के तेरहवी शताब्दी के दानपत्रों में मिलता है-यदि वे सच्चे कहे जा सकें तो। पंद्रहवीं शताब्दी के आरंभ में महात्मा गोरखनाथ जी को होना माना जाता है जो एक मत के प्रवर्तक और प्रसिद्ध महात्मा हो गए है। इन्होने हिंदी में कई पद्य की और एक गद्य की पुस्तक लिखी है। इसके अनंतर दो शताब्दियो तक की किसी गद्य पुस्तक का पता अभी तक नहीं चला है।

वस्तुतः हिंदी गद्य का आरंभ सोलहवी शताब्दी मे हुआ मानना चाहिए, क्योंकि उस समय के प्रणीत ग्रंथ प्राप्त हैं और उसके अनंतर गद्य पुस्तको का प्रणयन बराबर जारी रहा। यह काल हिदी के लिए बड़े गौरव का है जिसमें वैष्णव भक्तों ने अपने हरिभजन से इसके साहित्य-भंडार को पूर्ण किया है। श्री महाप्रभु वल्लभाचार्य जी का वि० सं० १५३५ मै प्रादुर्भाव हुआ था। इनकी और इनके पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथजी की अमृतमुयी शिक्षाओं की हिंदी साहित्य पर कितना प्रभाव पड़ा, यह प्रत्यक्ष ही है। केवल एक सूरसागर की ही तरंगो से किसी भाषा का साहित्य-रत्नाकर परिपूर्ण समझा जा सकता है। इसी समय महाप्रभुजी के पुत्र गो० विठ्ठलनाथजी ने हिंदी गद्य की आदि पुस्तक श्रृंगाररसमंडन लिखी है। गो० विठ्ठलनाथजी के पुत्र गो० , गोकुलनाथजी ने अपने दादा महाप्रभुजी के ग्रंथ, सिद्धांतरहस्य पर सिद्धांतरहस्यवार्ता नामक टीका लिखी। उन्होने वनयात्रा, चौरासी वैष्णवों की बात और दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता नामक तीन ग्रंथ और लिखकर हिदी गद्य की नींव दृढ़ कर दी। इनमें अंतिम पुस्तक के इनकी होने मे शंका है। अष्टछाप के कवि नंददासजी ने दो गद्य ग्रंथो की रचना की, और इन्हीं महात्माओ के समसामयिक हरिरायजी भी थे, जिन्होने गद्य में तीन पुस्तके लिखी ।

सं० १६८० में जटमल कवीश्वर ने गोरा-बादल की कथा नामक पुस्तक पद्य में लिखी जिसके अनुवाद में खड़ी बोली को अधिक मेल है। पंडित वैकुंठमणि शुक्ल ने दो गद्य ग्रंथों का ब्रजभाषा में प्रणयन किया। अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में दामोदरदास जी ने मार्कण्डेय पुराण को राजपूतानी भाषा में अनुवाद किया । सुरति मिश्र ने भी इसी समय वैतालपचीसी लिखी। भगवानदास ने गता पर भाषामृत टीका की, अमरसिह ने सतसई पर अमरचंद्रिका नामक और अप्रनारायणदास और वैष्णवदास ने भक्तमाल पर भक्तिरसबोधिनी टीकाएँ लिखीं। उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में रसराज पर बख्तेश को दीका हुई।

विक्रमी उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में हिदी-गद्य-साहित्य का आरंभ हुआ है, ऐसा कहना पूर्वोक्त गद्य ग्रंथो के विवरण से भ्रममूलक सिद्ध हो गया। यदि यह कहा जाय कि पूर्वोक्त पुस्तको की भापा खड़ी बोली नहीं थी तो इसका उत्तर यह है कि गोराबादल की कथा की भाषा खड़ी बोली ही कही जायगी। पर उस पुस्तक की रचना हुए लगभग तीन शताब्दियों' व्यतीत हो चुकी थीं, इसलिए खड़ी बोली के गद्य का उन्नीसवीं शताब्दी में जन्म कहा जाता है। अब यह विचारणीय है कि इनका जन्मदाता कौन है। अभी तक एक प्रकार से यह मत सर्वग्राह्य है कि खड़ी बोली के जन्मदाता लल्लुजी लाल हैं। परंतु अब यह भी कहना भ्रमोत्पादक और अयुक्त है।

मुंशी सदासुखलाल का कोई अंथ अब तक प्राप्त नहीं है, पर उनका एक लेख भाषासार नामक पुस्तक में संगृहीत है। उसके संग्रहकर्ताओं का कथन है कि वह प्रेमसागर की रचना के बीस पच्चीस वर्ष पहिले का लिखा हुआ है। सैयद इंशाअल्लाह दूसरे गद्य लेखक हैं जिनकी 'रानी केतकी की कहानी' नामक पुस्तक ठेठ हिंदी में प्रेमसागर के कुछ पहिले प्रणीत हुई थी। इन दोनों लेखको ने किसी की आज्ञा से लेखनी नहीं चलाई थी। वे अपनी इच्छा से खड़ी बोली की रचना कर रहे थे। दूसरे लेखक ने अपनी पुस्तक की भूमिका में यो लिखा है कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदुवी छुट और किसी बोली की पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप खिले, बाहर की बोली और आँवारी कुछ उसके बीच में न हो इस लेखक ने अपना जो आदर्श निश्चित करके लेखनी चलाना अरंभ किया था, उसे अंत तक निबाहा।

