प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ५९ से – ६७ तक

 
रामलीला

इधर एक मुद्दत से रामलीला देखने नहीं गया। बन्दरो के भद्दे चेहरे लगाये, आधी टांगों का पाजामा और काले रंग का कुरता पहने आदमियों को दौड़ते, हू-हू करते देखकर अब हँसी आती है; मज़ा नही आता। काशी की लीला जगद्विख्यात है। सुना है, लोग दूर-दूर से देखने आते हैं। मैं भी बड़े शौक से गया; पर मुझे तो वहाँ की लीला और किसी वज्र देहात की लीला में कोई अन्तर न दिखायी दिया। हाँ, रामनगर की लीला में कुछ साज-समाज अच्छे हैं। राक्षसो और बन्दरों के चेहरे पीतल के हैं। गदाएँ भी पीतल की; कदाचित् बनवासी भ्राताओं के मुकुट सच्चे काम के हों; लेकिन साज-समाज के सिवा वहाँ भी वही हू-हू के सिवा और कुछ नहीं। फिर भी लाखों आदमियों को भीड़ लगी रहती है।

लेकिन एक ज़माना वह था, जब मुझे भी रामलीला में आनन्द आता था। आनन्द तो बहुत हल्का-सा शब्द है। वह आनन्द उन्माद से कम न था। संयोगवश उन दिनों मेरे घर से बहुत थोड़ी दूर पर रामलीला का मैदान था और जिस घर में लीला-पात्रों का रूप-रंग भरा जाता था, वह मेरे घर से बिलकुल मिला हुआ था। दो बजे दिन से पात्रों की सजावट होने लगती थी। मैं दोपहर ही से वहाँ जा बैठता और जिस उत्साह से दौड़-दौड़कर मोटे-मोटे काम करता, उस उत्साह से तो आज अपनी पेन्शन भी लेने नहीं जाता। एक कोठरी में राजकुमारों का शृंगार होता था। उनकी देह में रामरज पीसकर पोती जाती मुँह पर पाउडर लगाया जाता और पाउडर के ऊपर लाल, हरे, नीले रंग की बुँदकियाँ लगायी जाती थीं। सारा माथा, भौहें, गाल, ठोढ़ी बुँदकियों से रच उठती थीं। एक ही आदमी इस काम में कुशल था। वही बारी-बारी से तीनों पात्रों
का शृङ्गार करता था। रंग को प्यालियों में पानी लाना, रामरज पीसना, पंखा झलना मेरा काम था। जब इन तैयारियों के बाद विमान निकलता, तो उस पर रामचन्द्रजी के पीछे बैठकर मुझे जो उल्लास, जो गर्व, जो रोमांच होता था, वह अब लाट साहब के दरबार में कुरसी पर बैठकर भी नहीं होता। एक बार जब होम मेम्बर साहब ने व्यवस्थापक सभा में मेरे एक प्रस्ताव का अनुमोदन किया था, उस वक्त मुझे कुछ उसी तरह का उल्लास, गर्व और रोमांच हुआ था। हाँ, एक बार जब मेरा ज्येष्ठ पुत्र नायब तहसीलदारी में नामजद हुआ, तब भी कुछ ऐसी ही तरंगें मन में उठी थीं; पर इनमें और बाल विह्वलता मे बड़ा अन्तर है। तब तो ऐसा मालूम होता था कि मैं स्वर्ग में बैठा हूँ।

