नैषध-चरित-चर्चा/११—श्रीहर्ष की कविता के नमूने

नैषध-चरित-चर्चा
महावीरप्रसाद द्विवेदी
श्रीहर्ष की कविता के नमूने

पृष्ठ ७७ से – १२० तक

 

(११)
श्रीहर्ष की कविता के नमूने

नैषध-चरित के कुछ श्लोकों को उद्धृत किए विना यह निबंध अपूर्ण रहेगा । अतएव हम कुछ चुने हुए श्लोक यहाँ देते हैं । प्रत्येक श्लोक का भावार्थ लिखने से विस्तार बढ़ेगा, तथापि संस्कृत से अनभिज्ञ लोगों को श्रीहर्ष का काव्यरस चखाने के लिये हमें भावार्थ भी लिखना ही पड़ेगा।

राजा नल के प्रताप और यश का वर्णन सुनिए—

तदोजसस्तद्यशसः स्थिताविमौ
वृथेति चित्ते कुरुते यदा यदा ;
तनोति भानोः परिवेषकैतवात्
तदा विधिः कुण्डलनां विधोरपि ।

(सर्ग १, श्लोक १४)
 

भावार्थ—उस राजा के प्रताप और यश के रहते, सूर्य और चंद्रमा का होना वृथा है । इस प्रकार जब-जब ब्रह्मदेव के मन में आता है, तब-तब वह, मंडल के बहाने, सूर्य और चंद्र दोनो के चारो ओर कुंडलना (घेरा) खींच देता है । अर्थात् सूर्य और चंद्रमा का काम तो राजा नल के प्रताप और यश ही से हो सकता है, फिर इनकी आवश्यकता ही क्या है ? पहले पंडित लोग, जब हाथ से पुस्तकें लिखते थे, तब, यदि कोई शब्द अधिक लिख जाता था, तो उसके चारो तरफ़ हरताल से एक घेरा बनाकर उसकी निरर्थकता व्यक्त करते थे। उसी को देखकर जान पड़ता है, श्रीहर्ष को यह कल्पना सूझी है। परंतु सूझी बहुत दूर की है। इसी से इस उक्ति से विशेष आनंद नहीं आता । सूर्य और चंद्रमा के आस-पास कभी-कभी मंडल देख पड़ता है, सदैव नहीं। इसी से 'यदा-यदा' कहा गया। सष्टि-रचना में व्यस्त रहने से, इस प्रकार के सोच- विचार के लिये ब्रह्मदेव को सदा समय नहीं मिलता। परंतु जब कभी मिलता है, तब सूर्य और चंद्रमा को बनाना अपनी भूल समझकर उसी समय, तत्काल, उनके आस-पास वह रेखा खींच देता है। भूल सुधारनी ही चाहिए ।

राजा नल के घोड़ों का वर्णन—

प्रयातुमस्माकमियं कियत्पदं
धरा तदम्भोधिरपि स्थलायताम्।
इतीव वाहैनिनवेगदर्पितैः
पयोधिरोधक्षममुस्थितं रज:।

(सर्ग १, श्लोक ६९)
 

भावार्थ—इस पृथ्वी को पार कर जाना तो हमारे लिये कोई बात ही नहीं। यह है कितनी ? इस प्रकार मानो मन में कहते हुए, नल के घोड़ों ने समुद्र पार कर लेने ही के लिये धूल उड़ाना आरंभ किया। अर्थात् समुद्र भी धरातल हो जाय, तो कुछ दूर चलने को तो मिले। देखिए, कैसे चालाक घोड़े थे ! इस अत्युक्ति का कहीं ठिकाना है । सुनते ही चित्त में यह भाव उदित होता है कि यह सब बनावट है। इसी से मन मुदित नहीं होता।

नल की अयाचकता की प्रशंसा—

स्मरोपतप्तोऽपि भृशं न स प्रभु-
र्विदर्भराजं तनयामयाचत ;
त्यजन्त्यसून् शर्म च मानिनो वरं
त्यजन्ति नस्वेकमयाचितव्रतम् ।

(सर्ग १, श्लोक ५०)
 

भावार्थ—यद्यपि राजा नल को सब सामर्थ्य था तथापि, अत्यंत कामात होने पर भी, उसने राजा भीम से दमयंती को न माँगा। यही चाहिए भी था । मनस्वी पुरुष, सुख की कौन कहे, प्राण तक छोड़ने से नहीं हिचकते; परंतु अपना अयाचित-व्रत कदापि नहीं छोड़ते । वे मर जायँगे, परंतु माँगेंगे नहीं।

इस पद्य में कोई अत्युक्ति नहीं; बात यथार्थ कही गई है। यही कारण है, जो इसको पढ़ते ही हृदय फड़क उठता है और अद्भुत आनंद मिलता है।

नल ने जब हंस को पकड़ लिया, तब उसने नल पर खूब वाग्बाण छोड़े। देखिए—

पदे पदे सन्ति भटा रणोद्भया
न तेषु हिंसारस एष पूर्य्यते ?

धिगीदृशन्ते नृपतेः कुविक्रमं
कृपाशये यः कृपणे पतत्रिणि।

(सर्ग १, श्लोक १३२)
 

भावार्थ—पद-पद पर, सभी कहीं, अनेक रणोन्मत्त सुभट भरे हुए हैं। क्या उनसे तेरी तृप्ति नहीं होती ? उनसे भिड़- कर क्यों नहीं तू अपनी हिंसावृत्ति की पूर्ति करता ? हमारे समान दोन, कृपापात्र पक्षियों के ऊपर तू अपना पराक्रम प्रकट . करता है ? तेरे इस कुविक्रम को धिक्कार है !

फलेन मूलेन च वारिभूरुहां
मुनेरिवेत्थं मम यस्य वृत्तयः;
त्वयाद्य तस्मिन्नपि दण्डधारिणा
कथं न पत्या धरणी हिणीयते ?

(सर्ग १, श्लोक १३३)
 

भावार्थ—मुनियों के सदृश फल-मूलादि से अपनी जीवन- वृत्ति को चरितार्थ करनेवाले मेरे ऊपर भी आज तूने दंड उठाया ! तू पृथ्वी का पति है । तुझे ऐसा नृशंस कर्म करते देख, उस पृथ्वी को भी क्यों नहीं जुगुप्सा उत्पन्न होती?

इस प्रकार नल को लज्जित करके हंस ब्रह्मा का उपालंभ करता है—

मदेकपुत्रा जननी जरातुरा
नवप्रसूतिर्वरटा तपस्विनी;

गतिस्तयोरेष जनस्तमर्द्दय-
अहो विधे ! त्वां करुणा रुणद्धि न ।

(सर्ग १, श्लोक १३५)
 

भावार्थ-मैं अपनी वृद्ध माता का अकेला ही पुत्र हूँ। मेरी स्त्री अभी प्रसूता हुई है; उसकी और भी बुरी दशा है। उन दोनो की एकमात्र गति मैं ही हूँ। हे विधे ! मुझे इस प्रकार पीड़ा पहुँचाते क्या तुझे कुछ भी करुणा नहीं आती ?

यह पद्य अत्यंत सरस है; यह करुण-रस का आकर है। सुनते हैं, वर्तमान सेंधिया-नरेश के किसी पूर्वज ने किसी कर्म- चारी के मुख से इस श्लोक को सुनकर उसे कारागार-मुक्त कर दिया था। उस मनुष्य के कुटुंब की भी वही दशा थी, जो हंस के कुटुंब की थी। वह कुछ रुपया खा गया था और कारागार के भीतर, अपनी शोचनीय स्थिति का स्मरण कर-करके, इसी श्लोक को वारंवार सुस्वर गाता था। सेंधिया ने उसके मुख से अनायास यह पद्य सुनकर उससे इसका अर्थ पूछा और हंस की तथा उसकी दोनो की समता देख, और उसके गाने के लय से प्रसन्न होकर, उसका अपराध क्षमा कर दिया । यही नहीं, उसे खिलत भी दी।

चंद्रमा में जो कालिमा देख पड़ती है, उस पर श्रीहर्षजी

की उत्प्रेक्षा सुनिए—

हृतसारमिवेन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय वेधसा ;
कृतमध्यबिलं विलोक्यते धृतगम्भीरखनीखनीलिम ।

(सर्ग २, श्लोक २५)
 

भावार्थ—जान पड़ता है, दमयंती के मुख की निर्मलता बढ़ाने के लिये ब्रह्मदेव ने चंद्रमंडल को निचोड़कर उसका सार खींच लिया है। इसी से बीच में छिद्र हो जाने से उसके अंतर्गत आकाश की नीलिमा दिखाई देती है।

ऊपर दिए हुए पद्य में श्रीहर्ष को बहुत दूर की सूझी है। यह श्लोक हंस ने, राजा नल से दमयंती के स्वरूप का वर्णन करते समय, कहा है।

