पुरातत्त्व प्रसंग/द्रविड़जातीय भारतवासियों की सभ्यता की प्राचीनता
अब तक पुरातत्त्व-विद्या के अधिकांश ज्ञाताओं का ख्याल था कि भारतवासी हिन्दुओं या आर्य्यो ही की सभ्यता बहुत पुरानी है। उनका यह अनुमान विशेष करके ऋग्वेद पर, अशोक के अभिलेखों पर, और मध्य- एशिया में प्राप्त हुई पुस्तकों तथा अन्य कुछ वस्तुओं पर अवलम्बित था। इस प्रकार वे जिन सिद्धान्तों पर पहुँचे थे उनका सार यह है-
आज से कोई चार पाँच हजार वर्ष पूर्व भारत में
कुछ काले चमड़े के असभ्य आदमी रहते थे। उनकी
संज्ञा कोल और द्राविड़ थी। वे निरे जंगली थे। न वे
पढ़ना लिखना जानते थे और न वे किसी और ही सभ्यता-
सूचक कला-कौशल से परिचित थे। वे झोपड़ों में रहते
और वन्य पशुओं का आखेट करके उनके मांस से किसी
तरह अपना पेट पालते थे। जिस समय भारत के इन
आदिम निवासियों की यह दशा थी उसी समय मध्य-
एशिया में गोरे चमड़े की एक जाति रहती थी। वह
बहुत कुछ सभ्य थी; खेती करना जानती थी; आत्मा
ग्रन्थ मौजूद है उनकी सभ्यता क्या इतनी ही पुरानी है।
तिलक महाराज तो उसे लाखों वर्ष की पुरानी बता गये
हैं और इस बात को उन्होंने ऋग्वेद के मन्त्रों ही से
सिद्ध करने की चेष्टा की है। कुछ पुरातत्त्वज्ञों के भाग्य
से अभी हाल ही में हरप्पा और मोहन-जोदरो में जमीन
के भीतर से कुछ बहुत पुरानी चीज़ें निकल आई। वहीं
पर कुछ पुराने धुस्स या टीले थे। पुरातत्त्व महकमे के
अधिकारियों ने उन्हें खुदाना शुरू किया तो भीतर से
मिट्टी के बर्तन, मिट्टी की सीलें (उप्पे), शंख, धातुओं
की अंगूठियाँ आदि निकली। इसी तरह की बहुत सी
चीज़े इराके अरब के प्राचीन सुमेर-राज्य और बाबुल के
खँडहरों में पहले ही निकल चुकी थी। इस पर योरप वे
प्रत्रतत्त्व-कोविदों में हलचल मच गई। उन्होंने कहा, ये
सब चीजें एक ही सभ्यता की सूचक हैं। अतएव जो
लोग किसी समय प्राचीन सुमेर-राज्य और बाबुल में
रहते थे उन्हीं के भाई-बन्द भारत में भी रहते थे। उन
लेखों को पढ़ कर भारतीय पुरातत्व के प्रधान अधिकारी
मार्शल साहब ने भी उनकी पुष्टि की। आपने भी यहाँ,
इस देश के, अखबारो में वही वात दुहराई और बड़ा हई
प्रकट किया। आपने अपने वक्तव्य में यह लिखा कि
भारतीय आर्य्य आज से पाँच हजार वर्ष पहले भी खूब
सभ्य हो गये थे। ये महलों में रहते थे। सोने-चांदी के
सभ्यता का सूचक ऋग्वेद हमारे बहुत बड़े गौरव की
गवाही दे रहा है। जिस समय प्राचीन आर्य्यों के ये
दल इधर-उधर विखर कर जा बसे उस समय आसीरिया
मिस्र, वाबुल, इराक़ आदि के निवासी महा असभ्य थे।
उनमें आर्य्यों की सभ्यता के सदृश सभ्यता का कहीं
नामो-निशान तक न था।
खैर, आर्य्यो का दल जो भारत में आया उसने देखा के यहाँ कोलों, भोलों, भरों भौर द्राविड़ों का दौर-दौरा है। अतएव उन्होंने इन लोगों से कहा--चलो, हटो, भागो, हमारे लिए रहने को जगह दो। ये बेचारे असभ्य कोल, भील आदि सभ्य आर्य्यों का मुकाबिला न कर सके। कुछ तो लड़ाई-झगड़े में मर मिटे, कुछ जंगलों के भीतर अगम्य जगहों में जाकर रहने लगे, कुछ दक्षिण की तरफ ऐसी जगहों को बढ़ गये जहाँ आर्य्यों की पहुँच न थी। जो रह गये उन्हे आर्यों ने अपना दास बनाकर उन्हे शूद्रत्व प्रदान किया।
यह है उन अनुमानों या सिद्धान्तो का सार जो
आज तक आर्यों के निवासस्थान, स्थानान्तर-गमन और
भारत में आगमन के सम्बन्ध में कुछ समय पूर्व तक
