नैषध-चरित-चर्चा/२—श्रीहर्ष नाम के तीन पुरुष
नैषध-चरित के कर्ता श्रीहर्ष का जीवन-चरित बहुत ही कम उपलब्ध है। अपने ग्रंथ में इन्होंने अपने विषय में जो दो-चार बातें कह दो हैं, वे ही प्रामाणिक मानी जाने योग्य हैं । इनके समय तक का निर्भ्रांत निरूपण नहीं हो सकता, यह और भी दुःख की बात है । यदि हमारे देश का प्राचीन इतिहास लिखा गया होता, तो ऐसे-ऐसे प्रबंधों के लिखने में उसका अतिशय उपयोग होता । हमारे पूर्वज और अनेक विषयों में निष्णात होकर भी इतिहास लिखने से इतने पराङ मुख क्यों रहे, इसका कारण ठीक-ठीक नहीं समझ पड़ता । वे प्रवास-प्रिय न थे, अथवा मनुष्य-चरित लिखना वे निंद्य समझते थे, अथवा जीवन-चरित उन्होंने लिखे, परंतु ग्रंथ ही लुप्त हो गए—चाहे कुछ हो, इस देश का पुरातन इतिहास बहुत ही कम प्राप्त है, इसमें संदेह नहीं।
भाद्रपद की घोर अंधकारमयी रात्रि में जैसे अपना-पराया नही सूझ पड़ता, वैसे ही इतिहास के न होने से ग्रंथ-समूह का समय-निरूपण अनेकांश में असंभव-सा हो गया है । कौन आगे हुआ, कौन पीछे हुआ, कुछ नहीं कहा जा सकता। इससे हमारे साहित्य के गौरव की बड़ी हानि हुई है। कभी- कभी तो समय और प्रसंग जानने ही से परमानंद होता है। परंतु, खेद है, संस्कृत-भाषा के ग्रंथों की इस विषय में बड़ी ही दुरवस्था है। समय और प्रसंग का ज्ञान न होने से अनेक ग्रंथों का गुरुत्व कम हो गया है। इस अवस्था में भी, जब संस्कृत के विशेष-विशेष ग्रंथों की इतनी प्रशंसा हो रही है तब, किस समय, किसने, किस कारण, कौन ग्रंथ लिखा— इन सब बातों का यदि यथार्थ ज्ञान होता, तो उनकी महिमा और भी बढ़ जाती। जिस प्रकार वन में पड़ी हुई एक सौंदर्य- वती मत स्त्री के हाथ, पैर, मुख आदि अवयव-मात्र देख पड़ते हैं, परंतु यह पता नहीं चलता कि वह कहाँ की है, और किसकी है, वैसे ही इतिहास के विना हमारा संस्कृत-ग्रंथ-साहित्य लावारिस-सा हो रहा है। यही साहित्य यदि इतिहासरूपी आदर्श में रखकर देखने को मिलता, तो जो आनंद अभी मिलता है, उससे कई गुना अधिक मिलता। राजतरंगिणी, विक्रमांकदेव-चरित, कुमारपाल-चरित, प्रबंधकोश, पृथ्वीराज- विजय इत्यादि ग्रंथों का प्रसंगवशात् कभी-कभी कुछ उपयोग होता है, परंतु 'इतिहास' में इनकी गणना नहीं। इन्हें तो काव्य ही कहना चाहिए, क्योंकि देश-ज्ञान, काल-क्रम और सामाजिक वर्णन तथा राजनीतिक विवेचन, जो इतिहास के मूलाधार हैं, उनकी ओर इन ग्रंथों में विशेष ध्यान ही नहीं दिया गया। एतद्देशीय और विदेशीय विद्वानों ने जो कुछ आज-पर्यंत खोज करके पता लगाया है, उसकी पर्यालोचना करने से हर्ष नाम के तीन पुरुष पाए जाते हैं। एक श्रीहर्ष नाम का काश्मीर-नरेश, दूसरा हर्षदेव अथवा हर्षवर्द्धन नाम का कान्यकुब्जनृप (इसका दूसरा नाम शीलादित्य भी था), तीसरा श्रीहर्षनामक कवि। अब यह देखना है कि इन तीनो में से नैषध-चरित किसकी अपूर्व प्रतिभा का विजृंभण है।