दमयंती के वदन-वर्णन का नमूना हो गया। अब नल के मुख-वर्णन का नमूना लीजिए—

निलीयते हीविधुरः स्वजैत्रं
श्रुत्वा विधुस्तस्य मुखं मुखान्नः ।
सूरे, समुद्रस्य कदापि पूरे,
कदाचिभ्रभ्रमभ्रगर्भे ।

(सर्ग ३, श्लोक ३३)
 

भावार्थ-दमयंती से नल की प्रशंसा करते हुए हंस कहता है—अपने मुख को जीतनेवाले नल के मुख का वर्णन हमारे मुख से सुनकर, अत्यंत लज्जित हुआ चंद्रमा, कभी तो सूर्यमंडल में प्रवेश कर जाता है, कभी समुद्र में कूद पड़ता है और कभी मेघमाला के पीछे छिप जाता है। खूब। उत्प्रेक्षा के साथ-ही-साथ शब्दों का घटाटोप भी देखने योग्य है। तीसरे सर्ग में हंस और दमयंती की बातचीत है । जहाँ सहेलियों के साथ दमयंती बैठी थी, वहीं अकस्मात् हंस पहुँच गया । उसको देखकर वे सब चकित हो गई। दमयंती ने हंस को पकड़ना चाहा । वह उसके पीछे-पीछे दौड़ी। जब वह बहुत दूर तक निकल गई और उसकी सहेलियाँ सब पीछे रह गईं, तब हंस ने उससे वार्तालाप करना आरंभ किया। इस पर श्रीहर्ष ने बहुत ही सरस, सरल और ललित श्लोक कहे हैं। शायद इस समय वह 'ग्रंथग्रंथि'-वाली बात भूल गए थे। यहाँ के कई श्लोक हम उद्धृत करते हैं—

रुषा निषिद्धालिजनां यदैनां
छायाद्वितीयां कलयाञ्चकार ।
तदा श्रमाम्भःकणभूषितांगीं
स कीरवन्मानुषवागवादीत् ।

(सर्ग ३, श्लोक १२)
 

भावार्थ—क्रुद्ध होकर (ये हंस को उड़ाए देती हैं, इसलिये) अपनी सहेलियों को आने से जिसने रोक दिया है; छाया के सिवा और कोई जिसके साथ नहीं; दौड़ने के श्रम से जिसके सारे शरीर पर स्वेद-कण शोभा दे रहे हैं—ऐसी दमयंती से हंस शुकवत् मनुष्य की वाणी बोला—

अये ! कियद्यावदुपैषि दूरं?
व्यर्थ परिश्राम्यसि वा किमर्थम् ?

उदेति ते भीरपि किन्नु? बाले !
विलोकयन्स्या न घना वनालीः ।

(सर्ग ३, श्लोक १३)
 

भावार्थ—अये! कहाँ तक तू हमारे पीछे दौड़ेगी ? वृथा क्यों परिश्रम करती है ? तू तो अभी बाला है; इस घने वन को देखकर भी क्या तुझे डर नहीं लगता ?

वृथार्पयन्तीमपथे पदं त्वां
* मरुल्ललत्पल्लवपाणिकम्पैः ;
आलीव पश्य प्रतिषेधतीयं
कपोतहुंकारगिरा वनालिः।

(सर्ग ३, श्लोक १४)
 

भावार्थ—तुझे कुपथ में पैर रखते देख यह वनराजि, वायु से चंचल होनेवाले अपने पल्लवरूपी हाथों तथा कपोतों की हुंकाररूपी वाणी से, देख, तुझे सखी के सदृश रोकती है।


  • राधाविनोद में भी लकार-बाहुल्य से पूरित एक श्लोक है।

देखिए—

कमलिनी मलिनामलिनालिना
विचलता चलतासु लतां शुभाम् ।
विधुतभां विधतां विधमानुमि-
र्नयनयोरनयोर्नयसीनयोः ।५।

यह पद्य ललित तो है, परंतु यमकमय होने से क्लिष्टता-दूषित है। नैषध का पद्द इस दोष से वर्जित है और साथ ही सरस

भी है।

धार्यः कथंकारमहं भवत्या
वियद्विहारी वसुधैकगत्या ?
अहो शिशुत्वं तब खंडितं न
स्मरस्य सख्या वयसाप्यनेन ।

(सर्ग ३, श्लोक १५)
 

भावार्थ—मैं आकाश में उड़नेवाला; तू पृथ्वी पर चलनेवाली। फिर, तू ही कह, तू किस प्रकार मुझे पकड़ सकती है ? यद्यपि तू यौवनावस्था में पदार्पण कर चुकी है, तथापि तेरा लड़कपन, अभी तक, नहीं छूटा । आश्चर्य है !

यह समस्त वर्णन स्वाभाविक है। इसी से इन श्लोकों से अलौकिक आनंद प्राप्त होता है । चौदहवाँ श्लोक बहुत ही ललित है । ऐसे ललित श्लोक नैषध-चरित में कम हैं। श्रीहर्ष- जी को सीधी बात अच्छी ही नहीं लगती। आपने दमयंती को 'अकेली' नहीं कहा; 'छायाद्वितीयां' कहकर नाम-मात्र के लिये उसको एक और साथी भी दे दिया। पंद्रहवें श्लोक को देखकर करीमा में शेखसादी की यह उक्ति—

चेहल साल उमरे अज़ीज़त् गुज़श्त ;
मिज़ाजे तो अज़हाल तिफ़्ली न गश्त ।

स्मरण आती है।

हंस ने दमयंती से नल की अतिशय प्रशंसा की। फिर कहा कि मैंने ब्रह्मदेव से एक बार यह सुना है कि नल ही दमयंती के योग्य वर है । अतएव इस विषय में तुम्हारी क्या सम्मति है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीहर्ष ने दमयंती के मुख से जो श्लोक कहाया है, वह बहुत ही चमत्कार-पूर्ण है। दमयंती कहती है—

मनस्तु यं नोज्झति जातु यातु ;
मनोरथः कण्ठपथं कथं सः;
का नाम बाला द्विजराजपाणि-
ग्रहाभिलाषं कथयेदभिज्ञा ?

(सर्ग ३, श्लोक ५९)
 

भावार्थ—जिस मनोरथ को मन ही नहीं छोड़ता अर्थात् जिसको मैंने हृदय में धारण कर रक्खा है, वह मनोरथ कंठदेश को किस प्रकार जा सकता है ? अर्थात् मन की बात को मैं वाणी का विषय किस प्रकार कर सकती हूँ । कहिए, कौन विवेकवती बाला स्त्री चंद्रमा को हाथ से पकड़ने की अभिलाषा व्यक्त कर सकती है ? अर्थात् हाथ से चंद्रमा को पकड़ लेना जैसे दुस्तर है, वैसे ही मेरे मनोरथ की सिद्धि भी दुस्तर है।

'द्विजराज' चंद्रमा का नाम है । अतएव 'द्विजराजपाणि- ग्रहणाभिलाषम्' इस प्रकार छेद करने से पूर्वोक्त अर्थ निकलता है। परंतु, 'द्विज' और 'राजपाणिग्रहणाभिलाषम्' इस प्रकार पृथक-पृथक् छेद करने से यह अर्थ निकलता है कि हे द्विज ! (पक्षिन्!) जिसे किंचिन्मात्र भी बुद्धि ईश्वर ने दी है, ऐसी कौन बाला स्त्री राजा से पाणिग्रहण होने की अभिलाषा कर सकती है ? अर्थात् इस प्रकार की दुष्प्राप्य अभिलाषा कोई भी कन्या अपने मुख से नहीं व्यक्त कर सकती । यह श्लोक श्लेष-युक्त है। इसमें दमयंती ने श्लेषचातुरी से नल के द्वारा अपने पाणिग्रहण होने की अभिलाषा प्रकट करके उसका दुष्प्राप्यत्व सूचित किया है।

संयोग के अनंतर जब वियोग होता है, तभी वह अधिक दुःसह होता है। यही व्यापक नियम है। परंतु श्रीहर्षजी को विप्रर्लभ-श्रृंगार वर्णन करना था। इस कारण उस नियम की ओर उन्होंने दृक्पात नहीं किया । हंस के मुख से नल का वृत्तांत सुनकर उन्होंने दमयंती का अनुराग इतना बढ़ाया है, जिसका ठिकाना नहीं । नल के गुणों का चिंतन करके, तथा उसके स्वरूपादि की भावना करके, दमयंती को असह्य वेदनाएँ होने लगीं। ऐसी दशा में उसने चंद्रमा और काम का अतिशय उपालंभ किया है । उपालंभ के पहले, दमयंती के ही मुख से उसके विरह की भीषणता का हाल सुनिए—

जनुरधत्त सती स्मरतापिता
हिमवतो न तु तन्महिमाता;
ज्वलति भाबत लिखितः सती-
विरह एव हरस्य न लोचनम् ।

(सर्ग ४, श्लोक ४५)
 

