प्रताप-पीयूष

प्रस्तावना

इधर कुछ दिनों से हिंदीवालों का ध्यान पुराने लेखकों को पुनरुज्जीवित करने की ओर गया है। हिंदी-प्रेमी इस बात का अनुभव करने लग गये हैं कि हम अपने साहित्यसेवियों का उतना सम्मान करना तथा उनकी कृतियों का उतना मनन- पूर्वक अध्ययन करना अभी तक नहीं सीखे हैं जितना कि अन्य देशवाले अपने लेखकों के लिए करते हैं। इसी उदासीनता अथवा मानसिक शैथिल्य के कारण आजकल के कितने ही वाचकगणों की यह दशा हो गई है कि यदि उनसे पूछा जाय कि हिंदी के प्राचीन तथा अर्वाचीन लेखक कौन कौन से हैं ? तो वे तुलसी, सूर, केशव, भूषण, हरिश्चंद्र, अयोध्यासिंह, श्रीधर पाठक, रत्नाकर आदि के नाम तो तुरंत बड़े गौरव से लेने लगेंगे। पर, यदि इनमें से किसी एक के विषय में कोई मार्मिक प्रश्न उठाया जाय तो वे अवाक रह जायेंगे और अंत

में उनके पल्लवग्राहि पांडित्य की कलई यहाँ तक खुलेगी कि

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यह मालूम हो जायेगा कि बहुतेरों ने तो तुलसीकृत रामायण तक एक बार भी आदि से अंत तक नहीं पढ़ी, यद्यपि तुलसीदास का नाम लेते ही वे बड़े आवेश में भर जाते हैं। औरों की तो क्या कथा है !

पंडित प्रतापनारायण मिश्र की भी कुछ कुछ यही दशा हुई है। उनका वास्तविक साहित्यिक महत्त्व तो करीब करीब विस्मृति में विलीन हो गया है। उनकी जीवन-संबंधी कुछ सच्ची घटनायें तथा बहुत सी मनगढंत बातें अलबत्ता बहुत से लोगों को याद हैं। फल यह हुआ है कि उनकी रचनाओं के अप्रका- शित होने से तथा उन पर किसी प्रामाणिक आलोचनात्मक लेख के अभाव में उनका साहित्यिक अस्तित्व तक लुप्त हो गया है। यही नहीं बड़े बड़े हिंदी विद्वान् तक यह नहीं समझ पाये हैं कि आधुनिक साहित्य से उनका क्या संबंध है।

इन्हीं कतिपय निर्मूल धारणाओं को दूर करने के लिए तथा मिश्र जी का साहित्यिक महत्त्व अविकल रूप से अंकित करने के लिए प्रस्तुत संग्रह तैयार किया गया है।

वंश-विवरण तथा प्रारंभिक जीवन

पंडित प्रतापनारायण उन लेखकों में से हैं जिनका जीवन- वृत्तांत उतना ही रोचक होता है जितनी कि उनकी कृतियाँ। आगे चल कर उनके लेखों के जिन गुणों का उल्लेख किया जायगा उनके तद्रूप उनके चरित्र में सभी बातें पाई जाती हैं।

उनका जन्म संवत् १९१३ में पंडित संकठाप्रसाद जी

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के घर में हुआ था। उनके पिता जी उन्नाव जिले के बैजेगाँव के रहने वाले थे। वहाँ से वे कानपुर में आ बसे थे। कहते हैं कि वे अच्छे ज्यौतिषी थे। इसी वृत्ति से उन्होंने काफ़ी यश तथा धन कमाया था। कानपुर के रामगंज नाम के मुहल्ले में जिस जगह संकठाप्रसाद जी बैठा करते थे वह मुझे दिखाई गई थी। उनका मकान नौघड़ा में अबतक मौजूद है। आसपास के कई मकान उन्हीं के अधिकार में थे। लगभग ७ वर्ष की बात है मैं उनके मकान को देखने तथा प्रतापनारायण जी की धर्म- पत्नी के दर्शन करने को गया था। उनके चरणस्पर्श करने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ था।

