प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ ३०८ से – ३३१ तक

 

वंशस्थ छन्द
विमुग्ध-कारी मधु मंजु मास था ।
वसुन्धरा थी कमनीयता-मयी ।
विचित्रता-साथ विराजिता रही ।
वसंत वासंतिकता वनान्त में ॥१॥

नवीन भूता वन की विभूति में ।
विनोदिता-वेलि विहंग-वृन्द में ।
अनूपता व्यापित थी वसंत की ।
निकुंज में कूजित-कुंज-पुंज में ॥२॥

प्रफुल्लिता कोमल-पल्लवान्विता ।
मनोज्ञता-मूर्ति नितान्त-रंजिता ।
वनस्थली थी मकरंद-मोदिता ।
अकीलिता कोकिल-काकली-मयी ॥३॥

निसर्ग ने, सौरभ ने, पराग ने ।
प्रदान की थी अति कान्त-भाव से ।
वसुन्धरा को, पिक को, मिलिन्द को ।
मनोज्ञता, मादकता, मदांधता ॥४॥

वसंत की भाव - भरी विभूति सी ।
मनोज की मंजुल - पीठिका - समा ।
लसी कही थी सरसा सरोजिनी ।
कुमोदिनी - मानस - मोदिनी कही ।।५।।

नवांकुरो मे कलिका - कलाप मे ।
नितान्त न्यारे फल पत्र - पुंज मे ।
निसर्ग - द्वारा सु प्रसूत - पुष्प में ।
प्रभूत पुंजी - कृत थी प्रफुल्लता ॥६॥

विमुग्धता की वर - रंग - भूमि सी ।
प्रलुब्धता केलि वसुंधरोपमा ।
मनोहरा थीं तरु - वृन्द - डालियाँ ।
नई कली मंजुल - मंजरीमयी ॥७॥

अन्यूनता दिव्य फलादि की, दिखा ।
महत्व औ गौरव, सत्य - त्याग का ।
विचित्रता से करती प्रकाश थी ।
स - पत्रता पादप पत्र - हीन की ।।८।।

वसंत - माधुर्य - विकाश - वर्धिनी ।
क्रिया - मयी मार - महोत्सवांकिता ।
सु - कोपले थी तरु - अंक मे लसी ।
स - अंगरागा अनुराग - रंजिता ॥९॥

नये - नये पल्लववान पेड़ में ।
प्रसून मे आगत थी अपूर्वता ।
वसंत मे थी अधिकांश शोभिता ।
विकाशिता - वेलि प्रफुल्लिता - लता ।।१०।।

अनार मे औ कचनार मे बसी ।
ललामता थी अति ही लुभावनी ।
बड़े लसे लोहित - रंग - पुष्प से ।
पलाश की थी अपलाशता ढकी ।।११।।

स - सौरभा लोचन की प्रसादिका ।
वसंत - वासंतिकता - विभूषिता ।
विनोदिता हो बहु थी विनोदिनी ।
प्रिया - समा मंजु - प्रियाल - मंजरी ॥१२।।

दिशा प्रसन्ना महि पुष्प - संकुला ।
नवीनता - पूरित पादपावली ।
वसंत मे थी लतिका सु - यौवना ।
अलापिका पंचम - तान कोकिला ‌‌।।१३।।

अपूर्व - स्वर्गीय - सुगंध मे सना ।
सुधा बहाता धमनी - समूह मे ।
समीर आता मलयाचलांक से ।
किसे बनाता न विनोद - मग्न था ॥१४॥

प्रसादिनी - पुष्प सुगंध - वद्धिनी ।
विकाशिनी वेलि लता विनोदिनी ।
अलौकिकी थी मलयानिली क्रिया ।
विमोहिनी पादप पंक्ति - मोदिनी ॥१५॥

वसंत - शोभा प्रतिकूल थी बड़ी ।
वियोग - मग्ना ब्रज - भूमि के लिये ।
बना रही थी उसको व्यथामयी ।
विकाश पाती वन - पादपावली ।।१६।।

द्दगो उरो को दहती अतीव थी।
शिखाग्नि-तुल्या तरु - पुंज - कोपले।
अनार - शाखा कचनार - डाल थी।
अपार अंगारक पुंज - पूरिता ॥१७॥

नितान्त ही थी प्रतिकूलता - मयी।
प्रियाल की प्रीति - निकेत - मंजरी।
बना अतीवाकुल म्लान चित्त को।
विदारता था तरु कोविदार का ।।१८।।

भयंकरी व्याकुलता-विकासिका।
सशंकता - मूर्ति प्रमोद - नाशिनी।
अतीव थी 'रक्तमयी अशोभना।
पलाश की पंक्ति पलाशिनी समा ।।१९।।

इतस्तत. भ्रान्त - समान घूमती।
प्रतीत होती अवली. मिलिन्द की।
विदूषिता हो कर थी कलंकिता।
अलंकृता कोकिल कान्त कंठता ।।२०।।

प्रसून की मोहकता मनोज्ञता।
नितान्त · थी। अन्यमनस्कतामयी।
न वांछिता थी न विनोदनीय थी।
अ- मानिता हो मलयानिल - क्रिया ॥२१॥

बड़े यशस्वी वृषभानु गेह के।
समीप थी एक विचित्र वाटिका।
प्रबुद्ध ऊधो इसमे इन्ही दिनो।
प्रबोध देने ब्रज - देवि को गये ॥२२॥