निश्चित हुए थे। इन बातों को सुन-सुन कर कितने ही
भारतवासी इनकी सचाई में सन्देह करते थे। वे कहते थे
कि जिन आर्य्यों का गौरव चिन्ह ऋग्वेद के सदृश प्राचीन
ग्रन्थ मौजूद है उनकी सभ्यता क्या इतनी ही पुरानी है।तिलक महाराज तो उसे लाखों वर्ष की पुरानी बता गये हैं और इस बात को उन्होंने ऋग्वेद के मन्त्रों ही से सिद्ध करने की चेष्टा की है। कुछ पुरातत्त्वज्ञों के भाग्य से अभी हाल ही में हरप्पा और मोहन-जोदरो में जमीन के भीतर से कुछ बहुत पुरानी चीजें निकल आई । वहीं पर कुछ पुराने धुस्स या टीले थे। पुरातत्व महकमे के अधिकारियों ने उन्हें खुदाना शुरू किया तो भीतर से
मिट्टी के बर्तन, मिट्टी की सीलें (उप्पे), शंख, धातुओ की अंगूठियाँ आदि निकलीं। इसी तरह की बहुत सी चीजें इराके अरब के प्राचीन सुमेर-राज्य और बाबुल के खंडहरों में पहले ही निकल चुकी थीं। इस पर योरप के प्रततत्व-कोविदों में हलचल मच गई । उन्होंने कहा, ये सब चीजे एक ही सभ्यता की सूचक हैं । अतएव जो लोग किसी समय प्राचीन सुमेर-राज्य और बाबुल में
रहते थे उन्हीं के भाई-बन्द भारत में भी रहते थे। उन लेखों को पढ़ कर भारतीय पुरातत्त्व के प्रधान अधिकारी मार्शल साहब ने भी उनकी पुष्टि की । आपने भी यहाँ, इस देश के, अखबारों में वही बात दुहराई और बड़ा हर्ष प्रकट किया । आपने अपने वक्तव्य में यह लिखा कि भारतीय आर्य भाज से पाँच हजार वर्ष पहले भी खूब सभ्य हो गये थे। वे महलों में रहते थे। सोने-चाँदी के
आभूषण पहनते थे । कला-कौशल में अन्य सभी देशों से
बढ़े चढ़े थे। उन्हीने बाबुल, सुमेर-प्रान्त, मिश्र और
ग्रीस आदि को सभ्य बनाया था। उस दिन,मदरास में,
प्राच्य-विद्या-विशारदों की एक समवेत सभा हुई थी।
डाक्टर गङ्गानाथ झा उसके सभापति बने थे । उस सभा
के अधिवेशन में मदरास के गवर्नर तक ने हरप्पा और
मोहन जोदरो में पाई गई वस्तुओ के आधार पर भारतीय
सम्यता की प्राचीनता की सीमा बहुत दूर तक बढ़ जाने
पर हर्ष-प्रकाशन किया था ।
पर हाय, एक महाशय आर्यों के वंशजो के इस
सारे हर्ष को विषाद में बदल देना चाहते हैं । आपका
नाम है-डाक्टर सुनीतिकुमार चैटजी, एम०ए०, डाक्टर
आऊ लिटरेचर अर्थात् साहित्याचार्य । आप कलकत्ताविश्वविद्यालय में अध्यापक है । आपने अँगरेज़ी के माडर्नरिव्यू नामक मासिक पत्र में एक लम्बा लेख लिखा है ।
वह ग़ज़ब ढानेवाला है | आप जानते है, उसमें डाक्टर
साहव ने क्या लिखा है ? उसमें लिखा है यह कि हरप्पा
आदि में जो पुरानो वस्तुएँ मिली हैं वे आर्यों की नहीं।
आदिम भार्यों को, ऐसी चीज़े बनाने और रखने की
तमीज़ ही न थी। वे चीजें तो हैं द्राविड़ों की अथवा
द्राविड़ों की न सही उन पुराने भारतवासियों की जो
आर्यों के आगमन के पहले ही यहाँ रहते थे ! बाबुल,
सुमेर और इराक अरब के भी बहुत पुराने निवासी इन्हीं
भारतीय द्राविड़ों के सजातीय थे । किसी समय ये लोग
वहाँ, यहाँ और बिलोचिस्तान आदि में, सर्वत्र ही, फैले
हुए थे । वे प्राचीन आर्यों से भी, बहुत विषयों में;
अधिक सभ्य थे। सो इन नये आविष्कारों को देख कर
आर्यों के वंशजों को गर्व न करना चाहिए । गर्व यदि
किसी को करना चाहिए तो कोलो को, भीलों को,
सन्थालों को, भरो को । उनको न सही तो दक्षिण प्रान्त-
वासी द्राविड़ों को उन लोगों को जिनकी भाषा तामील,
तैलंगी, कनारी या मलयालम आदि है !
