परीक्षागुरु
द्वारा लाला श्रीनिवासदास
[ आवरण-पृष्ठ ]

परीक्षागुरु



लेखक --


स्वर्गीय लाला श्रीनिवासदास


प्राप्ति स्थान --


कलकत्ता-पुस्तक-भण्डार


१७१ एo हरिसन रोड,

कलकत्ता ।

द्वितीयबार ]
[ मूल्य १)
 
[ प्रकाशक ]

प्रकाशक—
मोतीलाल लाट मंत्री, ज्ञान वर्धक विभाग
(मारवाड़ी ट्रेडस् एसोसियेशन)
१९९, हरिसन रोड,
कलकत्ता।






महावीरप्रसाद पोद्दार द्वारा
मुद्रित—
"वणिक् प्रेस"  
६०, मिर्जापुर स्ट्रीट
कलकत्ता।

[ लेखक-चरित ]
लाला श्रीनिवासदासका जीवन चरित्र ।


ला श्रीनिवासदास जाति के वैश्य थे। उनके पिताका नाम लाला मंगलीलाल जी था। वे मथुरा के सुप्रसिद्ध सेठ लक्ष्मीचंदजी के प्रधान मुनीब थे । कहने को तो वे मुनीब थे पर वास्तव में वे सेठजी के दीवान थे। वे दिल्ली की कोठी के कारिन्दे थे और वहीं रहते थे ।

लाला श्रीनिवासदास का जन्म संवत् १९०८ सन् १८५१ ई० में हुआ था। ये बाल्यावस्था ही से बड़े शीलवान, सदाचारी और चतुर थे। इन्होंने आरंभ में हिन्दी और फिर उर्दू, फ़ारसी, संस्कृत और अंगरेज़ी आदि भाषाओं में अभ्यास करके शीघ्र ही अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली ।
लाला श्रीनिवासदास ने छोटी उम्र में बड़ी योग्यता प्राप्त कर ली थी। महाजनी कारोबार में तो इन्होंने ऐसी दक्षता प्राप्त कर ली थी कि केवल अठारह वर्ष की अवस्था में दिल्ली की कोठी का सारा कारोबार हाथों हाथ संभाल लिया । इनकी ऐसी योग्यता देखकर पंजाब प्रांत की गवर्नमेंट ने इन्हें म्युनिसि पल कमिश्नर बनाया और आनरेरी मजिस्ट्रेट की पदवी प्रदान की। इनकी जैसी रीझ बूझ सरकार में थी वैसे ही बिरादरी वाले और शहर के महाजन लोग भी इनको मानते थे ।
लाला श्रीनिवासदास को दिल्ली की कोठी का कारबार करने के अतिरिक इधर उधर दौरा करके और कोठियों की भी देख भाल करनी पड़ती थी, इससे इन्हें अपनी बुद्धि को परिमार्जित करने का और भी अच्छा अवसर हाथ लगा । इन्हें मातृभाषा [ लेखक-चरित ]
हिन्दी से स्वाभाविक प्रेम था। आप जहां कहीं बाहर जाते और वहां कोई हिन्दी का लेखक या रसिक होता तो उससे अवश्य ही मिलते । यदि इनके यहां कोई हिन्दी का गुणग्राही जाता तो सब काम छोड़ कर उससे बड़े प्रेम से मिलते और उसका अच्छा सत्कार करते थे।
   
   एक बार आप पंडित प्रतापनारायण मिश्र के यहां मिलने गए और बड़ी नम्रतापूर्वक इन्होंने उन्हें एक मोहर नज़र करनी चाही। इस पर पंडित प्रतापनारायण बेतरह बिगड़े और बोले-आप हमारे पास अपनी धन की गुरूरी बतलाने आए हो। इसके उत्तर में इन्होंने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़ कर उत्तर दिया कि नहीं महाराज मैं तो मातृभाषा के मन्दिर पर अक्षत चढ़ाता हूं ।
    
   लाला श्रीनिवासदास को हिन्दी से बड़ा प्रेम था और इसकी सेवा करने का बड़ा उत्साह था परन्तु काम काज की झंझट के कारण इन्हें अवकाश बहुत कम मिलता था। इसलिये इनके लिखे हुए तप्तासंवरण, संयोगितास्वयंवर,रणधीरप्रेममोहिनी और परीक्षागुरु ये ही चार ग्रन्थ हैं, पर फिर भी ये चारों ग्रन्थ एक से एक बढ़ कर हैं। परीक्षाशुरु में इन्होंने जो एक साहूकार के पुत्र के जीवन का दृश्य खींचा है उसे देख कर स्पष्ट प्रगट होता है कि इन्हें सांसारिक व्यवहारों का कैसा अच्छा अनुभव था।
 