वसंत को पा यह शान्त वाटिका ।
स्वभावतः कान्त नितान्त थी हुई ।
परन्तु होती उसमे स - शान्ति थी ।
विकाश की कौशल - कारिणी-क्रिया ॥२३॥

शनैः शनै: पादप पुज कोपले ।
विकाश पा के करती प्रदान थी ।
स- आतुरी रक्तिमता - विभूति को ।
प्रमोदनीया - कमनीय - श्यामता ।।२४।।

अनेक आकार - प्रकार से मनो ।
बता रही थी यह गूढ़ - म्मर्म वे ।
नही रॅगेगा वह श्याम - रंग मे ।
न आदि मे जो अनुराग में रंगा ।।२५।।

प्रसून थे भाव - समेत फूलते ।
लुभावने श्यामल पत्र अंक मे ।
सुगंध को पूत बना दिगन्त मे ।
पसारती थी पवनातिपावनी ॥२६।।

प्रफुल्लता मे अति - गूढ़ - म्लानता ।
मिली हुई साथ पुनीत - शान्ति के ।
सु-व्यंजिता संयत भाव संग थी ।
प्रफुल्ल - पाथोज प्रसून - पुज मे ॥२७॥

स - शान्ति आते उड़ते निकुंज मे ।
स - शान्ति जाते ढिग थे प्रसून के ।
बने महा- नीरव, शान्त, संयमी ।
स - शान्ति पीते मधु को मिलिन्द थे ।।२८।।
१६

विनोद से पादप पै विराजना ।
विहंगिनी साथ विलास बोलना ।
बँधा हुआ संयम - सूत्र साथ था ।
कलोलकारी खग का कलोलना ।।२९।।

न प्रायशः आनन त्यागती रही ।
न थी बनाती ध्वनिता दिगन्त को ।
न वाग मे पा सकती विकाश थी ।
अ - कुंठिता हो कल - कंठ - काकली ॥३०॥

इसी तपोभूमि - समान वाटिका -
सु- अंक मे सुन्दर एक कुंज थी ।
समावृता श्यामल - पुष्प - संकुला ।
अनेकश- वेलि - लता - समूह से ॥३१॥

विराजती थी वृप - भानु - नन्दिनी ।
इसी बड़े नीरव शान्त · कुंज मे ।
अतः यही श्रीवलवीर - वन्धु ने ।
उन्हे विलोका अलि - वृन्द आवृता ॥३२॥

प्रशान्त, म्लाना, वृषभानु - कन्यका -
सु - मूर्ति देवी सम दिव्यतामयी ।
विलोक, हो भावित भक्ति-भाव से ।
विचित्र ऊधो - उर की दशा हुई ।।३३।।

अतीव थी कोमल - कान्ति नेत्र की ।
परन्तु थी शान्ति विषाद - अंकिता ।
विचित्र - मुद्रा मुख - पद्म की मिली ।
प्रफुल्लता - आकुलता - समन्विता ।।३४।।

स-प्रीति वे आदर के लिये उठी ।
विलोक आया,ब्रज-देव-वन्धु को ।
पुनः उन्होने निज- शान्त-कुंज मे ।
उन्हे बिठाया अति-भक्ति - भाव से ॥३५।।

अतीव - सम्मान समेत आदि मे ।
ब्रजेश्वरी की कुशलादि पूछ के ।
पुनः सुधी - ऊधव ने स - नम्रता ।
कहा संदेसा यह श्याम - मूर्ति का ॥३६।।

मन्दाक्रान्ता छन्द
प्राणधारे परम - सरले प्रेम की मूर्ति राधे ।
निर्माता ने पृथक तुमसे यो किया क्यो मुझे है ।
प्यारी आशा प्रिय - मिलन की नित्य है दूर होती ।
कैसे ऐसे कठिन - पथ का पान्थ मै हो रहा हूँ ॥३७॥

जो दो प्यारे हृदय मिल के एक ही हो गये है ।
क्यो धाता ने विलग उनके गात को यो किया है ।
कैसे आ के गुरु - गिरि पड़े बीच में है उन्हींके ।
जो दो प्रेमी मिलित पय औ नीर से नित्यशः थे ॥३८॥

उत्कण्ठा के विवश नभ को, भूमि को, पादपो को ।
ताराओ को, मनुज - मुख को प्रायश. देखता हूँ ।
प्यारी! ऐसी न ध्वनि मुझको है कही भी सुनाती ।
जो चिन्ता से चलित - चित की शान्ति का हेतु होवे ॥३९॥

जाना जाता मरम विधि के बंधनो का नहीं है ।
तो भी होगा उचित चित मे यो प्रिये सोच लेना ।
होते जाते विफल यदि हैं सर्व- संयोग सूत्र ।
तो होवेगा निहित इसमें श्रेय का बीज कोई ॥४०॥

है प्यारो औ मधर सुख औ भोग की लालसाये ।
कान्ते, लिप्सा जगत - हित की और भी है मनोज्ञा ।
इच्छा आत्मा परम - हित की मुक्ति की उत्तमा है ।
वांछा होती विशद उससे आत्म - उत्सर्ग की है ।।४१।।

जो होता है निरत तप मे मुक्ति की कामना से ।
आत्मार्थी है, न कह सकते है उसे आत्मत्यागी ।
जी से प्यारा जगत - हित औ लोक - सेवा जिसे है ।
प्यारी सच्चा अवनि - तल मे आत्मत्यागी वही है ।।४२।।