अच्छा तो अब कृपा करके सुनीतिकुमार बाबू के उस कोटिक्रम का कुछ आभास लीजिए जिसके आधार पर उन्होने अपने और अपने पूर्ववर्ती लेखकों के पूर्वनिर्दिष्ट सिद्धान्तो, अनुमानों या कल्पनाओं के समर्थन की चेष्टा की है-
मध्य एशिया से इधर-उधर बिखरने और भारत में आर्यों के आने के विषय में जो कोटि-कल्पनायें अब तक की गई थी उनका मेल उन बातो से अच्छी तरह नहीं खाता रहा जिनका उल्लेख ऋग्वेद में है । द्राविड़ भाषाओं की बनावट और संस्कृत से उसका भिन्नत्व देख कर कुछ लोगों को यह सन्देह पहले ही हो चला था कि जिनकी ये भाषायें हैं वे शायद ही प्राचीन आर्यों के वंशज हो । एकजातित्व का पता सबसे अधिक भाषाओं से लगता है । द्राविड़-भाषायें संस्कृत से बिलकुल नहीं मिलती । अतएव यह बात निर्विवाद नही कि द्राविड़ भी भार्य-वंशोत्पन्न हैं और अपनी सभ्यता के लिए वे भी आर्यों की सभ्यता के ऋणी हैं।
इस प्रकार की शङ्काओं की उद्भावना किसी
किसी के हृदय में हो ही रही थी कि पादरी (विशप)
काण्डवेल ने, १८५६ ईसवी में, द्राविड़-भाषाओं का
तुलनामूलक व्याकरण बना कर प्रकाशित किया । उसके
प्रकाशन से वे पूर्वोक्त शङ्कायें कुछ और भी दृढ़ हो गई।
पादरी साहब ने द्राविड़-भाषाभों के कुछ शब्दों का
इतिहास लिख कर यह साबित किया कि जिनकी ये
भाषायें है उनकी निज की सभ्यता बिलकुल अलग रही
होगी। उसे उन्होंने आर्यों से नहीं ग्रहण किया। उधर
दक्षिण में तो यह आविष्कार हुआ, इधर उत्तरी भारत
में जब अशोक के अभिलेखों का पता चला और वे पढ़े
गये तब यह मालूम हुआ कि अशोक-काल के पहले की
कोई इमारतें और कोई चीज कहीं भी प्राप्य नहीं ।
अभिप्राय यह कि आज से कोई २२ या २३ सौ वर्ष
पहले की आर्यसभ्यता के मूर्तिमान चिन्ह अप्राप्य हैं।
इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि हो न हो, उस
समय के पहले के आर्यवंशज भारतवासी कुछ अधिक
सभ्य न थे । अधिक सभ्य होते तो उस समय के पहले
की भी इमारतों के ध्वंश पाये जाते, कुछ सिक्के ही
मिल जाते, लोहे और ताँबे वगैरह के कुछ औजार या
शस्त्र ही कहीं से निकल आते । सो कुछ नही हुआ।
अतएव समझना चाहिए कि भारतीय आर्य्य अब से ढाई
तीन हजार वर्ष पूर्व योही साधारणत: सभ्य थे; उतने
नहीं जितने कि वे समझे जाते हैं।
विद्याव्यास और शिक्षाप्रचार में ज्यों ज्यों उन्नति होती गई त्यों त्यों लोगों की रुचि भी पुरातत्व की खोज की ओर अधिकाधिक झुकती गई । इधर भारत में भी नये नये तत्वों का आविष्कार होने लगा, उधर योरप में भी। योरप के प्रनतत्त्व-विशारदों ने मिस्र, बाबुल, आसीरिया आदि में खुदाई और खोज का काम झपाटे से जो चलाया तो उनकी आँखें खुल गई। उन्हें उन देशों में चार चार पाँच पाँच हजार वर्षों की पुरानी इमारतों के चिन्ह और उतनी ही पुरानी चीजें मिलने लगी। इस पर उन्होंने आश्चर्यचकित होकर कहा-अरे, ये देश तो भारत से भी बहुत पुराने हैं। ये तो उससे भी हजारों वर्ष पहले ही सभ्य हो चुके थे।
इस तरह के विश्वास या कल्पनायें धीरे धीरे और
भी दृढ़ होती गई । योरपवालों ने अपनी खोज बन्द न
की । वे बराबर नई नई बातों और नये नये तत्वों का
पता लगाते गये । इस प्रयत्न से काफी सामग्री प्राप्त हो
जाने पर चे इस नतीजे पर पहुंचे कि कोई तीन चार
हजार वर्ष पहले पश्चिमी रूस, पोलेड, उत्तरी जर्मनी
और मध्ययोरप में एक ऐसी जाति का निवास था जो
असभ्य तो थी, पर कुछ कुछ सभ्यता भी उसमें आने
लगी थी। वह उन देशों या प्रान्तों के जङ्गली भागों
और ऐसी जगहो में रहती थी जहाँ घास खूब होती
थी। उस समय जब उनकी यह दशा थी तब मिस्र भौर
इराके,अरब के निवासी उनसे बहुत अधिक सश्य हो
चुके थे । उन असभ्यों में जो कुछ सभ्यता आ गई थी
वह इराके,अरब और मिस्र के उन लोगों की बदौलत