बालक प्रतापनारायण बड़ा चपल तथा मस्त-तबियत था। पिताजी ने उन्हें अपनी ही वृत्ति में डालना चाहा, पर उनकी तबियत जन्म-पत्र बनाने तथा ग्रह-नक्षत्र की गणना करने में कब लगने को थी! अतएव अंग्रेजी पढ़ने के लिए वे स्कूल में भरती कराये गये। वहाँ भी जी न लगा। तब वे उस मिशन स्कूल में भरती हुए जो किसी समय नयेगंज के पास था, पर जो अब टूट गया है। वहाँ भी बहुत दिन तक वे नहीं टिके और आखिरकार सन् १८७५ के आस-पास उन्होंने पढ़ना छोड़ ही दिया।

असल में प्रतापनारायण उन पुरुषों में से थे जिनके विद्या- ध्ययन के साधन साधारण लोगों के साधनों से बिलकुल ही

भिन्न होते हैं। और लोग स्कूलों और कालेजों में कठिन परिश्रम

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करके जो ज्ञान प्राप्त करते हैं उससे भी अधिक मनोरंजक तथा उपयोगी ज्ञान प्रतापनारायण सरीखे आदमी यों ही अनेक प्रकार के लोगों से मिलजुल कर तथा सांसारिक अनुभव को बढ़ाते हुए प्राप्त कर लेते हैं।

उनके लेखों को एक बार पढ़ जाइए तो अपको स्पष्ट ज्ञात हो जायगा कि पण्डित प्रतापनारायण यथावत् शिक्षा न पाये होने पर भी कितने बहुज्ञ थे और उनकी दृष्टि कैसी पैनी थी। हिंदी, उर्दू, फारसी, संस्कृत, बँगला, अंग्रेज़ी आदि बहुत सी भाषाओं में उनकी खासी गति जान पड़ती है, क्योंकि न जाने कहाँ कहाँ की बातें उन्हें लिखते समय याद आ जाती हैं। सूझ तो उनकी अद्वितीय थी। इन सब के नमूने आगे अन्य स्थल पर दिये जायेंगे।

प्रतापनारायण का चरित्र तथा

उनकी जीवन-चार्य्या

सनातन काल से जनसाधारण की यह धारणा चली आई है कि साहित्य-सेवी एक विचित्र प्रकार के जीव होते हैं, क्योंकि सांसारिक धंधों में उनकी विशेष रुचि नहीं होती और न जीवन की समस्याओं को समझने के लिए उनमें योग्यता ही होती है। इसके सिवाय उनका जीवन बड़ा शुष्क अथवा नीरस होता है और उनकी बातचीत, क्या व्यवहार सभी से

किताबों की गंध निकला करती है। पर, इसके विपरीत पं०

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प्रतापनारायण मिश्र का चरित्र तथा उनका जीवन बड़ा ही मनोरंजक है। उनकी रुचि निरे पुस्तक प्रेम की ओर कभी नहीं रही। आरंभ से ही वे आनंदमय जीवन बिताने के पक्ष में थे। उनके विषय में अभी तक जो बहुत सी रोचक बातें प्रचलित हैं और उनके मित्रों से जो कुछ उनके संबंध में ज्ञात हुआ है उसी से पता लगता है कि वे कैसे जिंदादिल आदमी थे।