जो पृथ्वी के विपुल - सुख की माधुरी है विपाशा ‌।
प्राणी - सेवा जनित सुख की प्राप्ति तो जन्हुजा है ।
जो आद्या है नखत द्युति सी व्याप जाती उरो मे ।
तो होती है लसित उसमे कौमुदी सी द्वितीया ।।४३।।

भोगो मे भी विविध कितनी रंजिनी - शक्तियाँ है ।
वे तो भी हैं जगत - हित से मुग्धकारी न होते ।
सच्ची यो है कलुप उनमे है बड़े क्लान्तिकारी ।
पाई जाती लसित इसमें शान्ति लोकोत्तरा है ‌‌।।४४।।

है आत्मा का न सुख किसको विश्व के मध्य प्यारा ।
सारे प्राणी स - रुचि इसकी माधुरी मे बँधे हैं ।
जो होता है न वश इसके आत्म - उत्सर्ग - द्वारा ।
ऐ कान्ते है सफल अवनी - मध्य आना उसीका ॥४५।।

जो है भावी परम - प्रबला देव - इच्छा प्रधाना ।
तो होवेगा उचित न, दुखी वांछितो. हेतु होना ।
श्रेयःकारी सतत दयिते सात्विकी - कार्य होगा ।
जो हो स्वार्थोपरत भव मे सर्व - भूतोपकारी ॥४६॥

वास्थ छन्द
अतीव हो अन्यमना विषादिता ।
विमोचते वारि गारविन्द से ।
समस्त सन्देश सुना ब्रजेश का ।
ब्रजेश्वरी ने उर वज्र सा बना ॥४७॥

पुन' उन्होने अति शान्त - भाव से ।
कभी बहा अश्रु कभी स-धीरता ।
कही स्व - बाते बलवीर - बंधु से ।
दिखा कलत्रोचित-चित्त - उच्चता ॥४८॥

मन्दाक्रान्ता छन्द
मै हूँ ऊधो पुलकित हुई आपको आज पा के ।
सन्देशो को श्रवण कर के और भी मोदिता है ।
मंदीभूता, उर - तिमिर की ध्वंसिनी ज्ञान आमा ।
उद्दीप्ता हो उचित - गति से उज्ज्वला हो रही है ।।४९।।

मेरे प्यारे, पुरुष, पृथिवी - रत्न औ शान्त धी है ।
सन्देशो मे तदपि उनकी, वेदना, व्यंजिता है ।
मै नारी हूँ, तरल - उर है, प्यार से वचिता हूँ ।
जो होती हूँ विकल, विमना, व्यस्त, वैचित्र्य क्या है ॥५०॥

हो जाती है रजनि मलिना ज्यो कला - नाथ डूबे ।
वाटी शोभा रहित बनती ज्यो वसन्तान्त मे है ।
त्योंही प्यारे विधु - वदन की कान्ति से वचिता हो ।
श्री - होना और मलिन ब्रज की मेदिनी हो गई है ।।५१।।

जैसे प्रायः लहर उठती वारि मे वायु से है ।
त्योही होता चित चलित है कश्चिदावेग - द्वाग ।
उद्वेगो से व्यथित बनना गत स्वाभाविकी है ।
हॉ, ज्ञानी औ विबुध - जन मे मुह्यता है न होती ॥५२॥

पूरा - पूरा परम - प्रिय का मर्म मै बूझती हूँ ।
है जो वांछा विशद उर मे जानती भी उसे हूँ ।
यत्नो द्वारा प्रति -दिन अतः मै महा संयता हूँ ।
तो भी देती विरह - जनिता - वासनाये व्यथा है ॥५३॥

जो मै कोई विहग उड़ता देखती व्योम मे हूँ ।
तो उत्कण्ठा - विवश चित मे आज भी सोचती हूँ ।
होते मेरे अबल तन मे पक्ष जो पक्षियो से ।
तो यों ही मै स - मुद उड़ती श्याम के पास जाती ॥५४॥

जो उत्कण्ठा अधिक प्रबला है किसी काल होती ।
तो ऐसी है लहर उठती चित्त मे कल्पना की ।
जो हो जाती पवन, गति पा वांछिता लोक - प्यारी ।
मै छू आती परम - प्रिय के मंजु - पादाम्बुजो को ।।५५।।

निर्लिप्ता हूं अधिकतर मैं नित्यशः - संयता हूँ ।
तो भी होती अति व्यथित हूँ श्याम की याद आते ।
वैसी वांछा जगत - हित की आज भी है न होती ।
जैसी जी मे लसित प्रिय के लाभ की लालसा है ।।५६।।

हो जाता है उदित उर मे मोह जो रूप - द्वारा ।
व्यापी भू मे अधिक जिसकी मंजु - कार्य्यावली है ।
जो प्रायः है प्रसव करता मुग्धता मानसो मे ।
जो है क्रीड़ा अवनि चित की भ्रान्ति उद्विग्नता का ।।५७।।

जाता है पंच - शर जिसकी ‘कल्पिता - मूर्ति'। माना ।
जो पुष्पो के विशिख - बल से विश्व को वेधता है ।
भाव - ग्राही मधुर - महती चित्त - विक्षेप - शीला ।
न्यारी - लीला सकल जिसकी मानसोन्मादिनी है ।।५८॥