पं० लल्लूजीलाल और पं० सदल मिश्च में एक ही समय एक ही मनुष्य की श्रद्धा से भाषा लिखना आरंभ किया। लल्लू जी की भाषा में ब्रज भाषा का बहुत मेल है और वे कृत्रिता का भी पुट अराबर देते चले गए हैं। सद्गल मिश्र की भाषा अधिक पुरमार्जित और इन दोष से मुक्त है। अब इन समसामयिक ग्रंथकारों में किसी एक को जन्मदाता के पद पर प्रतिष्ठित करना अन्याय मात्र होगा। इससे अब इस पद को ही हटा देना नीति युक्त है। विचार करने पर सैयदं ईशाअल्लाह खाँ को प्रोतः तारा अर्थात् शुक्र (असुरों के गुरु), सदलं मिश्र को उषाकाल और लल्लूजी को सुप्रभात मान लेना पड़ेगा । मुं० सदासुखलाल की कोई प्रणीत पुस्तक प्राप्त होने पर उन्हें भी कोई स्थान देना आवश्यक होगा।

महात्मा गोरखनाथ‌

ये प्रसिद्ध मत प्रवर्तक हो गए है। ये मत्स्येंद्र नाथ या मुछंदर नाथ के शिष्य कहलाते हैं और इनके मतावलंबी अभी तक पाए जाते हैं। इनका समय खोज की रिपोर्ट में वि० सं० १४०७ दिया है। इनके बनाए हुए ग्रंथो की संख्या लगभग बीस है, पर इनमे कौन कौन इनकी रचना है और कौन इनके भक्तों की, सो ठीक नहीं कहा जा सकता। इनका समय भी अभी तक निश्चित नहीं है। इनका मंदिर गोरखपुर में है जहाँ ये पूजे जाते हैं। इनका एक ग्रंथ सिष्ट प्रमाण गद्य मे है जिसके कारण ये गद्य के प्रथम लेखक कहे जा सकते है। परन्तु शिष्य जन भी बहुधा अपनी रचनाओ को गुरु के नाम पर प्रसिद्ध करते हैं, इससे यह पद उन्हे देते शंका होती है। उदा०——

पराधीन उपरांति बंधन नाही, सुत्राधीन उपरांति मुकति नाही' 'चाहि उपरांति पाप नाही, अजाहि उपरांति पुनि नाही । सुसबद उपरांति पोस नाही। नारायण उपरांति ईसर नाही।'

गोस्वामी श्रीविठ्ठलनाथजी‌

ये महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी के छोटे पुत्र थे। इनका जन्म पौष शुक्ल ९ सं० १५७२ वि० को चुनार मे हुआ था। यह और इनके पिता कृष्णभक्ति-प्रचार के प्रधान उन्नायकों में थे और हिदी के ही द्वारा इन लोगों ने अपनी सदुपदेशरूपी अमृतमयी धारा को प्रवाहित किया था। ये लोग स्वयं कविता नहीं करते थे पर इनके शिष्यों में सूरदास, नंददास आदि ऐसे प्रसिद्ध कवि हो गए है। इन्होने अपने पिता के चार शिष्यो सूरदास, परमानंद- दास, कुंभनदास और कृष्णदास को और अपने चार शिष्यों गोविद स्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास को छॉट- कर अछाप मे रखा था। इनके सात पुत्र हुए जो सभी विद्वान् और भगवद्भक्त थे। इनके अनंतर सात गदियाँ स्थापित हुईं। गोविट्ठलनाथजी का माघ ०७ सं १६४२ वि० को स्वर्गवास हुआ। कैटेलोगस कैटालोगोरम के अनुसार इन्होने ४९ ग्रंथों की संस्कृत मे रचना की है। हिंदी में श्रृंगाररसमंडन नामक एक गद्य- ग्रंथ का प्रणयन किया है जो वास्तव में हिंदी साहित्य का प्रथम गद्यग्रंथ है । यह व्रज भाषा मे है। उदा०-

'प्रथम की सखी कहतु है। जो गोपीजन के चरण विषै- सेवक की दासी करि जो इनको प्रेमामृत में डूवि कै इनके मंद हास्य ने जीते है । अमृत समूह ताकरि निकुंज विषै श्रृंगार रस श्रेष्ठ रसना कीनो सो पूर्ण होत भई ।'

गोस्वामी श्रीगोकुलनाथजी‌

ये श्रीवल्लभाचार्यजी महाप्रभु के पौत्र और गोस्वामी विठ्ठल नाथजी के पुत्र थे। ये सात भाई थे जिनके नाम श्रीगिरधरजी, श्रीगोविंदजी, श्रीबालकृष्णजी, श्रीगोकुलनाथजी, श्रीरघुनाथजी, श्रीयदुनाथजी, और श्रीघनश्यामजी थे। इन्होने 'चौरासी बैष्णवों की वार्ता, २५२ बैष्णवों की वार्ता' और 'वनयात्रा' नामक तीन पुस्तके लिखी हैं । प्रथम दोनों पुस्तको से तत्कालीन कई महात्माओ और कवियो के समय निश्चित करने में सहायता मिली है। इनमें द्वितीय पुस्तक जॉच करने पर इनकी रचना नहीं ज्ञात होती। वनयात्रा को मिश्रबंधुविनोद में महाप्रभु की रचना लिखा है, परंतु वह गोस्वामी विट्ठलनाथजी की प्रथम यात्रा और मौखिक कृति होने पर भी श्रीगोकुलनाथजी द्वारा पुस्तक रूप में परिणत हुई है। इसमे ब्रज की चौरासी कोस की परिक्रमा का वर्णन है। गोस्वा- मीजी ने साधारण ब्रज भाषा में भक्तो के चरित्र और तीर्थो वर्णन किए हैं। उदा०-(वनयात्रा से)