भावार्थ—पूर्व जन्म में शंकर के विरह ही से अत्यंत संतप्त होकर सती ने हिमवान् (बर्फ़ धारण करनेवाले हिमालय) के यहाँ जन्म लिया। उसकी महिमा का विचार करके जन्म नहीं लिया। सती की तो यह दशा हुई; शंकर की उससे भी विशेष । उनके मस्तक पर, जिसे लोग तीसरा नेत्र कहते हैं, वह नेत्र नहीं है, किंतु ब्रह्मदेव का लिखा हुआ सती का प्रज्वलित विरह है।

जो जल जाता है, उसे शीतल वस्तु का आश्रय लेना ही पड़ता है। सतीजी शंकर के वियोग से अत्यंत संतप्त हो रही थीं। इसीलिये, हिममंडित शिखरधारी हिमालय के यहाँ अपनी वियोगाग्नि शीतल करने ही के लिये उन्होंने जन्म लिया— यह भाव ।

दहनजा न पृथुर्दवथुव्यथा
विरहजैव पृथुर्यदि नेदृशम् ।
दहनमाशु विशन्ति कथं स्त्रियः
प्रियमपासुमुपासितुमुद्धराः।

(सर्ग ४, श्लोक ४६)
 

भावार्थ—अग्नि से उत्पन्न हुई दाह-व्यथा कोई व्यथा नहीं कहलाती । वियोगाग्नि से उत्पन्न हुई व्यथा ही उत्कट व्यथा है। यदि ऐसा न होता, तो स्त्रियाँ मृतक पति के साथ, किसी को भी परवा न करके, प्रत्यक्ष अग्नि में क्यों प्रवेश कर जातीं ?

श्रीहर्षजी की कल्पनाएँ देखीं ? कैसे आकाश-पाताल एक कर देती हैं। अब चंद्रोपालंभ सुनिए । इस उपालंभ में श्रीहर्ष ने विष्णु भगवान् तक को याद किया है—

अयि विधुं परिपृच्छ गुरोः कुतः
स्फुटमशिक्ष्यत दाहवदान्यता ?
ग्लपितशम्भुगलाद़रलाचया ?
किमुदधौ जड ! वा वडवानलात् ?

(सर्ग ४, श्लोक ४८)
 

भावार्थ—अयि सखि, तू चंद्रमा से पूछ कि तूने किस गुरु से यह दाहिका विद्या सीखी है ? हे जड़! कालकूट विष पीनेवाले शंकर के कंठ से सीखी है अथवा बड़वानल से सीखी है ?

शंकर के ललाट पर चंद्रमा का वास है और समुद्र से वह निकला है । अतएव कहे हुए दोनो मार्गों से दाहत्व सीखना संभव है।

अयंमयोगिवधूवधपातकै
र्भ्रमिमवाप्य दिवः खलु पात्यते ।
शितिनिशादृषदि स्फुटमुस्पतत्
कणगणाधिकतारकिताम्बरः ।

(सर्ग ४, श्लोक ४६)
 

भावार्थ—इस चंद्रमा ने अनेक निरपराध विरहिणी स्त्रियों को मारकर पाप कमाया है। इसी से फिराकर, अँधेरो- रात्रि-रूप पत्थर के ऊपर आकाश से, यह पटका जाता है। पटकने पर, खंड-खंड हो जाने से, इसके अंग-संभूत कण जो ऊपर को उड़ते हैं, उन्हीं से आकाश तारकित हो जाता है।

लीजिए, कृष्णपक्ष में अधिक तारकाएँ दिखाई देने का कैसा अनोखा कारण श्रीहर्षजी ने ढूँढ़ निकाला है—

स्वमभिधेहि विधं सखि मद़़िरा
किमिदमीद्दगधिक्रियते त्वया;
न गणितं यदि जन्म पयोनिधौ
हरशिरःस्थितिभूरपि विस्मृता ।

(सर्ग ४, श्लोक ५०)
 

भावार्थ—हे सखि, तू मेरी ओर से इस चंद्रमा से कह कि यह तू क्या कर रहा है ? यदि तुझे महासागर से जन्म ग्रहण करने की बात याद नहीं, तो क्या तू महादेवजी के शीश पर अपना रहना भी भूल गया ?

अर्थात् उत्तम कुल में उत्पन्न होनेवाले और शंकर के उत्तमांग में, गंगाजी के निकट, निवास करनेवाले को ऐसा नृशंस कर्म करना उचित नहीं।

निपततापि न मन्दरभूभृता
त्वमुदधौ शशलान्छन चूर्णितः ;
अपि मुनेर्जठरार्चिषि बीर्णता
बत गतोऽसि न पीतपयोनिधेः।

(सर्ग ४, श्लोक ५१)
 
भावार्थ—हे शशलांछन ! जिस समय मंदराचल ने समुद्र

का मंथन किया था, उस समय भी तू चूर्ण न हो गया ! अथवा जब अगस्त्य मुनि ने समुद्र-पान किया था, तब उनके जठराग्नि में भी तू गल न गया !

अब देखिए, श्रीहर्ष ने विष्णु की कैसी खबर ली है—

ऋजुदृशः कथयन्ति पुराविदो-
मधुभिदं किल राहुशिरश्छिदम् ।
विरहिमूर्द्धभिदं निगदन्ति न
क नु शशी यदि तञ्जठरानलः।

(सर्ग ४, श्लोक ६६)
 

भावार्थ—भोले-भाले पुरातत्त्व-वेत्ता ऋषि, विष्णु को राहु- शिरश्छिद्, अर्थात् राहु का सिर काटनेवाला, कहते हैं। यह उनकी महाभूल है । उनको चाहिए कि राहुशिरश्छिद् के स्थान में विरहिमूद्धभिद्, अर्थात् विरही जनों के सिर काटनेवाले, के नाम से विष्णु को पुकारें; क्योंकि, यदि वे राहु का सिर न काट लेते तो, ग्रहण के समय, चंद्रमा उसके उदर में जाकर जठराग्नि में गल गया होता; और यदि वह गल जाता, तो विरहिणी स्त्रियों अथवा पुरुषों की चंद्रसंतापजात मृत्यु न होती।

क्या कहना है ! इससे बढ़ी-चढ़ी कल्पना और क्या हो सकती है !

दमयंती ने काम का भी बहुत उपालंभ किया है; परंतु लेख बढ़ जाने के भय से उस विषय के श्लोक हम नहीं उद्धृत करते।

इस प्रकार बकते-झकते बहुत समय बीत गया । तब दमयंती को उसकी सखी ने समझाना और धैर्य देना आरंभ किया। कुछ देर तक इन दोनो की परस्पर बातें हुईं। अंत में सखी ने कहा—

स्फुटति हारमणौ मदनोष्मणा
हृदयमप्यनलङ्कृतमद्य ते;

भावार्थ—कामाग्नि से दग्ध होकर, हारस्थ मणि के फूट जाने से, देख, तेरा हृदय भी आज अनलंकृत (अलंकार- विहीन) हो गया।

दमयंती ने इसका और ही अर्थ किया । ऊपर श्लोक का पूर्वार्द्ध दिया गया है; नीचे उसी का उत्तरार्द्ध सुनिए । दमयंती ने कहा—

सखि, हतास्मि तदा यदि हृद्यपि
प्रियतमः स मम व्यवधापितः।

(सर्ग ४, श्लोक १०९)
 

भावार्थ—यदि मेरा हृदय भी अनलंकृत (नल-विहीन) हो गया, अर्थात् यदि मेरे हृदय से भी मेरा प्रियतम दूर चला गया, तो फिर मैं मरी!