प्रथम काश्मीराधिपति श्रीहर्ष के विषय में विचार कीजिए। कलहण-कृत राजतरंगिणी[१] के अनुसार इस श्रीहर्ष को सन् १०९१ और १०९७ ईसवी के बीच काश्मीर का सिंहासन प्राप्त हुआ था। इस काल-निर्णय से महामहोपाध्याय पंडित महेशचंद्र न्यायरत्न[२] तथा बाबू रमेशचंद्र दत्त[३] ये दोनो विद्वद्रत्न सहमत हैं। कुमारी मेबल डफ और मिस्टर विंसेंट स्मिथ हर्ष का राजत्व-काल १०८९ से ११०१ ईसवी तक मानते हैं। राजतरंगिणी के सप्तम तरंग का श्लोक ६११ यह है—
सोऽशेषदेशभाषाज्ञः सर्वभाषासु सत्कविः ।
कृती विद्यानिधिः प्राप ख्याति देशान्तरेष्वपि ।
इससे स्पष्ट है कि राजा श्रीहर्ष सर्व-भाषा-निपुण, परम विद्वान् और उत्तम कवि था। परंतु उसका बनाया हुआ नैषध- चरित कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि ग्रंथकार ने ग्रंथ के अंत में स्वयं लिखा है—
ताम्बूलद्वयमासनन्च लभते यः कान्यकुब्जेश्वरात् ।
जिसे कान्यकुब्ज-नरेश के यहाँ पान के दो बीड़े और आसन प्राप्त होने का गर्व है, वह कदापि स्वयं राजा नहीं हो सकता। फिर, जिस श्रीहर्ष ने नैषध-चरित बनाया है, उसी ने 'गौडोर्वीशकुलप्रशस्ति' और 'साहसीक-चरित' भी बनाया है। यह बात, जैसा कि आगे दिखलाया जायगा, नैषध ही से स्पष्ट है। तब कहिए, एक राजा दूसरे राजा की प्रशंसा में क्यों काव्य-रचना करने बैठेगा? एक बात और भी है। वह यह कि राजतरंगिणी में नैषध-चरित का कुछ भी उल्लेख नहीं। जिस समय जिसने जो-जो ग्रंथ लिखे हैं, उसका सविस्तर वर्णन इस ग्रंथ में है। परंतु नैषध-चरित का नाम न होने से यही निश्चय होता है कि इस महाकाव्य का कर्ता कोई और ही है। प्रसिद्ध नाटक 'रत्नावली', 'प्रियदर्शिका' और 'नागानंद' भी श्रीहर्ष ही के नाम से ख्यात हैं; परंतु ये दोनो ग्रंथ भी काश्मीर-नरेश श्रीहर्ष के लिखे हुए नहीं हैं। यह बात आगे प्रमाणित की जायगी।
दूसरा श्रीहर्ष कान्यकुब्ज का राजा था। इसका पूरा नाम हर्ष- देव था। इस राजा के शासन आदि का वर्णन विसेंट स्मिथ साहब ने बड़े विस्तार से लिखा है। यह उनकी पुस्तक— Early History of India में मिलेगा।
ईसवी सन् के अनुमान ६०० वर्ष पहले बौद्धमत का प्रादुर्भाव हमारे देश में हुआ। यह मत कई सौ वर्षों तक बड़ी धूम-धाम से भरतखंड में प्रचलित रहा। परंतु ईसवी सन के आरंभ में वैदिक और बौद्धमतावलंबियों में परस्पर वाद- प्रतिवाद होते-होते इतना धर्म-विप्लव हुआ कि बौद्ध लोगों को यह देश छोड़कर अन्यान्य देशों को चले जाना पड़ा। उन लोगों ने लंका, कोरिया, श्याम, चीन, तिब्बत आदि देशों में जाकर अपना जी बचाया, और अपना धर्म रक्षित रक्खा। उन देशों में यह मत बड़ी शीघ्रता से फैल गया। इन्ही देशांतरित बौद्ध