प्रियप्रवास/पंचदश सर्ग
मन्दाक्रान्ता छन्द
छाई प्रातः - सरस छवि थी पुष्प औ पल्लवो मे ।
कुंजो मे थे भ्रमण करते हो महा - मुग्ध ऊयो ।
आभा - वाले अनुपम इसी काल मे एक वाला ।
भावो - द्वारा - भ्रमित उनको सामने दृष्टि आई ।।१।।
नाना बाते कथन करते देख पुष्पादिको से ।
उन्मत्ता की तरह, करते देख न्यारी - क्रियाये ।
उत्कण्ठा के सहित उसका वे लगे भेद लेने ।
कुजों मे या, विटपचय की ओट मे मौन बैठे ॥२॥
थे बाला के हग - युगल के सामने पुष्प नाना ।
जो हो- हो के विकच, कर मे भानु के सोहते थे ।
शोभा पाता यक कुसुम था लालिमा पा निराली ।
सो यो बोली निकट उसके जा बड़ी ही व्यथा से ॥३॥
आहा कैसी तुझ पर लसी माधुरी है अनूठी ।
तू ने कैसी सरस - सुषमा आज है पुष्प पाई ।
चूमूं चाटू नयन भर मै रुप तेरा विलोकूँ ।
जी होता है हृदय - तल से मै तुझे ले लगा लें ॥४॥
क्या बाते है मधुर इतना आज तू जो बना है ।
क्या आते है ब्रज-अवनि मे मेघ सी कान्तिवाले ? ।
या कुंजो मे अटन करते देख पाया उन्हे है ।
या आ के है स - मुद् परसा हस्त - द्वारा उन्होने ॥ ५॥
तेरी प्यारी मधुर - सरसा - लालिमा है बताती ।
डूबा तेरा हृदय - तल है लाल के रंग ही मे ।
मै होती हूँ विकल पर तू बोलता भी नहीं है ।
कैसे तेरी सरस - रसना कुंठिता हो गई है ।।६।।
हा! कैसी मैं निठुर तुझसे वंचिता हो रही हूँ ।
जो जिह्वा हूँ कथन - रहिता - पंखड़ी को बनाती ।
तू क्यो होगा सदय दुख क्यो दूर मेरा करेगा ।
तू कॉटो से जनित यदि है काठ का जो सगा है ।। ७॥
आ के जूही - निकट फिर यो वालिका व्यग्र बोली ।
मेरी बाते तनिक न सुनी पातकी - पाटलो ने ।
पीड़ा नारी - हृदय - तल की नारि ही जानती है ।
जूही तू है विकच - वदना शान्ति तू ही मुझे दे ।।८॥
तेरी भीनी - महॅक मुझको मोह लेती सदा थी ।
क्यो है प्यारी न वह लगती ‘आज, सच्ची बता दे ।
क्या तेरी है महक बदली या हुई और ही तू ।
या तेरा भी सरबस गया साथ ऊधो : सखा के ॥९॥
छोटी - छोटी रुचिर अपनी श्याम - पत्रावली मे ।
तू शोभा से विकच जब थी भूरिता साथ होती ।
ताराओ से खचित नभ सी भव्य तो थी दिखाती ।
हा! क्यो वैसी सरस - छवि से वंचिता आज तू है ॥१०॥
वैसी ही है सकल दल मे श्यामता दृष्टि आती ।
तू वैसी ही अधिकतर है वेलियो - मध्य फूली ।
क्यो पाती हूँ न अब तुझमे चारुता पूर्व जैसी ।
क्यो है तेरी यह गत हुई क्या न देगी बता तू ॥११॥
मैं पाती हूँ अधिक तुझमें क्यो कई एक चाते ।
क्या देती है व्यथित कर क्यो वेदना है बढ़ाती ।
क्यों होता है न दुख तुझको वंचना देख मेरी ।
क्या तू भी है निठुरपन के रंग ही बीच डूबी ।।१२।।
हो - हो पूरी चकित सुनती वेदना है हमारी ।
या तू खोले वदन हॅसती है दशा देख मेरी ।
मै तो तेरा सुमुखि! इतना मर्म भी हूँ न पाती ।
क्या आशा है अपर तुझसे है निराशामयी तू ॥१३॥
जो होता है सुखित, उसको अन्य की वेदनाये ।
क्या होती है विदित वह जो मुक्त - भोगी न होवे ।
