प्रियप्रवास/नवम सर्ग
शार्दूलविक्रीड़ित छन्द
एकाकी ब्रजदेव एक दिन थे बैठे हुए गेह मे।
उत्सन्ना ब्रजभूमि के स्मरण से उद्विग्नता थी बड़ी।
ऊधी-संज्ञक-ज्ञान-वृद्ध उनके जो एक सन्मित्र थे।
वे आये इस काल ही सदन मे आनन्द मे मग्न से॥१॥
आते ही मुख-म्लान देख हरि का वे दीर्घ-उत्कण्ठ हो।
बोले क्यो इतने मलीन प्रभु है? है वेदना कौन सी।
फूले-पुष्प-विमोहिनी-विचकता क्या हो गई आपकी।
क्यो है नीरसता प्रसार करती उत्फुल्ल-अभोज मे॥२॥
बोले वारिद-गात पास बिठला सम्मान से बन्धु को।
प्यारे सर्व-विधान ही नियति का व्यामोह से है भरा।
मेरे जीवन का प्रवाह पहले अत्यन्त-उन्मुक्त था।
पाता हूँ अब मै नितान्त उसको आबद्ध कर्तव्य मे॥३॥
शोभा-संभ्रम-शालिनी-ब्रज-धरा प्रेमास्पदा-गोपिका।
माता-प्रीतिमयी प्रतीति-प्रतिमा, वात्सल्य-धाता-पिता।
प्यारे गोप-कुमार, प्रेम-मणि के पाथोधि से गोप वे।
भूले है न, सदैव याद उनकी देती व्यथा है हमे॥
जी मे बात अनेक बार यह थी मेरे उठी मैं चलूँ।
प्यारी-भावमयी सु-भूमि ब्रज मे दो ही दिनो के लिये।
बीते मास कई परन्तु अब भी इच्छा न पूरी हुई।
नाना कार्य-कलाप की जटिलता होती गई वाधिका॥५॥
योही आत्म प्रसंग श्याम - वषु ने प्यारे सखा से कहा ।
मर्यादा व्यवहार आदि ब्रज का पूरा बताया उन्हें ।
ऊधो ने सब को स-आदर सुना स्वीकार जाना किया ।
पीछे हो कर के विदा सुहृद से आये निजागार वे ॥१२।।
प्रातःकाल अपूर्व - यान मॅगवा औ साथ ले सूत को ।
ऊधो गोकुल को चले सदय हो स्नेहाम्बु से भीगते ।
वे आये जिस काल कान्त-ब्रज में देखा महा- मुग्ध हो ।
श्री वृन्दावन की मनोज्ञ - मधुरा श्यामायमाना - मही ॥१३॥
चूडाये जिसकी प्रशान्त - नभ में थीं दीखती दूर से ।
ऊधों को सु- पयोद के पटल सी सद्धूम की राशि सी ।
सो गोवर्धन श्रेष्ठ - शैल अधुना था सामने दृष्टि के ।
सत्पुष्पो सुफलो प्रशंसित द्रुमों से दिव्य साग हो ।।१४।।
ऊँचा शीश सहर्ष शैल कर के था देखता व्योम को ।
या होता अति ही स-गर्व वह था सर्वोच्चता दर्प से ।
या वार्ता यह था प्रसिद्ध करता सामोद संसार मे ।
मैं हूँ सुन्दर मान दण्ड ब्रज की शोभा-मयी-भूमि का ॥१५॥
पुष्पो से परिशोभमान बहुश' जो वृक्ष अंकस्थ थे ।
वे उद्घोषित थे सदर्प करते उत्फुल्लता मेरु की ।
या ऊँचा कर के स-पुष्प कर को फूले द्रुमो व्याज-से ।
श्री- पद्मा- पति के सरोज - पग को शैलेश था, पूजता ॥१६॥
नाना - निर्भर हो प्रसूत गिरि के संसिक्त उत्संग से ।
हो हो शब्दित थे सवेग गिरते अत्यन्त - सौंदर्य से ।
जो छीटे उड़ती अनन्त पथ में थी दृष्टि को मोहती ।