लोगों में से ह्वेनसांग-नामक एक प्रवासी, ईसवी सन् के सप्तम शतक के प्रारंभ में, बुद्ध की जन्मभूमि भारतवर्ष का दर्शन करने और संस्कृत-भाषा सीखने के लिये चीन से आया। १६ वर्ष तक इस देश में रहकर वह ६४५ ईसवी में चीन को लौट गया । वहाँ जाकर उप्सने प्रवास-वर्णन-विषयक, चीनी भाषा में, एक ग्रंथ लिखा । इस ग्रंथ का अनुवाद बील साहब ने अँगरेजी में किया है। उसे देखने से भारतवर्ष-विषयक सप्तम शतक का बहुत कुछ वृत्तांत ज्ञात होता है। ह्वेनसांग ने भारत- वर्ष में जो कुछ देखा, और जिन-जिन राजों की राजधानियों अथवा राज्यों में वह गया, उन सबका वर्णन उसने अपने ग्रंथ में किया है। इसी ग्रंथ में ह्वेनसांग ने कान्यकुब्जाधिपति श्रीहर्ष का भी वर्णन किया है। इस राजा ने ६०६ से ६४८ ईसवी तक राज्य किया। कई विद्वानों ने बड़ी योग्यता से इस समय का निर्णय किया है। मिस्टर रमेशचंद्र दत्त, डॉक्टर हाल, मिस्टर विसेंट स्मिथ सभी इससे सहमत हैं। यह वही श्रीहर्ष है, जिसके आश्रय में प्रसिद्ध कादंबरीकार बाण पंडित था। बाण ने अपने हर्षचरित-नामक गद्यात्मक ग्रंथ में इस राजा का चरित वर्णन किया है, और अपना राजाश्रित होना भी बताया है।
नैषध-चरित के कर्ता ने कान्यकुब्ज-नरेश द्वारा सम्मानित होना स्पष्ट लिखा है। अतः यह काव्य इस श्रीहर्ष की कृति नहीं हो सकती। कान्यकुब्ज का राजा कान्यकुब्ज के राजा से किस प्रकार आहत होगा ? फिर एक समय एक ही देश में दो राजे किस प्रकार रह सकेंगे?
ऊपर हम लिख आए हैं कि 'रत्नावली', 'प्रियदर्शिका' और 'नागानंद' भी श्रीहर्ष के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन पुस्तकों की प्रस्तावना में लिखा है कि राजा श्रीहर्ष ही ने इनकी रचना की है। अब देखना चाहिए कि यहाँ किस श्रीहर्ष से अभिप्राय है। ये दोनो नाटक काश्मीराधिपति श्रीहर्ष-कृत नहीं हो सकते, क्योंकि राजतरंगिणी में इनका कहीं नाम नहीं। जब छोटे-छोटे ग्रंथों का भी नाम इतिहास-बद्ध किया गया है, तब राजतरंगिणी में इनका कहीं भी नाम न मिलने से यही प्रमाणित होता है कि ये काश्मीर के राजा श्रीहर्ष के रचे हुए नहीं हैं।
काश्मीर में अनंतदेव-नामक नरेश श्रीहर्ष के पहले हो गया है। राजतरंगिणी के सप्तम तरंग में, १३५ से २३५ श्लोकों तक, अनंतदेव का वर्णन है। उससे व्यक्त होता है कि यह राजा १०६५ ईसवी के लगभग, अर्थात् श्रीहर्ष से कोई २६ वर्ष पहले, विद्यमान था। जिस समय काश्मीर में अनंतदेव सिंहासनासीन था, उसी समय राजा भोज धारा में था। डॉक्टर राजेंद्रलाल मित्र[४] ने भोज का समय १०२६ से १०८३ ईसवी तक, अथवा दो-एक वर्ष इधर-उधर, स्थिर किया है। राजा भोज ने सरस्वतीकंठाभरण-नामक अलंकार-शास्त्र का एक ग्रंथ बनाया है। यह ग्रंथ उसी प्रसिद्ध मालवाधिप भोजदेव-कृत है। इस बात को