उन तक पहुंची थी जो बनिज-व्यापार के लिए उनके
देशो या प्रान्तों में आया-जाया करते थे। उन असभ्यों की
भाषा बड़ी सुन्दर थी। जब वे लोग धीरे धीरे पूर्व,
पश्चिम और दक्षिण की ओर बढ़ कर अन्य देशों पा
प्रान्तो मे जा बसे तब, कालान्तर में, उनकी उस भाषा
ने भी परिवर्तित रूप धारण कर लिये। भारत में वह
संस्कृत हो गई, ग्रीस में ग्रीक हो गई, इटली में लैटिनं
हो गई। उसी तरह ट्य टन और केल्ट लोगों के निवास
देशो में उसने उनकी भाषाओं का रूप धारण कर
लिया।
इन कल्पनाओं का आशय यह है कि मिस्र, बाबुल,
आसोरिया आदि के निवासो तो आज से कोई ५ हजार
वर्ष पहले ही बहुत कुछ सभ्य हो गये थे। पर जो लोग
पोलैंड और पश्चिमी रूस में, अथवा उन देशों के आसपास रहते थे, वे योही कुछ थोड़े से सभ्य थे। वह
उतनी भी सभ्यता उन्होने दूसरों ही की कृपा से पाई
थी। हाँ, भाषा उनकी ज़रूर बहुत सुन्दर थी। ये
असभ्य या अर्द्धसभ्य मनुष्य और जाति के थे; मिस्र
और बाबुल आदि के सुसभ्य और ही जाति के। अब
चूंकि यह सिद्ध किया जा रहा है कि पश्चिमी रूस के
प्रान्तवर्ती देशों के निवासी ही पीछे से भारत, .फारिस
और जर्मनी आदि में जाकर बसे; इसलिए वही पुराने
आर्य्यो के पूर्वज थे और हम लोग भारतवासी उन्ही
असभ्यों को सन्तति हैं । याद रहे, द्राविड़ लोग किसी
और ही जाति के हैं। अतएव आर्यों के मुकाबले में
द्रविड़ों के पूर्वजों को असभ्यता के स्पर्श से बरी समझना
चाहिए।
अब आप भारत में कदम रखनेवाले भार्यों के
आदिम धर्म-विश्वासों और सामाजिक नियमों का मुकाबला उनके वंशजों के परवर्ती पूजा-पाठ और धार्मिक
बातों से कीजिए । पहले ये लोग रहते थे रूस, पोलैंड
और जर्मनी वगैरह में । वहाँ बर्फ पड़ती है और कड़ाके
के जाड़े से लोग साल में सात आठ महीने ठिठुरा करते
है । ऐसे लोगों के प्राणों का परित्राण अग्निदेव ही कर
सकते हैं । इसी से आदिम आर्य अग्नि की खूब उपासना करते थे । तरह तरह के त्योहार मना कर, समय
समय पर, यज्ञ-याग आदि के अनुष्ठान से उसे वे सदा
ही तृप्त किया करते थे। यहाँ पर एक बात लिखना
सुनीति बाबू शायद भूल गये है। वह यह कि शरीर में
गरमी पैदा करने-रुधिर में कुछ उष्णता लाने के लिए
नशा पानी भी तो किया जाता है । अतएव सोमरस या
सोमसुरा पीकर वे लोग जो खुशियाँ मनाया करते थे वह
भी बहुत करके शीताधिक्य के कष्ट को कम करने के
लिए । क्यों न-?
अच्छा तो अपनी पुरानी आदतें और पुराने रीतिरवाज लेकर आर्य लोग जब भारत में दाखिल हुए तब
उन्होंने यहाँ और ही लोगों को आबाद पाया । उनमें से
कुछ लोग, अर्थात् द्राविड़, अनेक विषयों में उनसे भी
अधिक सभ्य थे । उनको सभ्यता और ही तरह की थी।
उनकी पूजापाती और अचा-उपासना में भो भिन्नता थी ।
उसका असर आर्यों पर पड़ने लगा भौर कालान्तर में
उन्होंने द्राविड़ों के ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा बाह्मी,
वैष्णवी, माहेश्वरी आदि की भी पूजा भारम्भ कर दी।
यदि ऐसा नहीं, तो पाठक ही बतावें आर्यों ने पूजन
आदि की यह नई प्रणालो कहाँ, कैसे और किससे सीखी।
उनके ऋग्वेद में तो इसका कहीं भी पता नहीं। उसमें
तो वही सूर्य और चन्द्रमा, अग्नि और वरुण, द्यावापृथिवी
और इन्द्र आदि ही के पूजन, प्रशंसन और स्तवन आदि
का प्रकार वर्णित है । महाभारत और रामायण आदि के
समय जैसी पूजा-अर्चा होने लगी थी वैसी का तो ज़िक्र
भी ऋग्वेद में नहीं। हाँ, द्राविड़ लोग इन देवताओ की
उपासना बहुत पहले भी करते थे और अब भी करते
हैं । अतएव इन्हीं ने आर्य्यो को ये बातें सिखाई होंगी।
आर्य तो होम, हवन, भग्निहोत्र, याग, यज्ञ और सत्र को
छोड़ कर और कुछ जानते ही न थे । विश्वास न हो तो
बताइए "पूज" धातु आर्यों के धातु-पाठ में कहाँ से
आई। उसकी तत्सम या तद्भव कोई धातु ग्रीक,