यह कहकर दमयंती मूच्छित हो गई । 'अनलंकृत' श्लिष्ट पद है । उससे अलंकार-विहीनत्व और नल-विहीनस्व-सूचक दोनो अर्थ निकलते हैं । श्रीहर्षजी की श्लेष-रचना का भी यह अच्छा उदाहरण है।

समालोचकों ने बहुत ठीक कहा है कि पीछे से बने हुए काव्यों में, मुख्य विषय की ओर तो कम, परंतु आनुषंगिक बातों की ओर विशेष ध्यान दिया गया है और उन्हीं का विशेष विस्तार किया गया है । द्वितीय सर्ग में हंस के मुख से एक बार श्रीहर्षजी दमयंती का वर्णन कर चुके हैं ; परंतु उतने से आपकी तृप्ति नहीं हुई । पूरा सप्तम सर्ग-का-सर्ग फिर भी दमयंती के सिर से लेकर पैर तक के वर्णन से भरा हुआ है। यही नहीं, आगे दशम सर्ग में, स्वयंवर के समय भी, इस वर्णन का पिष्ट-पेषण हुआ है। कहाँ तो नल दिक्पालों का संदेश कहने गए थे, कहाँ दमयंती के मंदिर में प्रवेश करके आप उसका रूप वर्णन करने लगे। सो भी एक-दो श्लोकों में नहीं, आपके मुख से सैकड़ों श्लोक कहाए गए हैं । उसमें एक और भी विशे- षता हुई है। श्रीहर्ष ने दमयंती के गुप्त अंगों तक का वर्णन नहीं छोड़ा। यह बात, आज तक, श्रीहर्ष को छोड़कर और किसी महाकवि ने अपने काव्य में नहीं की। आप लिखते हैं—

अंगेन केनापि विजेतुमस्या
गवेष्यते किं चलपत्रपत्रम् ?
न चेद्विशेषादितरच्छदेभ्य-
स्तस्यास्तु कम्पस्तु कुतो भयेन ।

(सर्ग ७, श्लोक ८९)
 
भावार्थ—इस दमयंती का कोई अनिर्वचनीय अंग (अर्थात्

जिसका नाम नहीं लिया जा सकता) क्या पीपल के पत्ते को, उसे जीतने के लिये, ढूँढ़ रहा है ? हमारा तर्क ठीक जान पड़ता है; क्योंकि, यदि ऐसा न होता, तो पीपल के पत्ते को, और वृक्षों के पत्तों से अधिक, किसके भय से इतना कंप छूटता ? अपने से अधिक बलवान् शत्रु जब पीछा करता है, तभी मनुष्य अथवा अन्य जीव भय-वश काँपने लगते हैं— यह भाव ।

पीपल के पत्ते वायु से अधिक हिलते हैं। उनके हिलने पर महाकवि ने यह महाकल्पना सोची है।

दमयंती के सम्मुख जब नल अकस्मात् प्रकट हुआ, तब दमयंती और उसकी सहेलियाँ चकित होकर घबरा गईं। अपने- अपने आसन से वे उठ बैठी और कर्तव्य-विमूढ़ होकर एक दूसरे को ओर देखने लगी कि यह कौन है और कहाँ से अचा- नक इस प्रकार अंतःपुर में चला आया। कुछ देर बाद हृदय को कड़ा करके दमयंती ने स्वयं ही पूछ-पाछ प्रारंभ की—

पुरा परित्यज्य मयात्यसर्जि
स्वमासनं तत्विमिति क्षणन्न ;
अनर्हमप्येतदलङ्क्रियेत
प्रयातुमीहा यदि चान्यतोऽपि ।

(सर्ग ८, श्लोक २३)
 

भावार्थ—आपको देखते ही उठकर मैंने अपना आसन जो आपकी ओर कर दिया, वह यद्यपि आपके योग्य नहीं है, तथापि उसको—आप और ही कहीं जाने की इच्छा भले ही क्यों न रखते हों—क्षण-भर के लिये तो अलंकृत कीजिए।

निवेद्यतां हन्त समापयन्तौ
शिरीषकोषनदिमाभिमानम् ;
पादौ कियदूरमिमौ प्रयासे
निधित्सते तुच्छदयं मनस्ते।

(सर्ग ८, श्लोक २४)
 

भावार्थ—कहिए तो सही, शिरीष की कलियों की कोमलता के भी अभिमान को हरण करनेवाले, अत्यंत कोमल, इस चरणद्वय को आपका नित्य मन और कहाँ तक कष्ट देना चाहता है ? अर्थात् बैठ जाइए।

अनायि देशः कतमस्त्वयाद्य
वसन्तमुक्तस्य दशा वनस्य ;
त्वदास्यसंकेततया कृतार्था
श्रव्यापिनानेन जनेन संज्ञा।

(सर्ग ८, श्लोक २५)
 

भावार्थ—वसंत के चले जाने से वन की जो दशा होती है, अर्थात् वन जैसे शोभा-हीन दशा को पहुँच जाता है, उस दशा में आपने किस देश को परिणत कर दिया (आपका आगमन कहाँ से हुआ, यह भाव)। आप अपने मुख से अपने नाम का संकेत करके उसे कृतार्थ कीजिए ; मैं भी तो उसे सुन लूँ। इसके अनंतर दमयंती ने नल के सौंदर्यादि का एक लंबा- चौड़ा वर्णन नल ही के सम्मुख किया है । दमयंती कहती है—

मही कृतार्था यदि मानवोऽसि
जितं दिवा यद्यमरेषु कोऽपि ;
कुलं स्वयालङ्कृतमौरगन्चे-
बाधोऽपि फस्योपरि नागलोकः ।

(सर्ग ८, श्लोक ४४)
 

भावार्थ—यदि आप मनुष्य हैं, तो पृथ्वी कृतार्थ है ; यदि आप देवता हैं, तो देवलोक धन्य है ; यदि आपने नाग-कुल को अलंकृत किया है तो, नीचे होकर भी, नाग-लाक किसके ऊपर नहीं ? अर्थात् आपके जन्म से वह सर्वोच्च पदवी को पहुँच गया।

इयत्कृतं केन महीजगत्या-
महो महीयः सुकृतं जनेन;
पादौ यमुद्दिश्य तवापि पद्या-
रजःसु पद्मस्रजमारभते ।

(सर्ग ८, श्लोक ४७)
 

भावार्थ—इस महीतल में इतना अधिक पुण्य किसने किया है, जिसके उद्देश से आपके भी पद गलियों की धूल में कमल की-सी माला बिछाते चले जाते हैं।

ब्रवीति में किं किमियं न जाने
सन्देहदोलामवलम्ब्य संवित् ;

कस्यासि धन्यस्य गृहातिथिस्स्व-
मलीकसम्भावनयाथवालम् ।

(सर्ग ८, श्लोक ४८)
 

भावार्थ—संदेह की दोला का अवलंब करके, मैं नहीं जानती, कितने कितने प्रकार की कल्पनाएँ मेरी बुद्धि कर रही है । अच्छा, बहुत हुआ। अब इस प्रकार की संभावनाओं से कोई लाभ नहीं । आप ही कृपा-पूर्वक स्पष्ट कहिए कि किस धन्य के आप अतिथि होने आए हैं।

प्राप्तैव तावत् तव रूपसृष्टं
निपीय दृष्टिजनुषः फलं मे;
अपि श्रुती नामृतमाद्रियेतां
तयोःप्रसादीकुरुषे गिरञ्चेत् ।

(सर्ग ८, श्लोक ४६)
 

भावार्थ—आपके इस अप्रतिम रूप को देखकर मेरी दृष्टि तो अपने जन्म का फल पा चुकी । अब आप ऐसी कृपा कीजिए, जिससे मेरी कर्णेद्रिय भी आपका वचनामृत पान करके कृतार्थ हो जाय।

इस प्रकार नल के प्रति दमयंती के कथन को सुनाकर श्रीहर्ष जी कहते हैं—

इत्थं मधूत्थं रसमुगिरन्ती
तदोष्ठबन्धूकधनुर्विसृष्टा ।

कर्णात्प्रसूनाशुगपञ्चवाणी
वाणीमिषेणास्य मनोविवेश ।

(सर्ग ८, श्लोक ५०)
 

भावार्थ—इस प्रकार शहद के समान मधुर रस बरसाने- वाली दमयंती के ओष्टरूपी बंधूक-पुष्प के धनुष से निकली हुई, पुष्पशायक (काम) की पंचवाणी (पंचबाणावली), वाणी के बहाने, कर्ण द्वारा, नल के हृदय में प्रवेश कर गई । काम-बाणों से नल का अंतःकरण छिद गया-यह भाव ।

यह पद्य बहुत ही सरस है। इसका उत्तर नल ने क्या दिया, सो भी सुन लीजिए—

हरिपतीनां सदसः प्रतीहि
स्वदीयमेवातिथिमागतं माम् ;
वहन्तमन्तर्गुरुणादरेण
प्राणानिव स्वप्रभुवाचकानि ।

(सर्ग ८, श्लोक ५५)
 

भावार्थ—अपने स्वामिवर्ग के संदेश को प्राणों के समान अंतःकरण में बड़े आदर से धारण करके दिक्पाल-देवतों की सभा से मैं तुम्हारा ही अतिथि होने आया हूँ।

विरम्यतां भूतवती सपर्य्या
निविश्यतामासनमुज्झितं किम् ?
या दूतता नः फलिनी विधेया
सैवातिथेयी पृथुरुद्भवित्री।

(सर्ग ८, श्लोक ५६)
 
भावार्थ—बस, रहने दीजिए ; मेरा आदर हो चुका।

बैठिए, आसन क्यों छोड़ दिया ? मैं जिस काम के लिये तुम्हारे पास आया हूँ, उस काम को यदि तुम सफल कर दोगी, तो उसी सफलता को मैं अपना सर्वोत्तम आतिथ्य समझूँगा।