शोभा थी अति ही अपूर्व उनके उत्थान की, ‘पात' की ॥१५।।
देती मुग्ध बना किसे न जिनकी ऊंची शिखायें हिले ।
शाखाये जिनकी विहग - कुल से थी शोभिता शन्दिता ।
चारो ओर विशाल - शैल - वर के थे राजते कोटिशः ।
ऊँचे श्यामल पत्र - मान - विटपी पुष्पोपशोभी महा ॥२५॥
जम्बू अम्ब कदम्ब निम्ब फलसा जम्बीर औ ऑवला ।
लीची दाड़िम नारिकेल इमिली औ शिशपा उगुढी ।
नारंगी अमरूद विल्व वदरी सोगौन शालादि भी ।
श्रेणी-बद्ध तमाल ताल कदली औं शाल्मली थे खड़े ॥२५॥
ऊँचे दाडिम से रसाल - तरु थे औ आम्र से शिंशपा ।
यो निम्नोच असंख्य-पादप कसे वृन्दाटवी मध्य थे ।
मानो वे अवलोकते पथ रहे वृन्दावनाधीश का ।
ऊँचा शीश उठा अपार - जनता के तुल्य उत्कण्ट हो ॥२६॥
वंशस्थ छंद
गिरीन्द्र में व्याप विलोकनीय थी ।
वनस्थली मध्य प्रशंसनीय थी ।
अपूर्व शोभा अवलोकनीय थी ।
असत जम्बालिनि - कूल जम्बु की ॥२७।।
सुपस्वना पेशलता अपूर्वता ।
फलादि की मुग्धकरी विशति थी ।
रसाप्टुता सी बन मजु भूमि को ।
रसालता थी करती रसाल की ॥२८॥
सु - वर्नुलाकार विलोकनीय था ।
विनम्र - शाखा नयनाभिगम थी ।
अपूर्व थी श्यामल - पत्र - राशि में ।
कदम्ब के पुष्प - कदम्य की छटा ।।२९।।
हिला स्व-शाखा नव-पुष्प को खिला ।
नचा सु - पत्रावलि औ फलादि ला ।
नितान्त था मानस पान्थ मोहता ।
सुकेलि - कारी तरु - नारिकेल का ॥३६॥
नितात लवी घनता विवर्द्धिनी ।
असंख्य - पत्रावलि अंकधारिणी ।
प्रगाढ़ - छाया - मय पुप्पशोभिनी ।
अम्लान काया - इमिली सुमौलि थी ॥३७।।
सु- चातुरी से किस के न चित्त को ।
निमग्न सा था करता विनोद मे ।
स्वकीय न्यारी - रचना विमुग्ध हो ।
स्व - शीश-संचालन - मग्न शिशपा ॥३८॥
सु - पत्र संचालित थे न हो रहे ।
नही स - शाखा हिलते फलादि थे ।
जता रही थी निज स्नेह -शीलता ।
स्व - इड्गितो से रुचिरांग इमुदी ॥३९॥
सुवर्ण - ढाले - तमगे कई लगा ।
हरे सजीले निज - वस्त्र को सजे ।
बडे - अनूठेपन साथ था खड़ा ।
महा - रॅगीला तरु - नागरग का ॥४०॥
अनेक - आकार - प्रकार - रंग के ।
सुधा - समोये फल - पुंज से सजा ।
विराजता अन्य रसाल तुल्य था ।
समोदकारी अमरूद रोदसी ॥४१॥
सु - पक्व पील फल - पुज व्याज से ।
अनेक बालटु स्वअङ्क मे उगा ।
उड़ा दलों व्याज हरी हरी ध्वजा ।
नितांत केला कल - केलि - लग्न था ।।४८॥
स्वकीय आरक्त प्रसून - पुंज से ।
विहग भृगाढिक को भ्रमा भ्रमा ।
अशकितो सा वन - मध्य था खड़ा।
प्रवंचना - शील विशाल-शाल्मली ।।४९।।
बढ़ा स्व-शाखा मिप हस्त प्यार का ।
दिखा घने - पल्लव की हरीतिमा ।
परोपकारी - जन - तुल्य सर्वदा ।