लैटिन और ट्यू टन भाषाओं में भी नहीं। आर्यों के
पूजा-शब्द का उद्भव हुभा है, द्राविड़ भाषा के “पू"
शब्द से । उसका अर्थ है, फूल । संस्कृत के पुष्कर और
पुष्प आदि शब्दो का पूर्व पुरुष या जनक यही "पू"
शब्द है। इसमें यदि भापको फिर भी कुछ शंका हो तो
कालिन्स साहब की वह पुस्तक देख लीजिए जो उन्होंने
द्राविड़-भापाभी के विषय में लिखी है। इन बातों से
यह भच्छी तरह सूचित होता है कि आर्य्यों की सभ्यता
के विकास में आर्येतर लोगों ने भी कुछ न कुछ सहायता
अवश्य ही की है। आर्येतर लोग तीन भागों में विभक्त हैं-द्रविड़,
कोल या मुण्डा और तिब्बत-चीन के निवासी । इनमें
से तीसरे विभाग को छोड दीजिए, क्योंकि उनका निवास
हिमालय की तराइयों ही में पाया जाता है और आर्यों
अथवा हिन्दुओं की सभ्यता का विकास बहुत कुछ हो
चुकने पर उनका संसर्ग इन लोगों से हुआ है। कोल-
जाति के लोग छोटानागपुर और मध्य-भारत में पाये
जाने हैं। परन्तु इस बात के प्रमाण विद्यमान है कि
किसी समय उनकी भाषा हिमालय के पश्चिमी प्रान्तो
से लेकर गुजरात, महाराष्ट तक और बङ्गाल की तरफ़
पूर्व में ब्रह्मदेश की सीमा तक बोली जाती थी । अतएव
सिद्ध है कि इतिहास-काल के पहले ये लोग भारत में
दूर दूर तक फैले हुए थे। यह भी सम्भव है कि
दक्षिणी भारत में भी इन लोगो की बस्तियों रही हो ।
ये लोग चीन की हिन्दुस्तानी सीमा ( इण्डोचायना) से
बङ्गाल की राह भारत में आये होंगे, क्योंकि उस तरफ.
इन लोगों के सजातियो का आधिक्य अब भी है । अथवा,
क्या आश्चर्य.जा ये लोग उत्तरी भारतवर्ष ही के आदिम
निवासी हों । कुछ भी हो, यहाँ द्रविड़ों के आगमन के
पहले ही से ये जरूर भारत में विद्यमान थे। सन्थाल
लोग इन्हीं कोलो के वंशज है । यद्यपि ये लोग अपनी
भाषा अब प्रायः भूल गये हैं और आर्यों ही की भाषा
बोलने लगे हैं तथापि शुरू शुरू में इनकी भाषा, इनके
रीति-रस्म और इनके रहन-सहन की छाया आर्यों की
सस्यता पर कुछ न कुछ ज़रूर ही पड़ी होगी। परन्तु
कितनी पढ़ी है, इसकी खोज अभी जारी है। पेरिस के
एक प्रलतत्ववेता ने इस विषय में बहुत कुछ प्रकाश
डाला है। उन्होंने इस बात के अखण्डनीय प्रमाण दिये
है कि संस्कृत-भाषा के कम्बल, शर्करा, क्दली, लाड् गृल,
लिङ्ग, लगुड और ताम्बूल आदि शब्दों का उद्भव
कोलों ही की भाषा के शब्दों से हुआ है । कोलों की
भाषा, उनके शरीर की गठन और उनके आचार-विचार
उन लोगों से मिलते-जुलते है जो भारतवर्ष के बाहर,
पूर्व की तरफ, अन्य देशों या द्वीपों में पाये जाते हैं-
उदाहरणार्थ इण्डोचायना, मलय-प्रायद्वीप, मेलानेशिया
और पालीनेशिया में । इससे सूचित होता है कि किसी
दूरतम काल में इन सभी देशों और द्वीपों में इस जाति
के लोगों का निवास था और भारतीय कोलों के पूर्वज
पूर्व ही दिशा से भारत में भाये थे।
परन्तु द्रविड़ देश के निवासी एक भिन्न ही जाति
के मनुष्य है। उनकी भाषा, उनकी शक्ल-सूरत और
उनके कुछ आचार-विचार न आर्यों ही से मेल खाते हैं
और न कोलों ही से । तो क्या इन लोगों का सम्बन्ध
बहिर्भारत के किसी अन्य देश या अन्य जाति से ॽ़ यदि
इसका ठीक ठीक पता लग जाय तो कितनी ही उल्झी
हुई गाँठे सुलझ जाय।
द्रविड़ों के उद्भव के विषय में विद्वानों ने अनेक कल्पनायें की हैं। किसी ने उनका सम्बन्ध आस्ट्रेलिया के असभ्य मनुष्यों से बताया है किसीने मध्य एशिया की तूरानी जातिवालो से, किसी ने किसी और ही से । बलोचिस्तान में ब्राहुई नाम की एक मनुष्य-जाति रहती है । उसकी भाषा द्रविड़ों की भाषा से मेल खाती है। यदि वे और द्रविड़ लोग किसी समय एक ही जाति के अन्तर्गत रहे हों तो उनका आगमन बलोचिस्तान ही की तरफ से भारत में हुआ होगा। परन्तु वे आये कहाँ से होंगे ? पहले वे रहते कहां थे ? इसका क्या उत्तर ?
