गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
[ ३२९ ]

मंगलसूत्र

रचनाकाल : 1936

प्रकाशनकाल : फरवरी,1948

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(मंगलसूत्र का मुख पृष्ठ)

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एक


बड़े बेटे सन्तकुमार को वकील बनाकर, छोटे बेटे साधुकुमार को बी० ए० की डिग्री दिलाकर और छोटी लड़की पकंजा के विवाह के लिए स्त्री के हाथों में पांच हजार रुपये नकद रखकर देवकुमार ने समझ लिया कि वह जीवन के कर्तव्य से मुक्त हो गए और जीवन में जो कुछ शेष रहा है, उसे देवचिंतन के अर्पण कर सकते हैं। आज चाहे कोई उन पर अपनी जायदाद को भोग-विला में उड़ा देने का इलजाम लगाए. चाहे साहित्य के अनुष्ठान में लेकिन इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनकी आत्मा विशाल थी। यह असंभव था कि कोई उनसे मदद मांगे और निराश हो। भोगविलास जवानी का नशा था और जीवन भर वह उस क्षति की पूर्ति करते रहे, लेकिन साहित्य -सेवा के सिवा उन्हें और किसी काम में रुचि न हुई और यहां धन कहां?-हां, यश मिला और उनके आत्मसंतोष के लिए इतना काफी था। संचय में उनका विश्वास भी न था। संभव है, परिस्थिति ने इस विश्वास को दृढ़ किया हो, लेकिन उन्हें कभी संचय न कर सकने का दु:ख नहीं हुआ। सम्मान के साथ अपना निबाह होता जाय इससे ज्यादा वह और कुछ न चाहते थे। साहित्य-रसिकों में जो एक अकड़ होती है, चाहे उसे रखी ही क्यों न कह ली, वह उनमें भी थे कितने भी रईस और रजे इच्छुक थे कि वह उनके दरबार में , अपनी रचनाएं सुनाये उनको भेंट करें लेंकिन देवकुमार ने आत्म-आय सम्मान को कभी हाथ से न जाने दिया किसी ने बुलाया भी , धन्यवाद देकर टाल गए। इतना ही नहीं, वह यह भी चाहते थे कि राजे और रईस मेरे द्वार पर आयेंमेरी खुशामद करें जो अनहोनी बात थी। अपने कई मंदबुद्धि सहपाठियों को वकालत या दूसरे सीगों में धन के ढेर लगाते जायदाद खरीदते नये नये मकान बनवाते देखकर कभी-कभी उन्हें अपनी दशा पर खेद होता था। विशेषकर जब उनकी जन्म-संगिनी शैव्या गृहस्थी की चिंताओं से जलकर उन्हें कटु वचन सुनाने लगती थी, पर अपनी रचना- कुटीर में कलम हाथ में लेकर बैठते ही वह सब कुछ भूल साहित्य-स्वर्ग में पहुंच जाते थे। आत्मगौरव जाग उठता था। सारा अवसाद और विवाद शांत हो जाता था।

