प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ

प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ  (1950) 
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ मुखपृष्ठ से – १० तक

 
प्रेमचंद

की

सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ
 

कॉपीराइट

सरस्वती प्रेस, बनारस, १९५०

प्रथम संस्करण, दिसंबर १९५०

द्वितीय संस्करण, दिसंबर १९५४

तृतीय संस्करण, दिसंबर १९५५

मूल्य १॥)






मुद्रक : राम आसरे कक्कड़, हिन्दी साहित्य प्रेस, इलाहाबाद ।



प्रकाशक

का

निवेदन

प्रेमचंद की कहानियों में से हम यहाँ तेरह किशोरोपयोगी कहानियाँ संगृहीत कर रहे हैं। हमारा संकलन उन कहानियों की शिक्षा, उपादेयता तथा किशोरवयस्क पाठकों के मनोरंजन के दृष्टिकोण से हुआ है। इनसे प्रेमचंद की कहानी-कला की विभिन्न विशेषताओं का भी पाठक को परिचय प्राप्त हो सकेगा। हमें आशा है कि यह संग्रह सभी प्रकार से सफल एवं उपयोगी सिद्ध होगा। 


अनुक्रम
प्राक्कथन
१. ईदगाह
२. जुलूस
३. दो बैलों की कथा
४. रामलीला
५. बड़े भाई साहब
६. नशा
७. लाग-डाँट
८. आत्माराम
९. प्रेरणा
१०. सवा सेर गेहूँ
११. गुल्ली-डंडा
१२. लॉटरी
१३ शतरंज के खिलाड़ी


...७
...११
...२९
...४३
...५९
...६८
...८०
...९०
...९८
...१०८
...१२३
...१३२
...१४३
...१६३


प्राक्कथन

मनुष्य-जाति के लिए मनुष्य ही सबसे विकट पहेली है। वह खुद अपनी समझ में नहीं आता। किसी-न-किसी रूप में वह अपनी ही आलोचना किया करता है, अपने ही मन के रहस्य खोला करता है। इसी आलोचना को, इसी रहस्योद्घाटन को और मनुष्य ने जगत् में जो कुछ सत्य और सुन्दर पाया है और पा रहा है उसी को साहित्य कहते हैं। और कहानी या आख्यायिका साहित्य के एक प्रधान अंग है, आज से नहीं, आदि काल से ही। हाँ, आजकल की आख्यायिका में समय की गति और रुचि से बहुत-कुछ अन्तर हो गया हैं। प्राचीन आख्यायिका कुतूहल-प्रधान होती थी, या आध्यात्मविषयक। वर्तमान आख्यायिका साहित्य के दूसरे अंगों की भाँति, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और मनोरहस्य के उद्घाटन को अपना ध्येय समझती है। यह स्वीकार कर लेने में हमें संकोच न होना चाहिए कि उपन्यासों ही की तरह आख्यायिका की कला भी हमने पश्चिम से ली है। मगर पाँच सौ वर्ष पहले यूरोप भी इस कला से अनभिज्ञ था। बड़े-बड़े उच्च कोटि के दार्शनिक तथा ऐतिहासिक उपन्यास लिखे जाते थे; लेकिन छोटी-छोटी कहानियों की ओर किसी का ध्यान न जाता था। हाँ, कुछ परियों और भूतों की कहानियाँ अलबत्ता प्रचलित थीं; किन्तु इसी एक शताब्दी के अन्दर या उससे भी कम में समझिए छोटी कहानियों ने साहित्य के और सभी अंगों पर विजय प्राप्त कर ली है। कोई पत्रिका ऐसी नहीं, जिसमें कहानियों की प्रधानता न हो। यहाँ तक कि कई पत्रिकाओं में केवल कहानियाँ ही दी जाती हैं।

कहानियों के इस प्राबल्य का मुख्य कारण आजकल का जीवनसंग्राम और समयाभाव है। अब वह जमाना नहीं रहा कि हम

'बोस्ताने खयाल' लेकर बैठ जायँ और सारे दिन उसी को कुंजों में विचरते रहें। अब तो हम जीवन-संग्राम में इतने तन्मय हो गये हैं कि हमें मनोरंजन के लिए समय ही नहीं मिलता। अगर कुछ मनोरंजन स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य न होता, और हम विक्षिप्त हुए बिना नित्य १८ घंटे काम कर सकते तो शायद हम मनोरंजन का नाम भी न लेते। लेकिन प्रकृति ने हमें विवश कर दिया है, हम चाहते हैं कि थोड़े-से-थोड़े समय में अधिक-से-अधिक मनोरंजन हो जाय। इसीलिए सिनेमा-गृहों की संख्या दिन-दिन बढ़ती जाती है। जिस उपन्यास के पढ़ने मे महीनों लगते, उसका आनन्द हम दो घंटों में उठा लेते हैं। कहानी के लिए १५-२० मिनट ही काफी हैं; अतएव हम कहानी ऐसी चाहते हैं कि वह थोड़े-से-थोड़े शब्दो में कही जाय, उसमें एक वाक्य, एक शब्द भी अनावश्यक न आने पाये, उसका पहला ही वाक्य मन को आकर्षित कर ले और अन्त तक हमें मुग्ध किये रहे, और उसमें कुछ चटपटापन हो, कुछ ताजगी हो, कुछ विकास हो, और इसके साथ ही कुछ तत्व भी हो। तत्वहीन कहानी से चाहे मनोरंजन भले ही हो जाय, मानसिक तृप्ति नहीं होती। यह सच है कि हम कहानियों में उपदेश नहीं चाहते; लेकिन विचारों को उत्तेजित करने के लिए, मन के सुन्दर भावों को जागृत करने के लिए, कुछ-न कुछ अवश्य चाहते हैं। वही कहानी सफल होती है, जिसमें इन दोनों में से एक अवश्य उपलब्ध हो।