आर्यों का इतिहास-काल आज से कोई तीन हजार
वर्ष पहले से आरम्भ होता है । अर्थात् उस समय से जब
आर्य भारत में आ गये थे और यहाँ के आदिम निवासियों
को परास्त करके उन्हें उन्होंने छिन्न-भिन्न कर दिया था ।
वेदो और ब्राह्मणों का अस्तित्व भी तभी से माना जाता
है । परन्तु न तो उस समय की किसी इमारत ही का
ध्वंसावशेष मिला है और न आर्यों की कोई और ही
वस्तु प्राप्त हुई है। आर्यों के भारत में आने के पाँच छ.
सौ वर्ष बाद तक इनमें से किसी वस्तु का कुछ भी पता
नही। तो क्या, उनके आगमन के पहले इस देश में सभ्यता
का सर्वथा ही अभाव था ? नहीं, यात ऐसी नहीं । आसाम
से लेकर यलोचिस्तान तक और सिन्ध तथा मध्यभारत से
लेकर ठेठ दक्षिण तक पत्थर, लोहे और ताँबे के सैकड़ों
शन और औज़ार मिले हैं। मिट्टी के बर्तन, मनके, चूढ़ियाँ,
शंख और कन्दराभों में सिंधे हुए रङ्गीन चित्र तक प्राप्त
हुए हैं। इन आविष्कारों से यह बात सिध्द होती है कि
आर्यों के आगमन के पहले भी यहां ऐसे लोग रहते थे
जो किसी हद तक सभ्य थे। इसके सिवा एक आविष्कार
और भी बड़े महत्त्व का हुआ है और उसे हुए बीस बाईस
वर्ष हो गये। दक्षिण के तिनवल्ली जिले में एक जगह
आदित्तनल्लूर नाम की है। वहाँ एक समाधि स्थल या
कचरिस्तान मिला है। उसका नाम है-~पाण्डकुली अर्थात्
पाण्टयों की समाधि | उसके भीतर ब्रंज नामक धातु के
बर्तन, उसी धातु की बनी हुई पशु-मृतियों, लोहे के शंख,
मनुप्या की पूरी ठठरियाँ, उनके पहनने के लिए रक्खे गये
वस्त्र तथा साद्य पदार्थ तक मिले है। ठीक इसी तरह की
समाधियों सीट, साइप्रेस, एशिया माइनर और बाबूल में
मी मिली है । उन समाधियों के भीतर भी प्रायः यही
पम्नः उसी तरह रक्खी हुई प्रात हुई है जो भादिन.
नल्दर में प्राप्त हुई है। इससे यह बात निर्भ्रान्त सी
मालूम होती है कि जिस जाति के लोगों की पावर द्रीट
और बाबूल आदि में मिली है उसी जाति के लोगों की
कबरें तिनवल्ली जिले की भी हैं। इस पिछले कबरिस्तान
की ठठरियों की खोपड़ियाँ तामील जाति के मनुष्यों से
बिलकुल मिलती हैं । इससे क्या यह नहीं सूचित होता कि
आर्यों की सभ्यता की छाप पड़ने के सैकड़ों वर्ष पहले भी
द्रविड़-देश में रहनेवाले मनुष्य बहुत कुछ सभ्य थे? वे
कपड़े पहनते थे, लोहे और ब्रांज़ के शस्त्रों का व्यवहार
करते थे, यहाँ तक कि सुवर्ण-जात आभूषण भी रखते
थे। कबरों में ऐसे छाते भी मिले हैं जिन पर सोने का
काम है । गढ़े खोदकर मुर्दे दफन करना कुछ आर्यों का
रवाज थोड़े ही है। मे तो अपने मुर्दे पहले भी
जलाते थे और उनके वंशज अब भी जलाते हैं। उन्हें
गाडना द्राविड़ों की निज की प्रणाली थी और यही प्रणाली
इराके, अरब और एशिया माइनर के कितने ही प्राचीन
स्थानों और उनके समीपवर्ती टापुओं में प्रचलित थी।
द्रविड़ देश के निवासियों की पुरानी रीति-रस्में तो आर्यों
से सम्पर्क होने के बहुत समय पीछे बदली हैं। भतएव
मान लेना चाहिए कि द्राविड़ लोग आर्यों के भा
आगमन के बहुत पहले ही से यहाँ रहते थे और अपनी निज की
सभ्यता भी रखते थे । द्राविड़ों के सौभाग्य से, सुनीतिकुमार बाबू की इस कल्पना, अनुमिति या सिद्धान्त के
पुष्टीकरण ही के लिए, कुछ भौर प्रमाण भी अभी
हाल ही में मिले हैं। पजाब के र्माटगोमरी जिले में एक जगह हरप्पा है
और सिन्ध के लरवाना जिले में मोहन जोदरी। दोनों
जगहें बहुत पुरानी है। वहाँ ऊंचे ऊँचे टीले या धुस्सा
हैं, जिनसे सूचित होता है कि किसी समय वहाँ बड़े
