गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ३३४ ]

दो

सन्तकुमार की स्त्री पुष्पा बिल्कुल फूल-सी है, सुंदर, नाजुक, हलकी-फुलकी, ल' लेकिन एक नंबर की आत्माभिमानिनी है। एक - एक बात के लिए वह कई कई दिन से रह सकती है। और उसका रूठना भी सर्वथा नई डिजाइन का है। वह किसी से कुर नहींलड़ती नहींविगइतो नहीं, घर का कामकाज उसी तन्मयता से करती है बल्कि उनसे ज्यादा एकाग्रता से। बस जिससे नाराज होती है उसकी ओर ताकती नहीं। वह जो कुछ कहेगा। वह करेगी , वह जो कुछ पूछेगा, जवाब देगीवह जो कुछ मांगेगा, उठाकर दे देगी, मगर बिना उसकी ओर ताके हुए। इधर कई दिन से वह सन्तकुमार से नाराज हो गई है और अपनी फिरी हुई आंखों से उसके सारे आघातों का सामना कर रही है।

सन्तकुमार ने स्नेह के साथ कहा-आज शाम को चलना है न?

पुष्पा ने सिर नीचा करके कहा- जैसी तुम्हारी इच्छा। [ ३३५ ]

-चलोगी न?

-तुम कहते हो तो क्यों न चलूंगी?

-तुम्हारी क्या इच्छा है?

-मेरी कोई इच्छा नहीं है।

-आखिर किस बात पर नाराज हो?

-किसी बात पर नहीं।

-खैर, न बोलो, लेकिन यह समस्या यों चुप्पी साधने से हल में होगी।

पुष्पा के इस निरीह अस्त्र ने सन्तकुमार को बौखला डाला था। वह खूब झगड़ कर उस विवाद को शांत कर देना चाहता था। क्षमा मांगने पर तैयार था, वैसी बात अब फिर मुंह से न निकालेगा, लेकिन उसने जो कुछ कहा था वह उसे चिढ़ाने के लिए नहीं, एक यथार्थ बात को पुष्ट करने के लिए ही कहा था। उसने कहा था जो स्त्री पुरुष पर अवलंबित है, उसे पुरुष की हुकूमत माननी पड़ेगी। वह मानता था कि उस अवसर पर यह बात उसे मुंह से न निकालनी चाहिए थी। अगर कहना आवश्यक भी होता तो मुलायम शब्दों में कहना था, लेकिन जब एक औरत अपने अधिकारों के लिए पुरुष से लड़ती है, उसकी बराबरी का दावा करती है तो उसे कठोर बातें सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस वक्त भी वह इसीलिए आया था कि पुष्या को कायल करे और समझाए कि मुंह फेर लेने से ही किसी बात का निर्णय नही हो सकता। वह इस मैदान को शांत कर यहां एक झंडा गाड़ देना चाहता था जिसमें इस विषय पर कभी विवाद न हो सके। तब से कितनी ही नई नई युक्तियां उसके मन में आ गई थीं, मगर जब शत्रु किले के बाहर निकले ही नहीं तो उस पर हमला कैसे किया जाय।

एक उपाय है। शत्रु को बहला कर, उस पर अपने संधि-प्रेम का विश्वास जमाकर, किले से निकालना होगा।

उसने पुष्पा की ठुड्डी पकड़कर अपनी ओर फेरते हुए कहा-अगर यह बात तुम्हें इतनी लग रही है तो में उसे वापस लिए लेता हूं। उसने लिए तुमसे क्षमा मांगता हूं। तुमको ईश्वर ने वह शक्ति दी है कि तुम मुझ से दस-पांच दिन बिना बोले रह सकती हो, लेकिन मुझे तो उसने वह शक्ति नहीं दी। तुम रूठ जाती हो तो जैसे मेरी नाड़ियों में रक्त का प्रवाह बंद हो जाता है। अगर वह शक्ति तुम मुझे भी प्रदान कर सको तो मेरी और तुम्हारी बराबर लड़ाई होगी और मैं तुम्हें छेड़ने न आऊंगा। लेकिन अगर ऐसा नहीं कर सकतीं तो इस अस्त्र का मुझ पर वार न करो।