तू फूली है हरित - दल मे बैठ के सोहती है ।
क्या जानेगी मलिन बनते पुष्प की यातनाये ॥१४॥
तू कोरी है न, कुछ तुझ मे प्यार का रंग भी है ।
क्या देखेगी न फिर मुझको प्यार की ऑख से तू ।
मै पूलूंगी भगिनी! तुझसे आज दो - एक बाते ।
तू क्या हो के सदय वतला ऐ चमेली न देगी ।।१५।।
थोड़ी लाली पुलकित - करी पंखड़ी - मध्य जो है ।
क्या सो वृन्दा-विपिन-पति की प्रीति की व्यंजिका है ।
जो है तो तू सरस - रसना खोल ले औ बता दे ।
क्या तू भी है प्रिय-गमन से यो महा - शोक-मग्ना ॥१६॥
मेरा जी तो व्यथित बन के बावला हो रहा है।
व्यापी सारे हृदय - तल मे वेदनाये सहस्रो।
मै पाती हूँ न कल दिन में, रात मे ऊबती हूँ।
भीगा जाता सर्व वदन है वारि - द्वारा हगो के ॥१७॥
क्या तू भी है रुदन करती यामिनी - मध्य यो ही।
जो पत्तो मे पतित इतनी वारि की दिया है।
पीड़ा द्वारा मथित - उर के प्रायशः काँपती है।
या तू होती. मृदु - पवन से मन्द आन्दोलिता है ॥१८॥
तेरे पत्ते अति - रुचिर है कोमला तू वड़ी है।
तेरा पौधा कुसुम - कुल मे है बड़ा ही अनूठा ।
मेरी आँखे ललक पड़ती है तुझे देखने को।
हा । क्यो तो भी व्यथित चित की तू नामोदिका है ।।१९।।
हा! बोली तू न कुछ मुझसे औ वताई न बाते।
मेरा जी है कथन करता तू हुई तद्गता है।
मेरे प्यारे - कुँवर तुझको चित्त से चाहते थे।
तेरी होगी न फिर दयिते । आज ऐसी दशा क्यो ॥२०॥
जूही बोली न कुछ जतला प्यार बोली चमेली ।
मैने देखा हग - युगल से रंग भी पाटलो का।
तू बोलेगा सदय बन के ईशी है न आशा।
पूरा कोरा निठुरपन की मूर्ति ऐ पुष्प बेला ॥२१॥
मै पूलूंगी तदपि तुझसे आज बातें स्वकीया।
तेरा होगा सुयश मुझसे सत्य जो तू कहेगा।
क्यो होते है पुरुप कितने, प्यार से शून्य कोरे।
क्यो होता है न उर उनका सिक्त स्नेहाम्बु द्वारा ॥२२॥
आ के तेरे निकट कुछ भी मोद पाती न मै हूँ ।
तेरी तीखी महक मुझको कष्टिता है बनाती ।
क्यो होती है सुरभि सुखदा माधवी मल्लिका की ।
क्यो तेरी है दुखद मुझको पुष्प बेला बता तू ॥२३॥
तेरी सारे सुमन - चय से श्वेतता उत्तमा है ।
अच्छा होता अधिक यदि तू सात्विकी वृत्ति पाता ।
हा! होती है प्रकृति रुचि मे अन्यथा कारिता भी ।
रा एरे निठुर नतुवा सॉवला रग होता ॥२४॥
नाना पीड़ा निठुर - कर से नित्य मैं पा रही हूँ ।
तेरे मे भी निठुरपन का भाव पूरा भरा है ।
हो-हो खिन्ना परम तुझसे मै अतः पछती हूँ ।
क्यो देते है निठुर जन यो दूसरो को व्यथाये ।।२५।।
हा! तू बोला न कुछ अब भी तू बड़ा निर्दयी है ।
मै कैसी हूँ विवश तुझसे जो वृथा बोलती हूँ ।
खोटे होते दिवस जब है भाग्य जो फूटता है ।
कोई साथी अवनि - तल मे है किसीका न होता ॥२६॥
जो प्रेमांगी सुमन बन के औ तदाकार हो के ।
पीड़ा मेरे हृदय -तल की पाटलो ने न जानी ।
तो तू हो के धवल - तन औ कुन्त - आकार-अगी ।
क्यो बोलेगा व्यथित चित की क्यो व्यथा जान लेगा ॥२७॥
