प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ १९२ से – २०८ तक

 

द्रुतविलम्बित छन्द

त्रि - घटिका रजनी गत थी हुई ।
सकल गोकुल नीरव - प्राय था ।
ककुभ व्योम समेत शनै: शनैः ।
तमवती बनती व्रज - भूमि थी ॥१॥

ब्रज - धराधिप मौन - निकेत भी ।
बन रहा अधिकाधिक - शान्त था ।
तिमिर भी उसके प्रति - भाग मे ।
स्त्र - विभुता करता विधि - बद्ध था ॥२॥

हरि - सखा अवलोकन - सूत्र से ।
ब्रज - रसापति - द्वार - समागता ।
अब नहीं दिखला पड़ती रही ।
गृह - गता - जनता अति शंकिता ।।३।।

सकल - श्रांति गॅवा कर पंथ की ।
कर समापन भोजन की क्रिया ।
हरिं सखा अधुना उपनीत थे ।
धुति - भरे - सुथरे - यक - सद्म मे ।।४॥

कृश - कलेवर चिन्तित व्यस्त धी ।
मलिन आनन खिन्नमना दुखी ।
निकट ही उनके ब्रज - भूप थे ।
विकलताकुलता - अभिभूत से ॥५॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
आवेगो से विपुल विकला शीर्ण काया कृशांगी ।
चिन्ता-दग्धा व्यथित - हृदया शुष्क-ओष्ठा अधीरा ।
आसीना थी निकट पति के अम्बु - नेत्रा यशोदा ।
खिन्ना दीना विनत - वदना मोह - मग्ना मलीना ।।
द्रुतविलम्बित छन्द
अति - जरा - विजिता बहु-चिन्तिता ।
विकलता - ग्रसिता सुख - वंचिता ।
सदन मे कुछ थी परिचारिका ।
अधिकृता - कृशता · अवसन्नता ॥७॥

मुकुर उज्ज्वल - मंजु निकेत मे ।
मलिनता - अति थी प्रतिविम्बिता ।
परम - नीरसता - सह - आवृता ।
सरसता - शुचिता - युत - वस्तु थी ॥८॥

परम - आदर - पूर्वक प्रेम से ।
विपुल - बात वियोग - व्यथा - हरी ।
हरि - सखा कहते इस काल थे ।
बहु दुखी अ - सुखी ब्रज - भूप से ॥९॥

विनय से नय से भय से भरा ।
कथन ऊधव का मधु मे पगा ।
श्रवण थी करती बन उत्सुका ।
कलपती - कॅपती ब्रजपांगना ॥१०॥

निपट - नीरब - गेह न था हुआ ।
वरन हो वह भी बहु - मौन ही ।
श्रवण था करता बलवीर की ।
सुखकरी कथनीय गुणावली ॥११॥
मालिनी छन्द
निज मथित - कलेजे को व्यथा साथ थामे ।
कुछ समय यशोदा ने सुनी सर्व बाते ।
फिर बहु विमना हो व्यस्त हो कंपिता हो ।
निजे-सुअन-सखा से यो व्यथा-साथ बोली ॥१२॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
प्यासा प्राणी श्रवण करके वारि के नाम ही को ।
क्या होता है पुलकित कभी जो उसे पी न पावे ।
हो पाता है कब तरणि का नाम ही त्राण-कारी ।
नौका ही है शरण जल मे मग्न होते जनो की ॥१३॥

रोते रोते कुँवर - पथ को देखते देखते ही ।
मेरी ऑखे अहह अति ही ज्योति - हीना हुई है ।
कैसे ऊधो भव - तम हरी - ज्योति वे पा सकेगी ।
जो देखेगी न मृदु - मुखड़ा इन्दु - उन्माद - कारी ॥१४॥

सम्वादो से श्रवण - पुट भी पूर्ण से हो गये है ।
थोड़ा छूटा न अब उनमे स्थान सन्देश का है ।
साय प्राय प्रति - पल यही एक - वांछा उन्हे है ।
प्यारी - बाते मधुर - मुख की मुग्ध हो क्यो सुने वे ॥१५॥

ऐसे भी थे दिवस जब थी चित्त मे वृद्धि पाती।
सम्वादो को श्रवण करके कष्ट उन्मूलनेच्छा।
ऊधो बीते दिवस अब वे, कामना है विलीना।
भोले भाले विकच मुख की दर्शनोत्कण्ठता मे ॥१६॥