पुष्पा मुस्करा पड़ी। उसने अपने अस्त्र से पति को परास्त कर दिया था। जब वह दीन बनकर उससे क्षमा मांग रहा है तो उसका हृदय क्यों न पिघल जाय।

संधि-पत्र पर हस्ताक्षर स्वरूप पान का एक बीड़ा लगाकर सन्तकुमार को देती हुई बोली-अब से कभी वह बात मुंह से न निकालना। अगर मैं तुम्हारी आश्रिता हूं तो तुम भी मेरे आश्रित हो। में तुम्हारे घर में जितना काम करती हूं, इतना ही काम दूसरों के घर में करुं तो अपना निवाह कर सकती हूं या नहीं, बोलो?

सन्तकुमार ने कड़ा जवाब देने की इच्छा को रोककर कहा-बहुत अच्छी तरह।

-तब मैं जो कुछ कमाऊंगी वह मेरा होगा। यहां मैं चाहे प्राण भी दे दूं पर मेरा किसी चाज पर अधिकार नहीं। तुम जब चाहो मुझे घर से निकाल सकते हो। [ ३३६ ]

—कहती जाओ, मगर उसका जवाब सुनने के लिए तैयार रहो।

—तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं है, केवल हठ-धर्म है। तुम कहोगे यहां तुम्हारा जो सम्मान है वह वहां न रहेगा, वहां कोई तुम्हारी रक्षा करने वाला न होगा, कोई तुम्हारे दु:ख-दर्द में साथ देने वाला न होगा। इसी तरह की और भी कितनी ही दलीलें तुम दे सकते हो। मगर मैंने मिस बटलर को आजीवन क्वांरी रहकर, सम्मान के साथ जिंदगी काटते देखा है। उनका निजी जीवन कैसा था, यह मैं नहीं जानती। संभव है वह हिंदू गृहिणी के आदर्श के अनुकूल न रहा हो, मगर उनकी इज्जत सभी करते थे, और उन्हें अपनी रक्षा के लिए किसी पुरुष का आश्रय लेने की कभी जरूरत नहीं हुई।

सन्तकुमार मिस बटलर को जानता था। वह नगर की प्रसिद्ध लेडी डॉक्टर थी। पुष्पा के घर से उसका घराव-सा हो गया था। पुष्पा के पिता डॉक्टर थे और एक पेशे के व्यक्तियों में कुछ घनिष्ठता हो ही जाती है। पुष्पा ने जो समस्या उसके सामने रख दी थी उस पर मीठे और निरीह शब्दों में कुछ कहना उसके लिए कठिन हो रहा था। और चुप रहना उसकी पुरुषता के लिए उससे भी कठिन था।

दुविधा में पड़कर बोला—मगर सभी स्त्रियां मिस बटलर तो नहीं हो सकतीं?

पुष्पा ने आवेश के साथ कहा—क्यों? अगर वह डॉक्टरी पढ़कर अपना व्यवसाय कर सकती हैं तो मैं क्यों नहीं कर सकती?

—उनके समाज में और हमारे समाज में बड़ा अंतर है।

—अर्थात् उनके समाज के पुरुष शिष्ट हैं, शीलवान हैं, और हमारे समाज के पुरुष चरित्रहीन हैं, लंपट हैं, विशेषकर जो पढ़े—लिखे हैं।

—यह क्यों नहीं कहतीं कि उस समाज में नारियों में आत्मबल हैं, अपनी रक्षा करने की शक्ति है और पुरुषों को काबू में रखने की कला है।