सशोक का शोक अशोक मोचता ॥५०॥
विमुग्धकारी - सित - पीत वर्ण के।
सुगंध - शाली बहुश. सु-- पुष्प से ।
असंख्य - पत्रावलि की हरीतिमा।
सुरंजिता थी प्रिय - पारिजात की ॥५१॥
समीर - संचालित - पत्र - पुज मे ।
स्वगात की मत्तकरी - विभूति से ।
विमुग्ध हो विह्वलताभिभूत था ।
मधूक शाखी - मधुपान - मत्त सा ॥५२॥
प्रकाण्डता थी विसु कीर्ति - वर्द्धिनी ।
अनंत - शाखा - बहु - व्यापमान थी ।
प्रकाशिका थी पवन प्रवाह की ।
विलोलता - पीपल - पल्लवोद्भवा ॥५३।।
स - मान थी भूतल मे विलुण्ठिता ।
प्रवंचिता हो प्रिय चारु - अंक से ।
तमाल के से असिताबदात की ।
नियोपमा श्यामलता प्रियगु की ॥६०॥
कहीं शयाना महि में स. चाव थी ।
विलम्विता थी तरु - वन्द मे कही ।
सु- वर्ण - मापी - फल लाभ कामुका ।
तपोरता कानन रत्तिका लता ।।६१।।
सु-लालिमा मे फलकी लगी दिखा ।
विलोकनीया - कमनीय - श्यामता ।
कही भली है वनती कु - वस्तु भी ।
बता रही थी यह मंजु - गुंजिका ।।६२।।
द्रुतविलम्बित छन्द
नव निकेतन कान्त - हरीतिमा ।
जनयिता मुरली - मधु - सिक्त का ।
सरसता लसता वन मध्य था ।
भरित- भावुकता तर वेणुका ॥६३।।
बहु-प्रलुब्ध वना पशु - वृन्द को ।
विपिन के तृण - खादक - जंतु को ।
तृण - समा, कर नीलम नीलिमा ।
मसृण थी तृण-राजि विराजती ॥६४॥
तरु अनेक - उपस्कर, सज्जिता ।
अति - मनोरम - काय अकंटका ।
विपिन को करती छविधाम थी ।
कुसुमिता - फलिता - बहु - झाड़ियाँ ॥६५॥
सु - पक्व पीले फल - पुंज व्याज से ।
अनेक बालेदु स्वअङ्क मे उगा ।
उड़ा दलो व्याज हरी हरी ध्वजा ।
नितांत केला कल - केलि - लग्न था ॥४८॥
स्वकीय आरक्त प्रसून-पुंज से ।
विहंग भृङ्गादिक को भ्रमा भ्रमा ।
अशंकितो सा वन - मध्य था खड़ा ।
प्रवंचना - शील विशाल - शाल्मली ॥४९।।
बढ़ा स्व-शाखा मिष हस्त प्यार का ।
दिखा घने - पल्लव की हरीतिमा ।
परोपकारी - जन - तुल्य सर्वदा ।
सशोक का शोक अ-शोक मोचता ॥५०॥
विमुग्धकारी - सित - पीत वर्ण के ।
सुगंध - शाली बहुशः सु-पुष्प से ।
असंख्य - पत्रावलि की हरीतिमा ।
सुरंजिता थी प्रिय - पारिजात की ॥५१॥
समीर - संचालित - पत्र - पुंज मे ।
स्वगात की मत्तकरी - विभूति से ।
विमुग्ध हो विह्वलताभिभूत था ।
मधूक शाखी - मधुपान - मत्त सा ॥५२॥
प्रकाण्डता थी विभु कीर्ति - वर्द्धिनी ।
अनंत - शाखा - बहु - व्यापमान थी ।
प्रकाशिका थी पवन प्रवाह की ।
विलोलता - पीपल - पल्लवोद्भवा ॥५३॥
असंख्य - न्यारे - फल-पुंज से सजा ।
प्रभूत - पत्रावलि मे निमग्न सा ।
प्रगाढ़ - छायाप्रद औ जटा - प्रसू ।
विटानुकारी - वट था विराजता ।।५४।।
