प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र


इसके आगे संसार को तुच्छ समझे, दूसरे देशवालों में चाहे जैसे उत्कृष्ट गुण हों उनको कुछ न गिनके अपने में ऐसे गुण संचय करने का प्रयत्न करें कि दूसरों के गुण मंद पड़ जायँ। मात्सर्य का ठीक २ बर्ताव यह है। जो ऐसा हो जाय वही सच्चा युवक, सच्चा जवान और सच्चा जवांमर्द है। उसी की युवावस्था सफल है। पाठक तुम यदि बालक वा वृद्ध न हो तो सच्चा जवान बनने का शीघ्र उद्योग करो।


भौं ।

निश्चय है कि इस शब्द का रूप देखते ही हमारे प्यारे पाठकगण निरर्थक शब्द समझेंगे, अथवा कुछ और ध्यान देंगे तो यह समझेंगे कि कार्तिक का मास है, चारो ओर कुत्ते तथा जुवारी भौं भौं भौंकते फिरते हैं, सम्पादकी की सनक में शीघ्रता के मारे कोई और विषय न सूझा तो यही “भौं' अर्थात भूकने के शब्द को लिख मारा ! पर बात ऐसी नहीं है। हम अपने वाचकवृंद को इस एक अक्षर में कुछ और दिखाया चाहते हैं। महाशय ! दर्पण हाथ में लेके देखिये, आंखों की पलकों के ऊपर श्याम-वर्ण-विशिष्ट कुछ लोम हैं। बरुनी न समझिएगा, माथे के तले और पलकों के ऊपरवाले रोम-समूह। जिनको अपनी हिन्दी में हम भौं, भौंह, भौंहैं कहते हैं, संस्कृत के पंडित भ्र बोलते हैं। फ़ारसवाले अबरू और अंगरेज़ लोग 'आइब्रो' कहते हैं,

उन्हों का वर्णन हमें करना है।

यहयह न कहिएगा कि थोड़े से रोएं हैं, उनका वणन ही क्या ? नहीं। यह थोड़े से रोएँ बहुत से सुवर्ण के तारों से अधिक हैं। हम गृहस्थ हैं, परमेश्वर न करे, किसी बड़े बूढ़े की मृत्यु पर शिर के, दाढ़ी के और सर्वोपरि मूछों तक के भी बाल बनवा डालेंगे, प्रयाग जी जायेंगे तो भी सर्वथा मुंडन होगा, किसी नाटक के अभिनय में स्त्री-भेष धारण करेंगे तौभी घुटा डालेंगे, संसार-विरक्त होके सन्यास लेंगे तो भी भद्र कराना पड़ेगा, पर चाहे जग-परलौ-हो जाय, चाहे लाख तीर्थ घूम आवें, चाहे दुनियाभर के काम बिगड़ जायं, चाहे जीवनमुक्त ही का पद क्यों न मिल जाय, पर यह हमसे कभी न होगा कि एक छूरा भौहों पर फिरवा लें। सौ हानि, सहस्र शोक, लक्ष अप्रतिष्ठा हो तौ भी हम अपना मुंह सब को दिखा सकते हैं, पर यदि किसी कारण से भौंहैं सफाचट्ट हो गई तो परदेनशीनी ही स्वीकार करनी पड़ेगी। यह क्यों ? यह यों कि शरीरभरे की शोभा मुख- मंडल है, और उसकी शोभा यह हैं। उस परम कारीगर ने इन्हें भी किस चतुरता से बनाया है कि बस, कुछ न पूछो । देखते ही बनता है । कविवर भर्तृहरिजी ने-

"भ्र चातुर्य कुंचिताक्षा, कटाक्षा, स्निग्धा, वाचो लज्जिता चैवहासः, लीला मंदं प्रस्थितं च स्त्रीणामेतद्भूषणं चायुधंच"- लिखकर क्या ही सच्ची बात दिखलाई है कि बस, अनुभव ही से काम रखती है। कहे कोई तो क्या कहे, निस्संदेह, स्त्रियों के