अपने समय में कानपुर के सार्वजनिक जीवन को सजीव रखने में तथा जनता को सदैव जाग्रत रखने में प्रतापनारायण का प्रमुख स्थान था। शहर के दैनिक जीवन में एक खास तरह की स्फूर्ति रखने में उनकी लावनीबाजी का उल्लेख अवश्य करना चाहिए। यह अब तक प्रसिद्ध है कि कानपुर के कुछ खास चौरस्तों पर जुल्में रखाये, बाँकी टोपी सिर पर दिये हुए, लंबी नाकवाला छोटे कद का एक रसिक-हृदय सुपरिचित पुरुष उच्च स्वर से लावनी गाते हुए बहुधा देख पड़ता था। उस समय लावनीवालों का अच्छा जमघट रहता था और उन लोगों में समय समय पर आपस में तात्कालिक लावनी-रचना करने की प्रतिस्पर्द्धा तक हुआ करती थी। पंडित प्रतापनारायण का अच्छा खासा नाम था। वे एक प्रकार के लावनी-आचार्य समझे जाते थे।

वैसे भी उनकी वेश-भूषा काफ़ी हास्योत्पादक थी। तिस पर उनकी बातचीत और भी मनोविनोदक थी।

एक दफ़े की बात है कि चौकबाज़ार के एक बड़े कपड़े

के दुकानदार बाबू देवीप्रसाद खत्री को मिश्र जी ने होली के दिनों में कबीरें सुना कर बुरी तरह से छेड़ दिया। वे बहुत क्रुद्ध हुए। पर ज्यों ज्यों देवीप्रसाद जी का क्रोध उमड़ता जाता था, त्यों त्यों मिश्र जी की कबीरें और भी ज़ोरदार होती जाती थीं। मामला यहाँ तक बढ़ा कि देवीप्रसाद जी ने प्रतापनारायण जी के मित्र कोतवाल अलीहसन जी से शिकायत की। बस, फिर क्या था, दूसरे ही दिन मिश्र जी देवीप्रसाद जी से माफ़ी माँगने उनकी दूकान पर पहुंचे। माफ़ी माँगते समय उन्होंने पूरा स्वाँग रचा। वे इतने विनम्र हो गये कि देवीप्रसाद जी हँस पड़े और क्षण भर में उनका क्रोध उतर गया।

उन दिनों कानपुर में ईसाइयों ने बड़ी धूम मचा रक्खी थी। जगह जगह उनके प्रचारक लोग लेक्चरबाज़ी करते तथा अपने धर्म-ग्रंथ बाँटते देख पड़ते थे। उनसे प्रतापनारायण जी की अक्सर टक्करें हुआ करती थीं और इन शास्त्रार्थों में वे वाक्प्रगल्भता तथा मखो़लपने का इतना प्रदर्शन करते थे कि ईसाइयों को शर्माना पड़ता था और एकत्र श्रोतागण का पूरा मनोरंजन होता था।

उनकी दिल्लगीबाजी के बहुत से उदाहरण लोगों को याद हैं। मेरे पिता जी ने भी एक आपबीती बात मुझे बतलाई थी। वे लगभग मिश्र जी के समवयस्क थे और उनसे उनकी घनिष्टता भी थी। जब कभी कानपुर जाते तो प्रतापनारायण जी से अवश्य मिला करते थे। एक बार ऐसा हुआ कि मेरे

पिता जी उनके यहाँ गये हुए थे। अन्य बातचीत होने के बाद उन्होंने अपने नौकर से बाज़ार जाकर कुछ जलेबियाँ मोल लाने को कहा। जब वे आगईं और आदेशानुसार वे उन्हें मेरे पिता जी के सामने जल-पान के लिए रखने लगा तो प्रताप- नारायण जी उसके ऊपर बनावटी मुँझलाहट दिखाते हुए बोले- 'तू जानता नहीं कि तिवारी जी अन्न की मिठाई नहीं खाते'। पर असली रहस्य तो खुल ही गया। ऐसे न जाने कितने मज़ाक वे नित्य किया करते थे।

कानपुर में उन्होंने अपनी एक नाट्यसमिति खोल रक्खी थी। वह उस जगह थी जहाँ आज-कल सिटी टेलीग्रैफ़ आफ़िस है। उनके साथ चौबीस घंटे बैठने-उठनेवालों में तथा नाट्य- समिति के खेलों में पार्ट लेनेवाले कई सज्जन अब भी हैं। शहर के बड़े रईस स्वर्गीय बाबू बिहारीलाल, स्वर्गीय राय देवीप्रसाद जी 'पूर्ण' आदि भी उन्हीं में थे।