वैचित्र्यो से वलित उसमे ईदृशी शक्तियाँ है ।
ज्ञाताओ ने प्रणय उसको है बताया न तो भी ।
है दोनो से सबल बनती भूरि - आसंग - लिप्सा ।
}}होती है किन्तु प्रणयज ही स्थायिनी औ प्रधाना ॥५९॥

जैसे पानी प्रणय तृषितो की तृषा है न होती ।
हो पाती है न क्षुधित - क्षुधा अन्न - आसक्ति जैसे ।
वैसे ही रूप निलय नरो मोहनी - मूर्तियो मे ।
हो पाता है न ‘प्रणय' हुअा मोह रूपादि - द्वारा ॥६०॥

मूली - भूता इस प्रणय की बुद्धि की वृत्तियाँ है ।
हो जाती है समधिकृत जो व्यक्ति के सद्गुणो से ।
वे होते है नित नव, तथा दिव्यता - धाम, स्थायी ।
पाई जाती प्रणय - पथ मे स्थायिता है इसीसे ॥६१॥

हो पाता है विकृत स्थिरता - हीन है रूप होता ।
पाई जाती नहि इस लिये मोह मे स्थायिता है ।
होता है रूप विकसित भी प्रायश एक ही सा ।
हो जाता है प्रशमित अतः मोह संभोग से भी ।।६२।।

नाना स्वार्थों सरस - सुख की वासना - मध्य डूबा ।
आवेगो से वलित ममतावान है मोह होता ।
निष्कामी है प्रणय - शुचिता - मूर्ति है सात्विकी है ।
होती पूरी - प्रमिति उसमे आत्म - उत्सर्ग की है ।।६३॥
 
सद्य होती फलित, चित मे मोह की मत्तता है ।
धीरे - धीरे प्रणय वसता, व्यापता है उरो मे ।
हो जाती है विवश अपरा - वृत्तियॉ मोह - द्वारा ।
भावोन्मेषी प्रणय करता चित्त सद्वृत्ति को है ॥६४।।

हो जाते है उदय कितने भाव ऐसे उरो मे ।
होती है मोह - वश जिनमे प्रेम की भ्रान्ति प्रायः ।
वे होते है न प्रणय न वे है समीचीन होते ।
पाई जाती अधिक उनमे मोह की वासना है ॥६५॥

हो के उत्कण्ठ प्रिय - सुख की भूयसी - लालसा से ।
जो है प्राणी हृदय - तल की वृत्ति उत्सर्ग - शीला ।
पुण्याकांक्षा सुयश - रुचि वा धर्म - लिप्सा बिना ही ।
जाताओं ने प्रणय अभिधा दान की है उसीको ॥६६।।

आदौ होता गुण ग्रहण है उक्त सद्वृत्ति - द्वारा ।
हो जाती है उदित उर में फेर आसंग-लिप्सा ।
होती उत्पन्न सहृदयता बाद संसर्ग के है ।
पीछे खो आत्म - सुधि लसती आत्म - उत्सर्गता है ।।६७।।

सद्गंधो से, मधुर - स्वर से, स्पर्श से औ रसो से ।
जो है प्राणी हृदय - तल मे मोह उद्भूत होते ।
वे ग्राही है जन - हृदय के रूप. के मोह ही से ।
हो पाते है तदपि उतने मैत्तकारी नही वे ॥६८॥

व्यापी भी है अधिक उनसे रूप का मोह होता ।
पाया जाता प्रबल उसका चित्त - चाञ्चल्य भी है ।
मानी जाती न क्षिति - तल मे है पतंगोपमाना ।
भृङ्गो, मीनो, द्विरद मृग की मत्तता प्रीतिमत्ता ॥६९।।

मोहो मे है प्रबल सबसे रूप का मोह होता ।
कैसे होगे अपर, वह जो प्रेम है हो न पाता ।
जो है प्यारा प्रणय - मणि सा कॉच सा मोह तो है ।
ऊँची न्यारी रुचिर महिमा मोह से प्रेम की है ॥७०॥

दोनो ऑखे निरख जिसको तृप्त होती नही हैं ।
ज्यो-ज्यो देखे अधिक जिसकी दीखती मजुता है ।
जो है लीला - निलय महि मे वस्तु स्वर्गीय जो है ।
ऐसा राका - उदित - विधु सा रूप उल्लासकारी ।।७१।।

उत्कण्ठा से बहु सुन जिसे मत्त सा वार लाखो ।
कानो की है न तिल भर भी दूर होती पिपासा ।
हत्तन्त्री मे ध्वनित करता स्वर्ग- संगीत जो है ।
ऐसा न्यारा - स्वर उर - जयी विश्व - व्यामोहकारी ॥७२।।

होता है मूल अग जग के सर्वरूपो - स्वरो का ।
या होती है मिलित उसमे मुग्धता सद्गुणों की ।
ए बाते ही विहित - विधि के साथ है व्यक्त होती ।
न्यारे गंधो सरस - रस, औ स्पर्श-वैचित्र्य में भी ।।७३।।

पूरी - पूरी कुँवर - वर के रूप मे है महत्ता ।
मंत्रो से हो मुखर, मुरली दिव्यता से भरी है ।
सारे न्यारे प्रमुख - गुण की सात्विकी मूर्ति वे है ।
कैसे व्यापी प्रणय उनका अन्तरो मे न होगा ।।७४।।