बड़े शहर रहे होंगे। भारत का पुरातत्व-विभाग ऐसी
जगहों की खोज में सदा ही रहता है। हरप्पा में तो
बहुत वर्ष पूर्व जनरल कनिहम ने खुदाई की भी थी
और कुछ पुरानी सील (मिट्टी के ठप्पे आदि) पाई भी
थीं। दो तीन साल हुए, इन जगहों की खुदाई फिर की
राई। हरप्पा की खुदाई पण्डित दयाराम साहनी ने की
और मोहन-जोदरी की बाबू रीखालदास बैनर्जी ने।
ये दोनों ही महाशय पुरातत्त्व-विभाग के अफसर हैं।
खोदने से दोनों जगह बहुत पुरानी पुरानी चीजें मिलीं--
उप्पे, मिट्टी के पुराने बर्तन, पत्थर के हथियार, सिक्के,
जेबर आदि। मोहन-जोदरो में कबरें भी मिली भौर चार
तरह की मिली। सबसे नीचे की तह में वैसी ही कवरें
मिली जैसी तिनवल्ली जिले में मिली हैं। उसके ऊपर
की तह में बर्तनों के भीतर मृत-मनुष्यों की केवल
हड्डियाँ-या अस्थि-भस्म मिली। इसके सिवा वहाँ इति-
हास काल के पहले के एक आध सिक्के भी प्राप्त हुए।
बे-ताँबे के टुकड़े के रूप में थे और उन पर कुछ लेख-
सा भी खुदा हुआ था, जो पढ़ा नहीं गया। मिट्टी के
ठप्पों पर भी किसी अज्ञात भाषा में कुछ खुदा हुआ
देखा गया। ठप्पों को लिपि विचित्र मालूम हुई। प्राचीन
लिपि ब्राह्मी और खरोष्ठी से वह बिलकुल ही भिन्न है।
उनमें और ठप्पों की लिपि में कुछ भी सादृश्य नही।
ठप्पों को लिपि में कुछ वर्ण तो चित्र-लिपि के जैसे
मालूम होते हैं, पर कुछ और ही तरह के है।
इन आविष्कारों को देख कर यह अनुमान किया गया कि पञ्जाब और सिन्ध में किसी दूरवती युग या काल मे कोई ऐसी मनुष्य-जाति ज़रूर रहती थी जिसकी लिपि विचित्र थी। उस जाति के मनुष्य अपने मुद्रों को, एक आसन-विशेष में स्थिर करके, मिट्टी के सन्दूकों के भीतर रख कर, ज़मीन में गाड़ देते थे और सन्दूक के भीतर खाने-पीने का सामान भी रख देते थे। ये रीतियाँ प्राचीन आर्यों में प्रचलित न थीं। अतएव अपने मुद्दे बाड़नेवाले कोई और ही लोग सिन्ध और पञ्जाब में रहते रहे होंगे और वे आर्यों के आगमन के पहले ही वहाँ बस गये होंगे।
ये अनुमान अथवा कल्पनायें लेखबद्ध की गई।
पुरातत्त्व-विभाग के प्रधान अफसर मार्शल साहब ने उन्हें
विलायत के अखबारो और प्रनतत्त्व-विषयक सामयिक
पुस्तकों में प्रकाशित कराया। उन्हे पढ़कर फ्रांस, इंगलैंड,
जर्मनी और नारवे आदि देशो के प्राचीन-तत्वज्ञों में खल-
बली मच गई। उन लोगों ने पता लगाया कि जैसी
चीज़े मोहन-जोदरी और हरप्पा में मिली हैं वैसी ही
सैकड़ों चीजें इराके अरब और बाबुल के पुराने खँडहरों
और धुस्सों में बहुत पहले ही मिल चुकी हैं। वैसे ही
ठप्पे, वैसे ही जेवर, वैसे ही वर्तन और वैसी ही कवरें।
ठप्पों को लिपि भी वहाँ वैसी ही है जैसी कि भारत में
आविष्कृत ठप्पों पर है। यहाँ और वहाँ प्राप्त हुई चीज़ों
के फोटो भी बरावर बराबर छाप कर मुकाबला किया
गया। उससे यह निश्चय सा हो गया कि दोनों देशों में
मिली हुई चीजें एक ही सी हैं। उनमें अणु-रेणु का भी
अन्तर नहीं।
इस खोज, इस तर्कना, इस विचार-परम्परा से यह निष्कर्ष निकाला गया कि किसी समय जो लोग प्राचीन बाबुल, सुमेर-राज्य और क्रीट तथा साइप्रोस भारि टापुओं में रहते थे वही--उनके वंशज, उनके सजातीय बन्धु वर्ग--भारत के पञ्जाब और सिन्ध प्रान्तों में भी रहते थे।
इसके अनन्तर और अधिक छान-चीन हुई। उससे
मालम हुआ कि आज से पाँच छः हज़ार वर्ष पहले श्री
के टापू और एशिया माइनर के कुछ प्रान्तों में ऐसे लोग
रहते थे जो तरमिलाई, डूमिल और डामिल कहलाते