नाटक के खेलों में प्रतापनारायण जी स्त्री-पार्ट बहुधा लिया करते थे और उनकी अभिनय-चतुरता पर बड़ी करताल- ध्वनि होती थी। इन खेलों में भाग लेने के कारण उनकी दाढ़ी-मूछ के नये नये संस्कार अक्सर ही हुआ करते थे।

पर इन घटनाओं से यह न समझना चाहिए कि प्रताप- नारायण जी केवल भँड़ैती-प्रवीण एक साधारण मसखरे थे। उनकी इस कोटि की परिहासप्रियता उनकी सर्वतोमुखीप्रकृति का एक अंगमात्र है। इसी के आधार पर उनके चरित्र पर

फ़ैसला करना अनुचित है। यदि वास्तव में वे फक्कड़मिजाजी तथा साधारण कोटि के लिक्खाड़ थे तो यह प्रश्न हो सकता है कि कांग्रेस के जन्मदाता ह्मूम साहब, बंगाल के प्रसिद्ध देश-सेवी विद्वान् ईश्वरचंद्र जी विद्यासागर, श्रीमान् मालवीय जी, भारतेंदु हरिश्चंद्र आदि दिग्गज पुरुष उनके प्रति इतना प्रगाढ़ प्रेम तथा श्रद्धा क्यों रखते थे ? ईश्वरचंद्र जी विद्यासागर एक बार प्रतापनारायण जी मिश्र के घर पर मिलने आये थे। कहते हैं कि उन दोनों में काफी देर तक बँगला में बड़े प्रेम से वार्ता-लाप हुआ था। सब से रोचक बात इस प्रसंग में कही जाती है कि विद्यासागर जी को बड़ी आवभगत से लेने के बाद मिश्र जी ने उनके जल-पान के लिए दो पैसे के पेड़े मँगाये थे। इस बात पर जितना ही सोचते हैं उतनी ही हँसी आती है।

कहते हैं इलाहाबाद काँग्रेस में भी एक इसी प्रकार की घटना हुई थी। उस साल प्रतापनारायण जी कानपुर शहर के प्रतिनिधि बन कर गये थे। एक दिन वे जब अपने तंबू के बाहर खड़े थे ह्यूम साहब उधर से निकले। देखते ही मिश्र जी ने उन्हें नमस्कार किया। ह्यूम साहब ने उन्हें सप्रेम छाती से लगा लिया और कुशल-समाचार पूछा।

बतलाइए कि ह्यूम साहब ऐसे बड़े आदमी जिससे ऐसे प्रेम से मिलें तथा विद्यासागर जैसे विद्वान जिससे मिलने उसके घर पर आवें और उसके 'दो पेड़ों' का जल-पान प्रेमपूर्वक स्वीकार करें, वह क्या कोरा मसखरा हो सकता है ? वास्तव में प्रतापनारायण जी के चरित्र में कई अनुपम गुण थे जिनके कारण उनके स्नेहियों तथा प्रशंसकों का समुदाय उनके जीवनकाल में काफी बड़ा था और अब भी है।

अभी कहा जा चुका है कि वे बड़े लहरी आदमी थे। किसी प्रकार के धार्मिक अथवा सामाजिक बंधन से बँधना उन्हें असह्य था, क्योंकि ऐसी दशा में उन्हें अपनी स्वाभाविक स्वतंत्रप्रियता तथा अलबेलेपन को पूर्णरूप से प्रस्फुटित करने में बाधा पड़ती थी। यही कारण है कि बड़ी से बड़ी चिर-समाद्रित संस्थाओं पर तथा घनिष्ट से घनिष्ट परिचित सज्जनों पर कभी कभी वे बिलकुल निर्भीक हो कर तीव्रकटाक्ष करने में हिचकते न थे। स्वयं पाखंड तथा कोरी दुनियादारी के घोर विरोधी होकर भला वे व्यर्थ के ढकोसलों का कैसे समर्थन कर सकते थे।