सभी विद्वान् स्वीकार करते हैं। अब देखिए, सरस्वतीकंठाभरण में रत्नावली के कई श्लोक उदाहरणस्वरूप उद्धृत हैं। यदि रत्नावली काश्मीर-नरेश श्रीहर्ष-कृत होती, तो उसके श्लोक भोज-कृत सरस्वतीकंठाभरण में कदापि उद्धृत न हो सकते, क्योंकि भोजदेव के अनंतर श्रीहर्ष ने काश्मीर की गद्दी पाई थी। यदि भोज को मृत्यु १०८३ ईसवी में हुई मानी जाय, तो श्रीहर्ष के राज्य-प्राप्ति-काल (१०९१ और १०९७ ईसवी के मध्य) से थोड़ा ही अंतर रह जाता है। परंतु राजा होने के पहले ही श्रीहर्ष ने रत्नावली लिखी, और लिखी जाने पर वह वर्ष ही छ महीने में काश्मीर से मालवा पहुँची, यह असंभव-सा जान पड़ता है। यही मत महामहोपाध्याय पंडित महेशचंद्र न्यायरत्न का भी है।
काश्मीर-देशवासी मम्मट भट्ट-कृत काव्य-प्रकाश में लिखा है—
"श्रीहर्षादेर्धावकादीनामिव धनम्"
इसकी टीका पंडित महेशचंद्र न्यायरत्न ने इस प्रकार की है—
"धात्रकः किल श्रीहर्षनाम्ना रत्नावली कृश्वा बहुधनं लब्धवानिति प्रसिद्धिः।"
अर्थात् धावक कवि ने श्रीहर्ष के नाम से रत्नावली की रचना करके बहुत धन प्राप्त किया। इस आख्यायिका का अवलंबन करके रत्नावली और नागानंद का कर्तृश्व लोग श्रीहर्ष पर मढ़ते हैं। परंतु इस कथा से काश्मीराधिपति श्रीहर्ष का कोई संबंध नहीं। यदि धावक द्वारा रत्नावली का रचा जाना मानें, तो यह भी मानना पड़ेगा कि वह एकादश शताब्दी से बहुत पहले लिखी गई थी, क्योंकि मालविकाग्निमित्र की प्रस्तावना में कालिदास ने कहा है—
"मा तावत्। प्रथितयशसां धावकसौमिल्लककविपुत्रादीनां प्रबन्धानतिक्रम्य वर्तमानकवेः कालिदासस्य कृतौ किं कृतो बहुमानः?"
इससे स्पष्ट है कि धावक कालिदास से पहले हो गया है। प्रोफ़ेसर वेबर[५] और लासन[६] के मत में कालिदास ईसवी सन् की दूसरी और चौथी शताब्दी के मध्य में वर्तमान थे। परंतु डॉक्टर कर्न[७] के मत में यह छठी शताब्दी के आदि में थे। बाबू रमेशचंद्र दत्त[८] का भी वही मत है, जो डॉक्टर कर्न का है। अब तो कालिदास का समय ईसवी सन् की पाँचवीं या छठी शताब्दी भी माना जाने लगा है। अतः यह सिद्ध है कि धावक कवि छठी शताब्दी के प्रथम हुआ है। जब यह सिद्ध है, तब श्रीहर्ष से उसका धन पाना किसी प्रकार संभव नहीं, क्योंकि दोनो श्रीहर्ष उसके बहुत काल पीछे हुए हैं।
रत्नावली धावक ने नहीं बनाई; काश्मीर-नरेश श्रीहर्ष ने नहीं बनाई। फिर बनाई किसने? यदि उसे कान्यकुब्जाधीश श्रीहर्षकृत मानते हैं, तो इस राजा के सुशिक्षित और विद्वान् होने पर भी इसका कवि होना कहीं नहीं लिखा। यदि नैषध-चरितकार श्रीहर्ष-कृत मानते हैं, तो नैषध में उसी कवि के किए हुए और ग्रंथों के जो नाम हैं, उनमें रत्नावली का नाम नहीं आया। इसलिये यह शंका सहज ही उद्भूत होती है कि यह नाटिका किसी और ही ने लिखी है।