महा - फलो से सजके वनस्थली ।
जता रही थी यह बुद्धि - मंत को ।
महान - सौभाग्य प्रदान के लिये ।
प्रयोगिता है पनसोपयोगिता ॥५५॥
सदैव देके विष बीज - व्याज से ।
स्वकीय - मीठे - फल के समूह को ।
दिखा रहा था तरु वृद मे खड़ा ।
स्व - आततायीपन पेड़ आत का ॥५६॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
प्यारे - प्यारे - कुसुम - कुल से शोभमाना अनूठी ।
काली नीली हरित रुचि की पत्तियों से सजीली ।
फैली सारी वन अवनि मे वायु से डोलती थी ।
नाना - लीला निलय सरसा लोभनीया - लताये ।।५७।।
वंशस्थ छन्द
स्व-सेत-आभा - मय दिव्य-पुष्प से ।
वसुंधरा मे अति - मुक्त संज्ञका ।
विराजती थी वन मे विनोदिता ।
महान - मेधाविनि - माधवी - लता ॥५८॥
ललामता कोमलकान्ति - मानता ।
रसालता से निज पन - पुंज की ।
स्वलोचनो को करती प्रलुब्ध थी ।
प्रलोभनीया- लतिका लवग की ॥५९।।
स- मान थी भूतल मे विलुण्ठिता ।
प्रवंचिता हो प्रिय चारु - अंक से ।
तमाल के से असितावदात की ।
प्रियोपमा श्यामलता प्रियंगु की ॥६०॥
कही शयाना महि मे स - चाव थी ।
विलम्बिता थी तरु - वृन्द मे कही ।
सु - वर्ण - मापी - फल लाभ कामुका ।
तपोरता कानन रत्तिका लता ।।६१।।
सु - लालिमा मे फलकी लगी दिखा ।
विलोकनीया - कमनीय - श्यामता ।
कही भली है बनती कु - वस्तु भी ।
बता रही थी यह मंजु - गुंजिका ॥६२॥
द्रुतविलम्बित छन्द
नव निकेतन कान्त - हरीतिमा ।
जनयिता मुरली - मधु - सिक्त का ।
सरसता लसता वन मध्य था ।
भरित-भावुकता तरु वेणुका ॥६३।।
बहु-प्रलुब्ध बना पशु - वृन्द को
विपिन के तृण - खादक - जंतु को ।
तृण - समा, कर नीलम नीलिमा ।
मसृण थी तृण-राजि विराजती ॥६४॥
तरु अनेक - उपस्कर, सज्जिता ।
अति - मनोरम - काय अकंटका ।
विपिन को करती छविधाम थी ।
कुसुमिता - फलिता - बहु - झाड़ियाँ ॥६५।।
शिखरणी छन्द
अनूठी आभा से सरस - सुषमा से सुरस से ।
वना जो देती थी बहु गुणमयी भू विपिन को ।
निराले फूलो की विविध दलवाली अनुपमा ।
जड़ी बूटी हो हो बहु फलवती थी विलसती ॥६६॥
द्रुतविलम्बित छन्द
सरसतालय सुन्दरता सने ।
मुकुर - मंजुल से तरु - पुंज के ।
विपिन मे सर थे बहु सोहते ।
सलिल से लसते मन मोहते ॥६७॥
लसित थी रस - सिचित वीचियाँ ।
सर समूह मनोरम अंक मे ।
प्रकृति के कर थे लिखते मनो ।
कल - कथा जल केलि कलाप की ॥६८॥
द्युतिमती दिननायक दीप्ति से ।
स द्युति वारि सरोवर का बना ।
अति - अनुत्तम कांति निकेत था ।
कुलिश सो कल - उज्ज्वल - कॉच सा ॥६९।।
परम - स्निग्ध मनोरम - पत्र में ।
सु - विकसे जलजात - समूह से ।
सर अतीव अलंकृत थे हुए ।