निषाद-नौका-लीला का दिन था। मैं दो-चार लड़कों के बहकाने में आकर गुल्ली-डंडा खेलने लगा था। आज शृंगार देखने न गया। विमान भी निकला; पर मैंने खेलना न छोड़ा। मुझे अपना दाँव लेना था। अपना दाँव छोड़ने के लिए उससे कहीं बढ़कर आत्म-त्याग की जरूरत थी, जितना मैं कर सकता था। अगर दाँव देना होता, तो मैं कब का भाग खड़ा होता; लेकिन पदाने में कुछ और ही बात होती है। खैर, दाँव पूरा हुआ। अगर मैं चाहता, तो धाँधली करके दस-पाँच मिनट और पदा सकता था, इसकी काफी गुंजाइश थी, लेकिन अब इसका मौका न था। मैं सीधे नाले की तरफ दौड़ा। विमान जल-तट पर पहुँच चुका था। मैंने दूर से देखा, मल्लाह किश्ती लिये आ रहा है। दौड़ा, लेकिन आदमियों को भीड़ में दौड़ना कठिन था। आख़िर जब मैं भीड़ हटाता, प्राणपण से आगे बढ़ता घाट पर पहुँचा, तो निषाद अपनी नौका खोल चुका था। रामचन्द्र पर मेरी कितनी श्रद्धा थी। मैं अपने पाठ की चिन्ता न करके उन्हें पढ़ा दिया करता था, जिसमें वह फेल न हो जायँ। मुझमे उम्र ज्यादा होने पर भी वह नीची कक्षा में पढ़ते थे, लेकिन वही रामचन्द्र नौका पर बैठे इस तरह मुँह फेरे चले जाते थे, मानों मुझसे जान-पहचान ही नहीं। नकल में भी असल की कुछ-न-कुछ बू आ ही जाती है। भक्तों पर जिनकी निगाह सदा ही तीखी रही है, वह मुझे क्या उबारते? मैं विकल होकर उस बछड़े की भाँति कूदने लगा जिसकी गरदन पर पहली बार जुआ रखा गया हो। कभी लपककर नाले की ओर जाता, कभी किसी सहायक की खोज में पीछे की तरफ दौड़ता पर सब-के-सब अपनी धुन में मस्त थे, मेरी चीख-पुकार किसी के कानों तक न पहुँची। तब से बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ झेली; पर उस समय जितना दुःख हुआ, उतना फिर कभी न हुआ।

मैंने निश्चय किया था कि अब रामचन्द्र से कभी न बोलूँगा, न कभी खाने की कोई चीज ही दूंँगा; लेकिन ज्योंही नाले को पार करके वह पुल की ओर से लौटे, मैं दौड़कर विमान पर चढ़ गया, और ऐसा खुश हुआ मानों कोई बात ही न हुई थी।

( २ )

रामलीला समाप्त हो गयी थी। राजगद्दी होने वाली थी; पर न जाने क्यों देर हो रही थी। शायद चन्दा कम वसूल हुआ था। रामचन्द्र की इन दिनों कोई बात भी न पूछता था। न तो घर जाने की छुट्टी मिलती। थी, न भोजन का प्रबन्ध ही होता था। चौधरी साहब के यहाँ से एक सीधा कोई तीन बजे दिन को मिलता था। बाकी सारे दिन कोई पानी को भी न पूछता; लेकिन मेरी श्रद्धा अभी तक ज्यों-की-त्यों थी। मेरी दृष्टि में वह अब भी रामचन्द्र ही थे। घर पर मुझे खाने की जो चीज मिलती, वह लेकर रामचन्द्र को दे पाता। उन्हें खिलाने में मुझे जितना आनन्द मिलता था, उतना खा जाने में कभी न मिलता। कोई मिठाई या फल पाते ही मैं बेतहाशा चौपाल की ओर दौड़ता। अगर रामचन्द्र वहाँ न मिलते, तो उन्हें चारों ओर तलाश करता, और जब तक वह चीज उन्हें न खिला लेता, मुझे चैन न आता था। खैर राजगद्दी का दिन आया। रामलीला के मैदान में एक बड़ा-सा शामियाना ताना गया। उसकी खूब सजावट की गयी। वेश्याओं के दल भी आ पहुँचे। शाम को रामचन्द्र की सवारी निकली और प्रत्येक द्वार पर उनकी आरती उतारी गयी। श्रद्धानुसार किसी ने रुपये दिये, किसी ने पैसे। मेरे पिता पुलिस के आदमी थे; इसलिए उन्होंने बिना कुछ दिये ही आरती उतारी। इस वक्त मुझे जितनी लज्जा आयी, उसे बयान नहीं कर सकता। मेरे पास उस वक्त संयोग से एक रुपया था; मेरे मामाजी दशहरे के पहले आये थे और मुझे एक रुपया दे गये थे। उस रुपये को मैंने रख छोड़ा था। दशहरे के दिन भी उसे खर्च न कर सका। मैंने तुरंत वह रुपया लाकर आरती की थाली में डाल दिया। पिताजी मेरी ओर कुपित नेत्रों से देखकर रह गये। उन्होंने कुछ कहा तो नहीं; लेकिन मुँह ऐसा बना लिया, जिससे प्रकट होता था कि मेरी इस धृष्टता से उनके रोब में बट्टा लग गया। रात के दस बजते-बजते यह परिक्रमा पूरी हुई। आरती की थाली रुपयों और पैसों से भरी हुई थी। ठीक तो नहीं कह सकता, मगर अब ऐसा अनुमान होता है कि ४-५ सौ रुपयों से कम न थे। चौधरी साहब इनसे कुछ ज्यादा ही खर्च कर चुके थे। उन्हें इसकी बड़ी फिक्र हुई कि किसी तरह कम से कम २००) और वसूल हो जायँ। और, इसकी सबसे अच्छी तरकीब उन्हें यही मालूम हुई कि वेश्याओं-द्वारा महफिल में वसूल हो। जब लोग आकर बैठ जायें और महफिल का रङ्ग जम जाये, तो आबदीजान रसिकजनों की कलाइयाँ पकड़-पकड़कर ऐसे हाव-भाव दिखावे कि लोग शरमाते-शरमाते भी कुछ-न-कुछ दे ही मरे। आबदीजान और चौधरी साहब में सलाह होने लगी। मैं संयोग से उन दोनों प्राणियों की बातें सुन रहा था। चौधरी साहब ने समझा होगा, यह लौंडा क्या मतलब समझेगा; पर यहाँ ईश्वर की दया से अक्ल के पुतले थे। सारी दास्तान समझ में आती जाती थी।