मगर इधर कुछ दिनों से साहित्य-रचना में उनका अनुराग कुछ ठंडा होता जाता था। उन्हें कुछ ऐसा जान पड़ने लगा था कि साहित्य प्रेमियों को उनसे वह पहले की-सी भक्ति नहीं रही। इधर उन्होंने जो पुस्तकें बड़े परिश्रम से लिखी थीं और जिनमें उन्होंने अपने [ ३३२ ]
जीवन के सारे अनुभव और कला की सारी प्रौढ़ता भर दी थी उनका कुछ विशेष आदर न हुआ था। इसके पहले उनकी दो रचनाएं निकली थीं। उन्होंने साहित्य-संसार में हलचल मचा दी थी। हर एक पत्र में उन पुस्तकों की विस्तृत आलोचनाएं हुई थीं, साहित्य-संस्थानों ने उन्हें बधाइयां दी थीं, साहित्य-मर्मज्ञों ने गुण ग्राहकता से भरे पत्र लिखे थे। यद्यपि उन रचनाओं का देवकुमार की नजर में अब उतना आदर न था, उनके भाव उन्हें भावुकता के दोष पूर्ण लगते थे, शैली में भी कृत्रिमता और भारीपन था पर जनता की दृष्टि में बही रचनाएं अब भी सर्वप्रिय थीं। इन नयी कृतियों से बिन बुलाये मेहमान का-सा आदर किया गया, मानों साहित्य-संसार संगठित होकर उनका अनादर कर रहा हो। कुछ तो यों भी उनकी इच्छा विश्राम करने की हो रही थी, इस शीतलता ने उस विचार को और भी दृढ़ कर दिया। उनके दो चार सच्चे साहित्यिक मित्रों ने इस तर्क से उनको ढारस देने की चेष्टा की कि बड़ी भूल में मामूली भोजन भी जितना प्रिय लगता है, भूख कम हो जाने पर उससे कहीं रूचिकर पर भी उतने प्रिय नहीं लगते पर इससे उन्हें आश्वासन न हुआ उनके विचार में किसी साहित्यकार की सजीवता का यही प्रमाण था कि उसकी रचनाओं की भूख जनता में बराबर बनी रहे। जब वह भूखे न रहे तो उसको क्षेत्र से प्रस्थान कर जाना चाहिए। उन्हें केवल पंकजा के विवाह की चिंता थी और जब उन्हें एक प्रकाशक ने उनकी पिछली दोनों कृतियों के पांच हजार दे दिए तो उन्होंने इसे ईश्वरीय प्रेरणा समझा और लेखनी उठा कर सदैव के लिए एक मगर इन छह महीनों में उन्हें बार-बार अनुभव हुआ कि उन्होंने वानप्रस्थ लेकर भी अपने को बंधनों से न छुड़ा पाया। शैव्या के दुराग्रह की तो उन्हें कुछ ऐसी परवाह न थी। यह उन देवियों में थी जिनका मन संसार से कभी नहीं छूटता। उसे अब भी अपने परिवार पर शासन करने की लालसा बनी हुई थी, और जब तक हाथ में पैसे भी न हों, वह लालसा पूरी नहीं हो सकती थी। जब देवकुमार अपने चालीस वर्ष के विवाहित जीवन में उसकी मृगतृष्णा न मिट सके तो अब उसका प्रयत्न करना वह पानी पीटने से कम व्यर्थ न समझते थे। दु:ख उन्हें होता था। सन्तकुमार के विचार और व्यवहार पर जो उनको घर को संपत्ति लुटा देने के लिए इस दशा में भी क्षमा न करना चाहता था। वह संपति जो पचास साल पूर्व दस हजार में फेंक दी गई आज होती तो उससे दस हजार साल की निकासी हो सकती थी। उनकी जिस अगाम दिन को सियार लोटते थे वहां अब नगर का सबसे गुलजार बाजार था जिसकी प्रेम सौ रुपये वर्ग फुट पर बिक रही थी। सन्तकुमार का महत्वाकांक्षी मन रह-रहकर अपने पिता पर कुढ़ता रहता था। पिता और पुत्र के स्वभाव में इतना अंतर कैसे हो गया यह रहस्य था। देवकुमार के पास जरूरत से हमेशा कम रहा पर उनके हाथ सदैव खुले रहे। उनका सौंदर्य भावना से जागा हुआ मन कभी कंचन की उपासना को जीवन का लक्ष्य न बना सका। यह नहीं कि वह धन का मूल्य जानते न हों। मगर उनके मन में यह धारणा जम गई थी कि इस राष्ट्र में तीन-चौथाई प्राणी भूखों मरते हों वहां किसी एक को बहुत सा धन कमाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं हैं, चाहे इसकी उसमें सामर्थ्य हो। मगर सन्तकुमार की लिप्सा ऐसे नैतिक आदर्शों पर हंसती थी। कभी -कभी तो निसंकोच होकर वह यहां तक कह जाता था कि जब 'आपको साहित्य से प्रेम था तो आपको गृहस्थ बनने का क्या हक था? आपने धन जीवन तो चौपट किया ही, हमारा जीवन भी मिट्टी मिला दिया और अब आप वानप्रस्थ लेकर बैठे हैं, मानो आपके जीवन के सारे ऋण चुक गए।' [ ३३३ ]

जाड़ों के दिन थे। आठ बज गए थे। सारा घर नाश्ते के लिए जमा हो गया था। पंकजा तख्त पर चाय और संतरे और सूखे मेवे तश्तरियों में रख दोनों भाइयों को उनके कमरों से बुलाने गई और एक क्षण में आकर साधुकुमार बैठ गया। ऊंचे कद का, सुगठित, रूपवान्, गोरा, मीठे वचन बोलने वाला, सौम्य युवक था जिसे केवल खाने और सैर-सपाटे से मतलब था। जो कुछ जुड़ जाय भरपेट खा लेता था और यार-दोस्तों में निकल जाता था।

शैव्या ने पूछा-संतू कहां रह गया? चाय ठंडी हो जायगी तो कहेगा यह तो पानी है। बुला ले तो साधु, इसे जैसे खाने-पीने की भी छुट्टी नहीं मिलती।

साधु सिर झुका कर रह गया। सन्तकुमार से बोलते उनकी जान निकलती थी।

शैव्या ने एक क्षण बाद फिर कहा उसे भी क्यों नहीं बुला लेता?

