परीक्षा गुरु/४
दूरहिसों करबढ़ाय, नयननते जलबहाय,
आदरसों ढिंगबूलाय, अर्धासन देतसो॥
हितसोहियों मैं लगाय, रुचिसमबाणी बनाय,
कहत सुनत अति सुभाय, आनंद भरि लेत जो॥
ऊपरसों मधु समान, भीतर हलाहल जान,
छलमैं पंडितमहान्, कपटको निकेतवो॥
ऐसो नाटक विचित्र, देख्यो ना कबहु मित्र,
दुष्टनकों यह चरित्र, सिखवे को हेतको?.
लाला मदनमोहन को हरदयाल से मिलने की लालसा में दिन पूरा करना कठिन हो गया. वह घड़ी-घड़ी घंटे की तरफ़ देखते थे और उखताते थे. जब ठीक चार बजे अपने मकान से सवार होकर मिस्तरीख़ाने में पहुंचे यहां तीन बग्गियें लाला मदनमोहन की फ़र्मायिश से नई चाल की बन रही थीं. उनके लिये बहुत सा सामान विलायत से मंगाया गया था और मुंबई के दो कारीगरों की राह से वह बनाई जाती थीं. लाला मदनमोहन ने कह रखा था कि "चीज़ अच्छी बनें खर्च की कुछ नहीं अटकी जो होगा
दूरा दुछितपाणि रार्द्रनयन: प्रात्सारितार्गांसनो
गाढ़लिंग्गनतत्पर: प्रिवक्कथाद्रत्रेषु दत्तादर:॥
अन्तर्भूतविषी वहिर्मघुमयश्चातीव मायापटु.
कोनामायमपूर्वनाटकविधिर्य: शिक्षितोदुर्जन:॥१॥
हम करेंगे" निदान लाला मदनमोहन इन बग्गियों को देखभाल कर वहां से आगे हसनजान के तबेले में गये और वहां तीन घोड़े पांच हजार पांच सौ रुपये में ले करके वहां से सीधे अपने बाग़ 'दिलपसंद’ को चले गये.
यह बाग सब्ज़ी मंडी से आगे बढ़ कर नहर की पटरी के
मोनियम बाजा, अंटा खेलने की मेंज, अलबम्, सैरबीन, सितार और शतरंज वगैरह मन बहलाने का सब सामान अपने-अपने ठिकाने पर रखा हुआ था. दिवारों पर गच के फूल पत्तों का सादा काम अबरख की चमक से चांदी के डले की तरह चमक रहा था और इसी मकान के लिये हजारों रुपये का सामान हर महीनें नया ख़रीदा जाता था.
इस समय लाला मदनमोहन को कमरे में पांव रखते ही विचार आया कि इसके दरवाजों पर बढ़िया साठन के पर्दे अवश्य
होने चाहिये. उसी समय हरकिशोर के नाम हुक्म गया कि तरह-तरह की बढ़िया साठन लेकर अभी चले आओ, हरकिशोर समझा कि "अब पिछली बातों के याद आने से अपने जी मैं कुछ लज्जित हुए होंगे. चलो सवेरे का भूला सांझ को घर आ जाय तो भूला नहीं बाजता" यह विचार कर हरकिशोर साठन इकट्ठी करने लगा पर यहां इन बातों की चर्चा भी न थी.यहां तो लाला मदनमोहन को लाला हरदयाल की लौ लग रही थी. निदान रोशनी हुए पीछे बड़ी देर बाट दिखाकर लाला हरदयाल आये. उनको देखकर मदनमोहन की खुशी कुछ हद नहीं रही, बग्गी के आने की आवाज़ सुनते ही लाला मदनमोहन बाहर जाकर उनको लिवा लाए और दोनों कौंच पर बैठ कर बड़ी प्रीति से बातें करने लगे.
"मित्र तुम बड़े निष्ठुर हो मैं इतने दिनों से तुम्हारी मोहनी मूर्ति देखने के लिये तरस रहा हूँ पर तुम याद भी नहीं करते।"
लाला मदनमोहन ने सच्चे मन से कहा.