—हम भी तो वही आत्मबल और शक्ति और कला प्राप्त करना चाहती हैं लेकिन तुम लोगों के मारे जब कुछ चलने पावे। मर्यादा और आदर्श और जाने किन-किन बहानों से तुम दबाने की और हमारे ऊपर अपनी हुकूमत जमाए रखने की कोशिश करते रहते हो।

सन्तकुमार ने देखा कि बहस फिर उसी मार्ग पर चल पड़ी है जो अंत में पुष्पा को असहाय धारण करने पर तैयार कर देता है, और इस समय वह उसे नाराज करने नहीं, उसे खुश करने आया था।

बोला—अच्छा साहब, सारा दोष पुरुषों का है, अब राजी हुई। पुरुष भी हुकूमत करते करते थक गया है, और अब कुछ दिन विश्राम करना चाहता है। तुम्हारे अधीन रहकर अगर वह इस संघर्ष से बच जाय तो वह अपना सिंहासन छोड़ने को तैयार है।

पुष्पा ने मुस्कराकर कहा—अच्छा, आज से घर में बैठो।

—बड़े शौक से बैठूँगा, मेरे लिए अच्छे-अच्छे कपड़े, अच्छी-अच्छी सवारियां ला दो। जैसे तुम कहोगी वैसा ही करूंगा। तुम्हारी मरजी के खिलाफ एक शब्द भी न बोलूंगा।

—फिर तो न कहोगे कि स्त्री पुरुष की मुहताज है, इसलिए उसे पुरुष की गुलामी करनी चाहिड़?

—कभी नहीं, मगर एक शर्त पर—

—कौन-सी शर्त? [ ३३७ ]

—तुम्हारे प्रेम पर मेरा ही अधिकार रहेगा।

—स्त्रियां तो पुरुषों से ऐसी शर्त कभी न मनवा सकीं?

—यह उनकी दुर्बलता थी। ईश्वर ने तो उन्हें पुरुषों पर शासन करने के लिए सभी अस्त्र दे दिये थे।

संधि हो जाने पर भी पुष्पा का मन आश्वस्त न हुआ। सन्तकुमार का स्वभाव वह जानती थी। स्त्री पर शासन करने का जो संस्कार है वह इतनी जल्द कैसे बदल सकता है। ऊपर की बातों में सन्तकुमार उसे अपने बराबर का स्थान देते थे। लेकिन इसमें एक प्रकार का एहसान छिपा होता था। महत्त्व की बातों में वह लगाम अपने हाथ में रखते थे। ऐसा आदमी यकायक अपना अधिकार त्यागने पर तैयार हो जाय, इसमें कोई अवश्य रहस्य है।

बोली—नारियों ने उन शस्त्रों से अपनी रक्षा नहीं की, पुरुषों ही की रक्षा करती रहीं। यहां तक कि उनमें अपनी रक्षा करने की सामर्थ्य ही नहीं रही।

सन्तकुमार ने मुग्ध भाव से कहा—यही भाव मेरे मन में कई बार आया है पुष्पा, और इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर स्त्री ने पुरुष की रक्षा न की होती तो आज दुनिया वीरान हो गई होती। उसका सारा जीवन तप और साधना का जीवन है।

तब उसने उससे अपने मंसूबे कह सुनाये। वह उन महात्माओं से अपनी गौरूसी जायदाद वापस लेना चाहता है, अगर पुष्पा अपने पिता से जिक्र कर और दस हजार रुपये भी दिला दे तो सन्तकुमार को दो लाख की जायदाद मिल सकती है। सिर्फ दस हजार। इतने रुपये के बगैर उसके हाथ से दो लाख की जायदाद निकली जाती है।