    खेद के साथ कहना पड़ता है कि लाला श्र्रीनिवासदास केवल ३६ वर्ष की अवस्था में संवत् १९४४ ( सन् १८८७ ई०) में काल कवलित हुए। यदि ये कुछ दिन और रहते तो हिन्दी भाषा की बहुत कुछ सेवा करते। इनका चरित्र और स्वभाव आदर्श मानने योग्य है।____ [ निवेदन ]

निवेदन ।

अबतक नागरी और उर्दू भाषामैं अनेक तरह की अच्छी, अच्छी पुस्तकें तैयार हो चुकी हैं परन्तु मेरे जान इसरीतिसे कोई नहीं लिखी गई इसलिये अपनी भाषामैं यह नई चालकी पुस्तक होगी परंतु नई चाल होनेंसै ही कोई चीज अच्छी नहीं हो सक्ती बल्कि साधारण रीतिसै तो नई चालमैं तरह, तरह की भूल होनेंकी संभावना रहती है और मुझको अपनी मन्द बुद्धिसै और भी अधिक भूल होनेंका भरोसा है इसलिए मैं अपनी अनेक तरह की भूलोंसै क्षमा मिलने का आधार केवल सज्जनोंकी कृपा दृष्टि पर रखता हूं।

यह सच है कि नई चालकी चीज देखनेंको सबका जी ललचाता है परंतु पुरानी रीतिके मनमैं समाये रहने और नई रीतिको मन लगाकरर समझनेमैं थोड़ी मेहनत होनेंसै पहले पहल पढ़नेवाले का जी कुछ उलझनें लगता है और मन उछट जाता है इस्सै उसका हाल समझमैं आनेंके लिये मैं अपनी तरफसे यहां कुछ खुलासा किया चाहता हूं:-

पहलै तो पढ़नेंवाले इस पुस्तकमैं सौदागरकी दुकानका हाल पढ़ते ही चकरावेंगे क्योंकि अपनी भाषामैं अबतक वार्तारूपी जो पुस्तकें लिखी गई हैं उन्मैं अक्सर नायक, नायका वगैरैका हाल ठेटसै सिलसिलेवार (यथाक्रम) लिखा गया है "जैसै कोई राजा, बादशाह, सेठ, साहूकारका लड़का था उसके मनमैं इस बातसै यह रुचि हुई और उस्का यह परिणाम निकला" ऐसा सिल[  ]
सिला इसमैं कुछभी नहीं मालूम होता ‘लाला मदनमोहन एक अग्रेजी सौदागरकी दूकान मैं अस्वाब देख रहे हैं लाला ब्रजकिशोर, मुन्शीचुन्नीलाल और मास्टर शिंभूदयाल उनके साथ हैं ”इन्मैं मदनमोहन कौन, ब्रजकिशोर कौन, चुन्नीलाल कौन और शिंभूदयाल कौन है ? इन्का स्वभाव कैसा है? परस्पर-सम्बन्ध कैसा है ? हरेककी हालत क्या है ? यहां इस्समय किस लिये इकठ्ठे हुए हैं? यह बातें पहलैसै कुछ भी नहीं जताई गई ! हां पढने वाले धैर्यसे सब पुस्तक पढ लेंगे तो अपने-अपने मौकेपर सब भेद खुल्ता चला जायगा और आदिसै अन्त तक सब मेल मिल जायगा परन्तु जो साहब इतना धैर्य न रक्खेंगे वह इस्का मतलब भी नहीं समझ सकेंगे

अलबत्ता किसी नाटकमैं यहरीति पहलैसै पाई जातीहै परंतु उस्की इस्की लिखनेंकी रीति जुदी जुदी है. नाटकोंमैं जिस्का बचन होता है उस्का नाम आदिमैं लिख देते हैं और वह पैरेग्राफ उस्का बचन समझा जाता है परंतु इस्मैं ऐसा नहीं होता इस्मैं ऐसा " " चिन्ह ( अर्थात इन्वरटेडकोमा या कुटेशन ) के भीतर कहनेंवालेका का वचन लिखा जाता है और कहनेंवाले का नाम बचनके बीचमैं या अंतमैं जहां पुस्तक रचने वालेको जगह मिल्ती है, वह लिख देता है अथवा नाम लिखे बिना पढ़नेवालेको कहनेंवालेका बचन मालूम हो सके तो नहीं भी लिखता. एक आदमीका बचन बहुत करके एक पैरेग्राफमैं पूरा होता है परंतु कहीं, कहीं किसी, किसीके