करूँ? चुगलखोरों के हाथ से तंग हूँ जब कोई बहाना निकाल
कर आने का उपाय करता हूं वे लोग तत्काल जाकर लालाजी (अर्थात् पिता) से कह देते हैं और लालाजी खुलकर तो कुछ
नहीं कहते पर बातों ही बातों से ऐसा झंझोड़ते हैं कि जी जलकर राख हो जाता है आज तो मैंने उनसे भी साफ कह दिया कि आप राज़ी हों, या नाराज हों मुझसे लाला मदनमोहन की दोस्ती नहीं छूट सकती” लाला हरदयाल ने यह बात ऐसी गर्मा गर्मी से कही कि लाला मदनमोहन के मनपर लकीर हो गई. पर यह सब बनावट थी. उसने ऐसी बातें बना, बनाकर लाला मदनमोहन से "तोफा तहायफ” में बहुत कुछ फ़ायदा उठाया था इस लिये इस सोने की चिड़िया को जाल में फसाने के लिये भीतर पेटे सब घर के शामिल थे और मदनमोहन के मन में मिलने की चाह बढ़ाने के लिये उसने अबकी बार आने में जान बूझ कर देर की थी.
"भाई! लोग तो मुझे भी बहुत बहकाते हैं कोई कहता है "ये रुपये के दोस्त हैं" कोई कहता है “ये मतलब के दोस्त हैं” "पर मैं उनको जरा भी मुंह नहीं लगाता क्योंकि मुझ को ओथेलो की बरबादी का हाल अच्छी तरह मालूम है” लाला मदनमोहन ने साफ मन से कहा पर हरदयाल के पापी मन को इतनी ही बात से खटका हो गया.
"दुनिया के लोगों का ढंग सदा अनोखा देखने में आता है
उनमें से कोई अपना मतलब दृष्टांत और कहावतों के द्वारा कह जाता है, कोई अपना भाव दिल्लगी और हंसी की बातों में जता जाता है, कोई अपना प्रयोजन औरों पर रखकर सुना जाता है, कोई अपना आशय जता कर फिर पलट जाने का पहलू बनाये
रखता है, पर मुझ को ये बातें नहीं आतीं मैं तो सच्चा आदमी हूँ. जो मन में होती है वह ज़बान से कहता हूं जो ज़बान से कहता हूं वह पूरी करता हूँ." लाला हरदयाल ने भरमा-भरमी अपना संदेह प्रकट करके अंत में अपनी सचाई जताई.
"तो क्या आपको इस समय यह संदेह हुआ कि मैंने बहकाने वालों पर रख कर अपनी तरफ से आपको " रुपये का दोस्त" और “मतलबका दोस्त" ठहराया है?” लाला मदनमोहन गिड़गिडा़ कर कहने लगे "हाय! आपने मुझको अबतक नहीं पहचाना. मैं अपने प्राण से अधिक आपको सदा समझता रहा हूं। इस संसार में आप से बढ कर मेरा कोई मित्र नहीं है जिस पर आपको मेरी तरफ़ से अबतक इतना संदेह बन रहा है मुझको आप इतना नादान समझते हैं. क्या
मैं अपने मित्र और शत्रु को भी नहीं पहचानता? क्या आप
से अधिक मुझको संसार में कोई मनुष्य प्यारा है? मैं अपना
कलेजा चीर कर दिखाऊँ तो आपको मालूम हो कि आपकी प्रीति मेरे हृदय में कैसी अंकित हो रही है!”
"आप वृथा खेद करते हैं. मैं आपकी सच्ची प्रीति को अच्छी
"प्रीति के बराबर संसार में कौन सा पदार्थ है?" लाला मदनमोहन कहने लगे "और सब तरह के सुख ममुष्य को द्रव्य से मिल सकते हैं पर प्रीति का सुख सच्चे मित्र बिना किसी तरह नहीं मिलता जिसने संसार में जन्म लेकर प्रीति का रस नहीं लिया उसका जन्म लेना बृथा है इसी तरह जो लोग प्रीति करके उस पर दृढ़ नहीं वह उसके रस से नावाकिफ़ है."