उन्होंने अनेक स्थलों पर स्वयं अपने को प्रेमधर्म का अनु-- यायी बताया है और 'प्रेम एव परो धर्मः' के मंत्र का प्रचार किया है। प्रेमी लोग समदर्शी होते हैं। इसी लिए प्रतापनारायण जी बड़े निर्भीक तथा उदारहृदय थे।

इसकी पुष्टि में कि वे बड़े उदारहृदय और स्पष्टवादी थे कई उदाहरण दिये जाते हैं।

वे खुद ऊँचे घर के कान्यकुब्ज थे और कुलाभिमान भी रखते थे। पर 'ब्राह्मण' के एक अंक में कनौजियों की निरक्षरता तथा उनके जातीय ताटस्थ्य का उन्होंने अच्छा चुटीला मज़ाक

किया है। 'ककाराष्टक' नामक कविता में वे लिखते हैं:

"करुणानिधि-पद-विमुख देव-देवी बहु मानत।
कन्या अरु कामिनि-सराप लहि पाप न जानत॥
केवल दायज लेत और उद्योग न भावत।
करि वकरा-भच्छन निज पेटहिं कबर बनावत॥
का खा गा घा हू बिन पढ़े तिरवेदी पदवी धरन।
कलह-प्रिय जयति कनौजिया, भारत कहँ गारत करन॥"

और भी सुनिए:-

"हमारे रौरे जी की अकिल पर ऐसे पाथर पड़े हैं कि दुनिया भर की चाहै लाते खाय आवै पर अपने को अपना समझे तो शायद पाप हो। धाकर तो धाकर ही हैं। अच्छे 'झकझकौआ' पट्कुल का भी पक्ष करना नहीं सीखे।"

'फक्कड़ और भंगड़' शीर्षक एक कथोपकथन 'ब्राह्मण' के किसी अंक में निकला था। उसमें उन्होंने अपने समीपी संबंधी पंडित प्रयागनारायण जी तिवारी को जिनका बनवाया हुआ प्रसिद्ध मंदिर कानपुर में है, बड़ी खरी-खोटी बातें सुनाई हैं।

इसके सिवाय आर्यसमाज के अनुयायियों पर तथा उसके कुछ सिद्धांतों पर भी उन्होंने चुभती हुई फबतियाँ कसी हैं, यद्यपि यथार्थ में वे स्वामी दयानंद और उनके चलाये हुए मत के बड़े प्रशंसक थे।

'कानपुर-माहात्म्यकानपुर-माहात्म्य' नाम की छोटी सी रचना में हिंदुओं की पारस्परिक फूट तथा कानपुर के निवासियों के 'कँचढिल्लापन' का ज़िकर करते समय वे अधिकांश आर्यसमाज के परिपोषकों की

विद्याहीनता और वाचालता का यों चित्र खींचते हैं:-

"स्वामी दयानंद मनै बिसूरैं हम सब करिबे देश-सुधार।

मूड़ मुड़ाओ उन भारत हित विद्या पढ़ी छोड़ि घर-बार॥
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कहुँ हरवाहन संध्या सीखी कहुँ कहुँ बैठि गई टकसार।
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हाल समाजिन को का कहिये बातन छप्पर देय उड़ाय॥
पै दुइ चारि जनेन को तजि कै, कुछ करतूति न देखी जाय‌।
सगे समाजिन ते नित ऐंठें, राँधि परोसिन को धरि खायें।
मुख ते बेद बेद गोहरावै, लच्छन सबै सुलच्छन आएँ।
आँकु न जानैं सँसकीरति को, ले न गायत्री को नाउँ।
तिनका आरज कैसे कहिये, मैं तो हिंदू कहत लजाउँ।"
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(प्रतापनारायण के धार्मिक सिद्धांत तथा)
विचार विशदता