पुष्पा ने कहा—मगर वह जायदाद तो बिक चुकी है।

सन्तकुमार ने सिर हिलाय। बिक नहीं चुकी है, लुट चुकी है। जो जमीन लाख-दो लाख में भी सस्ती है, वह दस हजार में कूड़ा हो गई। कोई भी समझदार आदमी ऐसा गच्चा नहीं खा सकता और अगर खा जाय तो वह अपने होश हवास में नहीं है। दादा गृहस्थी में कुशल नहीं रहे। वह तो कल्पनाओं की दुनिया में रहते थे। बदमाशों ने उनको चक्मा दिया और जायदाद निकलवा दी। मेरा धर्म है कि मैं वह जायदाद वापस लूँ और तुम चाहो तो सब कुछ हो सकता हैं। डॉक्टर साहब के लिए दस हजार का इन्तजाम कर देना कोई ने बड़ी बात नहीं है।

पुष्पा एक मिनट तक विचार में डूबी रही। फिर संदेहभाव से बोली—मुझे तो आशा नहीं कि दादा के पास इतने रुपये फालतू हों।

—जरा कहो तो।

—कहूं कैसे—क्या मैं उनका हाल जानती नहीं? उनजी डॉक्टरी अच्छी चलती है, पर उनके खर्च भी तो हैं। बीरू के लिए हर महीने पांच सौ रूपये इंग्लैंड भेजने पड़ते हैं। तिलोत्तमा की पढ़ाई का खर्च भी कुछ कम नहीं। संचय करने का उनकी आदत नहीं है। मैं उन्हें संकट में नहीं डालना चाहती।

—मैं उधार मांगता हूं। खैरात नहीं।

—जहां इतना घनिष्ठ संबंध है वहां उधार के माने खैरात के सिवा और कुछ नहीं। तुम रुपये न दे सके तो वह तुम्हारा क्या बना लेंगे? अदालत जा नहीं सकते, दुनिया हँसेगी, पंचायत कर नहीं सकते, लोग ताने देंगे।

सन्तकुमार ने तीखेपन से कहा—तुमने यह कैसे समझ लिया कि मैं रूपये न दे सकूँगा? [ ३३८ ]

पुष्पा मुंह फेरकर बोली-तुम्हारी जीत होना निश्चित नहीं है। और जीत भी हो जाय और तुम्हारे हाथ में रुपये आ भी जायं तो यहां कितने जमींदार ऐसे हैं जो अपने कर्ज चुका सकते हों। रोज ही तो रियासतें कोर्ट ऑफ वार्ड में आया करती हैं। यह भी मान लें कि तुम किफायत से रहोगे और धन जमा कर लोगे, लेकिन आदमी का स्वभाव है कि वह जिस रुपये को हजम कर सकता है उसे हजम कर जाता है। धर्म और नीति को भूल जाना उसकी एक आम कमजोरी है।

सन्त ने पुष्पा को कड़ी आंखों से देखा। पुष्पा के कहने में जो सत्य था वह तीर की तरह निशाने पर जा बैठा। उसके मन में जो चोर छिपा बैठा था उसे पुष्पा ने पकड़कर सामने खड़ा कर दिया था। तिलमिलाकर बोला-आदमी को तुम इतना नीच समझती हो, तुम्हारी इस मनोवृत्ति पर मुझे अचरज भी है और दुख भी। इस गये-गुजरे जमाने में भी समाज पर धर्म और नीति का ही शासन है। जिस दिन संसार से धर्म और नीति का नाश हो जाएगा उसी दिन समाज का अंत हो जाएगा

उसने धर्म और नीति की व्यापकता पर एक लबा दार्शनिक व्याख्यान दे डाला। कभी किसी घर में कोई चोरी हो जाती है तो कितनी हलचल मच जाती है। क्यों? इसीलिए कि चोरी एक गैर-मामूली बात है। अगर समाज चोरों का होता तो किसी का मान होना उतनी ही हलचल पैदा करता। रोगों की आज बहुत बढ़ती सुनने में आती है, लकिन गौर से देखो तो सौ में एक आदमी से ज्यादा बीमार न होगा। अगर बीमारी आम बात होती तो तंदुरुस्तों की नुमाइश होती, आदि। पुष्पा विरक्त-सा सुनती रही। उसके पास जवाब तो थे, पर वह इस बहस को तूल नहीं देना चाहती थी। उसने तय कर लिया था कि वह अपने पिता से रुपये के लिए न कहेगी और किसी तर्क या प्रमाण का उस पर कोई असर न हो सकता था।