एक बार डॉक्टर बूलर ने काश्मीर में घूम-फिरकर वहाँ अनेक हस्त-लिखित पुस्तकें प्राप्त की। इन पुस्तकों में काव्य-प्रकाश की जितनी प्रतियाँ उनको मिली, उन सभी में 'श्रीहर्षा देर्धावकादीनामिव धनम्' के स्थान में 'श्रीहर्षा देर्बाणादीनामिव धनम्'—यह पाठ मिला । इस विषय पर उन्होंने एक लेख प्रकाशित किया। उसी के आधार पर डॉक्टर हाल ने वासवदत्ता की भूमिका में यह लिखा है कि बाण ही ने कान्यकुब्जाधीश्वर श्रीहर्ष के नाम से रत्नावली और नागानंद की रचना की है । जिस मम्मट भट्ट ने काव्य-प्रकाश बनाया है, वह काश्मीर ही का निवासी था। अतएव काश्मीर में प्रचलित काव्य-प्रकाश की प्रतियों में धावक का नाम न मिलने से यही अनुमान होता है कि वह इस ओर की पुस्तकों में प्रमाद-वश लिखा गया है, और एक को देख दूसरी प्रति करने में वही प्रमाद होता चला आया है। किसी-किसी का यह भी मत है कि बाण भट्ट ही का दूसरा नाम धावक था। इस समय अनेक पुरातत्त्व-वेत्ताओं की यही सम्मति है कि रत्नावली, नागानंद, प्रियदर्शिका, कादंबरी का पूर्वाद्ध, हर्ष- चरित, पार्वती-परिणय-नाटक और चंडीशतक ग्रंथ एक ही कवि अर्थात् बाण ही के रचे हुए हैं । उसी ने रत्नावली की रचना करके कान्यकुब्ज के राजा श्रीहर्ष से बहुत-सा धन प्राप्त किया, और उसी ने हर्षचरित-नामक ग्रंथ में श्रीहर्ष का चरित लिखा है। परंतु ऐसे भी कई विद्वान् हैं, जो कान्यकुब्ज-नरेश श्रीहर्ष को कवि मानते हैं, और रत्नावली आदि नाटकों की रचना करनेवाला उसी को समझते हैं।
बाण भट्ट के विषय में एक आख्यायिका प्रसिद्ध है। वह प्रसंग-वश हम यहाँ लिखे देते हैं—
हर्षचरित के प्रथमोच्छवास के अंत में वाण ने अपने पिता का नाम चित्रभानु और माता का राज्यदेवी लिखा है। बाण की जन्मभूमि सोन-नदी के पश्चिम ओर प्रीतिकूट-नामक ग्राम था। माता-पिता का वियोग इसे बाल्यावस्था ही में सहन करना पड़ा था। १४ वर्ष की उम्र में भद्रनारायण, ईशान और मयूरक नामी अपने तीन मित्रों के साथ इसने विदेश यात्रा की, और कान्यकुब्ज-प्रदेश में पहुँचने पर वहाँ के राजा श्रीहर्ष के यहाँ आश्रय पाया। सुनते हैं, बाण भट्ट के मित्र मयूरक अथवा मयूर को कुष्ठ हो गया था। तन्निवारणार्थ मयूर ने सूर्यशतक-काव्य लिखकर सूर्य देवता को प्रसन्न किया। इसका यह फल हुआ कि मयूर का कुष्ठ जाता रहा। इस अलौकिक कवित्व-प्रभाव को देखकर बाण को यहाँ तक मत्सर उत्पन्न हुआ कि उसने अपने हाथ और पैर दोनो तोड़ लिए, और तोड़कर भगवती चंडिका के प्रीत्यर्थ चंडीशतक की रचना की। चंडी की दया से उसके हाथ-पैर पुनः पूर्ववत् हो गए। इस आख्यायिका की सत्यता अथवा असत्यता के विचार करने का यहाँ प्रयोजन नहीं; और यदि हो भी, तो तदर्थ कोई परिपुष्ट प्रमाण नहीं प्रस्तुत किया जा सकता। तथापि यह निर्विवाद है कि ये दोनो शतक उत्तम कविता के नमूने हैं। ये प्रचलित भी हैं। प्रत्येक का आदिम श्लोक हम यहाँ पर उद्धृत करते हैं—
