पुरातत्त्व प्रसंग/मध्य-एशिया के खँडहरों की खुदाई का फल।
जिस समय बौद्ध-धर्म अपनी ऊर्जितावस्था में था उस
समय यूनान, रूस, मित्र, बाबुल आदि की तो बात ही
नहीं, मध्य-एशिया की राह, उसके आचार्य्य चीन तक
जाते और वहाँ अपने धर्म्म का प्रचार करते थे। अफ़ग़ानिस्तान तो उस समय भारतीय साम्राज्य का एक अंश
ही था। उस समय तो भारतवासी बलख़, बुख़ारा,
खुरासान, खोटान और ताशकन्द तक फैले हुए थे। चीन
और भारत के बीच आवागमन का मार्ग उस प्रान्त से
था जिसे इस समय पूर्वी तुर्किस्तान कहते हैं। बर्बर
मुसलमानो के आक्रमण से अपने देश की रक्षा करने के
लिए चीनियों ने जो इतिहास-प्रसिद्ध दीवार बनाई थी
उसका कुछ अश इस पूर्वी तुर्किस्तान में भी था। इस
प्रान्त में पहले कई बड़े बड़े नगर थे। बौद्धों के विहारों
और मठों से यह प्रान्त सर्वत्र भरा हुआ था। इन मठों
में बड़े बड़े बौद्ध विद्वान निवास करते थे। वे हजारों
विद्यार्थियों को विद्यादान देते थे। उन्होंने बहुमूल्य पुस्तकालयों तक की स्थापना अपने मठों में की थी। जो
बौद्ध श्रमण चीन से भारत और जो भारत से चीन जाते
थे वे इन्हीं मठों और विहारों में ठहरते हुए जाते थे।
इन लोगों के काफिले के का़फिले चलते थे। चीनी परिब्राजक ह्वेनसांग और इत्सिग आदि इसी मार्ग से भारत
आये थे। उनके यात्रा-वर्णनों में इस मार्ग मे पड़ने वाले
नगरों, नदियो पर्वतों, रेगिस्तानों आदि का बहुत कुछ
उल्लेख पाया जाता है।
कालान्तर में बर्बर मुसलमानों का जोर बढ़ने पर उन्होंने चीन और भारत के बीच के इस राजमार्ग को धीरे धीरे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। मठों, स्तूपों और बिहारो को उजाड़ दिया; हजारों बौद्ध-श्रमणों को तलवार के घाट उतार दिया; नगरो को तहस-नहस करके उन्हे ज़मीदोज़ कर दिया। ये सभी स्थान बालू के टीलो में परिणत हो गये। तूफ़ानों के कारण उड़ी हुई बालू ने इन सबको अपने नीचे यहाँ तक दबा दिया कि उनका नामो-निशान तक न रहा।
अपने ऊपर आई हुई या आनेवाली विपत्ति से
अपनी प्राण-रक्षा असम्भव समझ कर बौद्ध विद्वान्
प्राणदान देने के लिए तैयार हो गये। परन्तु उन्होंने
अपने एकत्र किये हुए ग्रन्थ और चित्रादि के समुदाय को
अपने प्राणों से भी अधिक समझा। अतएव कही कहीं
उन्होंने उस समुदाय को पर्व्वतों को गुफाओं के भीतर,
कहीं कहीं जमीन के नीचे भूतलवर्तिनी कोठरियों के
भीतर, और कहीं कहीं पत्थर की सन्दूकों के भीतर रख
कर उन्हें छिपा दिया। उनमें से अनेक वस्तु-समुदाय तो
अवश्य ही नष्ट हो गये, पर जो गुफाओं के भीतर और
पृथ्वी के पेट में छिपा दिये गये थे वे अब धीरे धीरे
निकलते जाते हैं। इसका विशेष श्रेय बौद्ध और हिन्दू-
धर्म्म के अनुयायियों को नहीं; योरप के पुरातत्त्व प्रेमी
ईसाइयों को है। लाखों रुपया खर्च करके और कठिन से
भी कठिन क्लेश उठाकर ये लोग उन निर्जन वनों और
रेतीले स्थानों के ध्वंसावशेष खोद खोद कर उन हजारों
वर्ष के पुराने ग्रन्थो और काग़ज-पत्रों को जमीन के पेट
से बाहर निकाल रहे हैं। उनमें से कितने ही तो विवरण
और टीका-टिप्पणी-सहित छपकर प्रकाशित भी हो गये।
परन्तु अभी अनन्त रत्रराशि प्रकाश में आने को बाकी है।
१८७९ ईसवी में जर्म्मन विद्वान डाक्टर रेजल का
ध्यान चीनी तुर्किस्तान के उजाड़-खण्ड की ओर आकृष्ट
हुआ। वे वहाँ गये। उन्हें वहाँ कितने ही प्राचीन खँडहरों का पता चला। इसके बाद रूस के रहनेवाले दो