सन्तकुमार ने भाषण समाप्त करके जब उससे कोई जवाब न पाया तो एक क्षण के बाद बोला-क्या सोच रही हो? मैं तुमसे सच कहता हूं, मैं बहुत जल्द रुपये दे दूंगा।

पुष्पा ने निश्चल भाव से कहा-तुम्हें कहना हो जाकर खुद कहो, मैं तो नहीं लिख सकती।

सन्तकुमार ने होंठ चबाकर कहा-जरा सी बात तुम से नहीं लिखी जाती, उस पर दावा यह है कि घर पर मेरा भी अधिकार है।

पुष्पा ने जोश के साथ कहा-मेरा अधिकार तो उसी क्षण हो गया जब मेरी गांठ तुमसे बंधी।

सन्तकुमार ने गर्व के साथ कहा-ऐसा अधिकार जितनी आसानी से मिल जाता है, उतनी ही आसानी से छिन भी जाता है।

पुष्पा को जैसे किसी ने धक्का देकर उस विचारधारा में डाल दिया जिसमे पांव रखते उसे डर लगता था। उसने यहां आने के एक दो महीने के बाद ही सन्तकुमार का स्वभाव पहचान लिया था। उनके साथ निबाह करने के लिए उसे उनके इशारों की लौंडी बनकर रहना पड़ेगा। उसे अपने व्यक्तित्व को उनके अस्तित्व में मिला देना पड़ेगा। वह वही सोचेगी जो वह सोचेंगे, वही करेगी, जो वह करेंगे। अपनी आत्मा के विकास के लिए यहां कोई अवसर न था। उनके लिए लोक या परलोक में जो कुछ था वह सम्पत्ति थी। यहीं से उनके जीवन को प्रेरणा मिलती थी। सम्पत्ति के मुकाबले में स्त्री या पुत्र की भी उनकी निगाह में [ ३३९ ]
हकीकत न थी। चीनी का प्लेट टूट जाने पर एक पुष्पा के हाथ से उन्होंने उसके कान ऐंठ लिए थे। फर्श पर स्याही गिरा देने की सजा उन्होंने पंकजा से सारा फर्श धुलवाकर दी थी। पुष्पा उनके रखे रुपयों को कभी हाथ तक न लगाती थी। यह टीक है कि वह धन को महज जमा करने की चीज न समझते थे। धन भोग करने की वस्तु है, उनका यह सिद्धांत था। फजूलखर्चा या लापरवाही बर्दाश्त न करते थे। उन्हें अपने सिवा किसी पर विश्वास न था। पुष्पा ने कठोर आत्मसमर्पण के साथ इस जीवन के लिए अपने को तैयार कर लिया था। पर बार-बार यह याद दिलाया जाना कि यहां उसका कोई अधिकार नहीं है, यहां वह केवल एक लौंडी की तरह है उसे असह्य था। अभी उस दिन इसी तरह की एक बात सुनकर उसने कई दिन खाना-पीना छोड़ दिया था। और आज तक उसने किसी तरह मन को समझाकर शांत किया था कि यह दूसरा आघात हुआ। इसने उसके रहे-सहे धंधे का भी गला घोंट दिया। सन्तकुमार तो उसे यह चुनौती देकर चले गए। वह वहीं बैठी सोचने लगी अब उसको क्या करना चाहिए। इस दशा में तो वह अब नहीं रह सकती। वह जानती थी कि पिता के घर में भी उसके लिए शांति नहीं है। डाक्टर साहब भी सन्तकुमार का आदश युवक समझते थे और उन्हें इस बात का विश्वास दिलाना कठिन था कि सन्तकुमार की ओर से कोई बेजा हरकत हुई है। पुष्पा का विवाह करके उन्होंने जीवन की एक समस्या हल कर ली थी। उस पर फिर विचार करना उनके लिए असूझ था उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी अभिलाषा थी कि अब कहीं निश्चिंत होकर दुनिया की सैर करें। यह समय अब निकट आता जाता था। ज्योंही लड़का इंगलैंड से लोटा और छोटी लड़की की शादी हुई कि वह दुनिया के धन से मुक्त हो जायंगे। पुष्पा फिर उनके सिर पड़कर उनके जीवन के सबसे बड़े अरमान में बाधा न डालना चाहती थी। फिर उसके लिए दसरा कौन स्थान है? कोई नहीं। तो क्या इस घर में रहकर जीवन-पर्यत अपमान सहते रहना पड़ेगा?