सं० १६०० भाद्रपद वदी १२ को सैन आरती उतारि पाछे श्रीगुसाईंजी मथुरा पधारे ब्रज की यात्रा करिबे को सो तहाँ प्रथम श्रीमथुराजी में श्रीकृष्णाजी को प्रागट्य भयो है तहाँ कारागृह की ठौर है, पोतरा कुंड के मंदिर के पिछवारे होय के तहाँ श्रीमथुराजी मे विश्रातघाट है तहाँ श्रीआचार्यजी महाप्रभु की बैठक है तहाँ कंस को मारि कै श्रीकृष्ण ने विश्राम कियो है तहाँ श्रीठाकुरजी स्नान करिकै श्रम निवारण कियो है तहाँ सब मथुरा के ब्रजभक्तन ने श्रीठाकुरजी की गिनती कीनी है ताते विश्रांतघाट मुख्य है ।'

नंददासजी‌

ये अष्टछाप के कवि थे और गोस्वामी तुलसीदासजी के गुरु- भाई थे। ये स्वामी विट्ठलनाथजी के शिष्य तथा कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। २५२ वैष्णवो की वार्ता में इनका हाल लिखा है। इनकी कविता प्रभावोत्पादक और मधुर है। इनके बनाए हुए निम्नलिखित ग्रंथो का पता लगा है--सिद्धांत पंचाध्यायी, रासपंचाध्यायी, रुक्मिणी मंगल, अनेकार्थमंजरी, रूपमंजरी, रसमंजरी, विरहमंजरी, नाम- मंजरी, नासकेतु पुराण गद्य, श्यामसगाई, सुदामा चरित्र, भ्रमर- गीत और विज्ञानार्थप्रकाशिका नामक ग्रंथ की टीका। इनकी रचना में दो गद्यग्रंथ है, पर अप्राप्य है। इससे उदाहरण नहीं दिया।

गंग भाट‌

सं० १६२७ वि० में इन्होंने 'चंद छंद बरनन की महिमा' नाम की एक पुस्तक खड़ी बोली के गद्य में लिखी । इसमें १६ पृष्ठ हैं । दो वर्ष अनंतर विष्णुदास ने प्रतिलिपि की थी। उदा०——

'इतना सुनके पातशाहाकी श्रीअकबरशाहाजी आध सेर सोना नरहरदास चारण को दिया इनके डेढ़ सेर सोना हो गया । रास बंचना पूरन भया श्रमकास बरकास हुआ जीसका संवत १६२७ का मेती मधुमास सुदी १३ गुरुवार के दिन पूरन भये ।'

हरिराय जी‌

गो० विट्ठलनाथजी तथा गोकुलनाथजी के समकालीन ज्ञात होते है। इनकी निम्रलिखित पुस्तको का पता लगा है-श्रीआ- चार्यजी महाप्रभून को द्वादस निजवार्ता, श्रीआचार्यजी महाप्रभून के सेवक चौरासी वैष्णवो की वार्ता, श्रीआचार्यजी महप्रभून की निजवाता वा घरू वार्ता, ढोलामारू की वार्ता, भांगवती के लक्षण, द्विदलात्मक स्वरूपविचार, गार्थ भाषा, गोसाईंजी के स्वरूप के चितन को भाव, कृष्णावतार स्वरूप निर्णय, सातो स्वरूप को भावना और वल्लभाचार्यजी के स्वरूप को चितन भाव।
उदा०-

'और जो गुसाईजी कही जो कृष्णदास ने तीन बस्तु अच्छी कीनी। जो एक तो श्रीनाथजी को अधिकार कियों सो ऐसो कियौ जो कोई दूसरो कोई न करैगो। और दूसरे कीर्तन किए सो अति अद्भुत किए जो कोई न करैगो। सो ताते वे कृष्ण श्रीआचार्य जी महाप्रभून के ऐसे कृपापात्र भगवदीय हते।'

अज्ञात

महापभु वल्लभाचार्य जो से कुंमनदास जी को संबोधित कर पुष्टि मार्ग के सिद्धांत अथात् युगल मूर्ति की सेवा-विधि कहलाई गई है। इसका रचना-काल अनुमानतः अष्टछाप ही का हो सकता है । हस्तलिखित प्रति मैं रचना तथा विधि दोनो का समय नहीं दिया है।

उदा०--

तब सब वैष्णवन की आज्ञा ले के कुंभनदास श्रीमहाप्रभुजी सों पूछन लागे 'हो महाप्रमुजी हमको धर्म को स्वरूप-सिद्धांत कहो जाते श्रीठाकुर जी की सेवा निर्विघ्नता सो सेविये । आचार क्रिया कहो, देसकाल कहो, लौकिक व्योहार कहो।