अभी मिश्र जी की जिस परिहास-प्रियता तथा मनमौजीपन का उल्लेख किया गया है उसी से उनकी मानसिक प्रवृत्ति का पता लग सकता है। क्योंकि जिस पुरुष के चरित्र में ये दोनों गुण ओत-प्रोत रहते हैं उसकी मानसिक दृष्टि बड़ी विशद होती है। परिहासप्रियता उसे सदैव सांसारिक व्यापारों के वास्तविक महत्त्व का ज्ञान कराती रहती है। जब उसकी दृष्टि किसी पुरुष

के उपहासास्पद व्यवहार पर अथवा चरित्र पर पड़ती है तो परिहासप्रिय तबीयतवाले को तुरंत इस बात का अनुभव हो जाता है कि उस आदमी की चाल-ढाल में तथा आंतरिक मानसिक प्रवृत्ति में कहाँ तक वास्तविक तथ्य है। इसके सिवाय मनमौजी आदमी कभी किसी विषय पर विचार करते समय अत्यधिक गंभीर नहीं होता। उसके हिसाब से संसार के विभिन्न व्यापार क्रीड़ा-मात्र हैं और संसार एक विस्तृत क्रीड़ा-स्थल है।

एवं मतमतांतरों के वितंडावाद को वे कोरी बक-झक समझते थे। धर्म के नाम पर जो नित्य व्यर्थ के आडंबर रचे जाते हैं और जिनके कारण बखेड़े खड़े हुआ करते हैं उनके प्रति प्रतापनारायण जी घृणा रखते थे। मतवादियों के लिए तो वे यहाँ तक कह गये हैं कि-'वे अवश्य नर्क जावेंगे।' इस शीर्षक के लेख में कहते हैं :-

“••••••एक पुरुष ईश्वर की बड़ाई के कारण उसे अपना पिता मानता है, दूसरा उसके प्रेम के मारे उसे अपना पुत्र कहता है। इसमें दूसरे के बाप का क्या इजारा है••••••"

बहुत वर्षों से अथवा बहुत पीढ़ियों से जो विश्वास एक के जी पर जमा हुआ है उसे उखाड़ कर उसके ठौर पर अपना विचार रक्खा चाहते हैं। भला इससे बढ़ कर हरि-विमुखता क्या होगी ? और ऐसे विमुखों को भी नरक न हो तो ईश्वर के घर में अंधेर है।

अर्थात् प्रतापनारायण जी संगठितरूप में सामुदायिक

"धार्मिक सिद्धांतों के विरोधी हैं। वे यह नहीं पसंद करते कि'किसी धार्मिक संस्था के द्वारा समस्त समाज को एक ही प्रकार के धार्मिक सिद्धांत ग्रहण करने पर बाधित किया जाय। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मानसिक प्रवृत्ति के तद्रूप अपना धर्म ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति की भावनायें अपने अपने सांसारिक अनुभवों के हिसाब से बिलकुल अलग होती हैं और जिन प्रवृत्तियों से उसका जीवन प्रभावित हो वही उसका धर्म है।

प्रतापनारायण जी के मनोरंजक शब्दों में ‘यदि ईश्वर एक ही लाठी से सबको हाँके तो वह ( ईश्वर कैसा ? )’। इन उद्धरणों से प्रकट होता है कि प्रतापनारायण जी व्यक्तिगत विचार-स्वातंत्र्य के कितने बेढब पक्षपाती थे। कहीं कहीं मतों को फटकारते हुए वे इतने जोश में आ गये हैं कि नास्तिकता का समर्थन करने लगे हैं। 'नास्तिक' पर एक लेख भी उन्होंने लिखा है।