लसित थी दल पै कमलासना ॥७०॥
विकच - वारिज - पुंज विलोक के ।
उपजती उर मे यह कल्पना ।
सरस भूत प्रफुल्लित नेत्र से ।
वन - छटो सर हैं अवलोकते ॥७१।।
वंशस्थ छन्द
सुकूल - वाली कलि - कालिमापहा ।
विचित्र - लीला - मय वीचि-संकुला ।
विराजमाना बन एक ओर थी ।
कलामयी केलिवती - कलिदजो ॥७२।।
अश्वेत साभा सरिता - प्रवाह में ।
सु - श्वेतता हो मिलिता-प्रदीप्ति की ।
दिखा रही थी मणि नील - कांति में ।
मिली हुई हीरक - ज्योति - पुंज सी ॥७३॥
विलोकनीया नभ नीलिमा समा ।
नवाम्बुदो की कल - कालिमोपमा ।
नवीन तीसी कुसुमोपमेय थी ।
कलिंदजा की कमनीय श्यामता ।।७४।।
न वास किम्बा विष से फणीश के ।
प्रभाव से भूधर के न भूमि के ।
नितांत ही केशव - ध्यान - मग्न हो ।
पतंगजा थी असितांगिनी बनी ।।७५।।
स - बुदबुदा फेन - युता सु - शब्दिता ।
अनंत - आवर्त - मयी प्रफुल्लिता ।
अपूर्वता अंकित सी प्रवाहिता ।
तरंगमालाकुलिता • कलिंदजा ॥७६।।
प्रसूनवाले, फल - भार से नये ।
अनेक थे पादप कूल पै लसे ।
स्वछायया जो करते प्रगाढ़ थे ।
दिनेशजा - अंक - प्रसूत - श्यामता ॥७७॥
कभी खिले.- फूल गिरा प्रवाह मे ।
कलिन्दजा को करता स- पुष्प था ।
गिरे फलो से फल - शोभिनी उसे ।
कभी बनाता तरु का समूह था ।।७८।।
विलोक ऐसी तरुवृंद की क्रिया ।
विचार होता यह था स्वभावतः ।
कृतज्ञता से नत हो स - प्रेम वे ।
प्रतंगजा - पूजन मे प्रवृत्त हैं ॥७९॥
प्रवाह होता जब वीचि - हीन था ।
रहा दिखाता वन - अन्य अंक मे ।
परंतु होते सरिता तरंगिता ।
स - वृक्ष होता वन था सहस्रधा ॥८०॥
न कालिमा है मिटती कपाल, की ।
न बाप को है पड़ती कुमारिका ।
प्रतीति होती यह थी विलोक के ।
तमोमयी सी तनया - तमारि को ॥८१॥
मालिनी छन्द
कलित-किरण-माला, बिम्ब - सौंदर्य -शाली ।
सु-गगन तल - शोभी सूर्य का, या शशी का ।
जब रवितनया ले केलि मे लग्न होती ।
छविमय करती थी दर्शको के हगो को ॥८२॥
वशत्थ छद
हरीतिमा का सु-विशाल - सिधु सा ।
मनोज्ञता की रमणीय - भूमि सा ।
विचित्रता का शुभ - सिद्ध - पीठ सा ।
प्रशान्त - वृन्दावन दर्शनीय था ।।८३।।
कलोलकारी खग - वृन्द - कूजिता ।
सदैव सानन्द मिलिन्द गुंजिता ।
रही सुकुंजे वन में विराजिता ।
प्रफुल्लिता पल्लविता लतामयी ।।८४||
प्रशस्त - शाखा न समान हस्त के ।
प्रसारिता थी उपपत्ति के बिना ।
प्रलुब्ध थी पादप को बना रही ।
लता समालिगन लाभ लालसा ॥८५।।
कई निराले तरु चारु - अंक मे ।
लुभावने - लोहित पत्र थे लसे ।
सदैव जो थे करते विवद्धिता ।
स्व - लालिमा से वन की ललामता ।।८६।।
प्रसून - शोभी तरु - पुंज - अंक मे ।