चौधरी-सुनो आबदीजान, यह तुम्हारी ज्यादती है। हमारा और तुम्हारा कोई पहला साबका तो है नहीं। ईश्वर ने चाहा, तो यहाँ हमेशा तुम्हारा आना-जाना लगा रहेगा। अबकी चन्दा बहुत कम आया, नहीं तो मैं तुमसे इतना इसरार न करता।

आबदी-आप मुझसे जमींदारी चालें चलते हैं, क्यों? मगर यहाँ हुजूर की दाल न गलेगी। वाह! रुपये तो मैं वसूल करूँ और मूँछों पर ताव आप दें। कमाई का यह अच्छा ढंग निकाला है। इस कमाई से तो वाकई आप थोड़े दिनों में राजा हो जायँगे। उसके सामने जमींदारी झक मारेगी! बस, कल ही में एक चकला खोल दीजिए। खुदा की कसम, मालामाल हो जाइएगा।

चौधरी-तुम तो दिल्लगी करती हो और यहाँ काफिया तंग हो रहा है।

आबदी-तो आप भी तो मुझी से उस्तादी करते हैं। यहाँ आप जैसे कइयों को रोज उँगलियों पर नचाती हूँ।

चौधरी-आखिर तुम्हारी मंशा क्या है?

आबदी-जो कुछ वसूल करूँ, उसमें आधा मेरा और आधा आपका। लाइए हाथ मारिए।

चौधरी-यही सही।

आबदी-अच्छा, तो पहले मेरे १००) गिन दीजिए। पीछे से आप अलसेट करने लगेंगे।

चौधरी--वाह! वह भी लोगी और यह भी?

आबदी-अच्छा! तो क्या आप समझते थे कि अपनी उजरत छोड़ दूँगी? वाहरी आपकी समझ खूब,क्यों न हो। दीवाना बकारे,दरवेश हुशियार।

चौधरी-तो क्या तुमने दोहरी फीस लेने की ठानी है?