चम्पा तू है विकसित मुखी रूप औ रंगवाली ।
पाई जाती सुरभि तुझमे एक सत्पुष्प - सी है ।
तो भी तेरे निकट न कभी भूल है भृङ्ग आता ।
क्या है ऐसी कसर तुझमे न्यूनता कौन सी है ।।२८।।
क्या पीड़ा है न कुछ इसकी चित्त के मध्य तेरे।
क्या तू ने है मरम इसका अल्प भी जान पाया।
तू ने की है सुमुखि ! अलि का कौन सा दोप ऐसा।
जो तू मेरे सदृश प्रिय के प्रेम से वंचिता है ।।२९॥
सर्वागों मे सरस - रज औ धूलियो को लपेटे।
आ पुष्पो मे स - विधि करता गर्भ - आधान जो है।
जो ज्ञाता है मधुर - रस का मंजु जो गूॅजता है।
ऐसे प्यारे रसिक - अलि से तू असम्मानिता है ॥३०।।
जो आँखों मे मधूर - छवि की मूर्ति सी ऑकता है।
जो हो जाता उदधि उर के हेतु राका - शशी है।
जो वंशी के सरस - स्वर से है सुधा सी बहाता ।
ऐसे माधो- विरह - दव से मै महादग्धिता हूँ ॥३१॥
मेरी तेरी बहुत मिलती वेदनाये कई है।
आ रोऊँ ऐ भगिनि तुझको मैं गले से लगा के।
जो रोती है दिवस - रजनी दोष जाने बिना ही।
ऐसी भी है अवनि - तल मे जन्म लेती अनेको ॥३२॥
मैने देखा अवनि - तल मे श्वेत ही रंग ऐसा।
जैसा चाहे जतन करके रंग वैसा उसे दे।
तेरे ऐसी रुचिर-सितता कुन्द मैंने न देखी।
क्या त मेरे हृदय तल के रंग मे भी रॅगेगा ॥३३।।
क्या है होना विकच इसको पुष्प ही जानते है।
त कैसा है रुचिर लगता पत्तियो - मध्य फूला व।
तो भी कैसी व्यथित - कर है सो कली हाय! होती।
हो जाती है विधि - कुमति से म्लान फूले बिना जो ॥३४॥
मेरे जी की मृदुल - कलिका प्रेम के रंग राती ।
म्लाना होती अहह नित है अल्प भी जो न फूली ।
क्या देवेगा विकच इसको स्वीय जैसा बना तू ।
या हो शोकोपहत इसके तुल्य तू म्लान होगा ॥३५॥
वे है मेरे दिन अब कहाँ स्वीय उत्फुल्लता को ।
जो त मेरे हृदय - तल मे अल्प भी ला सकेगा ।
हाँ, थोड़ा भी यदि उर मुझे देख तेरा द्रवेगा ।
तो तू मेरे मलिन - मन की म्लानता पा सकेगा ।।३६।।
{{gap}हो जावेगी प्रथित-मृदुता पुष्प संदिग्ध तेरी ।
जो तू होगा व्यथित न किसी कष्ठिता की व्यथा से ।
कैसे तेरी सुमन - अभिधा सार्थ ऐ कुन्द होगी ।
जो होवेगा न अ-विकच तू म्लान होते चितो से ॥३७॥
सोने जैसा बरन जिसने गात का है बनाया ।
चित्तामोदी सुरभि जिसने केतकी दी तुझे है ।
यो कॉटो से भरित तुझको क्यो उसीने किया है ।
दी है धूली अलि अवलि को दृष्टि - विध्वंसिनी क्यो ॥३८॥
कालिन्दी सी कलित - सरिता दर्शनीया - निकुंजें ।
प्यारा-वृन्दी-विपिन विटपी- चारु न्यारी लतायें ।
शोभावाले - विहग जिसने है दिये हा । उसीने ।
कैसे माधो-रहित ब्रज की मेदनी को बनाया ॥३९।।
क्या थोड़ा भी सजनि! इसका मर्म तू पा सकी है ।
क्या धाता की प्रकट इससे मूढ़ता है न होती ।
कैसा होता जगत सुख की धाम औ मुग्धकारी ।
निर्माता की मिलित इसमें वामता जो न होती ॥४०॥
मैने देखा अधिकतर है भृंग आ पास तेरे ।
अच्छा पाता न फल अपनी मुग्धता का कभी है ।