प्यासे की है न जल - कण से दूर होती पिपासा।
बातो से है न अभिलषिता शान्ति पाता वियोगी।
कष्टो मे अल्प उपशम भी क्लेश को है घटाता।
जो होती है तदुपरि व्यथा सो महा दुर्भगा है ॥१७॥
मालिनी छन्द
सुत सुखमय स्वेहो का समाधार सा है।
सदय हृदय है औ सिधु सौजन्य का है।
सरल प्रकृति का है शिष्ट है शान्त धी है।
वह बहु विनयी, 'है मृत्ति आत्मीयता की' ॥१८॥

तुम सम मृदुभाषी धीर सबंधु ज्ञानी ।
उस गुण-मय का है दिव्य सम्वाद लाया।
पर मुझ दुख · दग्धा भाग्यहीनांगना की।
यह दुख • मय - दोषा वैसि ही है स-दोषा ।।१९।।

हृदय • तल दया के उत्स-सा श्याम का है।
वह पर • दुख को था देख उन्मत्त होता ।
प्रिय-जननि उसीकी आज है शोक-मग्ना।
वह मुख दिखला भी क्यो न जाता उसे है ॥२०॥

मृदुल-कुसुम-सा है औ तुने तूल-सा है।
नव-किशलय-सा है स्नेह के उस - सा है।
सदय-हृदय ऊधो श्याम का है बड़ा ही।
अहह हृदय मॉ- सा स्निग्ध तो भी नहीं है ॥२१॥

कर-निकर सुधा से सिक्त राका शशी के ।
प्रतपित कितने ही लोक को है बनाते ।
विधि-वश दुख-दाई काल के कौशलो से ।
कलुषित बनती है स्वच्छ - पीयूष - धारा ॥२२॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
मेरे प्यारे स - कुशल सुखी और सानन्द तो है ।
कोई चिन्ता मलिन उनको तो नहीं है बनाती ? ।
ऊधो छाती वदन पर है म्लानता भी नहीं,तो ? ।
हो जाती है हृदयतल मे तो नहीं वेदनाये ? ॥२३॥

मीठे - मेवे मृदुल नवनी और पक्वान्न नाना ।
उत्कण्ठा के सहित सुत को कौन होगी खिलाती ।
प्रातः पीता सु - पय कजरी गाय का चाव से था ।
हा! पाता है न अब उसको प्राण - प्यारा हमारा ॥२४॥

संकोची है अति सरल है धीर है लाल मेरा ।
होती लज्जा अमित उसको मॉगने मे सदा थी ।
जैसे ले के स - रुचि सत को अंक मे मै खिलाती ।
हा । वैसे ही अव नित खिला कौन माता सकेगी ॥२५॥

मै थी सारा - दिवस मुख को देखते ही बिताती ।
हो जाती थी व्यथित उसको म्लान जो देखती थी ।
हा। ऐसे ही अब वदन को देखती कौन होगी ।
ऊधो माता - सदृश ममता अन्य की है न होती ॥२६॥

खाने पीने शयन करने आदि की एक - बेला ।
जो जाती थी कुछ टल कसी तो बड़ा खेद होता ।
ऊधो ऐसी दुखित उसके हेतु क्यों अन्य होगी ।
माता की सी अवनितल मे है अ- माता न होती ॥२७॥

जो पाती हूँ कुँवर - मुख के जोग मैं भोग - प्यारा ।
तो होती है हृदय - तल मे वेदनायें - बड़ी ही ।
जो कोई भी सु - फल सुत के योग्य मैं देखती हूँ ।
हो जाती हूँ परम व्यथिता, हूँ महादग्ध होती ॥२८॥

जा लाती थीं विविध - रॅग के मुग्धकारी खिलौने ।
वे आती है सदन अब भी कामना मे पगी सी ।
हा ! जाती है पलट जब वे हो निराशा - निमग्ना ।
तो उन्मत्ता - सदृश पथ की ओर मै देखती हूँ ॥२९॥

आते लीला निपुण - नट है आज भी बॉध आशा ।
कोई यो भी न अब उनके खेल को देखता है ।
प्यारे होते मुदित जितने कौतुकों से सदा ही ।
वे ऑखो मे विषम - दुव है दर्शको के लगाते ॥३०॥

