प्रताप पीयूष/सामयिक तथा परिहासपूर्ण
कलिकोप ।
कचहरी-कच माने बाल और हरी मानी हरण करनेवाली,
अर्थात् मुंडन (उल्टे छूरे से मूड़नेवाली) जहां गये
मुंडाये सिद्ध ।
दर्बार-दर्ब द्रव्य का अपभ्रंश और अरि अर्थात् शत्रु, जैसे
सुरारि मुरारि इत्यादि । भाषा में अन्तवाली ह स्व इ
की मात्रा बहुधा लोप हो जाती है।
अदालत-अदा अर्थात् छबि, उसकी लत । पोशाकें चमका २
के जा बैठनेवालों का स्थान । अथवा होगा तो वही
जो भाग में है,पर अपनी दौड़ने धूपने की लत अदा कर
लो। अथवा अदा बना के जाओ, लातें खा के आओ इत्यादि।
हाकिम-दुःखी कहता है हा! (हाय) तो हुजूर कहते हैं
कि अर्थात क्या है बे ? अथवा क्यों बकता है !
वकील-वः कील, जो सदा कलेजे में खटकै, अथवा
बंग भाषा में 'वोः की' क्या है, अर्थात् वह तुम्हारे पास क्या है, लावो।
मुखतार-जिसके मुख से तार निकले, अर्थात् मकड़ी
(जाल फैलानेवाला) अथवा मुक्त्यारि (मुक्ति का अरि जो
फंदे मेंमें आवै सो छूटने न पावै ।)
मुअकिल-मुत्रा अर्थात् मरा किल इति निश्चयेन (जरूर
(१०२)
मरो।)
मुद्दई-ग्राम्य भाषा में शत्रु को कहते हैं, (हमार मुद्दई आहिउ
लरिका थोरै आहिउ।)
मुद्दालेह-मुद (आनन्द) आ ! आ ! ले दोत !अर्थात् आव
आव मजा ले अपने कर्मों का।
इजलास-अंगरेजी शब्द है,इज़ is (है) Loss(हानि)अर्थात्
जहां जाने से अवश्य हानि है, अथवा ई माने यह, जलासा
अर्थात् कोयला सा काला आदमी। अथवा फारसी तो
शब्द ही है, जेर के बदले ज़बर अर्थात् अजल (मौत) की
आस (आशा) अथवा बिना जल (पानी) के आस लगाए
खड़े रहो।
चपरासी-लेने के लिए चपरा के समान चिपकती हुई बातैं
करनेवाला ! न देनेवालों से चप (चुप) रासी का अर्थ
फारसी में हुआ, 'नेवला है तू'-अर्थात् 'चुप रह, नेवला
की तरह तू क्या ताकता है' कहनेवाला । अथवा फारसी
में चप के माने बायां अर्थात् अरिष्ट के हैं (विधि बाम
इत्यादि रामायण में कई ठौर आया है,) अर्थात् तू बाम
नेवला है, क्योंकि कोल डालता है।
अरदली-अरिवत् दलतीति भावः।
स्त्री-(शुद्ध शब्द इसस्तरी) अग्नितप्त लोह के समान गुण
जिसमें । (धोबी का एक औजार)
मेहरिया-जिसकी आंखों में मेह (बात २ पर रोना)और हृदय
(१०३)
में रिया (फा़रसी में कपट को रिया कहते हैं) का बास हो।
लोगाई-जिसमें नौ गौओं की सी पशुता हो। बंगाली लोग
बहुधा नकार के बदले लकार और लकार के बदले नकार
बोलते हैं, जैसे नुकसान को लोक़्शान,निर्लज्ज को निरनज्ज।
जोरू-जो रूठना खूब जानती हो।
पुरुख-पुरु कहत हैं जेह में खेतु सींचा जाथै, और 'ख'
आकाश (संस्कृत में।) अर्थात् शून्य । भावार्थ यह हुआ
कि एक पानी भरी खाल, जिसके भीतर अर्थात् हृदय में
कुछ न हो । 'मूर्खस्य हृदयं शून्य' लिखा भी है।
मनसवा-मन अर्थात् दिल और शव अर्थात् मुरदा (आका-
रान्त होने से स्त्रीलिंग हो गया) भाव यह कि स्त्री के
समान अकर्मण्य, मुर्दा दिल, बेहिम्मत।
मर्द-मरदन किया हुआ, जैसे लतमर्द ।
खसम-अरबी में खिस्म शत्रु को कहते हैं ।
सन्तान-जो सन्त अर्थात् बाबा लम्पटदास की आन से जन्मे।
बालक-बा सरयूपारी भाषा में है' को कहते हैं। जैसे ऐसन
बा अर्थात् ऐसा ही है, और लक निरर्थक शब्द है। भाव
यह कि होना न होना बराबर है।
लड़का-जो पिता से तो सदा कहे लड़, अर्थात् लड़ ले और
स्त्री से कहे, का ( क्या आज्ञा है ?)
छोरा-कुलधर्म छोड़ देने वाला (रकार ड़कार का बदला)
(१०४ )
पुत्र-पु माने नर्क (संस्कृत) और त माने तुझे,(फारसी,जैसे
जवाबत् चिदिहम-तुझे क्या उत्तर दूं।) और रादाने धातु
है,अर्थात् तुझे नर्क देने वाला।
श्रीरामनौमी में भक्तों की बनि आती है। व्रत केवल
दोपहर तक है, सो यों भी सब लोग दुपहर के इधर-उधर खाते
हैं। इससे कष्ट कुछ नहीं, औ आनन्द का कहना ही क्या है।
भगवान का जन्म दिन है। अनुभवी को अकथनीय आनन्द है।
मतलबी को भी थोड़े से शुभ कर्म में बहुत बड़ी आशा है !!!
वैसाख में कोई बड़ा पर्व नहीं होता, तौ भी प्रातस्नातकों को
मज़ा रहता है। भोर की ठंढी हवा, सो भी बसन्त ऋतु की।
रास्ते में यदि नीम का वृक्ष भी मिल गया, तो सुगन्ध से मस्त.
हो गये । जेठ में दशहरा को गंगापुत्रों की चाँदी है। गरमी के
दिन ठहरे, बड़ा पर्व ठहरा । नहाने को कौन न आवेगा ? और
कहां तक न पसीजेगा । आषाढ़ी को चेला मूंड़ने वाले गोसाइयों
के दिन फिरते हैं। गरीब से गरीब कुछ तो भेंट धरेईगा। नाग-
पंचमी में लड़कियों की बनि आती है। परमेश्वर उनके माता
पिता को बनाये रक्खे । भादों में हलषष्टी को भुरजियों के भाग
जगते हैं। जिसे देखो, वही बहुरी बहुरी कर रहा है। हमारे
पाठक कहते होंगे-जन्माष्टमी भूल गये। पर हम जब आधी
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