थे। सैकड़ो और हजारों वर्ष तक वहाँ उनका दौर-दौरो
रहा। वे काफी सभ्य थे। पत्थर और लोहे के शस्त्रास्त्र
हवते थे, तरह तरह के आभूषण पहनते थे, ईंट और
पत्थर के बने हुए मकानों में रहते थे और आने मुर्दो को
उसी तरह गाड़ते थे जिस तरह मोहन-जोदरो, हरप्पा
और तिनवल्ली जिलेवालें गाड़ते थे।
इस तुलना और तर्कना का मतलब यह कि भारत के द्वाविड़ या द्रविड़ भूमध्य-सागर के टापुओं और उसके तटवर्ती देशों में रहनेवाले प्राचीन तरमिलाई पा ड्रमिल लोगों ही के वंशज हैं और द्रविड़ शब्द उसी पुराने ड्रमिल का अपभ्रंश है।
प्राचीन ड्रमिल क्रीट, साइप्रेस, सुमेर-राज्य, बावुल
इत्यादि से पूर्व की ओर फारिस और बलोचिस्तान होते
हुए भारत पहुँचे। वहाँ पञ्जाब और सिन्ध में पहले
बसे। फिर धीरे धीरे और और प्रान्तो से होते हुए
दक्षिणी भारत तक जा पहुँचे। एशिया माइनर से उन्हें
बहुत करके भारतीय आर्य्यों के पूर्वज इंडो-योरोपियनों
से निकाला या खदेड़ कर भारत में ला पटका और उत्तरी
भारत से वैदिक आर्य्यों ने उन्हे दक्षिण भारत को चले
जाने के लिए विवश किया। बचे बचाये कुछ लोग
बलोचिस्तान में रह गये जो अब तक द्रविड़ों की भाषा
से मिलती हुई भाषा बोलते हैं। एशिया-माइनर में तो
उन बेचारों के नंशजो का शायद समूल ही नाश हो
गया; पर दक्षिणी भारत में वे अब तक बने हुए हैं और
खूब फल-फूल रहे हैं।
द्रविड़ों की भाषा तामील के प्राचीन ग्रन्थों से भी कुछ ऐसी सामग्रो ढूँढ निकाली गई है जो इस बात को पुष्ट करती है कि द्रविड़ों के पूर्वजों की सभ्यता निराले ही प्रकार की थी। आर्य्यों के आगमन के पहले ही वे सभ्य हो चुके थे। आर्य्यों की सभ्यता की छाप उनकी सभ्यता पर बहुत पीछे पड़ी है। आर्य्यों ने खुद भी उन से कुछ सीखा है। और नहीं तो उनकी भाषा के कुछ शब्द उन्होंने जरूर ही लेकर अपनी भाषा की श्रीवृद्धि की है।
योरप और भारत के पुरातत्वज्ञों की कल्पनाओ के आधार पर सुनीतिवुमार बाबू ने जो कुछ लिखा है उसका आशय हमने थोड़े में सुना दिया। अब आर्य्यों के वंशज चाहे इसे तिल का ताड़ समझे चाहे शश-अङ्गों; की अस्तित्व-सिद्धि के लिए पराक्रम-बाहु का प्रचण्ड प्रयत्न। परन्तु अभी क्या, अभी तो इस आविष्कार काण्ड का पहला ही अध्याय सुनने को मिला है। आविष्कृत ठप्पों पर खुदी हुई लिपि में जो लेख हैं वे यदि कभी पढ़ लिये गये तो न मालूम और कितनी अभुतपूर्व बातें सुनने को मिलें।
इन प्रनतत्वज्ञों में हाल नाम के एक विद्वान उलटी
गङ्गा बहाने के भी पक्ष में हैं। उनकी राय है कि
एशिया-माइनर या भूमध्य-सागर के तटवती प्रान्तों में
सभ्यता का प्रथमावतार नहीं हुआ। वह हुआ द्रविड़ों
की बदौलत भारत ही में। भारतीय ही द्रविड़ पश्चिम
की ओर बाबुल, सुमेर-प्रान्त, आसीरिया और क्रीट तक
गये थे और उन्होंने वहाँ सर्वत्र अपनी सभ्यता फैलाई थी।
यदि यही बात ठीक निकले तो भी सभ्यता का साफा
आर्य्यों के सिर से उतरा ही समझिए। द्रविड़-जाति चाहे
भारत से क्रीट गई हो चाहे क्रीट से भारत आई हो, वह
साफा आर्य्यों को नसीव नहीं हो सकता। उनका
दुर्भाग्य! दुर्भाग्य न होता तो आर्य्यों से भी दो ढाई
हजार वर्ष पहले के पुराने सभ्य द्रविड़ कैसे निकल आते।
इन्हीं कल के आर्य्यों को तिलक महाराज मेरु-प्रान्त में
रहनेवाले और लाखों वर्ष की पुरानी सभ्यता का सुख
लूट चुकनेवाले बता गये हैं!
[मार्च १९२५
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