साधुकुमार आकर बैठ गया। पष्पा ने चौंककर पूछा-तुम बम्बई कब जा रहे हो?

साधु ने हिचकिचाते हुए कहा-जाना तो था कल लेकिन मरी जाने की इच्छा नहीं होती। आने जाने में सैंकड़ों का खर्च है। घर में रुपये नहीं हैं, मैं किसी को सताना नहीं चाहता। बम्बई जाने की ऐसी जरूरत ही क्या है। जिस मुल्क में दस में नौ आदमी रोटियों को तरसते हों, वहां दस-बीस आदमिया का क्रिकिट के व्यसन में पड़े रहना मूर्खता है। मैं तो नहीं जाना चाहता।

पुष्पा ने उत्तेजित किया-तुम्हारे भाई साहब तो रुपये दे रहे हैं?

साधु ने मुस्कराकर कहा भाई साहब रुपये नहीं दे रहे हैं, मुझे दादा का गला दबाने को कह रहे हैं। मैं दादा को कष्ट नहीं देना चाहता। भाई साहब से कहना मत भाभी, तुम्हारे हाथ जोड़ता हूं।

पुष्पा उसकी इस नम्र सरलता पर हंस पड़ी। बाईस साल का गर्वीला युवक जिसने सत्याग्रह-संग्राम में पढ़ना छोड़ दिया, दो बार जेल हो आया, जेलर के कटु वचन सुनकर उसकी छाती पर सवार हो गया और इस उद्दंडता की सजा में तीन महीने काल-कोठरी में रहा, वह अपने भाई से इतना डरता है, मानो वह हौवा हों। बोलो मैं तो कह दूंगी।

--तुम नहीं कह सकतीं। इतनी निर्दय नहीं हो।

पुष्पा प्रसन्न होकर बोली कैसे जानते हो? [ ३४० ]-चेहरे से। -झूठे हो। तो फिर इतना और कई देता हूं कि आज भाई साहब ने तुम्हें भी कुछ कहा है। पुष्पा शेंपती हुई बोली-बिल्कुल गलतवह भला मुझे क्या कहते? अच्छा मेरे सिर की कसम ख़ा। कसम क्यों खाऊं? तुमने मुझे कभी कसम खाते देखा हैं?

-भैया कुछ कहा है जरूरनहीं तुम्हारा मुंह इतना उतरा हुआ क्यों रहता? भाई साहब से कहने की हिम्मत नहीं पड़ती वरन समझाता आप क्यों गड़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं। जो जायदाद बिक गई उसके लिए अब दादा को कोसना और अदालत करना मुझे तो कुछ नहीं जंचता। गरीब लोग भी तो दुनिया में हैं ही, या सब मालदार ही हैं। मैं तुमसे ईमान से कहता हूं भाभो. मैं जब कभी धनी होने की कल्पना करता हूं तो मुझे शंका होने लगती है कि न जाने से मन क्या हो जाय। इतने गरीबों में धनी होना मुझे तो स्वार्यान्विता-सी लगती है। मुझे तो इस दशा में भी अपने ऊपर लज्जा आती हैं, अब देखता हूं कि मेरे हो जैसे लोग ठोकरें खा रहे हैं। हम तो दोनों वक्त चुपड़ी हुई रोटियां और दूध और सेव-संतरे उड़ाते हैं। मगर स्नै में निन्यानवे आदमी तो ऐसे भी हैं जिन्हें इन पदार्थों के दर्शन भी नहीं होतेआखिर हममें क्या मुधव ज, पर लग गये हैं