आबदी-आगर आपको सौ दफे गरज हो तो! वरना मेरे १००) तो कहीं गये ही नहीं। मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो लोगों की जेब में हाथ डालती फिरूँ? चौधरी की एक न चली। आबदी के सामने दबना पड़ा। नाच शुरू हुआ। आबदीजान बला की शोख औरत थी। एक तो कमसिन उस पर हसीन। और उसकी अदाएँ तो गजब की थीं कि मेरी तबीयत भी मस्त हुई जाती थी। आदमियों को पहचानने का गुण भी उसमें कुछ कम न था। जिसके सामने बैठ गयी, उससे कुछ-न-कुछ ले ही लिया। पाँच रुपये से कम तो शायद ही किसी ने दिये हों। पिताजी के सामने भी वह जा बैठी। मैं तो मारे शर्म के गड़ गया। जब उसने उनकी कलाई पकड़ी, तब तो मैं सहम उठा। मुझे यकीन था कि पिताजी उसका हाथ झटक देंगे और शायद दुत्कार भी दें; किन्तु यह क्या हो रहा है! ईश्वर! मेरी आँखें धोखा तो नहीं खा रही हैं! पिताजी मूँछों में हँस रहे हैं। ऐसी मृदु हँसी उनके चेहरे पर मैंने कभी नहीं देखी था। उनकी आँखों से अनुराग टपका पड़ता था। उनका एक-एक रोम पुलकित हो रहा था; मगर ईश्वर ने मेरी लाज रख ली। वह देखो, उन्होंने धीरे से आबदी के कोमल हाथों से अपनी कलाई छुड़ा ली। अरे! यह फिर क्या हुआ। आबदी तो उनके गले में बाहें डाले देती है। अबकी पिताजी जरूर उसे पीटगे। चुडै़ल को जरा भी शर्म नहीं!

एक महाशय ने मुस्कराकर कहा-यहाँ तुम्हारी दाल न गलेगी आबदीजान! और दरवाजा देखो।

बात तो इन महाशय ने मेरे मन की कही और बहुत ही उचित कही; लेकिन न जाने क्यों पिताजी ने उनकी ओर कुपित नेत्रों से देखा और मूँछों पर ताव दिया। मुँह से तो कुछ न बोले; पर उनके मुख को आकृति चिल्लाकर सरोष शब्दों में कह रही थी-तू बनिया मुझे समझता क्या है? यहाँ ऐसे अवसर पर जान तक निसार करने को तैयार हैं, रुपये की हकीकत ही क्या! तेरा जी चाहे, आजमा ले। तुझसे दूनी रकम न दे डालें तो मुँह न दिखाऊँ! महान आश्चर्य! घोर अनर्थ! अरे जमीन, तू फट क्यों नहीं जाती! आकाश, तू फट क्यों नहीं पड़ता? अरे, मुझे मौत क्यों नहीं आ‌

जाती! पिताजी जेब में हाथ डाल रहे हैं। वह कोई चीज़ निकाली और सेठजी को दिखाकर आबदीजान को दे डाली। आह! यह तो अशर्फी है। चारों ओर तालियाँ बजने लगीं। सेठजी उल्लू बन गये। पिताजी ने मुँह की खाई, इसका निश्चय मैं नहीं कर सकता। मैंने केवल इतना देखा कि पिताजी ने एक अशर्फी निकालकर आबदीजान को दी। उनकी आँखों में इस समय इतना गर्व-युक्त उल्लास था, मानों उन्होंने हातिम की कब्र पर लात मारी हो। यही पिताजी तो हैं, जिन्होंने मुझे आरती में १) डालते देखकर मेरी ओर इस तरह देखा था, मानों मुझे फाड़ ही खायेंगे। मेरे उस परमोचित व्यवहार से उनके रोब में फर्क आता था और इस समय इस घृणित, कुत्सित, निन्दित व्यापार पर वह गर्व और आनन्द से फूले न समाते थे।

आबदीजान ने एक मनोहर मुसकान के साथ पिताजी को सलाम किया और आगे बढ़ी; मगर मुझसे वहाँ न बैठा गया। मारे शर्म के मेरा मस्तक झुका जाता था। अगर मेरी आँखों देखी बात न होती, तो मुझे इस पर कभी एतबार न होता। मैं बाहर जो कुछ देखता-सुनता था उसकी रिपोर्ट अम्मा से जरूर करता था, पर इस मामले को मैंने उनसे छिपा रखा। मैं जानता था, उन्हें यह बात सुनकर बड़ा दुःख होगा।

रात-भर गाना होता रहा। तबले की धमक मेरे कानों में आ रही थी। जी चाहता था, चलकर देख पर साहस न होता था। मैं किसी को मुँह कैसे दिखाऊँगा? कहीं किसी ने पिताजी का जिक्र छेड़ दिया तो मैं क्या करूँगा!