आ जाती है द्दग - युगल में अंधता धूलि - द्वारा ।
कॉटो से है उभय उसके पक्ष भी छिन्न होते ॥४१॥
क्यो होती है अहह इतनी यातना प्रेमिको की ।
क्यो वाधा औ विपदमय है प्रेम का पंथ होता ।
जो प्यारा औ रुचिर - विटपी जीवनोद्यान का है ।
सो क्यों तीखे कुटिल उभरे कंटको से भरा है ॥४२॥
पूरा रागी हृदय - तल है पुष्प बन्धूक तेरा ।
मर्यादा तू समझ सकता प्रेम के पंथ की है ।
तेरी गाढ़ी नवल तन की लालिमा है बताती ।
पूरा - पूरा दिवस - पति के प्रेम मे तू पगा है ।।४३।।
तेरे जैसे प्रणय - पथ के पान्थ उत्पन्न हो के ।
प्रेमी की है प्रकट करते पक्कता मेदनी मे ।
मै पाती हूँ परम - सुख जो देख लेती तुझे हूँ ।
क्या तू मेरी उचित कितनी प्रार्थनायें सुनेगा, ॥४४॥
मैं गोरी हूँ कुँवर - वर की कान्ति है मेघ की सी ।
कैसे मेरा, महर - सुत का, भेद निर्मूल होगा ।
जैसे तू है परम - प्रिय के रंग मे पुष्प डूबा ।
सेकै वैसे जलद - तन के रंग मे मै रंगूंगी ॥४५॥
पूरा ज्ञाता समझ तुझको प्रेम की नीतियो का ।
मैं ऐ प्यारे कुसुम तुझसे युक्तियाँ पूछती हूँ ।
मै पाऊँगी हृदय - तल मे उत्तमा - शांति कैसे ।
जो डूबेगा न मम तन भी श्याम के रंग ही मे ।।४६।।
‘ऐसी, हो के कुसुम तुझमे प्रेम की पकता है ।
मै हो के भी मनुज - कुल की, न्यूनता से भरी हूँ ।
कैसी लज्जा परम दुख की बात मेरे लिये है ।
छा जावेगा न प्रियतम का रंग सौग मे जो ॥४७॥
वंशस्थ छंद
खिला हुआ सुन्दर - वेलि - अंक मे ।
मुझे बता श्याम- घटा प्रसून तू ।
तुझे मिली क्यो किस पूर्व - पुण्य से ।
अतीव - प्यारी - कमनीय - श्यामता ॥४८॥
हरीतिमा वृन्त समीप की भली ।
मनोहरा मध्य विभाग श्वेतता ।
लसी हुई श्यामलताग्रभाग मे ।
नितान्त है दृष्टि विनोद - वर्द्धिनी ॥४९।।
परन्तु तेरा बहु · रंग देख के ।
अतीव होती उर - मध्य है व्यथा ।
अपूर्व होता भव मे प्रसून तू ।
निमग्न होता यदि श्याम - रंग मे ॥५०॥
तथापि त अल्प न भाग्यवान है ।
चढ़ा हुआ है कुछ श्याम - रंग तो ।
अभागिनी है वह, श्यामता नही-
विराजती है जिसके शरीर में ॥५१।।
न स्वल्प, होती तुझमे सुगंधि है ।
तथापि सम्मानित सर्व - काल मे ।
तुझे रखेगा ब्रज - लोक दृष्टि में ।
प्रसूना तेरी यह श्यामलांगता ॥५२॥
निवास होगा जिस ओर सूर्य का ।
उसी दिशा ओर तुरंत घूम तू ।
विलोकती है जिस चाव से उसे ।
सदैव ऐ सूर्यमुखी सु - आनना ।।५३।।
अपूर्व ऐसे दिन थे मदीय, भी ।
अतीव मैं भी तुझ सी प्रफुल्ल थी ।
विलोकती थी जब हो विनोदिता ।
मुकुन्द के मंजु - मुखारविन्द को ॥५४॥
परन्तु मेरे अब वे न वार, है ।
न पूर्व की सी वह है प्रफुल्लता ।
तथैव मैं हूँ मलिना यथैव तू ।
विभावरो मे बनती मलीन है ॥५५॥
निशान्त मे तू प्रिय स्वीय कान्त से ।
पुनः सदा है मिलती प्रफुल्ल हो ।
परन्तु होगी न व्यतीत ऐ प्रिये ।
मदीय घोरा रजनी-वियोग की ॥५६।।
नृलोक मे है वह भाग्य - शालिनी ।
सुखी बने जो विपदावसान मे ।