पुरातत्ववेत्ताओ ने, १८५६-९७ ईसवी में, उसी तुर्किस्तान के तुरफान-प्रान्त में खोज की। उन्हें, अपनी खोज
में, जो जो चीज़ें मिली उनका विस्तृत वर्णन उन्होंने
अपनी भाषा में प्रकाशित किया। उनकी देखादेखी फिन
लैंड के भी कुछ पुरातत्त्वज्ञों ने उस रेगिस्तान में पदार्दण
करके वहाँ का कुछ हाल लिखा। इस तरह, धीरे धीरे,
लोगो का कौतूहल बढ़ता ही गया। अन्त में रूसी विद्वान्
रैडलफ ने, १८९९ ईसवी में, प्रलतत्वविशारदो की एक
सभा में, इस बात का प्रस्ताव किया कि पूर्वी और
सध्य-एशिया के खंडहरों की बाकायदा जांच की जाय।
यह प्रस्ताव "पास" हो गया। तब से इन प्रान्तो को
जाँच के लिए कई देशों के विद्वानों के यूथ के यूथ वहाँ
पहुंचे और अनेक बहुमूल्य पुस्तकों, मूर्तियों, चित्रों आदि
का पता लगा कर उन्होने उन पर बड़े माके के लेख
प्रकाशित किये। यहाँ तक कि सुदूरवर्ती जापान तक ने
कई विद्वानों को भेजकर वहाँ खोज कराई वे लोग भी
कितनी ही बहुमूल्य सामग्री अपने देश को ले गये।
१८९१ ईसवी मे ब्रिटिश गवर्नमेन्ट के एक दूत
चीनी तुर्किस्तान में थे। उनका नाम था कप्तान बाबर।
उन्हें भोजपत्र पर लिखा हुआ एक ग्रन्थ मिला। उसे
उन्होंने बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी को भेज दिया।
डाक्टर हार्नली ने उसे पढ़ा। मालूम हुभा कि वह गुप्त-
नरेशों के समय की देवनागरी लिपि में है और ईसा की
चौथी शताब्दी में लिखा गया था। अतएव उसकी रचना
उसके भी बहुत पहले हुई होगी। एक आध को छोड़
कर इससे अधिक पुरानी हस्तलिखित पोथी भारत में
कहीं नहीं पाई गई। जो पीथियाँ सबसे अधिक पुरानी
हैं पे ईसा के ग्यारहवें शतक के पहले की नहीं। यहाँ
को आबोहवा में इससे अधिक पुरानी पुस्तकें रही नहीं
सकतीं; वे टूट फूट कर नष्ट हो जाती हैं। बाबर साहब
को मिलो हुई पोयी में भिन्न भिन्न सात पुस्तके हैं।
उनमें से तीन वैधक विषय की हैं। अवशिष्ट पुस्तकें
विशेष करके बौद्ध-धर्म्म से सम्बन्ध रखती हैं।
जब से बाबर साहब की पोथी प्रकट हुई तब से
तुर्किस्तान के रेगिस्तानी खँडहरों की खुदाई आदि का
काम और भी जोरो से किया जाने लगा। फ्रांस, रूस,
स्वीडन, जर्मनी आदि के पुरातत्वज्ञ वहाँ से राशि राशि
प्राचीन वस्तु-समुदाय अपने अपने देश को उठा ले गये।
चुनांचे ब्रिटिश गवर्नमेंट भी इस सम्बन्ध में चुप नहीं
रही। कलकत्ता-मदरसा के प्रधान अध्यापक डाक्टर आरल
स्टीन, की योजना उसने इस काम के लिए की।
१९००-०१ ईसवी में डाक्टर साहब चीनीतुर्किस्तान
को गये। वहाँ उन्होंने खुतन या खोटान (Khotan)
के सूबे में जाँच-पड़ताल की। उन्हें अपने काम में अच्छी
कामयाबी हुई। अनेक प्रत्न-रन उन्हें प्राप्त हुए। उनका
वर्णन उनकी लिखी हुई पुस्तक--"प्राचीन खोटान"
(Ancient Khotan ) मैं सविस्तर पाया जाता है।
इसके बाद डाक्टर साहब ने चीनी तुर्किस्तान पर दो
चढ़ाइयाँ और कीं। उनकी तीसरी चढ़ाई १९१३ में हुई।
१९०६ ईसवी वालो दूसरी चढ़ाई में उन्हें एक ऐसी
कोठरी मिली जो बाहर से बन्द थी, परन्तु भीतर जिसके
पुस्तके भरो हुई थीं। इन पुस्तको का कुछ ही अंश
डाक्टर स्टीन को मिला; अवशिष्ट अंश एम० पेलियो
नाम के एक फ्रेंच विद्वान् के हाथ लगा। इस चढ़ाई का
बहुत ही विशद वर्णन डाक्टर स्टीन ने पाँच बड़ी बड़ी
जिल्दो में किया है। वे प्रकाशित भी हो गई हैं। उनका
नाम है सेरेण्डिया (Serindia)।