जो आसक्ता ब्रज - अवनि मे बालिकायें कई है ।
वे सारी ही प्रणय - रॅग से श्याम के रञ्जिता है ।
मैं मानेंगी अधिक उनमे है महा - मोह - मग्ना ।
तो भी प्राय प्रणय - पथ की पंथिनी ही सभी है ।।७५।।

मेरी भी है कुछ गति यही श्याम को भूल दूं क्यो ।
काढ़ूॅ कैसे हृदय - तल से श्यामली - मूर्ति न्यारी ।
जीते जी जो न मन सकता भूल है मंजु - ताने ।
तो क्यो होगी शमित प्रिय के लाभ की लालसाये ॥७६।।

ए ऑखे है जिधर फिरती चाहती श्याम को है ।
कानो को भी मधुर - रव की आज भी लौ लगी है ।
कोई मेरे हृदय - तल - को पैठ के जो विलोके ।
तो पावेगा लसित उसमे कान्ति - प्यारी उन्हींकी ॥७७।।

जो होता है उदित नभ मे कौमुदी कांत आ के ।
या जो कोई कुसुम विकसा देख पाती कही हूँ ।
शोभा- वाले हरित दल के पादपो को विलोके ।
है प्यारे का विकच - मुखड़ा आज भी याद आता ॥७८॥

कालिन्दी के पुलिन पर जा, या, सजीले - सरों मे ।
जो मै फूले - कमल - कुल को मुग्ध हो देखती हूँ ।
तो प्यारे के कलित - कर की औ अनूठे - पगो की ।
छा जाती है सरस - सुषमा वारि स्रावी - हगो मे ॥७९॥

ताराओ से खचित - नभ को देखती जा कभी हूँ ।
या मेघों मे मुदित - वक की पंक्तियाँ दीखती है ।
तो जाती हूँ उमग बँधता ध्यान ऐसा मुझे है ।
मानो मुक्ता - लसित - उर है श्याम का दृष्टि आता ॥८॥

छू देती है मृदु - पवन जो पास आ गात मेरा ।
तो हो जाती परस सुधि है श्याम - प्यारे - करो की ।
ले पुष्पो की सुरभि वह जो कुंज मे डोलती है ।
तो गंधो से बलित मुख की वास है याद आती ॥८१‌‌।।

ऊँचे - ऊँचे शिखर चित की उच्चता हैं दिखाते ।
ला देता है परम दृढ़ता मेरु आगे हगो के ।
नाना - क्रीड़ा - निलय - झरना चारु - छीटे उड़ाता ।
उल्लासो को कुंवर • वर के चक्षु मे है लसाता ।।८२॥

कालिन्दी एक प्रियतम के गात की श्यामता ही ।
मेरे प्यासे हग - युगल के सामने है न लाती ।
प्यारी लीला सकल अपने कूल की मंजुता से ।
सद्भावो के सहित चित मे सर्वदा है लसाती ॥८३॥

फुली संध्या परम - प्रिय की कान्ति सी है दिखाती ।
मै पाती है रजनि - तन मे श्याम का रङ्ग छाया ।
ऊषा आती प्रति - दिवस है प्रीति से रंजिता हो ।
पाया जाता वर - वदन सा ओप आदित्य में है ।।८४।।

मै पाती हूँ अलक - सुषमा भृङ्ग की मालिका मे ।
है आँखो की सु - छवि मिलती खंजनो औ मृगो मे ।
दोनो बॉहे कलभ कर को देख है याद आती ।
पाई शोभा रुचिर शुक के ठोर में नासिका की ।।८५।।

है दॉतो की झलक मुझको दीखती दाडिमो मे ।
विम्बाओ मे वर अधर सी राजती लालिमा है ।
मै केलो मे जघन - युग की मंजुता देखती हूँ ।
गुल्फो की सी ललित सुषमा है गुलो मे दिखाती ।।८६।।

नेत्रोन्मादी बहु - मुदमयी - नीलिमा गात की सी ।
न्यारे नीले गगन - तल के अङ्क मे राजती है ।
भू मे शोभा, सुरस जल मे, वन्हि मे दिव्य - आभा ।
मेरे प्यारे - कुँवर वर सी प्रायशः है दिखाती ।।८७।।

सायं प्रात. सरस - स्वर से कूजते है पखेरू ।
प्यारी - प्यारी मधुर - ध्वनियाँ मत्त हो, है सुनाते ।
मै पाती हूँ मधुर ध्वनि मे कूजने मे खगो के। मीठी ‌।
ताने परम - प्रिय की मोहिनी - वंशिका की ।।८८।।

मेरी बाते श्रवण कर के आप उद्विग्न होंगे ।
जानेगे मैं विवश बन के हूँ महा - मोह - मग्ना ।
सच्ची यो है न निज - सुख के हेतु मै मोहिता हूँ ।
संरक्षा में प्रणय - पथ के भावतः हूँ सयत्ना ॥८९।।

हो जाती है विधि - सृजन से इक्षु मे माधुरी जो ।
आ जाता है सरस रॅग जो पुष्प की पंखड़ी में ।
क्यो होगा सो रहित रहते इक्षुता - पुप्पता के ।
ऐसे ही क्यो प्रेसृत उर से जीवनाधार होगा ॥९०॥