अभागिनी है वह विश्व में बड़ी ।
न अन्तं होवे जिसकी विपत्ति का ॥५७।।
मालिनी छन्द
कुवलय - कुल में से तो अभी तू कढ़ा है ।
बहु - विकसित प्यारे - पुष्प मे भी रमा है ।
अलि अब मत जा तू कुंज में मालती की ।
सुन मुझ अकुलाती ऊबती की व्यथायें ॥५८।।
यह समझ प्रसूनो पास में आज आई।
क्षिति - तल पर है ए मूर्ति-उत्फुल्लता की।
पर सुखित करेगे ए मुझे आह! कैसे।
जब विविध दुखो मे मग्न होते म्वयं है ।।५९।।
कतिपय - कुसुमा को म्लान होते विलोका।
कतिपय वह कीटो के पड़े पेच मे है।
मुख पर कितने हैं वायु की धौल खाते।
कतिपय - सुमनो की पंखड़ी भू पड़ी है ।।६०।।
तदपि इन सबो मे ऐठ देखी बड़ी ही।
लख दुखित-जनो को ए नहीं म्लान होते।
चित व्यथित न होता है किसीकी व्यथा से ।
बहु भव - जनितो की वृत्ति ही ईद्दशी है ॥६१।।
अयि अलि तुझमे भी सौम्यता हूँ न पाती।
मम दुख सुनता है चित्त दे के नहीं तू।
अति - चपल बड़ा ही ढीठ औ कौतुकी है।
थिर तनक न होता है किसी पुप्प मे भी ॥६२॥
यदि तज कर के तू गूॅजना धैर्य - द्वारा।
कुछ समय सुनेगा बात मेरी व्यथा की।
तब अवगत होगा बालिका एक भ में।
विचलित कितनी है प्रेम से वंचिता हो ।।६३।।
अलि यदि मन दे के भी नहीं तू सुनेगा।
निज दुख तुझसे मैं आज तो भी करेगी।
कुछ कार उनसे, है चित्त में मोद होता।
शिनि पर जिनकी ? श्यामली - मूर्ति पाती ।।६४।।
इस क्षिति - तल मे क्या व्योम के अंक मे भी ।
प्रिय वपु छवि शोभी मेघ जो घूमते है ।
इक टक पहरो मै तो उन्हे देखती हूँ ।
कह निज मुख द्वारा बात क्या - क्या न जानें ॥६५।।
मधुकर सुन तेरी श्यामता है न वैसी ।
अति - अनुपम जैसी श्याम के गात की, है ।
पर जब - जब आँखें देख लेती तुझे हैं ।
तब - तव सुधि आती श्यामली - मूर्ति की है ॥६६॥
तब तन पर जैसी पीत - आभा लसी है ।
प्रियतम कटि मे है सोहता वस्त्र वैसा ।
गुन - गुन करना औ गूंँजना देख तेरा ।
रस - मय - मुरली का नाद है याद आता ॥६७॥
जब विरह विधाता ने सृजा विश्व मे था ।
तब स्मृति रचने मे कौन सी चातुरी थी ।
यदि स्मृति विरचा तो क्यो उसे है बनाया ।
वपन - पटु कु - पीड़ा बीज प्राणी - उरो में ॥६८॥
अलि पड़ कर हाथो मे इसी प्रेम के ही ।
लघु - गुरु कितनी त यातना भोगता है ।
विधि - वश बॅधता है कोष मे, पंकजो के ।
बहु - दुख सहता है विद्ध हो, कंटको से ॥६९।।
पर नित जितनी मैं वेदना पा रही, हूँ ।
अति लघु उससे है यातना भृङ्ग तेरी ।
मम - दुख यदि तेरे गात की श्यामता है ।
तब दुख उसकी ही पीतता तुल्य तो है ॥७०।।
वहु बुध कहते है पुप्प के रूप द्वारा ।
अपहत चित होता है अनायास तेरा ।
कतिपय - मति-शाली हेतु आसक्तता का ।
अनुपम - मधु किम्वा गंध को है बताते ।।७१।।
यदि इन विषयों को रूप गंधादिको को ।
मधुकर हम तेरे मोह का हेतु माने ।
यह अवगत होना चाहिये भृड़्ग तो भी ।
दुख - प्रद तुझको, तो तीन ही इन्द्रियाँ हैं ॥७२॥
पर मुझ अवला की वेदना - दायिनी हा !