प्रेमदास

यह श्रीहित-हरिवंशजी के शिष्य हरिराम जी व्यास के शिष्य थे। इन्होने 'हित चौरासी की गद्य मे विस्तृत टीका लिखी है। इनका समय सत्रहवीं शताब्दी विक्रमीय का मध्य है। यह कवि भी थे।
उदा॰—

श्रीवृंदावन विपें शरद रितु अरु वसंत रितु विमिश्रित सदा रहे हैं। श्रीवृंदावन सदा फुल्यौ रहै है सो तो वसंत को हेते हैं। अरु सदा निर्मल रहते हैं सो सरद को हेत है। औरहू जो रितु हें सो अपने समय पर सच ही आवे हैं। एक समै श्री प्रीतम जी रात्रि को हिरनि की निकुंज विषे विराजमान हे तहाँ वसंत मिश्रित सरद रितु हे।

अज्ञात

भुबनदीपिका नामक ग्रंथ के कर्ता का नाम, समय आदि का पता नही चलना। प्राप्त प्रति सं॰ १६७१ वि॰ की लिखी हुई है, इस कारण इसकी रचना इस संवत् के पूर्व की है। यह ज्योतिष विषयक ग्रंथ है जिसमें संस्कृत मूल और भाषा टीका सम्मिलित है।
उदा॰―

'जउ अस्त्री पुत्र तणी प्रछा करई। आठमइ नवमइ स्थानि एकलो शुक्र होई तउ स्वभाव रमतो कहिवउ। जउ बिजर शुभ ग्रह, होई उ संभोग सुखई कहिबउ।'

मनोहरदास निरंजनी

इन्होने ज्ञानपूर्ण वचनिका, सप्तप्रश्न निरंजन, ज्ञानमंजरी, षट्प्रश्नी वेदांत परिभाषा और षटप्रदर्शनीनिर्णय नामक ग्रंथ लिखे हैं। सं॰ १७०७ के आसपास ये पुस्तकें लिखी गई हैं।
उद॰―

'प्रंय की आदि इष्ट देवता हैं ताको स्वरूप दिखावत है अरु ता ग्रंथ तीनि विघन तो सिधि करिबै को हिरदै मॉग ताकी स्वरूप तवन कारकै नमस्कार करतु है।'

महाराज जसवंतसिंह

मारवाड़-नरेश महाराज गजसिंह के द्वितीय पुत्र थे। इनका जन्म सं॰ १६८२ में और मृत्यु संवत् १७३८ वि॰ में हुई थी। यह सं॰ १६९५ में गद्दी पर बैठे, पर मुग़ल सम्राट शाहजहाँ और औरंगजेब के लिए जन्म भर इन्हें युद्ध करते ही बीता। ये स्वदेश में छुट्टी लेकर कुछ ही दिन रह सके थे। इतना कम समय मिलने पर भी इन्होंने कई पुस्तकें रचीं और अपने आश्रय में कितनी ही पुस्तकें लिखवाईं। यह अपने ग्रंथ भाषाभूषण के कारण आजतक भाषालंकारों के आचार्य माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त अपरोक्षसिद्धांत अनुभवकाश, आनंदविलास, सिद्धांतबोध, सिद्धांतसार और प्रबोध चंद्रोदयनाटक नामक पुस्तके लिखी है। अंतिम पुस्तक महाराज जसवंतसिह की गद्य रचना है।
उदो॰―

'यह कहिके चले तितनै सूत्रधार आइ आसीबद देकै बोल्यो।'

जगज्ञी चारण

इन्होंने रनमहेशदासोत वचत्तिका नामक ग्रंथ में रतलाम के राजा रत्नसिंह महेशदासोत की उस वीरता का परिचय दिया है जो उन्होंने धर्मतपुर के युद्ध में प्रदर्शित की थी। यह युद्ध महाराज जसवंतसिह और औरंगजेब के बीच सं॰ १७१५ वि॰ में हुआ था, जिस समय यही पुस्तक बनी थी।
उदा॰―

'दाली रावी का। भुजेण रासा की। चार जुग रहसी। कब बातं कहंसी।'

दामोदरदास

ये दादू के शिष्य जगजीवनदास के चेले थे। इन्होने मार्कण्डेय पुराण का गद्यानुवाद किया है। इनका समय सं॰ १७१५ के लगभग माना जाता है। भाषा राजपूतानी है।
उदा॰―

'अथ वंदन गुरुदेव कूं नमस्कार, गोबिदजी कूं नमसकार, सरब परकार कै सिध, साध, रिष, मुनि जन सरब ही कूं नमसकार। अहो तुम सब साध ऐसी बुधि देहु जो बुधि करिया ग्रंथ की बारतिक भाषा अरथ रचना करिए। सरब संतान की कृपा ते समसत कारज सिधि होइ जी।'

अज्ञात

योगवासिष्ठ का हिंदी अनुवादें है। लिखने की समय सं॰ १७२० है। ग्रंथकर्ता का कुछ पता नहीं।
उदाहरण॰―