भिन्न भिन्न मतावलंबियों में अपने मुँह मियाँ मिट्ट बनने की तथा दूसरों को हेय समझने की जो आदत होती है उस पर मिश्र जी बड़ी मजेदार टीका करते हैं और मतांतर- मात्र को अनावश्यक सिद्ध करते हैं:-

"जब जिसके लिये जो बात ईश्वर योग्य समझता है तब तिसको तौन ही बदला देता है। उससे बढ़ के बुद्धिमान कोई नहीं है। वह अपनी प्रजा का हिताहित आप जानता है। बेद

बाइबिल, कुरान बना के मर नहीं गया, न पागल हो गया है कि अब पुस्तक-रचना न कर सके। यदि एक ही मत से सबका उद्धार समझता हो तो अन्य मतावलंबियों के ग्रंथ मनुष्य और सारे चिह्न नाश कर देने में उसे किसका क्या डर है?

ॱॱॱॱॱॱ"यदि बेद, बाइबिल और कुरानादि की एक प्रति अग्नि तथा जल में डाल दी जाय तो जलने अथवा गलने से कोई न बचेगी। फिर एकमतवाला किस शेखी पर अपने को अच्छा और दूसरे को बुरा समझता है।ॱॱॱॱॱॱ"

एवं, 'धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां' के वे मानने वाले थे।

इस प्रसंग में यह विचार करना है कि उनके समय में स्वामी दयानंद ने आर्यसमाज नामक जो नई धार्मिक संस्था खड़ी की थी और पौराणिक काल से परम्परागत चले आये मूर्तिपूजा आदि धार्मिक विधानों का खंडन किया था उनकी ओर पंडित प्रतापनारायण जी की कैसी धारणा थी। बात यह है कि आर्य-समाज ने लोगों की विचार-गति को पलटने के उद्देश्य से जो क्रांति मचाई थी उससे उस समय के अधिकांश लोग हिल गये थे और ऐसे झुँझला से गये थे जैसे कि सोते से जगाये हुए आदमी की दशा होती है।

यह देख कर आश्चर्य होता है कि प्रतापनारायण जी आर्य-समाज के वास्तविक महत्त्व को खूब समझ गये थे और आज-कल हम लोग जिस श्रद्धापूर्ण दृष्टि से उसके कार्य को देखते हैं उसी से उन्होंने इतने समय पूर्व देख लिया था। वे कहते हैं:--"स्वामी दयानंद तथा उनके सहकारियों ने (प्रतिमा-पूजन आदि के विषय में) जो उपदेश करना स्वीकार किया था (उसके लिये) हम उन्हें कोई दोष न देंगे, क्योंकि उनका मुख्य प्रयोजन भारत-संतान को घोर निद्रा से जगाना था। जिसकी युक्ति उन्होंने यही समझी थी कि कुछ कष्ट देने वाली तथा कुछ झुँझलाहट चढ़ाने वाली बातें कहके चौकन्ना कर देना चाहिये।"

ऐसी व्यापक दृष्टि उस 'रिंद' (मस्त) के लिए बिलकुल स्वाभाविक थी जो धर्म को 'मकड़ी का जाला' कहता है और जो ईश्वर-प्रार्थना करते समय यह मंत्र जपता था:--

'गमय दूरे शुष्क ज्ञानं। कुरुत प्रेम-प्रमाद-दानम्।' संसार के बड़े बड़े संतों तथा भक्तों ने मस्ती में रँगे हुए जिस तल्लीनता अथवा आनंदातिरेक का अनुभव करने के लिए शुष्क तत्त्वज्ञान का तिरस्कार किया है, ठीक उसी रिंदी का उपदेश प्रतापनारायण ने जगह जगह अपने लेखों में दिया है।