सबसे उत्तम कहानी वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो। साधु पिता का अपने कुव्यसनी पुत्र की दशा से दुःखी होना मनोवैज्ञानिक सत्य है। इस आवेग में पिता के मनोवेगों को चित्रित करना और तदनुकूल उसके व्यवहारों को प्रदर्शित करना कहानी को आकर्षक बना सकता है। बुरा आदमी भी बिलकुल बुरा

नहीं होता उसमें कहीं-न-कहीं देवता अवश्य छिपा होता है, यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। उस देवता को खोलकर दिखा देना सफल आख्यायिका लेखक का काम है। विपत्ति-पर-विपत्ति पड़ने से मनुष्य कितना दिलेर हो जाता है, यहाँ तक कि वह बड़े-से-बड़े संकट का सामना करने के लिए ताल ठोंककर तैयार हो जाता है, उसकी दुर्वासना भाग जाती है, उसके हृदय के किसी गुप्त स्थान में छिपे हुए जौहर निकल आते हैं और हमें चकित कर देते हैं, यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। एक ही घटना या दुर्घटना भिन्न-भिन्न प्रकृति के मनुष्यों को भिन्न-भिन्न रूप से प्रभावित करती है। हम कहानी में इसको सफलता के साथ दिखा सकें, तो कहानी अवश्य आकर्षक होगी। किसी समस्या का समावेश कहानी को आकर्षक बनाने का सबसे उत्तम साधन है। जीवन में ऐसी समस्याएँ नित्य ही उपस्थित होती रहती हैं, और उनसे पैदा होनेवाला द्वंद्व आख्यायिका को चमका देता है। सत्यवादी पिता को मालूम होता है कि उसके पुत्र ने हत्या की है। वह उसे न्याय की वेदी पर बलिदान कर दे, या अपने जीवन-सिधांतो की हत्या कर डाले? कितना भीषण द्वंद्व है; पश्चात्ताप ऐसे द्वंद्वी का अखंड स्रोत है। एक भाई ने अपने दूसरे भाई की संपत्ति छल-कपट से अपहरण कर ली है। उसे भिक्षा माँगते देखकर क्या छली भाई को जरा भी पश्चात्ताप न होगा? अगर ऐसा न हो, तो वह मनुष्य नहीं है।

उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, कुछ चरित्र प्रधान। चरित्र-प्रधान कहानी का पद ऊँचा समझा जाता है, मगर कहानी में बहुत विस्तृत विश्लेषण की गुंजाइश नहीं होती। यहाँ हमारा उद्देश्य संपूर्ण मनुष्य को चित्रित करना नहीं; वरन् उसके चरित्र का एक अंग दिखाना है। यह परमावश्यक है कि हमारी कहानी से जो परिणाम या तत्व निकले, वह सर्वमान्य हो, और उसमें
कुछ बारीकी हो। यह एक साधारण नियम है कि हमें उसी बात में आनन्द आता है, जिससे हमारा कुछ संबंध हो। जुआ खेलनेवालों को जो उन्माद और उल्लास होता है, वह दर्शक को कदापि नहीं हो सकता। जब हमारे चरित्र इतने सजीव और आकर्षक होते हैं कि पाठक अपने को उनके स्थल पर समझ लेता है, तभी उसे कहानी में आनन्द प्राप्त होता है। अगर लेखक ने अपने पात्रों के प्रति पाठक में यह सहानुभूति नहीं उत्पन्न कर दी, तो वह अपने उद्देश्य में असफल है।

मगर यह समझना भूल होगी कि कहानी जीवन का यथार्थ चित्र है। यथार्थ जीवन का चित्र तो मनुष्य स्वयं हो सकता है। कहानी, कहानी है; यथार्थ नहीं हो सकती। जीवन में बहुधा हमारा अन्त उस समय हो जाता है, जब यह वांछनीय नहीं होता। लेकिन कथा-साहित्य मनुष्य का रचा हुआ जगत् है और परिमित होने के कारण सम्पूर्णतः हमारे सामने आ जाता है, और जहाँ वह हमारी न्याय-बुद्धि या अनुभूति का अतिक्रमण करता हुआ पाया जाता है, हम उसे दण्ड देने के लिए तैयार हो जाते हैं। कथा में अगर किसी को सुख प्राप्त होता है, तो इसका कारण बताना होगा; दुःख भी मिलता है तो उसका कारण बताना होगा। यहाँ कोई चरित्र मर नहीं सकता, जब तक कि मानव न्याय-बुद्धि उसकी मौत न माँगे। स्रष्टा को जनता की अदालत में अपनी हरएक कृति के लिए जवाब देना पड़ेगा। कला का रहस्य भ्रान्ति है, पर वह भ्रान्ति जिस पर यथार्थ का आवरण पड़ा हो।

-प्रेमचन्द

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।