क्यो मोहेगे न ग लख के मूर्तियाँ रूपवाली ।
कानो को भी मधुर - स्वर से मुग्धता क्यो न होगी ।
क्यो डूबेगे न उर रेंग मे प्रीति - आरंजितो के ।
धाता - द्वारा सृजित तन-में तो इसी हेतु वे है ॥९१॥

छाया - ग्राही मुकुर यदि हो वारि हो चित्र क्या है ।
जो वे छाया ग्रहण न करे चित्रता तो यही है ।
वैसे ही नेत्र, श्रुति, उर मे जो न रूपादि व्यापे ।
तो विज्ञानी - विबुध उनको स्वस्थ कैसे कहेगे ॥१२॥

पाई जाती श्रवण करने आदि मे भिन्नता है ।
देखा जाना प्रभति भव मे भूरि - भेदों भरा है ।
कोई होता कलुप - युत है कामना - लिप्त हो के ।
त्योही कोई परम - शुचितावान औ संयमी है ।।९३।।

पक्षी होता सु - पुलकित है देख सत्पुष्प फूला ।
भौरा शोभा निरख रस ले मत्त हो गूॅजता है ।
अर्थी - माली मुदित बन भी है उसे तोड़ लेता ।
तीनो का ही कल - कुसुम का देखना यो त्रिधा है ।।९४।।

लोकोल्लासी छवि लख किसी रूप उद्भासिता की ।
कोई होता मदन - वश है मोद मे मग्न कोईक्ष।
कोई गाता परम - प्रभु की कीर्ति है मुग्ध सा हो ।
यो तीनो की प्रचुर - प्रखरा दृष्टि है भिन्न होती ।।९५।।

शोभा - वाले विटप विलसे पक्षियो के स्वरो से ।
विज्ञानी है परम - प्रभु के प्रेम का पाठ पाता ।
व्याधा की है हनन - रुचियाँ और भी तीव्र होती ।
यो दोनो के श्रवण करने मे बड़ी भिन्नता है ।।९६।।

यो ही है भेद युत चखना, सूॅघना और छूना ।
पात्रो में है प्रकट इनकी भिन्नता नित्य होती ।
ऐसी ही है हृदय - तल के भाव मे भिन्नतायें ।
भावो ही से अवनि - तल है स्वर्ग के तुल्य होता ।।९७।।

प्यारे आवें सु - बयन कहे प्यार से गोद लेवे ।
ठंढे होवें नयन दुख हो दूर मै मोद पाऊँ ।
ए भी है भाव मम उर के और ए भाव भी है ।
प्यारे जीवे जग - हित करे गेह चाहे न आवे ॥९८॥

जो होता है हृदय - तल का भाव लोकोपतापी ।
छिद्रान्वेपी, मलिन, वह है तामसी - वृत्ति - वाला ।
नाना भोगाकलित, विविधा - वासना - मध्य डूवा ।
जो है स्वार्थाभिमुख वह है राजसी - वृत्ति शाली ।।९९।।

निष्कामी है भव - सुखद है और है विश्व - प्रेमी ।
जो है भोगोपरत वह है सात्विकी - वृत्ति - शोभी ।
ऐसी ही है श्रवण करने आदि की भी व्यवस्था ।
आत्मोत्सर्गी, हृदय - तल की सात्विकी - वृत्ति ही है ।।१००।।

जिह्वा, नासा, श्रवण अथवा नेत्र होते शरीरी ।
क्यो त्यागेगे प्रकृति अपने कार्य को क्यो तजेगे ।
क्यो होवेगी शमित उर की लालसाये, अतः मै ।
रंगे देती प्रति - दिन उन्हे सात्विकी - वृत्ति मे हूँ ॥१०१।।

कजो का या उदित - विधु का देख सौदर्य ऑखो ।
या कानो से श्रवण कर के गान मीठा खगो का ।
मै होती थी व्यथित, अब हूँ शान्ति सानन्द पाती ।
प्यारे के पॉव, मुख, मुरली - नाद जैसा उन्हे पा ॥१०२।।

यो ही जो अवनि नभ मे दिव्य, प्यारा, उन्हें मैं ।
जो छूती हूँ श्रवण करती देखती सूॅघती हूँ ।
तो होती हूँ मुदित उनमे भावतः श्याम की पा ।
न्यारी - शोभा, सुगुण - गरिमा अंग संभूत साम्य ॥१०३॥

हो जाने से हृदय - तल का भाव ऐसा निराला ।
मैने न्यारे परम गरिमावान दो लाभ पाये ।
मेरे जी में हृदय विजयी विश्व का प्रेम जागा ।
मैने देखा परम प्रभु को स्वीय - प्राणेश ही मे ॥१०४।।

पाई जाती विविध जितनी वस्तुये है सबो मे ।
जो प्यारे को अमित रंग औ रूप मे देखती हूँ ।
तो मैं कैसे न उन सबको प्यार जी से करूँगी ।
यो है मेरे हृदय - तल में विश्व का प्रेम जागा ।।१०५।।
 
जो आता है न जन - मन मे जो परे बुद्धि के है ।
जो भावो का विषय न बना नित्य अव्यक्त जो है ।
है ज्ञाता की न गति जिसमे इन्द्रियातीत जो है ।
सो क्या है, मै अबुध अबला जान पाऊँ उसे क्यो ॥१०६।।