प्यारा खाता रुचिर नवनी को बड़े चाव से था ।
खाते खाते पुलक पड़ता नाचता कूदता था ।
ए बाते है सरस नवनी देखते याद आती ।
हो जाता है मधुरतर औ स्निग्ध भी दग्धकारी ॥३१॥

हा! जो वंशी सरस रव से विश्व को मोहती थी ।
सो आले मे मलिन बन औ मक हो के पड़ी है ।
जो छिद्रो से अमृत बरसा मूर्ति थी मुग्धता की ।
सो उन्मत्ता परम - विकला उन्मना है बनाती ॥३२॥

प्यारे ऊधो सरत करता लाल मेरी कभी है ।
क्या होता है न अब उसको ध्यान बढे - पिता का ।
रो रो, हो हो विकल अपने वार जो है बिताते ।
हा ! वे सीधे सरल - शिशु हैं क्या नहीं याद आते ॥३३॥

कैसे भली सरस - खनि सी प्रीति की गोपिकाये ।
कैसे भूले सुहृदपन के सेतु से गोपग्वाले ।
शान्ता धीरा मधुरहृदया प्रेम - रूपा रसज्ञा ।
कैसे भूली प्रणय - प्रतिमा - राधिका मोहमग्ना ॥३४॥

कैसे वृन्दा - विपिन विसरा क्यो लता - वेलि भूली ।
कैसे जी से उतर ब्रज की कुज - पुंजे गई है ।
कैसे फूले विपुल - फल से नम्र भूजात भूले ।
कैसे भूला विकच - तरु सो अर्कजा - कूल वाला ॥३५।।

सोती सोती चिहॅक कर जो श्याम को है बुलाती ।
ऊधो मेरी यह सदन की शारिका कान्त - कण्ठा ।
पाला पोसा प्रति-दिन जिसे श्याम ने प्यार से है ।
हा ! कैसे सो हृदय - तल से दूर यो हो गई है ।।३।।

जा कुंजो मे प्रति - दिन जिन्हे चाव से था चराया ।
जो प्यारी थी ब्रज अवनि के लाडिले को सदा ही ।
खिन्ना, दीना, विकल वन मे आज जो घूमती है ।
ऊधो कैसे हृदय - धन को हाय ! वे धेनु भूली ॥३७॥

ऐसा प्राय. अब तक मुझे नित्य ही है जनाता ।
गो गोपो के सहित वन से सद्म है श्याम आवा ।
यो ही आ के हृदय तल को वैधता मोह लेता ।
मीठा - वंशी - सरस - रव है कान में गूंज जाता ॥३८॥

रोते - रोते तनिक लग जो-ऑख जाती कभी है ।
हा । त्योही मैं हग - युगल को चौक के खोलती हूँ ।
प्राय. ऐसा प्रति - रजनि मे ध्यान होता मुझे है ।
जैसे आ के सुअन मुझको प्यार से है जगाता ॥३९॥

ऐसा ऊधो प्रति - दिन कई बार है ज्ञात होता ।
कोई यो है कथन करता लाल आया तुम्हारा ।
भ्रान्ता सी मै अब तक गई द्वार पै बार लाखो ।
हा! ऑखो से न वह बिछुड़ी-श्यामली-मूर्ति देखी ॥४०॥

फूले - अंभोज सम हम से मोहते मानसो को ।
प्यारे . प्यारे वचन कहते खेलते मोद देते ।
ऊधो ऐसी अनुमिति सदा हाय !, होती मुझे है ।
जैसे आता निकल अब ही लाल है मंदिरो से ॥४१।।

आ के मेरे निकट नवनी लालची लाल सेरा ।
लीलाये था विविध करता धूम भी था मचाता ।
ऊधो बाते न यक पल भी हाय! वे भलती है ।
हा! छा जाता हग-युगल मे आज भी सो समाँ है ।।४२॥

मैं हाथो से कुटिल : अलके लाल की थी बनाती ।
पुष्पो को थी श्रुति - युगल के कुण्डलो मे सजाती ।
मुक्ताओ को शिर मुकुट मे मुग्ध हो थी लगाती ।
पीछे शोभा निरख मुख की थी न फूले समाती ॥४३॥

मै प्रायः ले कुसुमकलिका चाव से थी, बनाती ।
शोभा - वाले - विविध गजरे क्रीट औ कुण्डलो को ।
पीछे हो हो सुखित उनको श्याम को थी पिन्हाती ।
औ उत्फुल्ला प्रथित - कलिका तुल्य थी पूर्ण होती ॥४४॥