समधिक गुण - वाली पॉच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं ।
तदुपरि कितनी है मानवी - बंचनाये ।
विचलित - कर होगी क्यो न मेरी व्यथाये ॥७३॥
जब हम व्यथिता हैं ईद्दशी तो तुझे क्या ।
कुछ सदय न होना चाहिये श्याम - बन्धो ।
प्रिय निठुर हुए हैं दूर हो के हगो से ।
मत निठुर बने तू सामने लोचनों के ॥७४॥
नव - नव - कुसुमो के पास जा मुग्ध हो - हो ।
गुन - गुन करता है चाव से बैठता है ।
पर कुछ सुनता है त न मेरी व्यधाये ।
मधुकर इतना क्यो हो गया निर्दयी है ॥७५॥
कब टल सकता था श्याम के टालने से ।
मुख पर मॅटलाता था स्वयं मत्त हो के ।
यक दिन वह था औ एक है आज का भी ।
जय भ्रंमर न मरी और तू ताकता है ।।७६।।
कब पर - दुख कोई है कभी बॉट लेता।
सब परिचय - वाले प्यार ही है दिखाते ।
अहह न इतना भी हो सका तो कहूंगी।
मधुकर यह सारा दोष है श्यामता का ।।७७॥
द्रुतविलम्बित छन्द
कमल - लोचनं क्या कल आ गये।
पलट क्या कु - कपाल - क्रिया गई।
मुरलिका फिर क्यो वन मे बजी।
बन रसा तरसा बरसा सुधा ॥७८॥
किस तपोबल से किस काल मे।
सच बता मुरली कल - नादिनी।
अवनि मे तुझको इतनी मिली।
मदिरता, मृदुता, मधुमानता ।।७९।।
चकित है किसको करती नहीं।
अवनि को करती अनुरक्त है।
विलसती तव सुन्दर अंक मे।
सरसता, शुचिता, रुचिकारिता ॥८०॥
निरख व्यापकता प्रतिपत्ति की।
कथन क्यो न करूँ अयि वंशिके।
निहित है तव मोहक पोर में।
सफलता, कलता, अनुकूलता ॥८१॥
मुरलिके , कह क्यों तव - नाद से।
विकल हैं. बनती ब्रज,- गोपिका ।
किस लिये कल पा सकती नहीं।
पुलकती, हॅसती, मृदु बोलती ॥८२॥
स्वर फुॅका तव है किस मंत्र से ।
सुन जिसे परमाकुल मत्त हो ।
सदन है तजती ब्रज - बालिका ।
उमगती, ठगती, अनुरागती ।।८३।।
तव प्रवंचित है बन छानती ।
विवश सी नवला ब्रज - कामिनी ।
युग विलोचन से जल मोचती ।
ललकती, कॅपती, अवलोकती ।।८४।।
यदि बजी फिर, तो वज ऐ प्रिये ।
अपर है तुझ सी न मनोहरा ।
पर कृपा कर के कर दूर तू ।
कुटिलता, कटुता, मदशालिता ।।८५।।
विपुल छिद्र - वती बन के तुझे ।
यदि समादर का अनुराग है ।
तज न तो अयि गौरव - शालिनी।
सरलता, शुचिता, कुल - शीलता ।।८६।।
लसित है कर में प्रज - दब के ।
मुरलिके तप के बल आज तू ।
इस लिये अवलाजन को वृधा।
मत सत्ता, न जता मति-हीनता ।।८७।।
वंगस्थ छन्द
मदीय प्यारी ‘प्रयि कुंज•कोकिला ।
मुझे बता तू ढिग कृक क्यों उठी ।
विलोक मेरी चित-भ्रान्ति क्या बनी ।
विपादिता, संकुचिता. निपीड़िता ॥४८॥
प्रवंचना है यह पुष्प कुंज की ।
भला नहीं तो ब्रज - मध्य श्याम की ।
कभी बजेगी अब क्यो सु - बॉसुरी ।
सुधाभरी, मुग्धकरी, रसोदरी ।।८९।।
विषादिता त यदि कोकिला बनी ।
विलोक मेरी गति तो कहीं न जा ।
समीप बैठी सुन गूढ़ - वेदना ।
कुसंगजा, मानसजा, मदंगजा ॥१०॥
यथैव हो पालित काक - अंक मे ।
त्वदीय बच्चे बनते त्वदीय है ।
तथैव माधो यदु-वंश मे मिले ।
अशोभना, खिन्न मना मुझे बना ॥११॥
तथापि होती उतनी न वेदना ।
न श्याम को जो ब्रज - भूमि भूलती ।
नितान्त ही है दुखदा, कपाल की ।
कुशीलता, आविलता, करालता ॥९२॥
कभी न होगी मथुरा - प्रवासिनी ।
गरीबिनी गोकुल - ग्राम - गोपिका ।