शास्त्रो में है कथित प्रभु के शीश औ लोचनो की ।
संख्याये है अमित पग औ हस्त भी है अनेको ।
सो हो के भी रहित मुख से नेत्र नासादिको से ।
छूता, खाता, श्रवण करता, देखता, सूॅघता है ॥१०७।।

ज्ञाताओ ने विशद इसका मर्म यो है बताया ।
सारे प्राणी अखिल जग के मूर्तियाँ है उसीकी ।
होती ऑखे प्रभृति उनकी भूरि - संख्यावती है ।
सो विश्वात्मा अमित - नयनो आदि - वाला अत' है ।।१०८।।

निष्प्राणो की विफल वनती सर्व - गानेन्द्रियाँ है ।
है अन्या - शक्ति कृति करती वस्तुतः इन्दियों की ।
सा है नासा न हग रसना आदि ईशांश ही है ।
हो के नासादि रहित अतः सूंघता आदि सो है ॥१०९।।

ताराओ मे तिमिर - हर मे वह्नि - विद्युल्लता मे ।
नाना रत्नो, विविध मणियो मे विभा है उसीकी ।
पृथ्वी, पानी, पवन, नभ. मे, पादपो मे, खगो मे ।
मै पाती हूँ प्रथित - प्रभुता विश्व मे व्याप्त की ही ॥११०॥

प्यारी - सत्ता जगत - गत की नित्य लीला - मयी है ।
स्नेहोपेता परम - मधुरा पूतता मे पगी है ।
ऊँची -न्यारी- सरल - सरसा ज्ञान - गर्भा मनोज्ञा ।
पूज्या मान्या हृद्य - तल की रंजिनी उज्वला है ।।१११।।

मैने की है कथन जितनी शास्त्र - विज्ञात बाते ।
वे बाते है प्रकट करती ब्रह्म है विश्व - रूपी ।
व्यापी है विश्व प्रियतम मे विश्व मे प्राणप्यारा ।
यों ही मैने जगत - पति को श्याम में है विलोका ॥११२॥

शास्त्रो मे है लिखित प्रभु की भक्ति निष्काम जो है ।
सो, दिव्या है मनुज - तन की सर्व संसिद्धियो से ।
मै होती हूँ सुखित यह जो तत्वतः देखती हूँ ।
प्यारे की औ परम - प्रभु की भक्तियाँ है अभिन्ना ॥११३।।

द्रुतविलम्बित छन्द
जगत - जीवन प्राण स्वरूप का ।
निज पिता जननी गुरु आदि का ।
स्व - प्रिय का प्रिय साधन भक्ति है ।
वह अकाम महा - कमनीय है ॥११४।।

श्रवण, कीर्तन, वन्दन, दासता ।
स्मरण, आत्म - निवेदन, अर्चना ।
सहित सख्य तथा पद - सेवना ।
निगदिता नवधा प्रभु - भक्ति है ॥११५।।

वंशस्थ छन्द
बना किसी की यक मूर्ति कल्पिता ।
करे उसीकी पद- सेवनादि जो ।
न तुल्य होगा वह बुद्धि दृष्टि से ।
स्वयं उसीकी पद - अर्चनादि के ॥११६॥

मन्दाक्रान्ता छन्द
विश्वात्मा जो परम प्रभु है रूप तो है उसीके ।
सारे प्राणी सरि गिरि लता वेलियाँ वृक्ष नाना ।
रक्षा पूजा उचित उनका यत्न सम्मान सेवा ।
भावोपेता परम प्रभु की भक्ति सर्वोत्तमा है ।।११७।।
 
जी से सारा कथन सुनना आर्च- उत्पीड़ितों का ।
रोगी प्राणी व्यथित जन का लोक - उन्नायको का ।
सच्छास्त्रो का श्रवण सुनना वाक्य सत्संगियो का ।
मानी जाती श्रवण - अभिधा - भक्ति है, सज्जनो मे ।।११८।।

सोये जागे, तम - पतित की दृष्टि मे ज्योति आवे ।
भूले 'आवे सु - पथ पर औ ज्ञान - उन्मेप होवे ।
ऐसे गाना कथन करना दिव्य - न्यारे गुणो का ।
है प्यारी भक्ति प्रभुवर की कीतनोपाधिवाली ॥११९।।

विद्वानो के स्व - गुरु - जन के देश के प्रेमिको के ।
ज्ञानी दानी सु • चरित गुणी सर्व - तेजस्वियों के ।
आत्मोत्सर्गी विवुध जन के देव' सद्विग्रहो के।
आगे होना नमित प्रभु की भक्ति है वन्दनाख्या ॥१२०।।

जो बाते हैं भव - हितकरी सर्व - भूतोपकारी ।
जो चेष्टाये मलिन गिरती जातियाँ है ऊठाती ।
हो सेवा मे निरत उनके अर्थ उत्सर्ग होना ।
विश्वात्मा - भक्ति भव - सुखदा दासता - संज्ञका है ।।१२।।

कगालो को विवश विधवा औ अनाथाश्रितो की ।
उद्विग्नो की सुरति करना औ उन्हे त्राण देना ।
सत्कार्यों का पर · हृदय की पीर का ध्यान आना ।
मानी जाती स्मरण - अभिधा भक्ति है भावुको मे ।।१२२।।
द्रुतविलम्बित छन्द विपद
सिन्धु पड़े नर - वृन्द के ।
दुख - निवारण औ हित के लिये ।
अरपना अपने तन प्राण को ।
प्रथित आत्म-निवेदन-भक्ति है ॥१२३।।
मन्दाक्रान्ता छन्द
संत्रस्तो को शरण मधुरा - शान्ति संतापितों को ।
निर्बोधो को सु - मति विविधा औपधी पीडितो को।
पानी देना तृषित - जन को अन्न भूखे नरो को ।
सर्वात्मा भक्ति अति रुचिरा अर्चना - सज्ञका है ।।१२४।।