नैषध के नवम सर्ग को कथा बहुत ही मनोहारिणी है। यह सर्ग सब सर्गों की अपेक्षा विशेष रम्य है। नल से दमयंती ने उनका नाम-धाम पूछा था। सो तो उसने बताया नहीं। आप एक लंबी-चौड़ी वक्तता द्वारा देवतों का संदेश घंटों गाते रहे। "वह तुमको अतिशय चाहता है; तुम्हारे विना उसकी यह दशा हो रही है; उसका तुम अवश्य अंगीकार करो"—इत्यादि अनेक बातें नल ने दमयंती से कहीं। इस शिष्टाचार-विघातक व्यवहार को देखकर दमयंती ने नल का बहुत उपालंभ किया और नाम-धाम इत्यादि बताने के लिये पुनः पुनः अनुरोध किया। परंतु नल ने एक न मानी। बहुत कहने पर आपने 'मैं चंद्रवंशांकुर हूँ' इतना ही बतलाया ; अधिक नहीं। नल कहने लगा—"मैं संदेश कहने आया हूँ। संदेश कहनेवाले दूत का काम 'हम', 'तुम' इत्यादि शब्दों से ही चल सकता है; नामादि बतलाने की आवश्यकता नहीं होती।" अपने कुल के विषय में नल ने इतना अवश्य कहा—

यदि स्वभावान्मम नोज्ज्वलं कुलं
ततस्तदुद्भावनमौचिती कुतः;

अथावदातं तदहो विडम्बना
यथातथा प्रेष्यतयोपसेदुषः ।

(सर्ग ९, श्लोक १०)
 

भावार्थ—यदि मेरा कुल प्रशस्त नहीं है, तो बुरी वस्तु का नाम कैसे लूँ ? और यदि है, तो अच्छे कुल में जन्म लेकर इस प्रकार दूतत्व करना मेरी विडंबना है । अतः उस विषय में चुप रहना ही अच्छा है । परंतु किसी तरह, बहुत सोच-संकोच के अनंतर, आपने "हिमांशुवंशस्य करीरमेव मां" कहकर अपने को चंद्रवंशी बतलाया। इतना बतलाकर, पुनर्वार दमयंती के द्वारा जब अपना नाम बतलाने के लिये नल अनुरुद्ध किए गए, तब आप कहने लगे—

महाजनाचारपरम्परेद्दशी
स्वनाम नामाददते न साधवः ;
अतोऽभिधातुं न तदुस्सहे पुन-
र्जनःकिलाचारमुचं विगायति ।

(सर्ग ९, श्लोक १३)
 

भावार्थ—सत्पुरुषों की यह रीति है कि वे अपने मुख से अपना नाम नहीं लेते। इसीलिये मैं भी तुमसे अपना नाम बतलाने का साहस नहीं कर सकता, क्योंकि सदाचार के प्रतिकूल व्यवहार करनेवाले की लोक में निंदा होती है।

इस पर दमयंती ने नल का फिर भी उपालंभ करना प्रारंभ किया । वह कहने लगी—"वाह, कुछ तो आप बतलाते हैं, और कुछ नहीं बतलाते । अच्छी वंचना-चातुरी आपने सीखी है। यदि आप अपना नाम न बतलावेंगे, तो मैं भी आपके प्रश्नों का उत्तर न दूँगी। क्या आप नहीं जानते कि पर-पुरुष के साथ कुल-कन्याओं को इस प्रकार उत्तर-प्रत्युत्तर करते बैठना उचित नहीं है ?"

यह सुनकर नल बहुत घबराया और कहने लगा—'मुझको धिक्कार है कि मैं दूतस्त्र का भी काम अच्छे प्रकार नहीं कर सकता । शीघ्रता के काम में इतनी देरी मैं कर रहा हूँ ! हे दमयंति ! तुझको उचित है कि अपनी इस मधुर वाणी का प्रयोग, जो मेरे साथ वृथा वार्तालाप में कर रही है, देवतों के संदेश का उत्तर देने में करके उनको कृतार्थ कर । क्योंकि—

यथा यथेह स्वदपेक्षयानया
निमेषमप्येष जनो विलम्बते;
रुषा शरव्यीकरणे दिवौकसां ।
तथा तथाद्य स्वरते रतः पतिः।

(सर्ग ९, श्लोक २०)
 

भावार्थ—जैसे-जैसे मैं यहाँ इस प्रकार तुम्हारे उत्तर की अपेक्षा में पल-पल को देरी कर रहा हूँ, वैसे-ही-वेसे रतिनायक देवतों को अपने बाण का निशाना बनाने के लिये शीघ्रता कर रहा है।" इस तरह नल का हठ देखकर दमयंती ने

उत्तर दिया—

वृथा परीहास इति प्रगल्भता
न नेति च स्वादशि वाग्विगर्हणा;
भवत्यवज्ञा च भवत्यनुत्तरा-
दतः प्रदित्सुः प्रतिवाचमस्मि ते ।

(सर्ग ९, श्लोक २५)
 

भावार्थ—वृथा परिहास करते बैठना प्रगल्भता है; आपके सदृश महात्मा जनों से 'न-न' कहते रहना वाणी की विगर्हणा है; न बोलने से अवज्ञा होती है; अतएव उत्तर देने को मैं विवश हूँ।

उत्तर में दमयंती ने अपने साथ विवाह करने की इच्छा रखनेवाले देवतों को बहुत धन्यवाद देकर यह कहा कि मैं नल की हो चुकी हूँ। अतएव अब मेरी प्राप्ति के विषय में देवतों का प्रयत्न व्यर्थ है। दमयंती ने यहाँ तक कहा कि—

अपि दृढीयः शृणु मे प्रतिश्रुतं
स पीडयेत्पाणिमिमं न चेन्नृपः ।
हुताशनोद्वन्धनवारिवारिस
निजायुषस्तस्करवै स्ववैरिताम्।

(सर्ग ९, श्लोक ४५)
 

भावार्थ—मैं अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा आपसे कहती हूँ। यदि वह नरेश्वर नल मेरा कर-ग्रहण न करेगा, तो मैं अग्नि में प्रवेश करके, जल में डूबकर, अथवा गले में फाँसी लगाकर अपने इस दुष्ट आयुष्य के वैर से मुक्त हो जाऊँगी। स्मरण रहे, दमयंती यह सब नल ही से कह रही है। इस कथन में यह सबसे बड़ी विशेषता है।

प्रतिज्ञा के अनंतर दमयंती ने नल की प्राप्ति के विषय में अतीव औरसुक्य और अतीव अधैर्य प्रकट किया। उसने कहा—

"स्वयंवर होने में एक ही दिन शेष है। परंतु मेरे प्राणों का अंत इस एक दिन के अंत होने के पहले ही होना चाहता है । अतएव मेरे ऊपर दया करके आप एक दिन यहीं ठहर जाइए, जिससे आपको देख-देखकर किसी प्रकार मैं यह एक दिन काटने में समर्थ हो जाऊँ । मैं आपको इसलिये ठहराना चाहती हूँ कि उस हंस ने अपने पद के नखों से पृथ्वी पर मेरे प्रियतम का जो चित्र खींचा था, वह आपसे बहुत कुछ मिलता है। अतएव जब तक मुझे मेरे प्रियतम के दर्शन नहीं होते, तब तक उसके सदृश आपको देखकर ही किसी तरह मैं अपने प्राण रखना चाहती हूँ।"

इस अलौकिक अनुराग को देख और इस सुदृढ़ प्रतिज्ञा को सुनकर भी, दूतत्व धर्म से अणु-मात्र भी विचलित न होकर, नल अपनी ही गाते रहे और बार-बार यही सिद्ध करते गए कि मनुष्य को छोड़ देवतों से ही संबंध करने में तुम्हारी भलाई है। जब दमयंती ने किसी प्रकार उनके उपदेश को न माना, तब आपने उसे बिभीषिका दिखाना प्रारंभ किया। नल ने कहा कि यदि वरुण और अग्नि तुम्हारे विरुद्ध हो जायँगे, तो जल और अग्नि के विना तुम्हारा पिता कन्यादान ही न कर सकेगा । यदि यम विरुद्ध हो जायगा, तो तुम्हारे अथवा वर के पक्ष का कोई- न-कोई मनुष्य वह मार डालेगा। अतएव सूतक हो जाने से नल के साथ तुम्हारा विवाह न हो सकेगा। इंद्र यदि कल्पवृक्ष से तुमको माँग लेगा, तो उसके पास तुम्हें अवश्य ही जाना पड़ेगा । अतएव—

इदं महत्तेऽभिहितं हितं मया
विहाय मोहं दमयन्ति ! चिन्तय ;
सुरेषु विघ्नैकपरेषु को नरः
करस्थमप्यर्थमवाप्तुमीश्वरः ।

(सर्ग ९, श्लोक ८३)
 

अर्थात्—हे दमयंति ! मैंने जो कुछ तुमसे कहा, तुम्हारे ही हित के लिये कहा । मूर्खता को छोड़कर कुछ तो मन में विचार कर । यदि देवता ही विघ्न करने पर उद्यत हो जायँगे, तो किसका सामर्थ्य है कि हथेली पर रक्खी हुई वस्तु को भी वह हाथ लगा सके ?