पुष्पा इन विचारों की न होने पर भी मात्र की निष्कपट सच्चाई का आदर करतीं थी बोनी -तुम इतना पढ़ने का नहीं ये विचार तुम्हारे दिमाग में कहां से आ जाते हैं?

साधु न उठकर कहा शायद उस जन्म में भिटारी भा ।

पुष्पा ने उसका हाथ पकड़कर बैठाते हुए कहा- मेरी देवराना बेचा गहन -पई को नए ।

में अपना ध्यान हैं। न करूगा। मन में तां मना रद हांग का स पदरा । नहीं भाभी, तुम झूठ नहीं कहता: शार्द का तो मुझे ख्याल भी नहीं आताजिंदगी इा के लिए है कि किसी के काम आयेजहां सेवकों की इतनी जरूरत है वहां कुछ लोगों कां तो क्वाते रहना ही चाहिए। कभी शादी सगा भी तो ऐसी लड़की से जो मेरे स्गा गोवर्क की जिंदगी बसर करने पर राजी हो और जो मेरे जीवन को सच्ची सहगाभिनी बने। पुप इस प्रतिज्ञा को भी हंसी में उड़ दिया- पहले सभी युवक इसी तरह की कन्ना किया करते हैं। लेकिन शादी में देर हुई तो उपद्रव मचाना शुरू कर देते हैं। साधुकुमार ने जोश के साथ कहा - मैं उन युवकों में नहीं हूं भाभी अगर कभी भन मंचन हुआ तो जहर खा लगा। पुष्पा ने फिर कटाक्ष किया - तुम्हारे मन में तां वीवी ( पंकजा ) बसी हुई है। तुम से कोई बान को तो तुम बनाने लगती हो, इसी से मैं तुम्हारे पास नहीं आए अच्छा सच कहना पकजा जैसी बीवी था तो विवाह करो या नहीं? माथुकुमार उठकर चला गया। पुष्पा रोकती रही पर वह हाथ छुड़ाकर भाग गया इस आदर्शवादी, सरन प्रकृति मुशीलमम्य युवक से मिलकर पुष्पा का मुरझाया हुआ मन खिल उठता था। वह भीतर से जितनी भारी की, बाहर से उतनी ही हल्की थी। सन्तकुमार से तो उसे [ ३४१ ]
अपने अधिकारों की प्रतिक्षण रक्षा करनी पड़ती थी, नौकन्ना रहना पड़ता था कि न जाने व उसका । शैव्या सदैव पर शासन चाहती थींऔर न बार हो जायउस करना , एक क्षण भी भूलती थी कि वह घर को स्वामिनी है और हरेक आदमी क7 उस ग्रह अधिकार स्त्रोद्धार करना चाहिए। देवकुमार ने सारा भार सन्तकुमार पर डालकर वास्तव में शैव्या की गद्दी छीन ली कि थी। वह यह भूल जाती थी देवकुमार के स्वामी रहने पर ही वह घर की स्वमिनी रही। अब वह माने की देवी थीं जो केवल अपने आशावादों के बन पर ही पुज सकती है। मन का यह के लिए वह सदैव अपने अधिकारों की परीक्षा लेती रहती थी। संदेह मिटाने यह चोर किसी बीमारी की तरह उसके अंदर जड़ पकड़ चुका था और असली भोजन को न पचा सकने के कारण उसकी प्रकृति चटोरी होती जाती थी। पुष्पा उनसे बोलते डरती थी, उनके पास जाने का साहस न होना था। रही पंकजाउसे काम करने का रोग था। उसका काम ही उसका विनोद मनोरंजन सब कुछ थाशिकायत करता उसने सोचा ही न था। बिल्कुल देवकुमार का- सा स्वभाव पाया था। कोई चार बात कह दे, सिर झुकाकर सुन लेगी। मन में किसी तरह का ट्रेप या मलाल न आने देगी। समरे से दस-ग्यारह बजे रात तक उसे दम मारने की मोहलत न थी। अगर किसी कं कुरते के बटन टूट जाते . : पंकजा टांगीकि के कपड़े कहां रखे हैं यह रहस्य पंक्र जा के सिवा और कोई न जानता था। और इतना कम करने पर भी वह पढ़ने और ब्रे-जर्र बनाने का समय भी न आने से निकाल लेती थी। घर में जित थ सबां पर पंकजा की कलाप्रियता के चिह्न ऑक्त थे। मंज' के मेजपोश, कुरसियों के गद्देसंदूकों के गिल्लाफ मय असकी कलाकृतियों से रंजिश थे। रे और मखमल कं तरह तरह के पक्षियों और फलों के चित्र बनाकर अमन फ्रेम व ना लिये थे जो दीवानखाने की शोभा बढ़ा रहे थे। और अ" गाने अजने का शक भी था। सितार बजा लेती श्रो, और हारमोनियम तो उसके लिए रब्रल था। हां, किसी के सामने गाने-बजाते शामाती थी इसके साथ ही वह स्कूल भी जाती थी और उसका शुमार अच्छी लड़कियों में था। पन्द्रह रुपया महीना उसे वजीफा मिलता था। उसके पास इतनी फुर्सत न थी कि पुष्पा के पास घड़ी-द-धी के लिए आ बैठे और हंसी-मआई करेउसे हंसी-मजाक आना भी न थ। न मजाक समझती थी, न उसका जवाब देती थी। मां को अपने जीवन का भार हन्ता करने क साधु ही मिल जाता धाम पनि ने तो उल्टे उस पर और अपना बोझ ही लाद दिया था। साधु चला गया ता पुष्पा फिर उसी ख्यान्न में डूब-इंस ,पना बोझ उठाए। इसीलिए तो पतिदेव उस पर यह रोब जमाते हैं। जानते हैं कि इसे चाहे जितना राता. कहीं जा नहीं सकतीकुछ बोल नहीं सकती। हां. उनका ख्याल ठीक हैं। उसे बिलास वस्तुओं से रुचि हैं। वह अच्छा खाना चाहती हैं, आराम से रहना चाहती है । एक बार वह विलास का मोह त्याग दे और त्याग करना सीख लेफिर उस पर कोन रॉव जमा सकेगाफिर वह क्यों किसी से द्वेगी शाम गई खिड़की रही थी। हो थी। पुष्पा के सामने खड़ी बाहर की ओर देद उसने देखा बीस-पच्चीस लड़कियों और स्त्रियों का क दल एक स्वर से एक गीत गाता चला जा रहा था किसी को देह पर साबित कपड़े तक न थे। सिर और मुंह पर गर्द जमी हुई थी। बाल रूखे हो रहे थे जिनमें शायद महीनों से तेल न पड़ा हो। यह मजूरनी थीं जो दिन भर इंट और गारा ढोकर घर लौट रही थीं। सारे दिन उन्हें धूप में तपना पड़ा होगा, मालिक को [ ३४२ ]घुड़कियां खानी पड़ी होंगी शायद दोपहर को एक- एक मुट्ठी चबेना खाकर रह गई हों।फिर भी कितनी प्रसन्न थीं, कितनी स्वतंत्र। इनकी इस प्रसन्नता का, इस स्वतंत्रता का क्या रहस्य