१७

नाना प्राणी तरु गिरि लता आदि की बात ही क्या ।
जो दूर्वा से धु - मणि तक है व्योम मे या धरा मे ।
सद्भावों के सहित उनसे कार्य - प्रत्येक लेना ।
सच्चा होना सुहृद उनका भक्ति है सख्य - नाम्नी ॥१२५॥

वसततिलका छन्द
जो प्राणि - पुंज निज कर्म-निपीड़नो से ।
नीचे समाज - वपु के पग सा पड़ा है ।
देना उसे शरण मान प्रयत्न द्वारा ।
है भक्ति लोक - पति की पद-सेवनाख्या ।।१२६।।

द्रुतविलम्बित छन्द
कह चुकी प्रिय - साधन इंश का ।
कुँवर का प्रिय - साधन है यही ।
इस लिये प्रिय की परमेश की ।
परम - पावन - भक्ति अभिन्न है॥१२७‌‌।।

यह हुआ मणि - कांचन - योग है ।
मिलन है यह स्वर्ण - सुगंध का ।
यह सुयोग मिले बहु' - पुण्य से ।
अवनि मे अति - भाग्यवती हुई ॥१२८॥

मन्दाक्रान्ता छन्द
जो इच्छा है परम - प्रिय की जो अनुज्ञा हुई है ।
मै प्राणो के अछत उसको भूल कैसे सकेंगी ।
यो भी मेरे परम व्रत के तुल्ये बातें यही थी ।
हो जाऊँगी अधिक अब मै दत्तचित्ता इन्हीमे ॥१२९।।

मैं मानॅगी अधिक मुझमे मोह - मात्रा अभी है ।
होती हूँ मै प्रणय - रंग से रंजिता नित्य तो भी ।
ऐसी हूँगी निरत अब मैं पूत - कार्यावली मे ।
मेरे जी मे प्रणय जिससे पूर्णत. व्याप्त होवे ॥१३०॥


मैंने प्रायः निकट प्रिय के बैठ, है भक्ति सीखी ।
जिज्ञासा से विविध उसका मर्म है जान पाया ।
चेष्टा ऐसी सतत अपनी बुद्धि - द्वारा करूँगी ।
भूलूँ - चू न इस व्रत की पूत - कार्य्यावली मे ॥१३१||

जा के मेरी विनय इतनी नम्रता से सुनावे ।
मेरे प्यारे कुँवर - वर को आप सौजन्य - द्वारा ।
मैं ऐसी हूँ न निज - दुख से कष्टिता शोक - मग्ना ।
हा । जैसी हूँ व्यथित ब्रज के वासियो के दुखो से ॥१३२।।

गोपी गोपो विकल ब्रज की बालिका वालको को ।
आ के पुष्पानुपम मुखड़ा प्राणप्यारे दिखावे ।
वाधा कोई न यदि प्रिय के चारु - कर्तव्य मे हो ।
तो वे आ के जनक - जननी की दशा देख जावे ॥१३३।।

मै मानूंगी अधिक बढ़ता लोभ है लाभ ही से ।
तो भी होगा सु - फल कितनी भ्रान्तियाँ दूर होगी ।
जो उत्कण्ठा - जनित दुखड़े दाहते है उरो को ।
सद्वाक्यो से प्रवल उनका वेग भी शान्त होगा ॥१३४।।

सत्कर्मी है परम - शुचि है आप ऊधो सुधी है ।
अच्छा होगा सनय प्रभु से आप चाहे यही जो ।
आज्ञा भूलें न प्रियतम की विश्व के काम आऊँ ।
मेरा कौमार - व्रत भव में पूर्णता प्राप्त होवे ॥१३५।।द्रुतविलम्बित छन्द
चुप हुई इतना कह मुग्ध हो ।
व्रज - विभूति - विभूषण राधिका ।
चरण की रज ले हरिवंधु भी ।
परम - शान्ति - समेत बिदा हुए ॥१३६।।

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मन्दाक्रान्ता छन्द
ऊधो लौटे नगर मथुरा मे कई मास बीते ।
आये थे वे ब्रज - अवनि में दो दिनो के लिये ही।
आया कोई न फिर ब्रज मे औ न गोपाल आये।
धीरे-धीरे निशि - दिन लगे बीतने व्यग्रता से ॥१॥

बीते थोड़ा दिवस ब्रज मे एक सम्वाद आया।
कन्याओ से निधन सुन के कंस का कृष्ण द्वारा।
जाना ग्रामो पुर नगर को फेंकता भू - कॅपाता।
सारी सेना सहित मथुरा है जरासन्ध आता ॥२॥

ए बाते ज्यो ब्रज - अवनि में हो गई व्यापमाना।
सारे प्राणी अति व्यथित हो, हो गये शोक - मग्न ।
क्या होवेगा परम - प्रिय की आपदा क्यो टलेगी।
ऐसी होने प्रति - पल लगी तर्कनाये उरो में ।। ३॥