'इस विषे बड़ीयांं कथा है अरु नानाप्रकार कि या जुगतो है। तिन कथा और जुगतां करिकै वशिष्ठजी रामजी को जगाया है। सो मै तुझे सुनाया है। अपने उपदेश कर तिसको जीवनमुक्त किया।'

बैकुठमणि शुक्ल

ये बुदेलखंड के रहनेवाले थे और ओड़छानरेश महाराज जसवंतसिह (१६७५-८४) के आश्रित थे। इन्होंने दो पुस्तकें गद्य में लिखी हैं जिनके नाम वैशाख माहात्म्य और अगहन माहात्म्य है। ये दोनो ब्रज भाषा में लिखी गई हैं, पर खड़ी बोली का अधिक मिश्रए
उदा॰―

'सब देवतन की कृपा तै अरु प्रसाद तै वैकुंठमनि सुकुल श्रीमहारानी श्रीरानी चंद्रावती के धरम पढ़िबे के अरथ यह जयरूप ग्रंथ वैसाषमाहतम भाषा करत भए। एक समय नारदजू ब्रह्मा की सभा तै उठिकै सुमेर पर्वत को गए। पुनि गंगाजी को प्रवाह देखि पृथी विषै अए। तहाँ सब तीरथन को दरसन करत भए, तब श्रीराजा अंबरीष के यहाँ आए। जब राजा अंबरीष नारद की नजीक आए की खबर सुनी तबही उताइल कै सभा है उठि आगे होइ लये।'

कुलपति मिश्र

यह आगरा निवासी माथुर परशुराम के पुत्र थे। इन्होने सं॰ १७२७ मे रसरहस्य ग्रंथ लिखा था, जो मम्मट के काव्य प्रकाश के आधार पर है। भरत मुनि और साहित्यदर्पण आदि का भी उल्लेख है। इसमें गद्य-पद्य दोनो है। इसके सिवा मुक्ति तरंगिणी, संग्रामसार, नाट्यशील, तथा द्रोणपर्व इनकी रचनाएँ मिली हैं। रस रहस्य आठ वृत्तांतो में विभक्त है जिनमें से अंतिम अर्थालंकार पर सबसे बड़ा है। गद्य का प्रयोग समझाने के लिए सर्वत्र किया गया है।
उदा―

अरु रसध्वनी में भावही व्यंगि होत है तातें रसध्वनि क्यो न होइ, द्वै भेद काहे को गहै। तहां सावधान करत है। प्रथम तो
भरत की आज्ञा समान अरु जहाँ कवि की रति साक्षात देवतन बिषे राजा बिषे व्यिग्य होई। विभावादि निरपेक्ष सो भावधुनि कहियै ताते प्रधानता करिके कवि ही की उक्ति ते भाव व्यंगि होतु है, कोउ बीच अंतराहि नाहीं और कवि की उक्ति हैं कवि निबंध बकता की प्रतीति होइ। फिरि विचार करत उनके विभावादिकनु की प्रतीति होइ ताते भाव बहु प्रकारन ते पाइयतु है।

माथुर कृष्णदेव

इनका वृत्तांत कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका। इन्होने श्रीमद्भागवत की ब्रज भाषा गद्य टीका लिखी है, जिसकी सं॰ १७५० वि॰ की लिखी हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई है। अवश्य ही यह रचना इस काल के पहले की होगी।
उदा॰―

दुष जु हे ते पाप कर्म को फल हे अरु सुष जु हे ते पुन्य कर्म को फल हे, पाप अरु पुन्य रूपी दोऊ भाँति के कर्मन की जब निवृत्ति होति हे तब मुक्ति होति है। सो ब्रजबघून के याही देह बिषे भई हे अब यह कहत हे। अति दुसह जो श्रीकृष्ण को बिरह ताकरि भयो जो अधिक संताप ता संताप करि दूर भए हे पाप कर्म जिनके अरु ध्यान करि मन विषे प्रगट भए जु श्रीकृष्ण हे तिन सो जु मिलापु हैं तो मिलिबे के सुष करि दूर भए हे पुन्य कर्म जिनके ऐसी ब्रज सुंदरी ताही परमात्मा को ध्यान करते।

सुरति मिश्र

ये आगरे के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनके बनाए निम्नलिखित ग्रंथ हैं—अलंकारमाला, अमरचंद्रिका, कविप्रिया 
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की टीका, नखशिप, रसिकप्रिया की टीका, रससरस, रसरत्न और बैतालपंचविशति का ब्रज भापा में गद्यानुवाद। इनका रचनाकाल सं० १७६० से १८०० तक है।

उदा०―

‘कमलनयन कमल से हैं नैन जिनके, कमलद वरन कमलद कहिए मेघ को वरण है, स्ययाम स्वरूप है, कमलनाभि श्रीकृष्ण को नाम ही है कमल जिनकी नाभि ते उपज्यौ है, कमलाय कमला लक्ष्मी ताके पति है तिनके चरण कमल समेत गुन को जाये क्यों मेरे मन में रहो।’

महाराज अजीतसिंह

जोधपुर नरेश महाराज जसवंतसिह के पुत्र थे। इनका जन्म सं० १७३७ वि० मे हुआ था और सं० १७८१ वि० में यह पुत्रों द्वारा मारे गए। इन्होने दुर्गापाठ भाषा, गुणसार, राजारूप का ख्याल, निर्बाणी दोहा, महाराज श्रीअजीतसिहजीरा कह्या दोहा, (महाराज श्रीअजीतसिहजी कृत दोहा) श्रीठाकुररॉरा ओर भवानी सहसनाम लिखा है। गुणसार गद्य पद्य-मय है जिसमें राजा सुमति और रानी सत्यरूपा की कथा है।

उदा०―

“पाछो कहिये पिता जो राज रा आसिर्वचनां सुम्हें आ पदवी पाया जो विमांंन बेठा बैकुंठ जावा छा। सो इस भांति परसपर वार्ता कर राजी होयने। अे आ आह घाहालिया सो ज्युँँ आगे लोक बताया छे त्युं त्युंं इंद्रलोक शिवलोक ब्रह्मलोक में होयने बैकुंठ लोक गया।

देवीचंद

इन्होंने हितोपदेश का ब्रज भाषा में उल्था किया। वि॰ सं॰ १७९७ की लिखी प्रति प्राप्त है।
उदा॰—

‘आवरदा, करम, द्रव्य, विद्या, मरण ए पांचो वस्तु बिधाता गर्भ ही माहि देही कूं सरजे है। जाते भावि जू लिख्यो सो अवश्य होइ जैसे नीलकंठ महादेवजी भावि कै वस्य होय साक्षात् नगन बन में रहतु है।

अज्ञात

कृष्णजी की लीला नामक पुस्तक की हस्तलिखित प्रति सं॰ १७९७ वि॰ की प्राप्त हुई है जिसके ग्रंथकर्ता का कुछ पता नहीं हैं। यह ब्रज भाषा में गद्य रचना है।

‘श्रीराधाजी अपनी सपियन मै आई अर अपनी अपनी मटकियां सिर पर धरि अर सब सषियन सहित घर कूं चली। तब पैंडा बीच मुषरा मिली। तब भुषरा सब सहेली समेत श्रीराधाजी के बॉह गहिके पर कूं ले चली। इहाँ आनि अब नीको भोजन करायौ।’

भगवानदास

यह श्रीस्वामी कुबाजी के पौत्र और शिष्य स्वामी दामोदरदास के शिष्य भयंकराचार्य के शिष्य थे। इनका जन्म लगभग सं॰ १७२५ वि॰ के हुआ था। इन्होने सं॰ १७५६ वि॰ में श्रीमद्भगवद्गीता पर भाषामृत नामक गद्य टीका लिखी है जो रामानुजाचार्य के भाष्यानुसार है।
उदा॰―

'श्रीराजाजी, यहाँ सर्वेश्वर श्रीकृष्ण हैं अरु धनुषधारी अर्जुन हैं तिहां ही निश्चय जय हो जायगी वहाँ ही अनंत विभूति होयगी। ए मेरी मति करिकै में निश्चय करत हूँ। ऐसे प्रकार संजय राजा धृतराष्ट्र कूं कह्यो।'

अज्ञात

शाहजहां के पुत्र सुल्तान दाराशिकोह ने सं॰ १७१२ वि॰ में उपनिषदो को फारसी में अनुवाद कराया था, जिसका सं॰ १७७६ में हिंदुवी में अनुवाद हुआ। दोनों अनुवादकों को नाम ज्ञात नहीं हुअ।
उदा॰―

'चतुर्थ अवस्था आत्मा की क्यों जु वहि हूँ अद्वती है, ब्रह्म को जु निकट अरु साछी है ज्ञातव्य है वाको चाह्य प्रापत भया। यह उपनिषद नृसिह तापनि जु सिद्धांत की अवध है अरु सर्व जुग तो ज्ञान अरु जज्ञासी की आया में खैंचत है अरु उपनिषदो का रहस्य है याम।'

रामहरि

सं॰१५९० के लगभग रूप गोस्वामी ने विदग्धमाधव तथा फलित माधव नाम के दो नाटक लिखे थे। इन्हीं में से प्रथम का आख्यति ब्रज भाषा गद्य में सं॰ १८२४ में लिखा गया था। लेखक जयपुर निवासी ज्ञात होते हैं।
उदा॰―

श्रीबृंदावन नित्यविहार जानि के उजीन नगरी को बास छाड़ि करि संदीपन रिषीस्वर की माता ताको नाम पुर्णमासी कहावै तिर इहाँ आइ बृंदावन बास कियो अरु पोतो एक ले आई। ता पोतो को नाम मधुमंगल कहावै। सो मधुमंगल ग्वालन में गाई चरावै, श्रीकृष्ण को बार बार हँसावै, विनोद करै तातें अति प्रिय लागै। अरु नंद जसोदा जो मधु मंगल सो अति मोह करै। अरु नांदीमुखी नाम एक ब्राह्मणी सो पूर्णमासी जू की दहल करै। ते श्रीबृंदावन विषें रहें।

स्वामी ललितकिशोरी और ललितमोहिनी

ये दोनों गुरुशिष्य थे और निंबार्क संप्रदाय के अंतर्गत टट्टिन वाली शाखा के वैष्णव थे। इन दोनो महाशयों ने श्रीस्वामी महाराजजू की बचनिका नामक एक पुस्तक ४७ मुष्ठो में बनाई है। ये सं॰ १८०० के लगभग हुए थे। यह गद्य पुस्तक ब्रजभाषा में है।
उदा॰—