भला करे लेकर राज - भोग क्या ।
यथोचिता, श्यामरता, विमोहिता ।।१३।।
जहाँ न वृन्दावन है विराजता ।
जहाँ नही है ब्रज - भ मनाहरा ।
न स्वर्ग है वांछित, है जहाँ नही ।
प्रवाहिता भानु - सुता प्रफुल्लिता ।।९४॥
करील है कामद कल्प - वृक्ष से ।
गवादि हैं काम - दुधा गरीयसी ।
सुरेश क्या है जब नेत्र में रमा। ।
महामना, श्यामघना लुभावना ।।९५।।
जहाँ न वंशी - वट है न कुंज है ।
जहाँ न केकी-पिक है न शारिका ।
न चाह वैकुण्ठ रखे, न है जहाँ ।
बड़ी भली. गोप - लली, समाअली ॥९६॥
न कामुका हैं हम राज - वेश की ।
न नाम प्यारा यदु - नाथ है हमे ।
अनन्यता से हम हैं ब्रजेश की ।
विगगिनी, पागलिनी, वियोगिनी ॥९७॥
विरक्ति बाते सुन वंदना - भरी ।
पिकी हुई तू दुखिता नितान्त ही ।
बना रहा है तव बोलना मुझे ।
व्यथामयी, दाहमयी, द्विधामयी ॥९८॥
नही - नहीं है मुझको बता रही ।
नितान्त तेरे स्वर की अधीरता ।
वियोग से है प्रिय के तुझे मिली ।
अवांछिता, कातरता, मलीनता ॥९९।।
'प्रत' प्रिये न मथुग तुरन्त जा ।
सुना स्व- वेधी स्वर जीविनेश को ।
अभिज्ञ वे हो जिससे वियोग की ।
कठोरता, व्यापकता, गंभीरता ।।१००।।
परन्तु त तो अव भी उड़ी नहीं ।
प्रिये पिकी क्या मथुरा , जायगी ?
न जा, वहाँ है न पधारना भला ।
उलाहना है सुनना जहाँ मना ।।१०१।।
वसंततिलका छन्द
पा के तुझे परम - पूत - पदार्थ पाया ।
आई प्रभा प्रवह मान दुखी हगो मे ।
होती विवर्द्धित घटी उर - वेदनाये ।
ऐ पद्म - तुल्य पद - पावन चिह्न प्यारा ॥१०२॥
कैसे वहे न दृग से नित वारि - धारा ।
कैसे विदग्ध दुख से बहुधा न होऊँ ।
त भी मिला न मुझको ब्रज मे कही था ।
कैसे प्रमोद अ - प्रमोदित प्राण पावे ॥१०३॥
माथे चढ़ा मुदित हो उर मे लगाऊँ ।
है चित्त चाह सु - विभूति उसे बनाऊँ ।
तेरी पुनीत रज ले कर के करूँ मैं ।
सानन्द अंजित सुरंजित - लोचनो मे ॥१०४।।
लाली ललाम मृदुता अवलोकनीया ।
तीसी - प्रसून - सम श्यामलता सलोनी ।
कैसे पदांक तुझको पद सी मिलेगी ।
तो भी विमुग्ध करती तव माधुरी है ।।१०५।।
संयोग से, पृथक हो पद - कंज से तू ।
जैसे अचेत अवनी - तल मे पड़ा है ।
त्योही मुकुन्द - पद - पंकज से जुदा हो ।
मै भी अचिन्तित - अचेतनतामयी हूँ ॥१०६॥
होती विदूर कुछ व्यापकता दुखों की ।
पाती अलौकिक - पदार्थ वसुंधरा मे ।
होता स - शान्ति मम जीवन शेप भूत ।
लेती पदांक तुझको यदि अंक मे मै ॥१०७॥
हूँ मै अतीव - रुचि से तुझको उठाती ।
ग्यारे पदांक अब तू मम - अंक मे आ ।
हा! दैव क्या यह हुआ ? उह! क्या करूँ मै ।
कैसे हुआ प्रिय, पदांक विलोप भू मे ॥१०८॥
क्या है कलंकित बने युग - हस्त मेरे ।
क्या छू पदांक सकता इनको नहीं था ।
ए है अवश्य अति - निद्य महा - कलंकी ।
जो है प्रवचित हुए पद - अर्चना से ॥१०९॥
मै भी नितान्त जड़ हूँ यदि हाय ! मैने ।
अत्यन्त भ्रान्त बन के इतना न जाना ।
जो हो विदेह बन मध्य कहीं पड़े है ।
वे है किसी अपर के कव हाथ आते ॥११०॥
पादांक पूत अयि धूलि प्रशंसनीया ।
मै बाँधती सरुचि अंचल मे तुझे हूँ ।
होगी मुझे सतत तू बहु शान्ति-दाता ।
देगी प्रकाश तम मे फिरते हगो को ॥१११॥
मालिनी छन्द
कुछ कथन करूँगी मै स्वकीया व्यथाये ।