"नि:संदेह प्रीति का सुख ऐसा ही अलौकिक है. संसार
में जिन लोगों को भोजन के लिये अन्न और पहने के लिये वस्त्र तक नहीं मिलता उनको भी अपने दुःख सुख के साथी प्राणोपम मित्र के आगे अपना दुःख रोकर छाती का बोझ हल्का करनेक पर, अपने दुःखों को सुन-सुन कर उसके जी भर आने पर, उसके धैर्य देने पर, उसके हाथ से अपनी डबडबाई हुई आखों के आंसू पुछ जाने पर, जो संतोष होता है वह किसी बड़े राजा को लाखों रुपए खर्च करने से भी नहीं हो सकता" लाला हरदयाल ने कहा.
"निस्सन्देह! मित्रता ऐसी ही चीज़ है पर जो लोग प्रीति का
सुख नहीं जानते वह किसी तरह इसका भेद नहीं समझ सकते” लाला मदनमोहन कहने लगे.
"दुनिया के लोग बहुत करके रुपये के नफे नुक्सान पर प्रीति
का आधार समझते हैं आज हरगोविंद ने लखनऊ की चार
है जो दस पांच रुपये की कसम खाने से बातों में हाथ
आ सकती है!”
"हरकिशोर ने हरगोविंद की तरफ से आपका मन उछांटनें
के लिये यह तद्वीर की हो तो भी कुछ आश्चर्य नहीं.” हरदयाल बोले "मैं जानता हूं कि हरकिशोर एक बड़ा-"
इतने में एकाएक कमरे का दरवाजा खुला और हरकिशोर
भीतर दाखल हुआ. उसको देखते ही हरदयाल की जबान बंद हो गई और दोनों ने लजाकर सिर झुका लिया.
"पहले आप अपने शुभचिन्तकों के लिये सजा तजवीज कर
लीजिये फिर मैं साठन मुलाहजें कराऊंगा. ऐसे वाहियात कामों
के वास्ते इस ज़रूरी काम में हर्ज करना मुनासिब नहीं. हां
लाला हरदयाल साहब क्या फरमा रहे थे? "हरकिशोर एक
बड़ा-" क्या है? हरकिशोर ने कमरे में पांव रखते ही कहा.
"चलो दिल्लगी की बातें रहने दो लाओ, दिखलाओ तुम
कैसी साठन लाए हो? हम अपनी निज की सलाह के वास्ते
औरों का काम हर्ज नहीं किया चाहते” लाला हरदयाल ने पहली बात उड़ा कर कहा.
कि शायद मेरा माल पसन्द न आय" हरकिशोर ने मुस्करा
कर कहा.
"तुम कपड़ा दिखाने आए हो या बातों की दुकानदारी लगाने
आए हो? जो कपड़ा दिखाना हो तो झट पट दिखा दो नहीं तो अपना रास्ता लो हमको थोथी बातों के लिए इस समय अवकाश नहीं है” लाला मदनमोहन ने भौं चढ़ा कर कहा.
"यह तो मैंने पहले ही कहा था अच्छा! अब मैं जाता हूं
फिर किसी वक्त हाज़िर होऊँगा”
"तो तुम कल नौ-दस बजे मकान पर आना" यह कह कर
लाला मदनमोहन ने उसे रुखसत किया.
"आपस में क्या मन की बातें हो रहीं थीं न जाने यह
हत्या बीच में कहां से आ गई" लाला हरदयाल बोले.
"खैर अब कुछ दिल्लगी की बात छेडिये!” लाला मदनमोहन ने फ़रमायश की.
निदान बहुत देर तक अच्छी तरह मिल भेंट कर लाला हर दयाल अपने मकान को गए और लाला मदनमोहन अपने मकान को गए.
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