पैन्हे प्यारे - वसन कितने दिव्य - आभूषणो को ।
प्यारी - वाणी विहॅस कहते पूर्ण - उत्फुल्ल होते ।
शोभा - शाली - सुअन जब था खेलता मन्दिरो में ।
तो पा जाती अमरपुर की सर्व सम्पत्ति मै थी ॥४५।।

होता राका - शशि उदय था फूलता पद्म भी था ।
प्यारी - धारा उमग बहती चारु - पीयूष की थी ।
मेरा प्यारा तनय जब था, गेह मे नित्य ही तो ।
वंशी - द्वारा मधुर - तर था स्वर्ग संगीत होता ॥४६॥

ऊधो मेरे दिवस अब वे हाय ! क्या हो गये है ।
हा! यो मेरे सुख - सदन को कौन क्यो है गिराता ।
वैसे प्यारे - दिवस अब मै क्या नहीं पा सकूॅगी ।
हा!क्या मेरी न अब दुख की यामिनी दूर होगी ॥४७॥

ऊधो मेरा हृदय - तल था एक उद्यान - न्यारा ।
शोभा देती अमित उसमे कल्पना - क्यारियाँ थी ।
न्यारे - प्यारे - कुसुम कितने भाव के थे अनेकों ।
उत्साहो के विपुल - विटपी थे महा मुग्धकारी ।।४८।।

सञ्चिन्ता की सरस - लहरी - संकुला - वापिका थी ।
नाना चाहे कलित - कलियाँ थी लताये उमंगे ।
धीरे धीरे मधुर हिलती वासना - वेलियाँ थीं ।
सद्वांछा के विहग उसके मंजु- भाषी बड़े थे ।।४९।।

भोला-भाला - मुख सुत - वधू-भाविनी का सलोना ।
प्रायः होता प्रकट उसमें फुल्ल - अम्भोज - सा था ।
बेटे द्वारा सहज - सुख के लाभ की लालसाये ।
हो जाती थी विकच बहुधा माधवी- पुष्पिता सी ॥५०॥

प्यारी - आशा - पवन जब थी डोलती स्निग्ध हो के ।
तो होती थी अनुपम - छटा बाग के पादपो की ।
हो जाती थीं सकल लतिका - वेलियाँ शोभनीया ।
सद्भावो के सुमन वनते थे बड़े सौरभीले ॥५१॥

राका - स्वामी सरस - सुख की दिव्य-न्यारी-कलाये ।
धीरे धीरे पतित जब थी स्निग्धता साथ होती ।
तो आभा मे अतुल - छवि मे औ मनोहारिता मे ।
हो जाता सो अधिकतर था नन्दनोद्यान से भी ॥५२॥

ऐसा प्यारा - रुचिर रस से सिक्त उद्यान मेरा ।
मै होती हूँ व्यथित कहते आज है ध्वंस होता ।
सूखे जाते सकल - तरु है नष्ट होती लता है ।
निष्पुष्पा हो विपुल - मलिना वेलियाँ हो रही है ।।५३।।

प्यारे - पौधे कुसुम - कुल के -पुष्प ही है न लाते ।
भूले जाते विहग अपनी बोलियाँ है अनूठी ।
हा! जावेगा उजड़ अति. ही मंजु - उद्यान मेरा ।
जो सीचेगा न घन - तन आ स्नेह - सद्वारि - द्वारा ॥५४॥

ऊधो आदौ तिमिर - मय था भाग्य - आकाश मेरा ।
धीरे धीरे फिर वह हुआ स्वच्छ सत्कान्ति - शाली ।
ज्योतिर्माला - बलित उसमे चन्द्रमा एक न्यारा ।
राका श्री ले समुदित हुआ चित्त - उत्फुल्ल - कारी ॥५५॥

आभा - वाले उस गगन मे भाग्य दुर्वृत्तता की ।
काली काली अब फिर घटा है महा-घोर छाई ।
हा! आँखो से सु-विधु जिससे हो गया दूर मेरा ।
ऊधो कैसे यह दुख - मयी मेघ - माला - टलेगी ।।५६।।