लसी ललामा लतिका प्रफुल्लिता ।
जहाँ तहाँ थी वन मे विराजिता ।
स्मिता - समालिगित कामिनी समा ।।८७॥
सुदूलिता थी अति कान्त भाव से ।
कही स - एलालतिका - लवंग की ।
कही लसी थी महि मंजु अंक मे ।
सु-लालिता सी नव माधवी - लता ।।८८।।
मीर संचालित मंद - मंद हो ।
कही दलो से करता सु - केलि था ।
प्रसून - वर्षों - रत था, कही हिला ।
स-पुष्प-शाखा सु - लता - प्रफुलिता ॥८९।।
कहीं उठाता बहु - मंजु वीचियाॅ ।
कहीं खिलाता कलिका प्रसून की ।
बड़े अनूठेपन साथ पास जा ।
कही हिलाना कमनीय - कंज था ।।९०।।
अश्वेत दे आरुणाभ बैंगनी ।
हरे अबीरी सित पीत संदली ।
विचित्र - देशी बहु अन्य वर्ण के ।
विहग से थी लसिता वनस्थली ।।९१।।
विभिन्न - आभा रुत रंग रुप के ।
विहंगमो का दल व्योम - पंथ हो ।
स - मोदी आता जब था दिगंत से ।
विशेष होता वन का विनोद था ।।९२।।
स - मोदी जाते जब एक पेड़ से ।
द्वितीय को तो करते विमुग्ध थे ।
कलोल में हो रत मंजु - बोलते ।
बिहंग नाना रमणीय रंग के ।।९३।।
छटामयी कान्तिमती मनोहरा ।
सु - चन्द्रिका से निज-नील पुच्छ के ।
सदा बनाता वन को मनोज्ञ था ।
कलापियो का कुल केकिनी लिये ।।९४।।
कहीं शुको का दल बैठ पेड़ की ।
बली - सु- शाखा पर केलि-मत्त हो ।
अनेक - मीठें- फल खा कदंश को ।
गिर रहा हूं पर था प्रफुल्ल हो ।।९५।।
कहीं कपोती स्व - कपोत को लिये ।
विनोदिता हो करती विहार थी ।
कही सुनाती निज - कंत साथ थी ।
स्व - काकली को कल कंठ-कोकिला ॥९६॥
कही महा - प्रेमिक था पपीहरा ।
कथा - मयी थी नव शारिका कही ।
कहीं कला लोलुप थी चकोरिका ।
ललामता - आलय - लाल थे कही ।।९७॥
महा - कदाकार बड़े - भयावने ।
सुहावने सुन्दरता-निकेत से ।
वनस्थली मे पशु - वृन्द थे घने ।
अनेक लीला - मय औ लुभावने ॥९८॥
नितान्त-सारल्य - मयी - सुमूर्ति मे ।
मिली हुई कोमलता सु - लोमता ।
किसे नहीं थी करती विमोहिता ।
सदंगता - सुन्दरता - कुरंग की ।।९९।।
असेत - आँखे खनि-भूरि भाव की ।
सुगीत न्यारी - गति की मनोज्ञता ।
मनोहरा थी मृग - गात - माधुरी ।
सुधारियो अंकित नाति - पीतता ।।१००।।
असेत - रक्तानन - वान ऊधमी ।
प्रलम्ब - लांगूल विभिन्न - लोम के ।
कही महा- चंचल क्रूर कौशली ।
असंख्य - शाखा- मृग का समूह था ।।१०१।।
कही गठीले - अरने अनेक थे।
स - शंक भूरे - शशकादि थे कही।
बड़े - घने निर्जन - वन्य - भूमि में।
विचित्र - चीते चल - चक्षु थे कही ।।१०२॥
सुहावने पीवर - ग्रीव साहसी।
प्रमत्त - गामी पृथुलांग - गौरवी ।
जीवनस्थली मध्य विशाल - वैल थे।
बड़े - बली उन्नत - वक्ष विक्रमी ।।१०३।।