ये सब बातें दमयंती के चित्त में जम गईं । उसने यथार्थ ही समझ लिया कि अब मैं किसी प्रकार नल को नहीं प्राप्त कर सकती। इस तरह हताश हो जाने के कारण वह अत्यंत विह्वल होकर विलाप करने लगी। दमयंती को यह विलाप इतना कारुणिक है कि जिसमें कुछ भी सहृदयता है, वह उसे पढ़कर साश्रु हुए विना कदापि नहीं रह सकता ।

आँसू गिराते हुए दमयंती कहती है—

स्वरस्व पञ्चेषु हुताशनात्मन-
स्तनुष्व मनस्मचयं यशश्चयम् ।
विधे ! परेहाफलभक्षणव्रती
पताद्य तृप्यासुभिर्ममाफलैः ।

(सर्ग ९, श्लोक ८८)
 

भावार्थ—हे कामाग्ने ! तू शीघ्र ही मेरे शरीर को भस्म करके अपने यशःसमूह का विस्तार कर । हे विधाता ! दूसरे की कामना भंग करना ही तेरा कुलव्रत है ! तू भी मेरे इन दुष्ट प्राणों से तृप्त होकर पतित हो जा!

भृशं वियोगानखताप्यमान ! कि
विलीयसे न स्वमयोमयं यदि ;
स्मरेषुभिर्भेय ! न वज्रमप्यसि
ब्रवीषि न स्वान्त ! कथं न दीरय्यसे ?

(सर्ग ९ श्लोक ८९)
 

भावार्थ—हे अंतःकरण ! वियोगरूपी ज्वाला से प्रज्वलित होकर भी तू क्यों नहीं विलय को प्राप्त होता ? यदि तू लोहे का है, तो भी तो तप्त होने से तुझे गल जाना चाहिए ! यदि यह कहूँ कि त लोहे का नहीं, किंतु वज्र का है, इससे नहीं गलता, तो तू काम-बाणों स विध रहा है। अतएव तू वन का भी नहीं । फिर तू ही कह, तू किस वस्तु से बना है ? क्यों

नहीं तू विदीर्ण हो जाता ?

विखम्बसे जीवित ! किं, द्रव द्रुतं
ज्वलत्यवस्ते हृदयं निकेतनम् *
जहासि नाद्यापि मृषासुखासिका-
मपूर्वमानस्यमहो तवेद्दशम् ।

(सर्ग ९, श्लोक ९०)
 

भावार्थ—हे जीवित ! तू देरी क्यों कर रहा है ? क्यों नहीं झटपट निकल खड़ा होता ? क्या तुझको सूझ नहीं पड़ता कि तेरा घर, अर्थात् मेरा हृदय, जहाँ तू बैठा है, जल रहा है ? तेरा आलस्य देखकर आश्चर्य होता है । क्या अब तक तुझको सुख की आशा बनी हुई है ? जब घर में आग लगती है, तब उसमें कोई नहीं रहता; शीघ्र ही बाहर निकल आता है— यह भाव।


  • जान पड़ता है कि फारसी के कवि ग़ाफ़िज के समान दमयंती

को भी यह ज्ञान न था कि इसी हृदय में मेरे प्रियतम का वास है। यदि ऐसा न होता, तो वह उसे जलने क्यों देती ? ग़ाफ़िल ने कहा है—

दिन रा अबस बरकत जानाना सोख्तेम;
ग़ाफ़िल कि ऊ बखाना व माः खाना सोख़्तेम।

अर्थात्प्रि—प्रियतम के वियोग में हमने अपने हृदय को वृथा जलाया। हम यह न जानते थे कि इसी हृदयरूपी घर में उसका निवास है। हा ! जिस घर में वह था, उसी को हमने जला दिया?

कवि का आशय यहाँ ईश्वर से है, तथापि किसी भी प्रेमी के

विषय में ऐसी उक्ति घटित हो सकती है।

अमूनि गच्छन्ति युगानि न क्षणः
कियत्सहिष्ये न हि मृत्युरस्ति मे ;
स मां न कान्तः स्फुटमन्तरुज्झिता
न तं मनस्तच न कायवायवः ।

(सर्ग ९, श्लोक ९४)
 

भावार्थ—इस समय मेरा एक-एक क्षण एक-एक युग के समान जा रहा है। कहाँ तक सहन करूँ ! मुझे मत्यु भी नहीं आती। मेरा प्रियतम मेरे अंतःकरण को नहीं छोड़ता, और मेरा प्राण मेरे मन को नहीं छोड़ता। हाय-हाय ! अपार दुःख परंपरा है !

कथावशेषं तव सा कृते गते-
त्यपैयति श्रोत्रपथं कथं न ते?
बयाणुना मां समनुग्रहीष्यसे
तदापि तावदि नाथ ! नाधुना ।

(सर्ग ९, श्लोक ९९ )
 

भावार्थ—हे प्रियतम ! तुम्हारे लिये दमयंती कथावशेष हो गई—पंचत्व को प्राप्त हो गई—यह तुम पीछे से क्या न सुनोगे ? जरूर सुनोगे। अतः हे नाथ ! यदि इस समय मुझ पर तुमको दया नहीं आती, तो उस अमंगल संवाद को सुनने पर तो अपनी दया के दो-एक कणों से मुझे अनुगृहीत करना। अर्थात् मेरे मरने पर भी मेरा स्मरण यदि तुमको आ जायगा,

तो भी मुझ पर तुम्हारा महान् अनुग्रह होगा।

ममादरीदं विदरी तुमान्तरं
तदर्थिकल्पद्रुम ! किञ्चिदर्थये;
मिदां हृदि द्वारमवाप्य मैव मे
हतासुभिः प्राणसमः समं गमः ।

(सर्ग ९, श्लोक १००)
 

भावार्थ—हे अथिकल्पद्रुम ! अब मेरा हृदय विदीर्ण होने ही चाहता है । इससे मैं तुमसे कुछ माँगती हूँ । हे प्राणसम ! मेरा हृदय फटने से दरार रूपो जो द्वार हो जायगा, उस द्वार से, मेरे पापी प्राणों के साथ, मेरे हृदय से कहीं तुम न चले जाना! बस, यही मेरी याचना है।

दमयंती का यह कहना नल के ऊपर वजाघात-सा हुआ। क्या ही अपूर्व कवित्व है ! याचकों के कल्पद्रुम से उसको प्रियतमा की यह याचना! इतनी तुच्छ ! याचना क्या कि प्राण चले जाय , परंतु तुम न जाओ। क्योंकि, तुम्हारे रहने से, वासना के बल, मैं अन्य जन्म में तुमको प्राप्त करने को अद्यापि आशा रखती हूँ। दमयंती का यहो आशय जान पड़ता है । इस पाषाण-द्रावक विलाप और इस महाप्रेमशालिनी याचना को सुनकर नल अपना दूतत्व भूल गए । उनका सारा ज्ञान जाता रहा । वह इस प्रकार प्रलाप करने लगे—

अवि प्रिये ! कस्य कृते विलप्यते ?
विलिप्यते हा मुखमश्रुविन्दुभिः ।

पुरस्त्वयालोकि नमञ्चयन कि
तिरश्चललोचनलीलया नलः ?

(सर्ग ९, श्लोक १०३)
 

भावार्थ—हे प्रिये ! किसके लिये तू इतना विलाप कर रही है ? हाय-हाय ! क्यों तू अश्रुओं से अपने मुख को भिगो रही है ? यह नल, तेरे सम्मुख हो तो, तिर्यक दृष्टि किए हुए नम्रता-पूर्वक खड़ा है । क्या तूने उसे नहीं देखा?

मम स्वदच्छामिनखामृतद्युतेः
किरीटमाणिक्यमयूखमञ्जरी।
उपासनामस्य करोतु रोहिणी
त्यज त्यनाकारणरोषणे ! रुषम् ।

(सर्ग ९, श्लोक १०७)
 

भावार्थ—मेरी किरीट-मणि-मयूख-रूपी रोहिणी तेरे स्वच्छ पद-नख-रूपी चंद्रमा की उपासना करने के लिये प्रस्तुत है। अर्थात् मैं अपना सिर तेरे पैरों पर रखता हूँ। हे अकारण- कोपने ! कोप न कर, कोप न कर !

रोहिणी चंद्रमा की प्रिया है । अतएव उसके द्वारा चंद्रमा की उपासना होनी ही उचित है—यह इस श्लोक का तात्पर्य है।

प्रभुत्वभूनानुगृहाण वा न वा
प्रणाममानाधिगमेऽपि क: अमः !