अपनी दूसरी चढ़ाई में जिस समय डाक्टर स्टीन
तुर्किस्तान में प्राचीन चिन्हो और वस्तुओं की खोज कर
रहे थे उसी समय मध्य एशिया में खोज करने के लिए
फ्रांस की राजधानी पेरिस में एक परिषद् की स्थापना
हुई। इसकी सहायता फ्रांस की गवर्नमेण्ट ने भी धन से
की और कई एक अन्य सभाओं ने भी की। इस परिषद्
ने एक चढ़ाई की योजना की। एम० पेलियो, जिनका
नाम ऊपर एक जगह आया है वे इसके प्रधानाध्यक्ष
नियत हुए। वे अपने दल-बल-समेत जून १९०६ में
पेरिस से रवाना हुए और मास्को, ताशकन्द होते हुए,
पामीर के उत्तर काशगर तक पहुंच गये। वहाँ आस पास
खोज करते हुए वे तुन-हॉग नामक स्थान में पहुँचे।
इसके कुछ ही समय पहले डाक्टर स्टीन एक गुफा से
बहुत-सी पुस्तकें प्राप्त करके लौट चुके थे। यह एक
प्रसिद्ध प्राचीन स्थान था। इसकी ख़बर पेलियो को
पहले ही से थी। उन्होंने यह भी सुन लिया था कि
डाक्टर स्टीन वहाँ से बहुत-सी प्राचीन पुस्तकें लेकर
पहले ही चम्पत हो गये हैं। फिर भी उन्होंने वहाँ पर
अपने मतलब की कुछ चीजें पाने की आशा न छोड़ी।
खोज करने पर पेलियो को मालूम हुआ कि बैंग-ताउ
नाम का एक चीनी बौद्ध पुरानी पुस्तकों का स्थिति-स्थान
जानता है। पता लगाने पर वह बौद्ध साधु उन्हें मिल
गया। पेलियो ने उससे हेल-मेल पैदा करके पुस्तकों
का अनुसन्धान लगाने की प्रार्थना की। उसने इस
प्रार्थना को स्वीकार किया। वह उन्हें एक ऐसी जगह ले
गया जहाँ पर कोई एक हज़ार वर्ष की पुरानी सैकड़ों
बौद्ध-गुफायें या कोठरियाँ थीं। उनमें से, किसी समय,
उसने एक को खोल कर देखा था और वह उसे पुस्तकों
से परिपूर्ण मिली थी। इसी गुफा को बैंगे ने पेलियो के
लिए खोला। खोलने पर जो दृश्य पेलियो को दिखाई
दिया उससे उनके आश्चर्य और हर्ष की सीमा न रही।
ईसवी सन् की दसवीं शताब्दी के अन्त में जब मुसलमानों
ने बौद्धों के नाश का बीड़ा उठाया तब उस प्रान्त के
बौद्ध विद्वानों ने अपना सारा प्रन्थ और चित्र-समुदाय
लाकर उस गुफा में बन्द कर दिया। फिर उसका मुँह
चुनवा दिया और चुनी हुई जगह पर बेल-बूटे और चित्र
खिंचा दिये । यह इसलिए किया, जिसमें वह दीवार-सी
मालूम हो; किसी को यह सन्देह न हो कि यह गुफा है
भौर इसके भीतर पुस्तकें भरी हुई है । मुसलमानों ने
पुस्तकादि के इस संग्रह के स्वामी बौद्धो की
क्या दशा की, कुछ मालूम नही । तब से
१९०६ ईसवी तक यह गुफा बराबर बन्द ही
रही।
इस गुफा के भीतर कोई १५ हजार पुस्तकें संस्कृत, प्राकृत, चीनी, तिब्बती तथा कई अन्य भज्ञात भाषाओं और लिपियो मे-मिली । रेशम के टुकड़ो पर खिचे हुए सैकड़ी अनमोल चित्र भी प्राप्त हुए । पुस्तकें सभी ग्यारहवी सदी के पहले की है। कितनी ही ब्राह्मी लिपि मे हैं । अधिक्षतर पुस्तको का सम्बन्ध बौद्ध धर्म से है । परन्तु काव्य, साहित्य, इतिहास, भूगोल, दर्शन भादि शास्त्रों से भी सम्बन्ध रखनेवाली पुस्तकें इस पुस्तकालय से मिली । संस्कृत-भाषा में लिखी हुई कितनी ही पुस्तके इसमें ऐसी हैं जो भारत में सर्वथा अप्राप्य है । यहाँ तक कि इसकी अनेक पुस्तकें, जो चीनी भाषा में हैं, चीन में भी दुर्लभ क्या अलभ्य ही हैं । पुराने बही-खाते, रोजनामचे और दस्तावेज़ तक यहाँ मिलीं। इन सबका प्रकाशन धीरे धीरे हो रहा है। ।
यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।
यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।