प्रातःकाल रामचन्द्र की बिदाई होनेवाली थी। मैं चारपाई से उठते ही आँखें मलता हुआ चौपाल की ओर भागा। डर रह था कि कहीं रामचन्द्र चले न गये हों। पहुँचा तो देखा, तवायफों की सवारियाँ जाने को तैयार हैं। बीसों आदमी हसरत से नाक-मुँह बनाये उन्हें घेरे खड़े हैं। मैंने उनकी ओर आँख न उठायी। सीधा रामचन्द्र के पास पँहुचा। लक्ष्मण
और सीता बैठे रो रहे थे, और रामचन्द्र खड़े काँधे पर लुटिया-डोर डाले उन्हें समझा रहे थे। मेरे सिवा वहाँ कोई न था। मैंने कुण्ठित स्वर में रामचन्द्र से पूछा-क्या तुम्हारी बिदाई हो गयी?

रामचन्द्र-हाँ, हो तो गयी। हमारी बिदाई ही क्या? चौधरी साहब ने कह दिया, जाओ, चले जाते हैं।

'क्या रुपये और कपड़े नहीं मिले?'

'अभी नहीं मिले। चौधरी साहब कहते हैं इस वक्त बचत में रुपये नहीं है। फिर पाकर ले जाना।'

'कुछ नहीं मिला?'

'एक पैसा भी नहीं। कहते हैं, कुछ बचत नहीं हुई। मैंने सोचा था, कुछ रुपये मिल जायेंगे, तो पढ़ने की किताबें ले लूँगा। सो कुछ न मिला। राह-खर्च भी नहीं दिया। कहते हैं, कौन दूर है, पैदल चले जाओ।'

मुझे ऐसा क्रोध आया कि चलकर चौधरी को खून आड़े हाथों लूँ। वेश्याओं के लिए रुपये,सवारियाँ सब कुछ; पर बेचारे रामचन्द्र और उनके साथियों के लिए कुछ भी नहीं। जिन लोगों ने रात को आबदीजान पर दस-दस, बीस-बीस रुपये न्योछायर किये थे, उनके पास क्या इनके लिए दो-दो, चार-चार आने पैसे भी नहीं हैं? पिताजी ने भी तो आबदीजान को एक अशर्फी दी। देखूँ, इनके नाम पर क्या देते हैं। मैं दौड़ा हुआ पिताजी के पास गया। वह कहीं तफ़तीश पर जाने को तैयार खड़े थे। मुझे देखकर बोले-कहाँ घूम रहे हो? पढ़ने के वक्त तुम्हें घूमने की सूझती है?

मैंने कहा-गया था चौपाल। रामचन्द्र बिदा हो रहे हैं। उन्हें चौधरी साहब ने कुछ नहीं दिया।

'तो तुम्हें इसकी क्या फिक्र पड़ी है?'

'वह जायँगे कैसे? पास राह-खर्च भी तो नहीं है!'

'क्या कुछ खर्च भी नहीं दिया? यह चौधरी साहब की बेइंसाफी है।' 'आप अगर २) दे दें, तो मैं उन्हें दे आऊँ। इतने में शायद वह घर पहुँच जायँ।'

पिताजी ने तीव्र दृष्टि से देखकर कहा-जाओ, अपनी किताब देखो। मेरे पास रुपये नहीं हैं।

यह कहकर घोड़े पर सवार हो गये। उसी दिन पिताजी पर से मेरी श्रद्धा उठ गयी। मैंने फिर कभी उनकी डाँट-डपट की परवाह नहीं की। मेरा दिल कहता-आपको मुझे उपदेश देने का कोई अधिकार नही है। मुझे उनकी सूरत से चिढ़ हो गयी। वह जो कहते,मैं ठीक उसका उलटा करता। यद्यपि इससे मेरी ही हानि हुई, लेकिन मेरा अन्तःकरण उस समय विप्लवकारी विचारों से भरा हुआ था।

मेरे पास दो आने पैसे पड़े हुए थे। मैंने पैसे उठा लिये और जाकर शरमाते-शरमाते रामचन्द्र को दे दिये। उन पैसों को देखकर रामचन्द्र को जितना हर्ष हुआ, वह मेरे लिए आशातीत था। टूट पड़े, मानो प्यासे को पानी मिल गया।

वह दो आने पैसे लेकर तीनों मूर्तियाँ बिदा हुई। केवल मैं ही उनके साथ कस्बे के बाहर पहुँचाने आया।

उन्हें बिदा करके लौटा, तो मेरी आँखें सजल थी; पर हृदय आनन्द से उमड़ा हुआ था।