नैषध-चरित-चर्चा/९—नैषध-चरित का पद्यात्मक अनुवाद

पृष्ठ ६४ से – ६९ तक

 

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नैषध-चरित का पद्यात्मक अनुवाद

शिवसिंहसरोज में हमने पढ़ा था कि सं०१८०५ में गुमानी मिश्र ने नैषध-चरित का अनुवाद, काव्यकलानिधि नाम से, किया है। हर्ष की बात है कि यह ग्रंथ बंबई में प्रकाशित भी हो गया है। इस अनुवाद का विज्ञापन प्रकाशित हुए सत्रह-अठारह वर्ष हुए। उसके अधिकांश की नक़ल हम नीचे देते हैं—

नैषधकाव्य

"नैषध (निषध ?) देश के राजा भीमसेन की कन्या पतिप्राणा पतिव्रता सती आदशिनी रानी दमयंती और द्दुतचतुर स्थिरप्रतिज्ञ राजा नल का पौराणिक आख्यान है । एक सती स्त्री विपत्ति पड़ने पर कैसे अपने पति की सेवा करती है। महा आपत् काल में विपद्ग्रस्त पति को छोड़कर स्त्री कैसे अलग न होकर अपना धर्म रखती और किस प्रकार अपना दिन काटती है। विपत्ति पड़ने पर एक धीर पुरुष कैसे धैर्य रखता है और अपना धर्म निबाहता है। फिर विपत्ति कटने पर सुख के दिन आते हैं, तो सज्जन पुरुष किस गंभीरता से अपना सर्वस्व सँभालते हैं, इत्यादि। इन बातों का वर्णन तेईस सर्ग में उत्तमोत्तम छंदोबद्ध काव्य में लिखा गया है।" वाह साहब ! खूब ही नैषध की कथा का सार खींचा है। हमने स्वयं इस अनुवाद को नहीं देखा , परंतु यदि यह नैषध-चरित का अनुवाद है, तो इसमें वह कथा कदापि नहीं हो सकती, जिसका उल्लेख ऊपर दिए हुए विज्ञापन में किया गया है। यदि यह और किसी नैषध के अनुवाद का विज्ञापन है, तो हम नहीं कह सकते । शिवसिंहसरोज में अनुवाद के दो- एक नमूने भी दिए हुए हैं। उनको देखने से तो वह प्रसिद्ध नैषध- चरित ही का भाषांतर जान पड़ता है। फिर हम नहीं कह सकते कि अनुवाद में तेईस सर्ग कहाँ से कूद पड़े । मूल में तो केवल बाईस ही हैं । श्रीहर्ष ने नैषध-चरित में नल और दमयंती के विपत्तिग्रस्त होने की चर्चा भूलकर भी नहीं की। नहीं नानते, गुमानी कवि ने उस कथा को अपने अनुवाद में कहीं से लाकर प्रविष्ट कर दिया।

गमानी मिश्र-कृत नैषध-चरित के अनुवाद को प्रकाशित हुआ सुनकर हमें उसे देखने की उत्कंठा हुई । अतएव हमने शिवसिंहसरोज में उद्धृत किए हुए नैषध के दो श्लोकों का अनुवाद देखा । देखने पर हताश होकर गुमानीजी के ग्रंथ को मँगाने से हमें विरत होना पड़ा । नैषध-चरित के प्रथम सर्ग में एक श्लोक है, जिसमें राजा नल की लोकोत्तर दानशीलता का वर्णन है । वह श्लोक यह है—


  • इसे हमने अब पढ़ लिया है । यह नैषध-चरित ही का टूटा-फूटा
अनुवाद है।

विभज्य मेरुन यदर्थिसात्कृतो
न सिन्धुरुत्सर्गजलव्ययैर्मरुः ।
अमानि सत्तेन निजायशोयुगं
द्विकालवद्धाश्चिकुराः शिरः स्थितम् ।

(सर्ग १, श्लोक १६)
 

इसका अनुवाद गुमानीजी ने किया है—

कवितानि सुमेरु न बाँटि दियो ,
जलदानन सिंधु न सोकि लियो ;
दुहुँ भोर बँधी जुल्ल फैं सुमली ,
नृप मानत औयश की अवली।

हमको विश्वास है, इस अनुवाद के श्राशय को थोड़े ही लोग समझ सकेंगे। 'कवितानि' और 'औयश' से यहाँ क्या अर्थ है, सो विना मूल ग्रंथ देखे ठीक-ठीक नहीं समझ पड़ता। 'औयश' से अभिप्राय अपयश या अयश से है और 'कवितानि' से अभिप्राय 'कवियों' से है ! श्लोक का भावार्थ यह है—