दयावती पुण्य भरी पयोमयी।
सु - आनना सौम्य - हगी समोदरा ।
बनान्त मे थी सुरभी सुशोभिता।
सधी सवत्सा - सरलातिसुन्दरी ।।१०४॥
अतीव - प्यारे मृदुता - सुमूति से।
नितान्त - भोले चपलांग ऊधमी।
वनान्त मे थे बहु वत्स कूदते ।
लुभावने कोमल - काय कौतुकी ॥१०५।।
वसन्ततिलका छन्द
जो राज - पंथ वन - भूतल मे बना था।
धीरे उसी पर सधा रथ जा रहा था।
हो हो विमुग्ध रुचि से अवलोकते थे।
ऊधो छटा विपिन की अति ही अनूठी ।।१०६।।
वशस्थ छन्द
परन्तु वे पादप मे प्रसून मे ।
फलो दुलो वेलि - लता समूह मे ।
सरोवरो मे सरि मे सु - मेरु मे।
खगो मृगो मे वन मे निकुञ्ज में ।।१०७॥
बसी हुई एक निगूढ़ - खिन्नता ।
विलोकते थे निज - सूक्ष्म - दृष्टि से ।
शनैः शनैः जो बहु गुप्त रीति से ।
रही बढ़ाती उर की बिरक्ति को ॥१०८।।
प्रशस्त शाखा तरु - वृन्द की उन्हें ।
प्रतीत होती उस हस्त तुल्य थी ।
स- कामना जो नभ ओर हो उठा ।
विपन्न - पाता - परमेश के लिये ॥१०९।।
कलिन्दजा के सु - प्रवाह की छटा ।
विहंग - क्रीड़ा कल नाद - माधुरी ।
उन्हे बनाती न अतीव मुग्ध थी ।
ललामता - कुंज - लता - वितान की ॥११०।।
सरोवरो की सुषमा स - कंजता ।
सु - मेरु औ निझर आदि रम्यता ।
न थी यथातथ्य उन्हे विमोहती ।
अनन्त - सौंदर्य - मयी वनस्थली ॥१११॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
कोई कोई विटप फल थे वारहो मास लाते ।
ऑखो द्वारा असमय फले देख ऐसे दुमो को ।
ऊधो होते भ्रम पतित थे किन्तु तत्काल ही वे ।
शंकाओ को स्व - मति वल औ ज्ञान से थे हटाते ॥११२।।
वशस्थ छन्द
उसी दिशा से जिस ओर दृष्टि थी ।
विलोक आता रथ मे स - सारथी ।
किसी किरीटी पट-पीत - गौरवी ।
सु-कुण्डली श्यामल-काय पान्थ को ॥११३।।
अतीव - उत्कण्ठित ग्वालबाल हो ।
स - वेग जाते रथ के समीप थे ।
परन्तु होते अति ही मलीन थे ।
न देखते थे जब वे मुकुन्द को ॥११४।।
अनेक गाये तृण त्याग दौड़ती ।
सवत्स जाती वर - यान पास थी ।
परन्तु पाती जब थी न श्याम को ।
विषादिता हो पड़ती नितान्त थी ॥११५।।
अनेक - गायो बहु - गोप - बाल की ।
विलोक ऐसी करुणामयी - दशा ।
बड़े - सुधी - ऊधव चित्त मध्य भी ।
स - खेद थी अंकुरिता अधीरता ।।११६॥
समीप ज्यो ज्यो हरि - बंधु यान के ।
संगोष्ठ था गोकुल ग्राम आ रहा ।
उन्हें दिखाता निज - गूढ़ रूप था ।
विषाद त्यो त्यो बहु - मूर्ति-मन्त हो ॥११७।।
दिनान्त था थे दिननाथ डूबते ।
स - धेनु आते गृह ग्वाल - वाल थे ।
दिगन्त मे गोरज थी विराजिता ।
विषाण नाना बजते स - वेणु थे ॥११८।।
खड़े हुए थे पथ गोप देखते ।
स्वकीय - नाना - पशु-वृन्द का कही ।