क याचतां कल्पलतासि मां प्रति
क दृष्टिदाने तव बद्धमुष्टिता ।

(सर्ग ९, श्लोक १०९)
 

भावार्थ—मेरा और अधिक गौरव कर अथवा न कर; इस विषय में मैं कुछ नहीं कहता; परंतु मेरे प्रणाम-मात्र का अंगीकार करने में कौनं बड़ा परिश्रम है ? याचकों के लिये तो तू कल्पलता हो रही है; परंतु मेरे लिये इतनी बद्धमुष्टिता कि दृष्टि-दान तक नहीं देती—एक बार मेरी ओर देखती भी नहीं !

समापय प्रावृषमश्रुविप्रुषां
स्मितेन विवाश्रय कौमुदीमुदः;
दृशावितः खेलतु खञ्जनद्वयी
विकाशि पंकेरुहमस्तु ते मुखम् ।

(सर्ग ९, श्लोक ११२)
 

भावार्थ—अश्रु बरसाना बंद कर; मंद मुसकान से चंद्र की भी चंद्रिका को प्रसन्न कर; नेत्र-रूपी खंजनयुग्म को देखने दे; कमल के समान मुख को प्रफुल्लित कर ।

गिरानुकम्पस्व दयस्व चुम्बनैः
प्रसीद शुश्रूषयितुं मया कुचौ ;
निशेव चान्द्रस्य करोस्करस्य य-
मम स्वमेकासि नलस्य जीवितम् ।

(सर्ग ९, श्लोक ११९)
 
भावार्थ—कृपा करके बोल; दया करके चंबन-दान दे;

प्रसन्न होकर अपने शरीर को स्पर्श करने दे; क्योंकि चंद्रमा के किरण-समूह की अवलंबभूता निशा के समान, मुझ नल की एक-मात्र तू ही प्राणाधार है।

इस प्रकार प्रलाप करने के अनंतर जब प्रबोध हुआ, तब नल ने अत्यंत पश्चात्ताप किया । लोग मुझे क्या कहेंगे ? सुरेंद्रादि देवता अपने मन में क्या समझेंगे ? इस प्रकार तर्क- वितर्क करके नल ने बहुत विषाद किया। इस अवसर की एक उक्ति नल के मुख से सुनिए—

स्फुटत्यद: किं हृदयं त्रपाभगद्
यदस्य शुद्धैविबुधैर्विबुध्यताम् ।
विदन्तु ते तस्वमिवन्तु दन्तुरं
जनानने का करमर्पयिष्यति ?

(सर्ग ९, श्लोक १२४)
 

भावार्थ—मेरा हृदय लज्जा से फट क्यों नहीं जाता ? यदि यह फट जाता, तो शुद्ध हृदय देवतों को इसकी शुद्धता तो विदित हो जाती । देवतों को मेरे हृदय की शुद्धता विदित हो, अथवा न हो, परंतु नाना प्रकार की अपवाद-सूचक बातें करनेवाले लागों के मुख पर कौन हाथ धरेगा ? यही महा- दुःख है !

नल ने किस युक्ति और किस दृढ़ता से देवतों का काम किया, सो लिखा ही जा चुका है। तिस पर भी ऐसे-ऐसे उद्गार! नल को धर्म-भीरुता का यह बड़ा हो जाज्वल्यमान प्रमाण है।

जिस समय नल के मन में नाना प्रकार की विषम कल्पनाएँ उत्पन्न हो रही और उसे विकल कर रही थीं, उसी समय उस हिरण्मय हंस ने अकस्मात् आकर आश्वासन-पूर्वक यह कहा कि इतना व्यथित होने की कोई बात नहीं। देवता तुम्हारी शुद्धता को अच्छी तरह जान गए हैं। इतना कहकर हंस वहाँ से उड़ गया । हस के जाने पर नल ने दमयंती से बहुत कुछ कहा, परंतु जो दमयंती पहले इतनी प्रगल्भता कर चुकी थी, उसके मुख से, नल की पहचान होने के अनंतर, एक शब्द तक भी न निकला। श्रीहर्षजी कहते हैं—

विदर्भराजप्रभवा ततः परं
त्रपासखी वक्तुमलं न सा नलम् ।
पुरस्तमूचेऽभिमुखं यदत्रपा
ममज्ज तेनैव महाहदे हियः।

(सर्ग ९, श्लोक १४०)
 

भावार्थ—इतना होने पर दमयंती लज्जा से इतनी अभिभूत हो गई कि नल को एक भी बात का वह उत्तर न दे सकी। पहले उसने नल के अभिमुख विशेष प्रौढ़ता के साथ बातचीत की थी। इसीलिये उसे अब इस समय लज्जा के समुद्र में निमग्न होना पड़ा।

इसी के आगे यह श्लोक है—

पदापवाय्यापि न दातुमुत्तरं
शशाक सख्याः श्रवसि प्रियाय सा;
विहस्य सख्येव तमब्रवीत्तदा
हियाधुना मौनधना भवस्प्रिया।

(सर्ग ९, श्लोक १४१)
 

भावार्थ—एकांत में भी जब दमयंती अपनी सखी के कान में भी नल के प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ न हुई, तब सखी ही ने मंदहास्य-पूर्वक नल से कहा—'आपकी प्रियतमा लज्जापरवशा होने के कारण मौन हो रही है।" इसके न बोलने का कारण विराग नहीं, यह भाव ।

तदनंतर सखी ने नल से दमयंती के अनुराग और विरह-व्यथादि का वर्णन खूब ही नमक-मिर्च लगाकर किया ।

यह निबंध बहुत बढ़ गया। अतएव दो ही चार और श्लोक उद्धृत करके हम इसको समाप्त करना चाहते हैं। नीचे के पद्य में श्रीहर्षजी की कल्पना का 'द्राविड़ो प्राणायाम' देखने योग्य है। स्वयंवर में आए हुए एक राजा के विषय में यह कहना है कि इसमें अकीर्ति का लेश भी नहीं है। परंतु इस बात को श्रीहर्षजी सीधे तौर पर न कहकर इस प्रकार कहते हैं—

अस्य क्षेणिपतेः परार्द्धपरया बक्षीकृताः संख्यया
प्रज्ञाचक्षुरवेदयमाणतिमिरप्रख्याः किलाकीर्तयः ।

गीयन्ते स्वरमष्टमं कलयता जातेन बन्ध्योदरा-
न्मूकानां प्रकरण कूर्मरमणीदुग्धोदधे रोधसि ।

(सर्ग १२, श्लोक १०६)
 

भावार्थ—परार्द्ध के पार की संख्या से लक्षीकृत और जन्मांधों से दृश्यमाण तिमिर के स्वरूपवाली, इस राजा की अकीर्तियाँ, कच्छपी के दुग्ध से उत्पन्न हुए समुद्र के तट पर, बंध्या के उदर से उत्पन्न मूकों के समूह द्वारा, अष्टम स्वर में, गाई जाती हैं । अर्थात् जैसे इन सब वर्णित वस्तुओं का अभाव है, वैसे ही इस राजा को अकीर्तियों का भी अभाव समझना चाहिए । इस नरेश में अकीर्तिलेश भी आकाशकुसुमवत् है— यह भाव।

श्लेषमयी 'पंचनली' का उल्लेख हम ऊपर कर आए हैं। उसका अंतिम श्लिष्ट श्लोक यह है—

देवः पतिविदुषि ! नैषधराजगत्या
निर्णीयते न किमु न वियते भवत्या ?
नायं नलः खलु तवातिमहा नलाभो
यद्येनमुञ्झसि वरः कतरः पुनस्ते ?

(सर्ग १३, श्लोक ३३)
 

नल के सम्मुख दमयंती खड़ी है। इस श्लोक में नल और देवता दोनो का अर्थ व्यंजित करके, सरस्वती उसे मोह में डाल रही है। देवार्थ कैसे निकलता है, सो पहले देखिए—

अन्वय—(हे) विदुषि ! एषः धराजगत्याः पतिः न, (किंतु) देवः । भवस्या न निर्णीयते किमु ? न व्रियते (किमु) ? अयं तव नलः न खलु, (किंतु) अति महान- लाभः । यदि एनम् उञ्झासि, पुनः ते वरः कतरः ?

भावार्थ—हे विदुषि ! यह पृथ्वी का पति नहीं है; यह देवता है। क्या तू इसको वरणमाल्य पहनाने की इच्छा नहीं रखती ? सच कहती हूँ, यह तेरा नल नहीं है, किंतु नल को आभा मात्र है। यदि तू इसे छोड़ देगी, तो फिर और कौन तेरा वर होगा?

यह तो देव-पक्ष का अर्थ हुआ। अब नल-पक्ष का अर्थ सुनिए—

अन्वय—(हे) विदुषि ! एषः देवः नैषधराजगस्या पतिः न निर्णीयते किमु ? न व्रियते (किमु) ? अयं ना+ नलः खलु; यदि एनम् उञ्झति, तब अति महान् अलाभः पुनः ते वरः कतरः ?

भावार्थ—हे विदुषि ! (पंडिते!) नैषधराज के वेश में अपने पति इस राजा को क्या तू नहीं पहचानती और क्या तू इसको वरणमाल्य पहनाने की इच्छा नहीं रखती ? यदि तू इसे छोड़ देगी, तो तेरी भारी हानि होगी; फिर और कौन तेरा वर होगा?

