प्रताप पीयूष/'ब्राह्मण' की अन्तिम विदा ।
(१३२ )
धन बल की बढ़ती रहै ब्राह्मण देत अशीष ॥"
'ब्राह्मण' की अन्तिम विदा।
. खुश रहो अहले वतन हमतो सफर करते हैं ।।"
परमगूढ़ गुण रूप स्वभावादि सम्पन्न प्रेमदेव के पद पद्म को बारम्बार नमस्कार है कि अनेकानेक विघ्नों की उपस्थिति में भी उनकी दया से ब्राह्मण ने सात वर्ष तक संसार की सैर करली, नहीं तो कानपुर तो वह नगर है जहाँ बड़े बड़े लोग बड़ों बड़ों की सहायता के आछत भी कभी कोई हिन्दी का पत्र छः महीने भी नहीं चला सके। और न आसरा है कि कभी कोई एतद्विषयक कृतकार्यत्व लाभ कर सकेगा, क्योंकि यहाँ के हिन्दू समुदाय में अपनी भाषा और अपने भाव का ममत्व विधाता ने रक्खा ही नहीं। फिर हम क्योंकर मानलें कि यहाँ हिन्दी और उसके भक्त जन कभी सहारा पावैगे ? ऐसे स्थान पर जन्म लेके और खुशामदी तथा हिकमती न बनके ब्राह्मण देवता इतने दिन तक बने रहे सो भी एक स्वेच्छाचारी के द्वारा संचालित होके इस प्रेमदेव की आश्चर्य लीला के सिवा क्या कहा जा सकता है।
यह पत्र अच्छा था अथवा बुरा, अपने कर्तव्य पालन में योग्य था वा अयोग्य, यह कहने का हमें कोई अधिकार नहीं है।
(१३३ )
न्यायशील सहृदय लोग अपना विचार आप प्रगट कर चुके हैं
और करेंगे । पर हाँ इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दी पत्रों की गणना
में एक संख्या इसके द्वारा भी पूरित थी और साहित्य (लिटरेचर)
को थोड़ा बहुत सहारा इससे भी मिला रहता था। इसी से
हमारी इच्छा थी कि यदि खर्च भर भी निकलता रहे अथवा
अपनी सामर्थ्य के भीतर कुछ गाँठ से भी निकल जाय तो भी
इसे निकाले जायंगे। किन्तु जब इतने दिन में, देख लिया कि
इतने बड़े देश में हमारे लिये सौ ग्राहक मिलना भी कठिन है ।
यों सामर्थ्यवानों और देशहितैषियों की कमी नहीं है। पर
वर्ष भर में एक रुपया दे सकने वाले हमें सौ भी मिल जाते
अथवा अपने इष्ट मित्रों में दस दस पांच पांच कापी बिकवा
देने वाले दस पन्द्रह सज्जन भी होते तो हमें छः वर्ष में साढ़े पांच सौ की हानि क्यों सहनी पड़ती, जिसके लिये साल भर तक
काले काँकर में स्वभाव विरुद्ध बनवास करना पड़ा। यह हानि
और कष्ट हम बड़ी प्रसन्नता से अंगीकार किये रहते यदि देखते
कि हमारे परिश्रम को देखने वाले और हमारे विचारों पर ध्यान
देने वाले दस बीस सद् व्यक्ति भी हैं। पर जब वह भी आशा
न हो तो इतनी मुड़धुन क्यों कर सही जा सकती ?
शिव मूर्ति।
हमारे ग्रामदेव भगवान भूतनाथ सब प्रकार से अकथ्य
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