लिए भूषण है, क्योंकि उनकी परम शोभा है, और रसिकों को वशीभूत करने के हेतु सुन्दरियों का शस्त्र है ए। यह बात सहृदयता से सोचो तो चित्त में अगणित भाव उत्पन्न होंगे, देखो तो भी अनेक स्वादु मिलेंगे। पर जो कोई पूछे कि वह क्या है तो भ्रू चातुर्य अर्थात भौंहों में भरी हुई चतुरता से अधिक कुछ नाम नहीं ले सकते। यदि कोई उस भ्रू चातुर्य का लक्षण पूछे तो बस, चुप। हाय २ कवियों ने तो भौंह की सूरतमात्र देखके यही दिया है, पर रसिकों के जी से कोई पूछे ! प्रेमपात्र की भौंह का तनक हिल जाना मनके ऊपर सचमुच तलवार ही का काम कर जाता है। फिर भ्रकुटी-कृपाण क्यों न कहें। सीधी चितवन बान ही सी कलेजे में चुभ जाती है। पर इसी भ्रू -चाप की सहाय से श्री जयदेवस्वामी का यह पवित्र वचन-

'शशि' मुखि ! तव भाति भंगुर भ्रू
युवजन मोह कराल कालसर्पी,

-उनकी आंखों से देखना चाहिए, जिनके प्रेमाधार कोप के समय भौंह सकोड़ लेते हैं। आहा हा, कई दिन दर्शन न मिलने से जिसका मन उत्कण्ठित हो रहा हो उसे वह हृदया- भिराम की प्रेमभरी चितवन के साथ भावभरी भृकुटी ईद के चांद से अनंत ही गुणी सुखदायिनी होती है। कहां तक कहिए, भृकुटी का वर्णन एक जीभ से तो होना ही असंभव है। एक फ़ारसी का कवि यह वाक्य कहके कितनी रसज्ञता का अधिकारी है कि रसिकगण को गूंगे का गुड़ हो रहा है-भृकुटी-रूपी छंद-

पंक्ति के सहस्रों सूक्ष्म अर्थ हैं, पर उन अर्थों को बिना बाल की खाल निकालनेवालों अर्थात् महा तीव्र बुद्धिवालों के कोई समझ नहीं सकता।*

जब यह हाल है कि महा तीव्र-बुद्धि केवल समझ सकते हैं तो कहने की सामर्थ्य तो है किसे? संस्कृत, भाषा, फारसी और उर्दू में काव्य का ऐसा कोई ग्रन्थ ही नहीं है जिसमें इन लोमराशि का वर्णन न हो।

अतः हम यह अध्याय अधिक न बढ़ाके इतना और निवे-दन करेंगे कि हमारे देश-भाई विदेशियों की वैभवोन्मादरूपी वायु से संचालित भ्रकुटी-लता ही को चारो फलदायिनी समझके न निहारा करें, कुछ अपना हिताहित आप भी विचारें। यद्यपि हमारा धन, बल, भाषा इत्यादि सभी निर्जीव से हो रहे हैं तो भी यदि हम पराई भौहें ताकने की लत छोड़ दें, आपस में बात २ पर भौंहैं चढ़ाना छोड़ दें, दृढ़ता से कटिबद्ध होके, वीरता से भौंहें तानके देश-हित में सन्नद्ध होजायं, अपने देश की बनी वस्तुओं का, अपने धर्म का, अपनी भाषा का, अपने पूर्व-पुरुषों के रुज़गार और व्यवहार का आदर करें तो परमेश्वर अवश्य हमारे उद्योग का फल दे। उसके सहज भृकुटी-विलास में अनंत कोटि ब्रह्मांड की गति बदल जाती है, भारत की दुर्गति बदल जाना कौन बड़ी बात है।


यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।