  • पैरग्राफके प्रारंभमें हर जगह नएसिरेसै से जरासी लकीर छोड़कर लिखा जाता है

और वह पूरा होताहै वहां बाकी लकीर खाली छोड़ दी जातीहै, जैसे यह पैरेग्राफ " "से प्रारम्भ होकर “होतेहैं" पर समाप्ति हुआ है। [  ]
बचन में और विषय आ जाते हैं तो ऐसे “चिन्ह (इन्वरटेड-कोमा ) से पहला वचन पूरा किये बिना दूसरे पैराग्राफ के आदि से ऐसे"चिन्ह लगाकर उसी का वचन जारी रखा जाताहै और वचन के बीच में दूसरे का वचन आ जाता है तो वहां उस वचन को अलग दिखाने के लिये उसपर भी अक्सर इन्वरटेडकोमा लगा दिये जाते हैं परंतु जो वचन ऐसे“ ” चिन्हों के भीतर नहीं होते वह पुस्तक रचने वाले की तरफ से होते हैं.

और चिन्हों मेें ऐसा , (कोमा) किंचित विश्राम,ऐसा;(सेमीकोलन) अथवा : (कोलन अर्ध बिश्राम,ऐसा.(फुुुलिस्टप) पूर्णविश्राम,ऐसा ? (इन्ट्रोगेशन) प्रश्न की जगह ऐसा ! (एक्सक्ल मेशन) आश्चर्य अथवा संबोधन वगैरे के जो शब्द जोर देेेकर बोोलने चााहिए उन्के आगे ऐसा-चिन्ह बात अधूरी छोड़नें के समय लगाया जाता है और ऐसे () चिन्हों (पेरेन थिसेस) के भीतर पहले पद का खुलासा अर्थ या चलते प्रसंग में कोई दूतरफी अथवा विशेष बात जतानी होती है वह लिख देते हैं.

इस पुस्त्तक में दिल्ली के एक कल्पित (फर्जी) रईस का चित्र उतारा गया है और उस्को जैसे का तैसा (अर्थात्स्वा भाविक) दिखाने के लिये संस्कृत अथवा फारसी अरबी के कठिन कठिन,शब्दों की बनाई हुई भाषाके बदले दिल्लीके रहनेंवालोंकी साधारण बोलचाल पर ज्यादः दृष्टि रखी गई है. अलबत्ता जहां कुछ बिद्या- बिषय आ गया है वहां विवस होकर कुछ,कुछ शब्द संस्कृत आदि के लेने पड़े हैं परंतु जिनको ऐसी बातों समझने में कुछ झमेल मालूम हो उनकी सुगमता के लिये ऐसे प्रकरणों पर ऐसा[  ]चिन्ह लगा दिया गया है जिस्सै उन प्रकरणों को छोड़कर हरेक मनुष्य सिलसिले वार वृतान्त पढ़ सक्ता है.

इस पुस्तक में संस्कृत, फारसी अंग्रेजी की कविता का तर्जुमा अपनी भाषा के छंदो में हुआ है परंतु छंदों के नियम और दूसरे देशों का चाल चलन जुदा होने की कठिनाई से पूरा तर्जुमा करने के बदले कहीं,कहीं भावार्थ ले लिया गया है.

अब इस पुस्तक गुणदोंषो पर विशेष विचार करने का काम बुद्धिमानों की बुद्घिपर छोड़कर मैं केवल इतनी बात निवेदन किया चाहता हूँ कि कृपा करके कोई महाशय पूरी पुस्तक बांचे बिना अपना विचार प्रकट करने की जल्दी न करैं और जो सज्जन इस विषय में अपना विचार प्रगट करैं बह कृपा करके उस्की एक नकल मेरे पास भी भेजदें ( यदी कोई अखबार वाला उस अंक की कीमत चाहेगा तो वह तत्काल उसके पास भेज दी जायगी ) जो सज्जन तरफदारी ( पक्षपात ) छोडकर इस विषय मैं , स्वतंत्रता से अपना विचार प्रगट करैंगे मैं उनका बहुत उपकार मानूंगा.

इस पुस्तक के रचनें मैं मुझको महाभारतदि संस्कृत, गुलिस्तां बगैरे फारसी, स्पेक्टेटर, लार्ड बेकल,गोल्डस्मिथ,विलियमकूपर आदि के पुराने लेखों और स्त्री बोध आदि के बर्तमान रिनालों से बड़ी सहायता मिली है इसलिये इन सबका मैं बहुत उपकार मानता हूं और दीनदयाल परमेश्वर की निर्हेतुक कृपा का सच्चे मन से अमित उपकार मानकर यह लेख समाप्त करता हूं

सज्जनोंका कृपाभिलाषी
 
श्रीनिवासदास,दिल्ली.
 

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


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