फूले - नीले- वनज - दल सा गात का रंग - प्यारा ।
मीठी - मीठी मलिन मन की मोदिनी मंजु - बाते ।
सोधे - डूबी- अलक यदि है श्याम की याद आती ।
उधो मेरे हृदय पर तो सॉप है लोट जाता ॥५७॥

पीड़ा- कारी- करुण स्वर से हो महा- उन्मना सी।
हा! रो रो के स - दुख जब यो शारिका पूछती है।
बंशीवाला हृदय - धन सो श्याम मेरा कहाँ है।
तो है मेरे हृदय - तल मे शूल सा विद्ध होता ।५।८।।

त्यौहारो को अपर कितने पर्व औ उत्सवो को।
मेरा प्यारा - तनय अति ही भव्य देता बना था।
आते हैं वे व्रज - अवनि मे आज भी किन्तु ऊधो।
दे जाते हैं परम दुख औ वेदना हैं बढ़ाते ॥५९।।

कैसा - प्यारा जनम - दिन था धूम कैसी मची थी।
संस्कारो के समय सुत के रंग कैसा जमा था।
मेरे जी मे उदय जब वे दृश्य हैं आज होते ।
हो जाती तो प्रबल - दुख से मूर्ति मैं हूँ शिला की ॥६०॥

कालिंदी के पुलिन पर को मंजु - वृंदाटवी की।
फूले नीले - तरु निकर की कुंज की आलयों की।
प्यारी-लीला-सकल जव हैं लाल की याद आती।
तो कैसा है हृदय मलता मैं उसे क्यो बताऊँ ।।६१।।

मारा मल्लो - सहित गज को कंस से पातकी को ।
मेटी सारी नगर - वर की दानवी - आपदाये।
छाया सच्चा - सुयश जग मे पुण्य की वेलि बोई।
जो प्यारे ने स - पति दुखिया - देवकी को छुडाया ॥६२॥

जो होती है सुरत उनके कम्प, - कारी दुखो की।
तो ऑसू है विपुल बहता आज भी लोचनो से ।
ऐसी दग्धा परम : दुखिता जो हुई मोदिता है ।
ऊधो तो हूँ परम सुखिता हर्षिता आज मैं भी ॥६३।।

तो भी पीड़ा - परम इतनी बात से हो रही है ।
काढ़े लेती मम - हृदय क्यो, स्नेह - शीला सखी है ।
हो जाती हूँ मृतक सुनती हाय ! जो यों कभी हूँ ।
होता जाता मम तनय भी अन्य का लाडिला है ।।६४।।
 
मै रोती हूँ हृदय अपना कूटती हूँ सदा ही। हा ।
ऐसी ही व्यथित अब क्यो देवकी को करूंगी ।
प्यारे जीवे पुलकित रहें औ बने भी उन्हीके ।
धाई नाते वदन दिखला एकदा और देवे ॥६५॥

नाना यत्नो अपर कितनी युक्तियों से जरा मे ।
मैने ऊधो! सुकृति बल से एक ही पुत्र पाया ।
सो जा बैठा अरि - नगर मे हो गया अन्य का है ।
मेरी कैसी, अहह कितनी, मर्म-वेधी व्यथा है ॥६६॥

पत्रो पुष्पो रहित विटपी विश्व मे हो न कोई ।
कैसी ही हो सरस सरिता वारि - शून्या न होवे ।
ऊधो सीपी - सदृश न कभी भाग फूटे किसी का ।
मोती ऐसा रतन अपना आह! कोई न खोवे ॥६७।।

अंभोजो से रहित न कभी अंक हो वापिका का ।
कैसी ही हो कलित - लतिका पुष्प - हीना न होवे ।
जो प्यारा है परम - धन है जीवनाधार जो है ।
ऊधो ऐसे रुचिर. -विटपी शून्य वाटी न होवे ।।६८।।

छीना जावे लकुट न कभी वृद्धता मे किसी का ।
ऊधो कोई न कल-छल से लाल ले ले किसी का ।
पूँजी कोई जनम भर की गॉठ से खो न देवे ।
सोने का भी सदन न विना दीप के हो किसी का ।।६९।।

उद्विग्ना औ विपुल-विकला क्यो न सो धेनु होगी ।
प्यारा लैरू अलग जिसकी आँख से हो गया है ।
ऊधो कैसे व्यथित - अहि सो जी सकेगा बता दो ।
जीवोन्मेषी रतन जिसके शीश का खो गया है ॥७०॥