कहीं उन्हे थे गृह - मध्य बाँधते ।
बुला बुला प्यार उपेत कंठ से ॥११९।।
घड़े लिये कामिनियॉ, कुमारियाँ ।
अनेक - कूपो पर थी सुशोभिता ।
पधारती जो जल ले स्व - गेह थी ।
वजा बजा के निज नूपुरादि को ॥१२०।।
कही जलाते जन गेह - दीप थे ।
कही खिलाते पशु को स - प्यार थे ।
पिला पिला चंचल - वत्स को कही ।
पयस्विनी से पय थे निकालते ॥१२१॥
मुकुन्द की मंजुल कीर्ति गान की ।
मची हुई गोकुल मध्य धूम थी ।
स-प्रेम गाती जिसको सदैव थी ।
अनेक - कर्माकुल प्राणि - मण्डली ॥१२२।।
हुआ इसी काल प्रवेश ग्राम मे ।
शनैः शनैः ऊधव - दिव्य - यान का ।
विलोक आता जिसको, समुत्सुका ।
वियोग - दग्धा - जन - मण्डली हुई ॥१२३।।
जहॉ लगा जो जिस कार्य मे रहा ।
उसे वहाँ ही वह छोड़ दौड़ता ।
समीप आया रथ के प्रमत्त सा ।
विलोकने को धन - श्याम - माधुरी ।।१२४।।
विलोकते जो पशु-वन्द पन्थ थे ।
तजा उन्होने पथ का विलोकना ।
अनेक दौड़े तज धेनु बॉधना। ।
अवाधिता पावस आपगोपमा ।।१२५।।
रहे खिलाते पशु धेनु-दूहते।
प्रदीप जो थे गृह-मध्य बालते।
अधीर हो वे निज-कार्य्य त्याग के।
स-वेग दौड़े वदनेन्दु देखने॥१२६॥
निकालती जो जल कूप से रही।
स रज्जु सो भी तज कूप मे घड़ा।
अतीव हो आतुर दौड़ती गई।
ब्रजांगना-वल्लभ को विलोकने॥१२७॥
तजा किसीने जल से भरा घड़ा।
उसे किसीने शिर से गिरा दिया।
अनेक दौड़ी सुधि गात की गँवा।
सरोज सा सुन्दर श्याम देखने॥१२८॥
वयस्क बूढ़े पुर-बाल बालिका।
सभी समुत्कण्ठित औ अधीर हो।
स-वेग आये ढिग मंजु यान के।
स्व-लोचनो की निधि-चारु लूटने॥१२९॥
उमंग-डूबी अनुराग से भरी।
विलोक आती जनता समुत्सुका।
पुन उसे देख हुई प्रवचिता।
महा-मलीना विमनाति-कष्टिता॥१३०॥
अधीर होने हरि-बन्धु भी लगे।
तथापि वे छोड़ सके न धीर को।
स्व-यान को त्याग लगे प्रबोधने।
समागतो को अति-शांत भाव से॥१३१॥
वसंततिलका छन्द
यो ही प्रबोध करते पुरवासियों का ।
प्यारी - कथा परम-शांत-करी सुनाते ।
आये ब्रजाधिप - निकेतन पास उधो ।
पूरा प्रसार करती करुणा जहाँ थी ।।१३२॥
मालिनी छन्द
करुण-नयन वाले खिन्न उद्विग्न ऊवे ।
नृपति सहित प्यारे बंधु औ सेवको के ।
सुअन-सुहृद-ऊधो पास आये यहाँ ही ।
फिर सदन सिधारे वे उन्हे साथ लेके ।।१३३।।
सुफलक-सुत ऐसा ग्राम मे देख आया ।
यक जन मथुरा ही से बड़ा-बुद्धिशाली ।
समधिक चित-चिता गोपजो मे समाई ।
सब-पुर-उर शंका से लगा व्यग्र होने ॥१३३।।
पल पल अकुला के दीर्घ - संदिग्ध होके ।
विचलित-चित से थे सोचते ग्रामवासी ।
वह परम अनूठे-रन आ ले गया था ।
अब यह ब्रज आया कौन सा रत्न लेने ॥१३५।।