'दिल और दिमाग' ये ही समस्त सांसारिक ज्ञान को प्राप्त करने के दो उपकरण हैं। किसी को दिमाग़ की विवेचनाशक्ति ही पर अधिक भरोसा रहता है, जैसे तत्त्वज्ञानी लोग। इसके प्रतिकूल जो स्वभावतः मस्त तबीयत के होते हैं उन्हें कोरी दार्शनिक क्रीड़ा में मजा नहीं आता। वे अपनी सहृदयता की मात्रा बढ़ाते हुए उसी के द्वारा सांसारिक जीवन को आनंदमय बनाने में निरंतर लीन रहते हैं। ऐसे ही आनंदी जीवों के हाथ से प्रत्येक युग में सर्वोत्कृष्ट साहित्य तथा कला का जन्म होता

है और उन्हीं के प्रभाव से विश्व की जीवन-धारा प्रवाहित रहती है। रूखे दिमागी ज्ञान का उपार्जन करने में अपनी सारी शक्तियाँ केंद्रित करनेवालों की अंत में उपेक्षा की जाती है, क्योंकि ऐसे नीरस ज्ञान से मानव-हृदय को कभी सच्ची शांति नहीं मिलती।

'सोने का डंडा और पौंड़ा' शीर्षक लेख में प्रतापनारायण जी ने इस तथ्य का मार्मिक विवेचन किया है। 'सोने का डंडा' शुष्क ज्ञान का द्योतक है जो देखने में बड़ा मनोमोहक होता है, किंतु जिससे किसी की आत्मा को वास्तविक शांति नहीं मिल सकती। 'पौंड़े' से अभिप्राय है हार्दिक रसीलेपन से।*

महाकवि सूरदास ने अपने 'भ्रमरगीत' में उद्धव और गोपियों में जो ज्ञान और भक्ति विषयक बातचीत कराई है उसका भी सारांश यही है।

प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में किसी न किसी समय किसी न किसी रूप में ऐसी मानसिक अवस्था का अवश्य अनुभव करता है जिसमें उसे ज्ञान और भक्ति के प्रतिद्वंद्वी भावों का पारस्परिक संघर्ष होता प्रतीत होता है। जिनमें अधिक मनोबल होता है वे शीघ्र इस द्वंद्व-युद्ध का निबटारा कर लेते हैं। पर निर्णय हमेशा भक्ति अथवा हादिक प्रवृत्तियों के पक्ष में होता है। संत तथा रिंद अन्य साधारण लोगों की अपेक्षा
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*इस संबंध में Tennyson की प्रसिद्ध कविता 'Palace of art' पढ़ने लायक है।
इस मस्ती अथवा तल्लीनता पर अटल रहते हैं और सांसारिक विषयों की ओर उनकी समदृष्टि रहती है। इस श्रेणी में बड़े मसखरे लोग, कविगण तथा अन्य कलाकोविद सम्मिलित होने चाहिए।

इसी मानसिक स्थिरता अथवा औदार्य को प्रतापनारायण जी अपने भावपूर्ण शब्दों में यों प्रकट करते हैं:-

“जहाँ तक सहृदयता से विचार कीजिएगा, वहाँ तक यही सिद्ध होगा कि प्रेम के विना वेद झगड़े की जड़, धर्म बे सिर-पैर के काम, स्वर्ग शेखचिल्ली का महल, मुक्ति प्रेत की बहिन है। ईश्वर का तो पता लगाना ही कठिन है••••••।"

हद हो गई रिंदी की ? दुनिया के किसी तज़ुर्बें को और धर्म के किसी तत्त्व को तौलने की कितनी अच्छी कसौटी है !

“एकै आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय' वाली बात है।

इसी मस्ती की तरंग में आकर मिश्र जी ने 'मदिरा' की बहुत कुछ तारीफ़ कर डाली है। कुछ लोगों को केवल इसी सूफ़ियाना ढंग से की गई प्रशंसा के कारण यह भ्रांति हो गई है कि प्रतापनारायण जी मदिरा-सेवक थे। यह धारणा ऐसी ही निर्मूल है जैसी कि चोरी का दृश्य वर्णन करने वाले किसी कहानी-लेखक अथवा नाटककार को चोर सम- झने की।

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