साधु ने दबी जबान से कहा-नहीं, बिगड़ जायेंगे सवेरे-सवेरे तो मेरा सारा दिन खराब हो जायेगा।

इतने में सन्तकुमार भी आ गया। शक्ल-सूरत में छोटे भाई से मिलता-जुलता, कंवल शरीर का गठन उतना अच्छा न था। हां, मुख पर तेज और गर्व की झलक थी, और मुख पर एक शिकायत-सी बैठी हुई थी, जैसे कोई चीज उसे पसंद न आती हो।

तख्त पर बैठकर चाय मुंह से लगाई और नाक सिकोड़ कर बोले-तू क्यों नहीं आती पंकजा? और पुष्पा कहां है? मैं कितनी बार कह चुका कि नाश्ता, खाना-पीना सबका एक साथ होना चाहिए।

शैव्या ने आंखें तरेकर कहा तुम लोग खा लो, यह सब पीछे खा लेंगी। कोई पंगत थोड़ी है कि सब एक साथ बैठें।

सन्तकुमार ने एक घूंट चाय पीकर कहा वही पुराना ढाचरा कितनी बार कह चुका कि उस पुराने लचर संकोच का जमाना नहीं रहा।

शैव्या ने मुंह बनाकर कहा-सब एक साथ तो बैठें लेकिन पकाये कौन और परसे कौन? एक महाराज रक्खो पकाने के लिए, दूसरा परसने के लिए, तब वह ठाट निभेगा।

-तो महात्माजी उसका इंतजाम क्यों नहीं करते या वानप्रस्थ होना ही जानते हैं।

-उनको जो कुछ करना था कर चुके। अब तुम्हें जो कुछ करना हो तुम करो।

-जब पुरुषार्थ नहीं था तो हम लोगों को पढ़ाया-लिखाया क्यो? किसी देहात में ले जाकर छोड़ देते। हम अपनी खेती करते या मजूरी करते और पड़े रहते। यह खटराग ही क्यों पाला?

-तुम उस वक्त न थे, सलाह किससे पूछते?

सन्तकुमार ने कड़वा मुंह बनाये चाय पी, कुछ मेवे खाए फिर साधुकुमार से बोले-तुम्हारी टीम कब बम्बई जा रही है जी?

साधुकुमार ने गरदन झुकाए त्रस्त स्वर में कहा-परसों।

-तुमने नया सूट बनवाया?

-मेरा पुराना सूट अभी अच्छी तरह काम दे सकता है।

-काम तो सूट के न रहने पर भी चल सकता है। हम लोग तो नंगे पांव, धोती चढ़ाकर खेला करते थे। मगर जब एक आल इण्डिया टीम में खेलने जा रहे हो तो वैसा ठाट भी तो होना चाहिए। फटेहालों जाने से तो कहीं अच्छा है, न जाना। जब वहां लोग जानेंगे कि तुम महात्मा [ ३३४ ]देवकुमार जी के सुपुत्र हो तो दिल में क्या कहेंगे?

साधुकुमार ने कुछ जवाब न दिया। चुपचाप नाश्ता करके चला गया। वह अपने पिता की माली हालत जानता था और उन्हें संकट में न डालना चाहता था। अगर सन्तकुमार नये सूट की जरूरत समझते हैं तो बनवा क्यों नहीं देते? पिता के ऊपर भार डालने के लिए उसे क्यों मजबूर करते हैं?

साधु चला गया तो शैव्या ने आहत कंठ से कहा-जब उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि अब मेरा घर से कोई वास्ता नहीं और सब कुछ तुम्हारे ऊपर छोड़ दिया तो तुम क्यों उन पर गृहस्ती का भार डालते हो? अपने सामर्थ्य और बुद्धि के अनुसार जैसे हो सका उन्होंने अपनी उम्र काट दी। जो कुछ वह नहीं कर सके या उनसे जो चूकें हुईं उन पर फिकरे कसना तुम्हारे मुंह से अच्छा नहीं लगता। अगर तुमने इस तरह उन्हें सताया तो मुझे डर है वह घर छोड़कर कहीं अंतर्धान न हो जायं। वह धन न कमा सके, पर इतना तो तुम जानते ही हो कि वह जहां भी जायंगे लोग उन्हें सिर और आंखों पर लेंगे।

शैव्या ने अब तक सदैव पति की भर्त्सना ही की थी। इस वक्त उसे उनकी वकालत करते देखकर सन्तकुमार मुस्करा पड़ा।

बोला-अगर उन्होंने ऐसा इरादा किया तो उनसे पहले मैं अंतर्धान हो जाऊंगा। मैं यह भार अपने सिर नहीं ले सकता। उन्हें इसको संभालने में मेरी मदद करनी होगी। उन्हें अपनी कमाई लुटाने का पूरा हक था, लेकिन बाप-दादों की जायदाद को लुटाने का उन्हें कोई अधिकार न था। इसका उन्हें प्रायश्चित करना पड़ेगा। वह जायदाद हमे वापस करनी होगी। मैं खुद भी कुछ कानून जानता हूं। वकीलों, मैजिस्ट्रेटों से भी सलाह कर चुका हूं। जायदाद वापस ली जा सकती है। अब मुझे यही देखना है कि इन्हें अपनी संतान प्यारी है या अपना महात्मापन।

यह कहता हुआ सन्तकुमार पंकजा से पान लेकर अपने कमरे में चला गया।