कोई देखे न सब - जग के बीच छाया अंधेरा ।
ऊधो कोई न निज - हग की ज्योति - न्यारी गॅवावे ।
रो रो हो हो विकल न सभी वार बीतें किसी के ।
पीड़ाये हो सकल न कभी मर्म - वेधी व्यथा हो ॥७१।।

ऊधो होता समय पर जो चारु चिन्ता - मणी है ।
खो देता है तिमिर उर का जो स्वकीया प्रभा से ।
जो जी मे है- सुरसरित सी स्निग्ध - धारा बहाता ।
वेढा ही है अवनि - तल मे रत्न ऐसा निराला ‌।।७२॥

ऐसा प्यारा रतन जिसका हो गया है पराया ।
सो होवेगी व्यथित कितना सोच जी मे तुम्ही लो ।
जो आती हो मुझ पर दया अल्प भी तो हमारे ।
सूखे जाते हृदय - तल मे शान्ति - धारा वहा दो ॥७३।।

छाता जाता ब्रज - अवनि में नित्य ही है अंधेरा ।
जी मे आशा न अब यह है मैं सुखी हो सकूॅगी ।
हॉ, इच्छा है तदपि इतनी एकदा और आके ।
न्यारा - प्यारा - वदन अपना लाल मेरा दिखा दे ॥७४।।

मैंने वातें यदिच कितनी भूल से की बुरी है ।
ऊधो बॉधा सुअन कर है ऑख भी है दिखाई ।
मारा भी है कुसुम - कलिका से कभी लाडिले को ।
तो भी मै हूँ निकट सुत के सर्वथा मार्जनीया ।।१७५‌‌।।

जो चूके हैं विविध मुझसे हो चुकी वे सदा ही।
पीड़ा दे दे मथित चित को प्रायशः हैं सताती।
प्यारे से यो विनय - करना वे उन्हे भूल जावे।
मेरे जी को व्यथित न करे क्षोभ आ के मिटावे ॥७६॥

खेले आ के हग युगल के सामने मंजु - बोले।
प्यारी लीला पुनरपि करे गान मीठा सुनावे।
मेरे जी मे अब रह गई एक ही कामना है।
आ के प्यारे कुँवर उजड़ा -गेह मेरा बसावें ।।७७॥

जो आँखे है उमग खुलती ढूँढती श्याम को है।
लौ कानो को मुरलिधर की तान ही की लगी है।
आती सी है यह ध्वनि सदा गात- रोमावली से। ।
मेरा प्यारा सुअन ब्रज में एकदा और आवे ।।७८।।

मेरी आशा नवल - लतिका थी बड़ी ही मनोज्ञा ।
नीले - पत्ते सकल उसके नीलमो के बने थे।
हीरे के थे कुसुम फल थे लाल गोमेदको के।
पन्नो द्वारा रचित उसकी सुन्दरी डंठियाँ थी ।।७९‌‌।।

ऐसी आशा - ललित - लतिका हो गई शुष्क - प्राया।
सारी शोभा सु - छवि - जनिता नित्य है नष्ट होती।
जो आवेगा न अब ब्रज मे श्याम - सत्कान्ति-शाली।
होगी हो के विरस वह तो सर्वथा छिन्न- मूला ॥८०॥

लोहू मेरे ग-युगल से अश्रु की ठौर आता।
रोये रोये सकल - तन के दग्ध हो छार होते।
आशा न होती यदि मुझको श्याम के लौटने की।
मेरा सूखा - हृदयतल तो सैकड़ो खंड होता ।।८१।।

चिता - रूपी मलिन निशि की कौमुदी है अनूठी।
मेरी जैसी मृतक बनती हेतु संजीवनी है।
नाना - पीड़ा मथित - मन के अर्थ है शांति-धारा।
आशा मेरे हृदय - मरु की मंजु - मंदाकिनी है ।।८२।।

ऐसी आशा सफल जिससे हो सके शांति पाऊँ।
ऊधो मेरी सब - दुख - हरी-युक्ति-न्यारी वही है।
प्राणाधारा अवनि - तल में है यही एक श्राशा।
मैं देखूगी पुनरपि वही श्यामली मूर्ति ऑखो ।।८३॥

पीड़ा होती अधिकतर है बोध देते जभी हो।
सदेशो से व्यथित चित है और भी दग्ध होता।
जैसे प्यारा - वदन सुत का देख पाऊँ पुन मै।
ऊधो हो के सदय मुझको यत्न वे ही बता दो ॥८४॥