श्रीहर्षजी की 'पंचनली' के श्लिष्ट कवित्व का यह नमूना


•देवः = राजा । +ना=पुरुषः । हुआ। त्रयोदश सर्ग में इसी तरह अपूर्व कौशल से उन्होंने प्रायः प्रत्येक श्लोक में बराबर दो-दो अर्थ संश्लिष्ट किए हैं।

श्रीहर्ष के श्लेषवैलक्षण्य का एक और उदाहरण देखिए । इस पद्य को पढ़कर बड़ी हँसी आती है । कवि ने इसमें चंद्रमा की नाक और कान काटकर, शूर्पणखा के मुग्व से उसकी तुलना की है। बाईसवें सर्ग में, संध्या-समय, दमयंती को संबोधन करके नल चंद्रमा का वर्णन करता है—

अकर्णनासस्त्रपते मुखं ते
पश्यन्न सीतास्यमिवाभिरामम् ;
रक्तोस्त्रवर्षी बत लचमणाभि-
भूर्तः शशी शूर्पणखामुखाम्: ।

(सर्ग २२, श्लोक ५१)
 

भावार्थ—कर्ण और नासा-रहित, लाल-लाल किरणों की वर्षा करनेवाला, कलंक से अभिभूत हुआ, शूर्पणखा के समान, यह चंद्रमा—सर्व अवयव-संयुत, सीता के मुख-सदृश सुंदर, तेरे इस मुख को देख करके भी लज्जित नहीं होता ! अर्थात् लज्जा से मुख न छिपाकर पुनः-पुनः आकाश में उदित होता है। यह आश्चर्य की बात है या नहीं ? इसे तो डूब मरना चाहिए था!

चंद्रमा और शूर्पणखा के मुख में समता किस प्रकार है, सो सुनिए । शूर्पणखा के नाक और कान काट लिए जाने के कारण उसका मुख नासा-कर्ण-हीन हो गया था। चंद्रबिंब में स्वभाव ही से नासा और कर्ण नहीं । अतएव दोनो ही 'अकर्णनास' हुए । नाक-कान कट जाने से शूर्पणखा के मुख से रक्त की धारा बहने लगी थी । चंद्रमंडल से रक्त के रंग की अरुण किरण रूपी धारा बहती है । अतएव दोनो हो 'रक्तोस्रवर्षी' हुए। शूर्पणखा का मुख लक्ष्मणजी के द्वारा अभिभूत हुआ था। चंद्रमा भी 'लक्ष्मणा कलंकेन' अर्थात् कलकवाची लक्ष्म के द्वारा अभिभूत हो रहा है। अतएव दोनो ही 'लक्ष्मणाभिभून' हुए । शूर्पणखा के मुख को 'अभिरामं सीतास्य' अर्थात् रामचद्र के सम्मुख स्थित भो सीता के मुख को देखकर लज्जा न आई थी । यहाँ चंद्रमा को भी 'अभिरामं सीतास्यमिव' अर्थात् अति सौंदर्यवान् सीता के मुख-सदृश दमयंती के मुख का देख कर लज्जा नहीं आती। इस प्रकार शब्दच्छल से दानो में समता दिखा दी गई । देखिए तो सही, कैसे योग्यता-पूर्ण श्लिष्ट पद रखकर और चंद्रमा की नाक तथा कान काटकर, शूर्पणखा के मुख की तुल्यता उसमें उत्पन्न की गई है ! कवे धन्योऽसि ।

दमयंती के पााण-ग्रहण के समय के दो श्लोक सुनिए । कही-कही यह आचार है कि कन्यादान के समय वधू और वर दानो क हाथ कुश से बाँध दिए जाते हैं। इस बाँधने पर उत्प्रेक्षा—

वरस्य पाणिः परघातकौतुकी
वधूकरः पकजकान्तितस्करः !

सुराज्ञि तौ तन्त्र विदर्भमण्डले
ततो निबद्धौ किमु कर्कशैः कुशैः ?

(सर्ग १६, श्लोक १३)
 

भावार्थ—वर के हाथ ने परघात करना कौतुक समझा है, और वधू के हाथ ने कमल की कांति चुराई है। क्या इसीलिये वधू और वर दोनो के हाथ कर्कश कुशों से बाँधे गए हैं ? विदर्भ-मंडल में सुराज्य है, अर्थात् विदर्भाधिप धर्मा- नुसार प्रजा-पालन करते हैं। अतएव उनके देश में चोर और पर-प्राण-नाशक लोगों के अवश्य ही हथकड़ी पड़नी चाहिए!

'पर' का अर्थ 'और' भी है, तथा 'शत्रु' भी है । नल के लिये 'पर' से 'शत्रु' का अर्थ-ग्रहण करके पर-हिंसाजात अनिष्टापत्ति का वारण करना चाहिए । शत्रुओं को मारना राजों का धर्म ही है। इस कारण उस अर्थ से कोई हानि नहीं । तथापि, वर के हाथ में कुशबंधन-रूपी हथकड़ी डालने के समर्थनार्थ, शब्दच्छल से, 'पर' का अर्थ 'और' भी लेना पड़ता है। तात्पर्य यह कि पहले तो श्लेषमूलक विरोध का आभास बोध होता है, फिर उसका परिहार हो जाता है।

ऊपर दिए गए श्लोक के आगे, दूसरे श्लोक में, श्रीहर्षजी ने कैसा विनोद किया है, सो देखिए—

विदर्भजायाः करवारिजेन य-
अलस्य पाणेरुपरि स्थितं किल ।

विशंक्य सूत्रं पुरुषायितस्य तद्
भविष्यतोऽस्मायि तदा तदालिमिः।

(सर्ग १६, श्लोक १५)
 

भावार्थ—कन्यादान के समय दमयंती के कर-कमल को नल के कर के ऊपर देख—आगे होनेवाले पुरुषायित का अभी से सूत्रपात हुआ—इस प्रकार मन में तर्क करके दमयंती की सहेलियाँ मुस्काने लगी।

और-और द्वीपों के स्वामियों, देवतों तथा वासुकि आदि नागों का वर्णन करके, दमयंती को साथ लिए हुए, भरतखंड के राजवर्ग के सम्मुख आकर सरस्वती कहती है—

देव्याभ्यधायि भव भीरु ! घृतावधाना
भूमीभुजस्त्यात भीमभुवो निरीक्षाम् ।
आलोकितामपि पुनः पिबतां दृशैता-
मिच्छापि गच्छति न वत्सरकोटिभिर्वः ।

(सर्ग ११, श्लोक २४)
 

भावार्थ—हे भीरु ! (दमयंति !) सावधान होकर श्रवण कर । हे राजवर्ग ! आप लोग भी अब दमयंती की ओर देखना बंद कीजिए । क्योंकि करोड़ों वर्ष पर्यंत बार-बार देख- करके भी, इस लावण्य को नेत्र द्वारा यदि आप पान करते रहेंगे, तो भी आपकी कदापि तृप्ति न होगी।

जिस प्रकार दमयंती को पुनः पुनः अवलोकन करके फिर भी उसकी ओर देखने की इच्छा राजा लोगों की बनी ही रही, उसी प्रकार नैषध में क्लिष्टता और अस्वाभाविकता आदि दोष होने पर भी जो अनेक अद्भुत-अद्भुत श्लोक हैं, उनको उद्धृत करने की हमारी इच्छा बनी ही है । तथापि यह लेख बहुत बढ़ गया। अतएव, विवश होकर, उस इच्छा को पूर्ण सफल करने से हमें विरत होना पड़ता है।

यह काव्य शृंगार-रस-प्रधान है । अतएव उस रस के अनुकूल एक आशीर्वादात्मक पद्य नैषध से उद्धृत करके इस निबंध को हम समाप्त करते हैं । ऊपर जा श्लोक दिया गया है, उसी के आगे स्वयंवरस्थ राजा लोगों को संबोधन करके सरस्वती कहती है—

लोकेशकेशवशिवानपि यश्चकार
शृंगारसान्तरभृशान्तरशान्तभावान् ।
पञ्चेन्द्रियाणि जगतामिषुपम्चकेन
संक्षोभयन् वितनुतां वितनुर्मुदं वः ।

(सर्ग ११, श्लोक २५)
 

भावार्थ—ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि के भी शांतभाव को जिसने श्रृंगारिक भावों से जजर कर दिया है ; और अपने पाँवो बाणों से जिसने सांसारिक जनों को पाँचो इंद्रियों को क्षुब्ध किया है—ऐसा वह भगवान पंचशायक आपको प्रमुदित करे !

ऊपर कई एक सानुप्रास पद्य उद्धृत हो चुके हैं । इस श्लोक से भी श्रीहर्षजी के अनुप्रास-कौशल की छटा झलक रही है।

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