'वस्तु को दृष्टांत―मलयगिरि को समस्त बन बाकी पवन सों चंदन ह्वै जाय। वाके कई इच्छा नाही। बाँस और अरंड सुगंध न होय। सत्संग कुपात्र को असर न करै।'

अज्ञात

यह रचना मुगल बादशाह का सक्षिप्त इतिहास है, जो ब्रज भाषा गद्य में सं॰ १८२० के लगभग लिखा गया है। यह चालीस पृष्ठो में है।
उद॰―

राजा मानसिंह उड़ीसा सूबा में पातस्याह को सिकौ षुतबो चलायो। वहाँ के पठाणन कि पेसकस हजूरी ल्याये। कंधार को पातस्याह ईरान की पातस्याह की फौज सुँ भाजि हुजूरि आयो, पंच हजारी भयो, मुलतान के सूबा जागीर में पायो। पातस्याही फौज जाय कंधार लीनी।

अमरसिंह कायस्थ

छत्रपुर के राजनगर के रहनेवाले थे और उसे राज्य के अधिष्ठाता कुँवर सोनूजू के दीवान थे। इनका जन्म सं॰ १७६३ में और मृत्यु सं॰ १८४० में हुई थी। राधाकृष्ण के भक्त थे। सुदामाचरित्र, रागभाला और अमरचंद्रिका नामक तीन पुस्तकें बनाईं। अंतिम पुस्तक बिहारी की सतसई की गद्य टीका है।
उदा॰―

'प्रथम मंगलाचरन—यह कवि की विनत जान प्रगटत अपनी अधमता अधिकाई धुनि आंन जितौ अधम तितनी बड़ी भव बाधा यह अर्थ तिहि हरिबे को चाहिये। कोऊ बड़ी समर्थ नर बाधा कै सुई हरत सुर बाधा ब्रह्मादि ब्रह्मादिक की बाध कौ हरत जु स्याम अगाध लखि राधा तन स्याम की बाधा रहत ना कोई याते मो बाधा हो।'

अग्रनारायणदास और वैष्णवदास

इन दोनों महाशयो ने नाभादास और प्रियादास के भक्तमाल पर टीका लिखी है। इस टीका की एक प्रति सं॰ १८२९ वि॰ की और दूसरी सं॰ १८४४ वि॰ की लिखी हुई है। प्रथम प्रति पर भक्तमालप्रसंग का नाम लिखा है और दूसरी पर भक्तिरसबोधिनी टीका।
उदा॰―

'तब श्रीकृष्ण अधोर बंसी बजाई। ब्रज गोपिकानि सुनि राधिका, ललिता, विशाषादि गोपी आई। रास मंडल रच्यो, राग, रंग, नृत्य, गान, लाभ, आलिंगन, संभासन भया। उदाहि सर में जलक्रीडा स्नान गोपी कुच कुंकुम केशर छुट्यो सो गोपीचंदन भयौ, गोपी तलाई भई वृजप्राप्ति।'

बख़्तेश

राजा रत्नेश के भाई शत्रुजित के आश्रय में वि॰ सं॰ १८२८ में रसराज पर दीको लिखी।
उदा॰―

'नाइकी नाइक जो है ताके आलंबित कहैं आधार श्रृंगार रस होत है। कौन प्रकार कै आधार कहैं देषकै तातै कवि कहत है कै नाइका नाइक कौ बरनन करत हौ अपनी बुद्धि के अनुसार हैं ग्रंथ को नाम रसराज है सो रस नाइका नाइक के अधीन होत है।'

जटमल

सं॰ १६८० वि॰ में जटमल कवीश्वर ने महाराणा रत्नसेन, पद्मावती तथा गोरा और बादल के वृत्तांत को पद्य में लिखा है जिसका गद्यानुवाद सं॰ १८२० में हुआ। इसमे खड़ी बोली का मिश्रण अधिक है। इस ग्रंथ का नाम गोरा बादल की कथा है। अनुवाद से नीचे उदाहरण दिया गया है।
उदा॰― 'गोरे की आवरत आवे सो वचन सुनकर अपने पाबंद की पगड़ी हाथ में लेकर वाहा सती हुई सो सिवपुर में जाके वाहा दोनो मेले हुए। गोरा बादल की कथा गुरू के बस सरस्वती के महरबानगी से पूरन भई तिस वास्ते गुरू कूंव सरस्वती कूं नमस्कार करता हूँ। ये कथा सोल से आसी के साल में फागुन सुदी पुनम के रोज बनाई। ये कथा में दोर सेह बीरा रस बसी नगार रस हे सो कया। मोरछड़ो नाव गांव का रहने वाला कवेसर जगहा। उस गांव के लोग भोहोत सुकी है, घर घर में आनंद होता है, कोई घर में फक्रीर दीखता नहीं।'

शेरसिंह

ये मारवाड़नरेश विजयसिह के पुत्र थे। मारवाड़ी भाषा में राजकृष्णजस नामक पुस्तक गद्य-पद्य-मय लिखी। सं॰ १८५० में महाराज भीमसिंह द्वारा मारे गए।
उदा―

'अरज करै छै सैरदासी यौ। अरज सुणौ श्रीजगन्नाथजी। मौ अपराधी री साथ करौ प्रभु काटौ जम री पासी जी।'