प्यारे - ऊधो कब तक तुम्हें वेदनाये सुनाऊँ।
मैं होती हूँ विरत यह हूँ किन्तु तो भी बताती।
जो टूटेगी कुँवर - वर के लौटने की सु - आशा।
तो जावेगा उजड़ व्रज औ मै न जीती बनूँगी ।।८५।।

सारी बाते श्रवण करके स्वीय - अर्धागिनी की।
धीरे बोले व्रज - अवनि के नाथ उद्विग्न हो के।
जैसी मेरे हृदय - तल मे वेदना हो रही है।
ऊधो कैसे कथन उसको मैं करूँ क्यो बताऊँ ।।८६।।

छाया भू मे निविड़ - तम था रात्रि थी अर्द्ध बीती।
ऐसे बेले भ्रम - वश गया भानुजा के किनारे ।
जैसे पैठा तरल - जल मे स्नान की कामना से ।
वैसे ही मै तरणि - तनया - धार के मध्य डूवा ॥८७||

साथी रोये विपुल - जनता ग्राम से दौड़ आई ।
तो भी कोई सदय बन के अर्कजा मे न कूदा ।
जो क्रीड़ा मे परम - उमड़ी आपगा पैर जाते ।
वे भी सारा - हृदय - बल खो त्याग वीरत्व बैठे ॥८८।।

जो स्नेही थे परम - प्रिय थे प्राण जो वार देते ।
वे भी हो के त्रसित विविधा - तर्कना मध्य डूबे ।
राजा हो के न असमय मे पा सका मैं सु- साथी ।
कैसे ऊधो कु - दिन अवनी - मध्य होते बुरे हैं ।।८९॥

मेरे प्यारे कुँवर - वर ने ज्यो सुनी कष्ट - गाथा ।
दौड़े आये तरणि - तनया मध्य तत्काल कूदे ।
यत्नो- द्वारा पुलिन पर ला प्राण मेरा बचाया ।
कर्तव्यो से चकित करके कूल के मानवो को ।।९०॥

पूजा का था दिवस जनता थी महोत्साह - मग्ना ।
ऐसी बेला मम - निकट आ एक मोटे फणी ने ।
मेरा दायाँ - चरण पकड़ा मैं कॅपा लोग दौड़े ।
तो भी कोई न मम-हित की युक्ति सूझी किसी को ॥९१॥

दौड़े, आये कुंवर सहसा औ कई - उल्मको से ।
नाना ठौरो वपुष - अहि का कौशलो से जलाया ।
ज्योही छोड़ा चरण उसने त्यो उसे मार डाला ।
पीछे नाना - जतन करके प्राण मेरा बचाया ।।९२॥

जैसे जैसे कुॅवर - वर ने हैं किये कार्य - न्यारे ।
वैसे उधो न कर सकते है महा-विक्रमी भी ।
जैसी मैंने गहन उनमे बुद्धि - मत्ता विलोकी ।
वैसी वृद्धो प्रथित - विवुधो मंत्रदो मे न देखी ॥९३।।

मैं ही होता चकित न रहा देख कार्यावली को ।
जो प्यारे के चरित लखता, मुग्ध होता वही था ।
मै जैसा ही अति-सुखित था लाल पा दिव्य ऐसा ।
वैसा ही है दुखित अब मैं काल - कौतूहलो से ॥१४॥

क्यो प्यारे ने सदय वन के डूबने से बचाया ।
जो यो गाढ़े - विरह - दुख के सिन्धु मे था डुवोना ।
तो यत्नो से उरग- मुख के मध्य से क्यो निकाला ।
चिन्ताओ से प्रसित यदि मै आज यों हो रहा हूँ ॥९५।।

वंशस्थ छन्द
निशान्त देखे नभ स्वेत हो गया ।
तथापि पूरी न व्यथा - कथा हुई ।
परन्तु फैली अवलोक लालिमा ।
स - नन्द, ऊधो उठ सद्म से गये ।।९६।।

द्रुतविलम्बित छन्द
विवुध ऊधव के गृह - त्याग से।
परि - समाप्त हुई दुख की कथा।
पर सदा वह अंकित सी रही।
हृदय - मंदिर मे हरि - मित्र के ॥९७

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