प्रताप पीयूष/किस पर्व में किस पर आफ़त आती है

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'पागल न हो जाता हो? जब जड़ वृक्ष,आम भी बौराते हैं तब आम-खास सभी को बौराने की की क्या बात है ? पर सबसे अधिक भडुओं का महत्व बढ़ जाता है। बड़े बड़े दरबारों में उनकी पूछ पैठार होती है। बड़े बड़े लोगों को उनकी पदवी मिलती है।


किस पर्व में किस पर

आफ़त आती है

नौरात्र, चैत्र और कुवांर दोनों में बकरों पर । हमारे कनौ- जिया भाई एवं बंगाली भाई उन बिचारे अनबोल जीवों का गला काटने ही में धर्म समझते हैं।

बैसाख, जेठ, असाढ़ बरी हैं, तो भी छोटी मछलियों को आसन-पीड़ा है। जिसे देखो वही गंगा जी को मथ रहा है। सावन में, विशेषतः रक्षा-बंधन के दिन कंजूस महाजनों का मरन होता है, इनका कौड़ी कौड़ी पर जी निकलता है, पर ब्राह्मण-देवता मुसकें बांधने की रस्सी की भांति राखी लिए छाती पर चढ़े, घर में घुसे आते हैं।

भादों में स्त्रियों की मरही होती है। हरतालिका पानी पीने में भी पाप चढ़ाती है ! बहुत सी बुढ़ियां तमाखू की थैली

गाले पर धर के पड़ रहती हैं। सभी तो पतित्रता हईं नहीं,

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दनभर पति से खांव २ करती है। कहीं पावें तो उस ऋषि की दाढ़ी जला दें, जिसने यह व्रत निकाला है।

पित्रपक्ष में आर्यसमाजी कुढ़ते २ सूख जाते होंगे। 'हाय हम सभा करते, लेक्चर देते मरते हैं, पर पोप जी देशभर का धन खाए जाते हैं !'

कार्तिक में, खासकर दिवाली में, आलसी लोगों का अरिष्ट आता है। यहां मुंह में घुसे हुए मुच्छों के बाल हटाना मुशकिल है, वहां यह उठाव वह धर, यहां पुताव, वहां लिपाव, कहां की आफत !

अगहन पूस तो मनहूस हुई हैं, विशेषतः धोबियों के कुदिन आते हैं। शायद ही कभी कोई एक आध डुपट्टा उपट्टा धुलवाता हो।

माघ का महीना कनौजियों का काल है। पानी छूते हाथ पांव गलते हैं। पर हमें बिना स्नान किये फलहार खाना भी धर्मनाशक है। जलसूर के माने चाहे जो हों, पर हमारी समझ में यही आता है कि सूर अर्थात् अंधे बनके, आखें मूंदके लोटा भर पानी पीठ पर डाल लेनेवाला जलसूर है !

फागुन में होली बड़ा भारी पर्व है । सब को सुख देती है। पर दुःख भी कइयों को देती है। एक माड़वारी, दिनभर खाना है न पीना, डफ पीटते २ हाथ रह जाता है। हौकते २ गला फटता है। कहीं अकेले दुकेले शैतान-चौकड़ी (लड़कों के

समूह) में निकल गए तो कोई पाग उतारै छै, कोई धाप मारै

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छै, कोई कीचड़ उछारै छै ! क्या करें बिचारे एक तो हिन्दू,दूसरे कमजोर, तीसरे परदेशी सभी तरह आफ़त है। दूसरे नई रोशनीवाले देशभाइयों की बैलच्छ देख देख जले जाते हैं । यह चाहते हैं सब ज्यैंटिलमैन बन जायँ, वहां आदमी बनना भी नापसंद है। ...."मुंह रंगे हनूमान जी की बिरादरी में मिले जाते हैं। तीसरे दाढ़ीवाले हिन्दू दिनभर रंग अबीर धोत्रो, ‘पर ललाई कहां जाती है । जो किसी ने गंधा पिरोजा लगा दिया तो और भी आफ़त है। लो, इतने हमने बता दिए, कुछ तुम भी सोचो।


ककाराष्टक।

ज्योतिष जाननेवाले जानते हैं कि होडाचक्र के अनुसार एक अक्षर पर जितने नाम होंगे उनका जन्म एक नक्षत्र के एक ही चरण का होगा, और लक्षण भी एक ही सा होगा। व्यव- हार-सम्बन्धी विचार में ऐसे नामों के लिए ज्योतिषियों को बहुत नहीं विचारना पड़ता। बिना विचारे कह सकते हैं कि एक राशि, एक नक्षत्र, एक चरण के लोग मिल के जो काम करेंगे वह सिद्ध होगा। लोक में भी नाम-राशी का अधिक सम्बन्ध प्रसिद्ध है। इसी विचार पर सतयुग में सत्य, सज्जनता, सद्धर्मादि का बड़ा गौरव था। हमारे पाठक जानते होंगे कि श्री महाराजाधिराज कलियुग जी देव (फारसी में भी तो) बड़े छंटे बड़े नीतिनिपुण

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