राजा नल सारे सुमेरु को काट-काटकर याचकों को नहीं दे सके; और, दान के समय, संकल्प के लिये समुद्र से जल ले-लेकर उसे मरुस्थलं नहीं बना सका । अतएव अपने सिर पर, दोनो ओर, दो भागों में विभक्त केश-कलाप को उसने अपने दो अपयशों के समान माना ।

यह भाव गुमानीजी के अनुवाद को पढ़कर मन में सहज ही उद्धत होता है अथवा नहीं, इसके विचार का भार हम पाठकों ही पर छोड़ते हैं।

नैषध के प्रथम सर्ग के एक और श्लोक का भी अनुवाद शिवसिंहसरोज में दिया हुआ है। वह श्लोक यह है—

सितांशुवर्णैर्वयतिस्म तद्गुणै-
महासिवेन्नः सहकृत्वरी बहुम् ;
दिगंगनांगाभरणं रणांगणे
यशःपटं तद्भटचातुरीतुरी।

(सर्ग १, श्लोक १२)
 

भावार्थ—राजा नल के चंद्रवत् शुभ्र गुणांछ से, कृपाण- रूपी वेमा+ के सहारे, रण-क्षेत्र में उसके सुभटों की चातुरीरूपी तुरी+ ने, दिगंगनाओं के पहनने के लिये, सैकड़ों गज लंबा यशोरूपी वस्त्र बुन डाला । दिग्विजयी होने से राजा नल का यश सर्वत्र फैल गया, यह भाव।

इस अर्थ को भाषांतरित करने के लिये गुमानी मिश्र ने यह कवित्त लिखा है—

संगर धरावें जाके रंग सो सुभट निज
चातुरी तुरी सौ जस पटनि बुनतु है;


  • सूत्र को भी गुण कहते हैं।

+ वेमा, कपड़ा बुनने में काम आता है—एक प्रकार का दंड।

  • तुरी, कड़े बालों की बनी हुई ब्रश के समान एक वस्तु है।
उसका उपयोग जुलाहे लोग कपड़ा बुनने के समय करते हैं।

करि करिबाल बेम जोरि-जोरि कोरि-कोरि
चंद्र ते विशद नाके गुननि गुनतु है।
अमन अमोल बोल डोल मलमल होत
कबहुँ घटै न जन देवता सुनतु है।
आठौ दिशि रानी राजधानी के श्रृंगारिबे को
आठै दिगराज जानि चीरनि चुनतु है।

श्लोक का भावार्थ पहले समझे विना इस कवित्त का आशय जानने के लिये गुमानीजी ही की सहायता आवश्यक है। उसके विना श्रीहर्ष का अभिप्राय अधिगत करने में बहुत कम लोग समर्थ हो सकते हैं । अनुवाद के सहारे संस्कृत-पद्य का भाव । समझ में आ जाना तो दूर रहा, उसे देखकर उलटा व्यामोह उत्पन्न होता है । वह समझ में नहीं आता । न यही समझ पड़े, न वही-ऐसी दशा होती है। जिस समय की यह हिंदी है, उस समय 'कोरि-कोरि, जोरि-जोरि' और 'अमल अमोल ओल डोल झलझल' इत्यादि शब्द-झंकार से लोगों को प्रमोद प्राप्त होता होगा; परंतु इस समय उसकी प्राप्ति कम संभव प्रतीत होती है । एक श्लोक का अनुवाद गमानीजी ने अतिलघु तोटक-वृत्त में किया और दूसरे का गज़ों लंबे कवित्त में। दोनो श्लोक पास-ही-पास के हैं। जान पड़ता है, छंद के मेल का विचार उन्होंने कुछ भी नहीं किया ।

शिवसिंहसरोजवाले ठाकुर साहब के अनुसार गुमानीजी ने 'पंचनली जो नैषध में एक कठिन स्थान है, उसको भी सलिल कर दिया'। 'सलिल कर दिया'! पंचनली का पानी हो गया! अनुवाद देखने से तो यह बात सिद्ध नहीं होती। उसमें तो नैषध-चरित के भावों की बड़ी ही दुर्दशा हुई है। एक ही चावल के टटोलने से देनची का पूरा हाल विदित हो जाता है। अतएव विना पूरा अनुवाद देखे ही, पूर्वोक्त दो उदाहरणों से ही, पाठक उसकी याग्यता का हाल जान जायँगे।



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