प्राचीन चिह्न/पाताल-प्रविष्ट पाम्पियाई नगर

[ ११० ]किसी समय विसूवियस पहाड़ के पास इटली मे एक नगर पाम्पियाई नाम का था। रोम के बड़े-बड़े आदमी इस रमणीय नगर मे अपने जीवन का शेपाश व्यतीत करते थे। हरएक मकान चित्रकारिया से विभूषित था। दुकाने इन्द्र- धनुष के समान तरह-तरह के रङ्गो से रॅगी हुई नगर की शोभा को और भी बढ़ा रही थी। हर सडक के छोर पर छोटे- छोटे तालाब थे, जिनके किनारे भगवान् मरीचिमाली के उत्ताप को निवारण करने के लिए यदि कोई पथिक थोड़ी देर के लिए बैठ जाता था तो उसके आनन्द का पार न रहता था। जब लोग रङ्ग-बिरङ्गे कपड़े पहने हुए किसी स्थान पर जमा होते थे तब बड़ी चहल-पहल दिखाई देती थी। कोई-कोई सङ्गमरमर की चौकियो पर, जिन पर धूप से बचने के लिए पर्दे टॅगे हुए थे, बैठे दिखाई पडते थे। उनके सामने सुस- ज्जित मेज़ो पर नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन रक्खे जाया करते थे। गुलदस्तों से मेजे सजी रहती थी। यह कहना अत्युक्ति न होगी कि वहाँ का छोटे से छोटा भी मकान सुस- जित महलों का मान-भड्ग करनेवाला था। वहाँ का झोपड़ा भी महल नही, स्वर्ग था।
[ १११ ]यहाँ पर हम केवल एक ही मकान का थोडा सा हाल लिखकर पाठकों को बताना चाहते हैं कि पाम्पियाई उस समय उन्नति के कितने ऊँचे शिखर पर आरूढ़ था। पाम्पियाई में घुसते ही एक मकान दृष्टिगोचर होता था। उसकी बाहरी दालान रमणीय खम्भों की पंक्ति पर सधी हुई थी। दालान के भीतर घुसने पर एक बड़ा-लम्बा चौड़ा कमरा मिलता था। वह एक प्रकार का कोश-गृह था। उसमे लोग अपना-अपना बहुमूल्य सामान जमा करते थे। वह सामान लोहे और तांबे के सन्दूकों मे रक्खा रहता था। सिपाही चारो तरफ़ पहरा दिया करते थे। रोमन देवताओं की पूजा भी इसी में हुआ करती थी। इस कमरे के बराबर एक और कमरा था। उसमे मेहमान ठहरायें जाते थे। उसी में कचहरी थी। इससे भी बढ़कर एक गोल कमरा था। उसके फर्श मे सङ्ग- मरमर और सङ्गमूसा का पच्चीकारी का काम था। दीवारों पर उत्तमोत्तम चित्र अङ्कित थे। इस कमरे मे पुराने इतिहास और राज्य-सम्बन्धी कागजात रहते थे। यह कमरा बीच से लकड़ी के पर्दो से दो भागों में बँटा हुआ था। दूसरे भाग मे मेहमान लोग भोजन करते थे। इसके बाद देखनेवाला यदि दक्षिण की तरफ़ मुंडता तो एक और बहुत बड़ा सजा हुआ कमरा मिलता। उसमे सोने का प्रबन्ध था। कोचें विछी हुई थी। उन पर तीन-तीन फुट ऊँचे रेशमी गहे पड़े रहते थे। इसी कमरे में, दीवार के किनारे-किनारे,,आल-
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मारियाँ रक्खी थी। उनमे बहुमूल्य रत्न और अन्यान्य आश्चर्यजनक प्राचीन-काल की चीजे रक्खी रहती थीं। इस मकान के चारों तरफ़ एक बड़ा ही मनोहारी बखग़ीचा था। जगह-जगह पर फ़व्वारे अपने सलिलसीकर बरसाते थे। उनकी बूँदें बिल्लौर के समान चमकती हुई भूमि पर गिरकर बड़ा ही मधुर शब्द करती थी। फ़व्वारे के किनारे-किनारे माधवी-लतायें कलियों से परिपूर्ण शरद् ऋतु की चाँदनी का आनन्द देती थी। फ़व्वारो के कारण दूर-दूर तक की वायु शीतल हो जाती थी। जहाँ-तहाँ सघन वृक्षो की कुञ्जे थी, जिनमे सङ्गमर की मूर्तियाँ रक्खी हुई थीं।