कैबात सरबरिया

सं॰ १८५४ वि॰ के लगभग अनंतराय साखला की वार्ता गद्य पद्य मे लिखी।
उदा॰―

'कौलापुर पाटण नगर तट अनंतराय साखल राजा राज करति को पुरसाण हीदवाण दोन्यु राहासीर, जीको कौलापुर पाटण की साये कहे कदर साब जीणी ने देषयो थका हु जो सरूर दाये नहीं अ व।'
सदासुखलाल

इनका जन्म सं॰ १८०३ और मृत्यु सं॰ १९०१ में हुई। यह कंपनी की अधीनता में चुनार में कुछ दिन तक अच्छे पद पर रहकर पैंसठ वर्ष की अवस्था में नौकरी छोड़कर प्रयाग चले आए। यहीं हरिभजन तथा साहित्य-सेवा में जीवन व्यतीत कर दिया। फारसी में 'नियाज़' उपनाम था। इन्होने श्रीमद्भागवत को गद्य में अनुवाद किया है और बहुत से स्फुट लेख लिखे हैं। मुंशीज फ़ारसी, उर्दू और हिंदी के अच्छे लेखक थे।
उदा॰―

'यद्यपि ऐसे विचार से हमें लोग नास्तिक कहैंगे, हमैं इस बात का डर नहीं, जो बात सत्य होय उसे कहा चाहिये, कोई बुरा माने कि भला माने। विद्या इस हेतु पड़ते हैं कि तात्पर्य इसका सतोवृत्ति है वह प्राप्त हो और उससे निज स्परूप में लय हूजिए। इस हेतु नहीं पढ़ते हैं कि चतुराई की बातें कहके लोगो को बहकाइये और फुसलाइये और असत्य छिपाइये।

सैयद इंशाअल्लाह खाँ

ये मीर माशाअल्लाह के पुत्र थे और इनका जन्म मुर्शिदाबाद में हुआ था। बंगाल मैं सिराजुद्दौला के मारे जाने पर यह दिल्ली चले आए और शाह आलम के दरबार में भर्ती हो गए। परंतु प्राप्ति के कम होने से और नवाब आसफुदौला के दान की धूम सुन कर यह लखनऊ गए। यहाँ यह कुछ दिनों में एक प्रसिद्ध कवि माने जाने लगे। सं॰ १८५४ में आसफुदौला की मृत्यु होने पर उनके भाई सआदतअली खाँ नवाब हुए जिनके ये मुँहलगे दरबारी थे। एक बार किसी हँसी की बात के कारण इन्हें सं॰ १८६६ वि॰ में घर बैठ रहना पड़ा और अंत समय तक कष्ट से कादकर सं॰ १८७३ में यह मर गए। फारसी और उर्दू में इन्होंने बहुत से काव्य लिखे हैं और रानी केतकी की कहानी नामक एक पुस्तक ठेठ हिंदी में लिखी है। यह अंतिम एकांतवास के पहिले ही लिखी गई है।
उदा॰―

‘किसी देस में किसी राजा के घर एक बेटा था उसे उसके मा बाप और सब घरके लोग कुँअर उदयभान कहके पुकारते थे। सचमुच उसके जोबन की जोत में सूरज-की एक सूते आ मिली थी। उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो किसीके लिखने वौर कहने में आ सके। पंद्रह बरस भर के सोलहवें में पाँव रखा था, कुछ योंही सी उसकी मसें भीगती चली आती थीं अकड़ मकड़ उसमें बहुत सी समा रही थी।’

लल्लूजी लाल

इनका जीवन वृत्तांत अलग इसी ग्रंथ में दिया गया है और उदाहरण के लिये समग्र प्रेमसागर साथ ही लगा है। इनके अन्य ग्रंथो के कुछ उदाहरण भी इनके जीवनचरित्र के साथ दिए गए हैं।

सदल मिश्र

ये पं॰ लक्ष्मण मिश्र के पौत्र और नंदमणि के पुत्र थे। आरे के रहनेवाले थे। इनका जन्म लगभग सं॰ १८३० में हुआ था और मृत्यु सं॰ १९०५ में हुई। इन्होंने कई पुस्तकों का संस्कृत से भाषा और भाषा से संस्कृत अनुवाद किया था, पर केवल चंद्रावती ही प्राप्त है। वि॰ सं॰ १८५५ में ये कलकत्ते गए थे और वहीं जौन गिलक्राइस्ट की आज्ञा से इन्होंने नासिकेतोपाख्यान का हिंदी अनुवाद किया और उसका चंद्रावती नाम रखा। यह सं॰ १८८८ के पहले देश लौट आए होंगे, क्योंकि उसी वर्ष इन्होंने ग्यारह सहस्र रुपए पर तीन ग्रामों का ठेका लिया था। उदा॰-

'धर्मराज के लोक में भाँति भाँति के लोग और बृक्षों से भरी चार सौ कोस लंबी चौड़ी चार द्वार की यमराज की पुरी है कि जिसमें सदा आप वे अनेक गण, गंधर्व ऋषि व योगियों के मध्य में धर्म का विचार किया करते हैं। तिस पुरी में जिस द्वार से प्राणी जाता है सो मैं तुमसे कहता हूँ।'