बन सदय सुनेगी क्या नहीं स्नेह द्वारा ।
प्रति- पल बहती ही क्या चली जायगी तू ।
कल - कल करती ऐ अर्कजा केलि शीला ॥११२॥
कल - मुरलि - निनादी लोभनीयांग - शोभी।
अलि-कुल-मति-लोपी कुन्तली कांति-शाली।
अयि पुलकित अंके आज भी क्यो न आया।
वह कलित - कपोलो कान्त आलापवाला ॥११३।।
अब अप्रिय हुआ है क्यो उसे गेह आना।
प्रति - दिन जिसकी ही ओर ऑखें लगी है।
पल - पल जिस प्यारे के लिये हूँ बिछाती।
पुलकित - पलकों के पाँवड़े प्यार - द्वारा ॥११४॥
मम उर जिसके ही हेतु है मोम जैसा।
निज उर वह क्यो है संग जैसा बनाता।
विलसित जिसमे है चारु - चिन्ता उसीकी।
वह उस चित की है चेतना क्यों चुराता ॥११५॥
जिस पर निज प्राणों को दिया वार मैने।
वह प्रियतम कैसे हो गया निर्दयी है।
जिस कुँवर बिना है याम होते युगो से।
वह छवि दिखलाता क्यो नही लोचनों को ॥११६॥
सब तज हमने है एक पाया जिसे ही ।
अयि अलि ! उसने है क्या हमे त्याग पाया ।
हम मुख जिसका ही सर्वदा देखती है ।
वह प्रिय न हमारी ओर क्यो ताक पाया ॥११७।।
विलसित उर मे है जो सदा देवता सा ।
वह निज उर में है ठौर भी क्यो न देता ।
नित वह कलपाता है मुझे कान्त हो क्यो ।
जिस बिन ‘कल, पाते हैं नहीं प्राण मेरे ॥११८।।
मम दृग जिसके ही रूप मे है रमे से ।
अहह वह उन्हे है निममो सा रुलाता ।
यह मन जिनके ही प्रेम मे मग्न सा है ।
वह मद उसको क्यो मोह का है पिलाता ॥११९।।
जब अब अपने ए अंग ही है न आली ।
तब प्रियतम मे मै क्या करूँ तर्कनाये ।
जब निज तन का ही भेद मैं हूँ न पाती ।
तब कुछ कहना ही कान्त को अज्ञता है ॥१२०॥
दृग अति अनुरागी श्यामली - मूर्ति के है ।
युग श्रुति सुनना है चाहते चारु - ताने ।
प्रियतम मिलने की चौगुनी लालसा से ।
प्रति - पल अधिकाती चित्त की आतुरी है ॥१२१॥
उर विदलित होता मत्तता वृद्धि पाती ।
वह विलख न जो मैं यामिनी - मध्य रोती ।
विरह - दव सताता, गात सारा. जलाता ।
यदि मम नयनों मे वारि - धारा न होती ॥१२२॥
कब तक मन मारूँ दग्ध हो जी जलाऊँ ।
निज- मृदुल-कलेजे में शिला क्यो लगाऊँ ।
वन - वन विलपूॅ या मै धॅसूॅ मेदिनी मे ।
निज - प्रियतम प्यारी मूर्ति क्यो देख पाऊँ ।।१२३।।
तब तट पर आ के नित्य ही कान्त मेरे ।
पुलकित बन भावो मे पगे घूमते है ।
यक दिन उनको पा प्रीत जी से सुनाना ।
कल - कल - ध्वनि - द्वारा सर्वे मेरी व्यथाये ॥१२४॥
विधि - वश यदि तेरी धार मे आ गिरूँ मै ।
मम तन ब्रज की ही मेदिनी मे मिलाना ।
उस पर अनुकूला हो, बड़ी मंजुता से ।
कल - कुसुम अनूठी - श्यामता के उगाना ।।१२५।।
घन - तन - रत मै हूँ त असेतांगिनी है ।
तरलित - उर तू है चैन मै हूँ न पाती ।
अयि अलि बन जात शान्ति - दाता हमारी ।
अति - प्रतपित मै हूँ ताप तू है भगाती ।।१२६॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
रोई आ के कुसुम - ढिग औ भृङ्ग के साथ बोली ।
वंशी - द्वारा - भ्रमित बन के बात की कोकिला से।
देखा प्यारे कमल - पग के अंक को उन्मना हो ।
पीछे आयी तरणि - तनया - तीर उत्कण्ठिता सी ॥१२७।।
द्रुतविलम्बित छन्द
तदुपरान्त गई गृह - बालिका ।
व्यथित ऊधव को अति ही बना ।
सब सुना सब ठौर छिपे गये ।
पर न बोल सके वह अल्प भी ॥१२८॥