आगे चलकर गर्मियों में रहने के लिए एक मकान था, जिसे हम “मदन-विलास" कह सकते हैं। पाठक, कृपा करके इसके भी दर्शन कर लीजिए। इसकी भी सजावट अपूर्व थी। इसमे जो मेज़े थी वे देवदारु की सुगन्धित लकड़ी की थी। उन पर चाँदी-सोने के तारों से तारकशी का काम था। सोने-चॉदी की रत्नजटित कुसियाँ भी थी। उन पर रेशमी झालरदार गहियाँ पड़ी हुई थी। कभी-कभी मिहमान लोग इसमे भी भोजन करते थे। भोजनोपरान्त वे चॉदी के बरतनों मे हाथ धोते थे। उसके बाद बहुमूल्य शराब, सोने के प्यालो मे, उड़ता था। पानोत्तर माली प्रसूनस्तबक मिह- मानों को देता था और सुमनवर्षा होती थी। अन्त मे नृत्य आरम्भ होता था। इसी गायन-वादन के मध्य मे इत्र-पान
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होता था और गुलाब-जल की वृष्टि होती थी। ये सब बाते अपनी-अपनी हैसियत के मुताविक सभी के यहाँ होती थी। त्योहार पर तो सभी ऐसा करते थे।

एक दिन कोई त्योहार मनाया जा रहा था। वृद्ध, युवा, वालक, स्त्रियाँ सभी आमोद-प्रमोद में मग्न थे। इतने में अकस्मात् विसूवियस से धुआँ निकलता दिखाई दिया। शनैः- शनैः धुएं का गुबार बढ़ता गया। यहाँ तक कि तीन घण्टे दिन रहे ही चारों ओर अन्धकार छा गया। सावन-भादों की काली रात सी हो गई। हाथ को हाथ न सूझ पड़ने लगा। लोग हाहाकार मचाने और त्राहि-त्राहि करने लगे। जान पंडा कि प्रलय आ गया। जहाँ पहले धुआँ निकलना शुरू हुआ था वहाँ से अब ज्वाला निकलने लगी। लोग भागने लगे। परन्तु भागकर जाते भी तो कहाँ ? ऐसे समय में भाग निकलना नितान्त असम्भव था। अँधेरा ऐसा घनघोर था कि बहन भाई से, स्त्री पति से, मॉ बच्चो से बिछुड़ गई। हवा बड़े वेग से चलने लगी। भूकम्प हुआ। मकान धड़ा- धड़ गिरने लगे। समुद्र से चालीस-चालीस गज़ ऊंची लहरे आने लगीं। हवा भी गर्म मालूम होने लगी और धुआँ इतना भर गया कि लोगो का दम घुटने लगा। इस महाघोर सङ्कट से बचाने के लिए लोग ईश्वर से प्रार्थना करने लगे। पर सब व्यर्थ हुआ। कुछ देर में पत्थरो की वर्षा होने लगी, और, जैसे भादों में गङ्गाजी उमड़ चलती हैं वैसे ही गर्म पानी की
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तरह पिघली हुई चीज़े ज्वालामुखी से बह निकलीं। उन्होंने पाम्पियाई का सर्वनाश आरम्भ कर दिया। मिहमान भोजन- गृह में, स्त्री पति के साथ, सिपाही अपने पहरे पर, कैदी कैद- खाने में, बच्चे पालने में, दुकानदार तराज़ू हाथ में लिये रह गये। जो मनुष्य जिस दशा मे था वह उसी मे रह गया। बहुत समय बाद, शान्ति होने पर, अन्य नगरवासियों ने वहाँ आकर जो देखा तो सिवा राख के ढेर के और कुछ न पाया। वह राख का ढेर खाली ढेर न था । उसके नीचे हज़ारो मनुष्य अपनी जीवनयात्रा पूरी करके सदैव के लिए सोये हुए थे। हाय! किस-किस के लिए कोई अश्रुपात करे ? यह दुर्घटना २३ अगस्त ७९ ईसवी की है। १९४५ वर्ष बाद जो यह जगह खोदी गई तो जो-जो वस्तु जहाँ थी वही मिली।

यह प्रायः सारा शहर का शहर पृथ्वी के पेट से निकाला गया है। अब भी कभी-कभी इसमे यत्र-तत्र खुदाई होती है और अजूबा-अजूबा चीज़े निकलती हैं। पाम्पियाई मानो दो हज़ार वर्ष के पुराने इतिहास का चित्र हो रहा है। दूर-दूर से दर्शक उसे देखने जाते हैं।

[आकृोबर १९११


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