सूर्यशतक
जम्भारातीभकुम्भोद्भवमिव दधतः सान्द्रसिन्दूररेणुं
रक्ता:सिक्ता इवौधैरुदयगिरितटीधातुधाराद्रवस्थ।
आयान्त्या तुल्यकालं कमलवनरुदेवारुणा वो विभूत्यै
भूयासुर्भासयन्तो भुवनमभिनवा मानवो मानवीयाः।
चंडीशतक
मा भाङ्क्षीर्विभ्रमं भ्रूरधर! विधुरता केयमस्यास्य! रागं
पाणे! प्राण्येव नाऽयं[९] कलयसि कलहश्रद्धया किं त्रिशूलम्;
इत्युद्यत्कोपकेतून्प्रकृतिमवयवान्प्रापयन्त्येव देव्या
न्यस्तो वो मूर्ध्नि मुष्यान्मरुदसुहृदसून्संहरन्नङ्न्घिरंहः।
सूर्यशतक का श्लोक अनुप्रास-बाहुल्य से भरा हुआ है। उसमें उतना रस नहीं है, जितना चंडीशतक के श्लोक में है। चंडीशतक का पद्य बहुत सरस है। इस कारण हम उसका भावार्थ भी लिखे देते हैं—
हे भृकुटि! तू अपने स्वाभाविक विभ्रम का भंग मत कर। हे ओष्ठ! यह तेरी व्याकुलता कैसी? हे मुख! (क्रोधव्यजक) अरुणिमा को छोड़। हे हस्त! यह एक साधारण प्राणी है; कोई विलक्षण जीव नहीं। फिर, युद्ध की इच्छा से तू क्यों त्रिशूल उठा रहा है? काप के चिह्नों से युक्त अपने अवयवों को इस प्रकार संबोधन-पूर्वक प्रकृतिस्थ-सी करनेवाली भगवती चंडिका का, महिषासुर के प्राण हरण करके, उसके मस्तक पर रक्खा हुआ चरण तुम्हारा पातकोत्पाटन करे!
इन श्लोकों में 'वः' (तुम्हारा) के स्थान में यदि 'नः' (हमारा) होता, तो यह पिछला प्रयोग पूर्वोक्त किंवदंती का अंशतः समर्थक हो जाता।
कान्यकुब्ज के राजा श्रीहर्ष के प्रसंग में यहाँ पर हमें बाण- भट्ट की भी कुछ बातें लिखनी पड़ीं। इस कवि के विषय में श्रीयुत पांडुरंग गाविंद शास्त्रो पारखी ने कोई २०० पृष्ठों की एक पुस्तक मराठी में लिखी है। वह बड़ी खोज से लिखी गई है। जिन्हें इस कवि के विषय में विशेष बात जाननी हों, वे इस पुस्तक को देखें।
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- ↑ राजतरंगिणी के ४ भाग हैं। प्रथम भाग में सन् १९४८ ईसवी तक का वृत्त वर्णित है। उसके कर्ता कल्हण पंडित हैं। दूसरे भाग की रचना जोनराज ने की है। उसमें सन् १४१२ ईसवी-पर्यंत काश्मीर का इतिहास है। तीसरा भाग श्रीवर पंडित के द्वारा लिखा गया है। उसमें सन् १४७७ ईसवी तक के इतिवृत्त का समावेश है। चतुर्थ भाग में प्रजय भट्ट ने अकबर द्वारा काश्मीर-विजय से लेकर शाहे-आलम बादशाह के समय तक का वर्णन किया है।
- ↑ काव्य-प्रकाश की भूमिका देखिए।
- ↑ See History of Civilization in Ancient India
- ↑ See Indo-Aryans, Vol. II.
- ↑ See History of Indian Literature.
- ↑ See History of Indian Literature.
- ↑ See History of Indian Literature.
- ↑ See History of Civilization in Ancient India.
- ↑ ना = पुरुषः।