कामायनी
जयशंकर प्रसाद
निर्वेद

पृष्ठ ९९ से – १०८ तक

 

वह सारस्वत नगर पड़ा था क्षुब्ध, मलिन, कुछ मौन बना ,
जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना।
उल्का धारी प्रहरी से ग्रह—तारा नभ में टहल रहे ,
वसुधा पर यह होता क्या है अणु अणु क्यों हैं मचल रहे ?

जीवन में जागरण सत्य है या सुषुप्ति ही सीमा है ,
आती है रह-रह पुकार सी 'यह भव-रजनी भीमा है ।'
निशिचारी भीषण विचार के पंख भर रहे सरटेि ,
सरस्वती थी चली जा रही खींच रही-सी सन्नाटे ।

अभी घायलों की सिसका में जाग रही थी मर्म-व्यथा,
पुर-लक्ष्मी खगरव के मिस कुछ कह उठती थी करुण-कथा।
कुछ प्रकाश धूमिल-सा उसके दीपों से था निकल रहा ,
पवन चल रहा था रुक-रुक कर खिन्न, भरा अवसाद रहा।

भयमय मौन निरीक्षक-सा या सजग सतत चुपचाप खड़ा,
अंधकार का नील आवरण दृश्य-जगत से रहा बड़ा।
मंडप के सोपान पड़े थे सूने, कोई अन्य नहीं ,
स्वयं इड़ा उस पर बैठी थी अग्निशिखा सी धधक रही।

शून्य राज-चिह्नों से मंदिर बस समाधि-सा रहा खड़ा ,
क्योंकि वहीं घायल शरीर वह मनु का तो था रहा पड़ा।

इड़ा ग्लानि से भरी हुई बस सोच रही बीती बातें ,
घृणा और ममता में ऐसी बीत चुकीं कितनी रातें ।

नारी का वह हृदय ! हृदय में--सुधा-सिंधु लहरें लेता ,
बाड़व-ज्वलन उसी में जलकर कंचन सा जल रंग देता ।
मधु-पिंगल उस तरल-अग्नि में शीतलता संसृति रचती,
क्षमा और प्रतिशोध ! आह रे दोनों की माया नचती ।

"उसने स्नेह किया था मुझसे हाँ अनन्य वह रहा नहीं ,
सहज लब्ध थी वह अनन्यता पड़ी रह सके जहाँ कहीं ।
बाधाओं का अतिक्रमण कर जो अबाध हो दौड़ चले ,
वही स्नेह अपराध हो उठा जो सब सीमा तोड़ चले ।

"हाँ अपराध, किंतु वह कितना एक अकेले भीम बना ,
जीवन के कोने से उठ कर इतना आज असीम बना !
और प्रचुर उपकार सभी वह सहृदयता की सब माया ,
शून्य-शून्य था ! केवल उसमें खेल रही थी छल छाया !

“कितना दुखी एक परदेशी बन, उस दिन जो आया था ,
जिसके नीचे धारा नहीं थी शून्य चतुर्दिक छाया था ।
वह शासन का सूत्रधार था नियमन का आधार बना ,
अपने निर्मित नव विधान से स्वयं दंड साकार बना ।

"सागर की लहरों से उठकर शैल-शृंग पर सहज चढ़ा ,
अप्रतिहत गति, संस्थानों से रहता था जो सदा बढ़ा ।
आज पड़ा है वह मुमूर्षु-सा वह अतीत सब सपना था ,
उसके ही सब हुए पराये सबका ही जो अपना था ।

"किन्तु वही मेरा अपराधी जिसका वह उपकारी था,
प्रकट उसी से दोष हुआ है जो सबको गुणकारी था।
अरे सर्ग-अंकुर के दोनों पल्लव हैं ये भले-बुरे,
एक दूसरे की सीमा हैं क्यों न युगल को प्यार करें ?

"अपना हो या औरों का सुख बढ़ा कि बस दुःख बना वहीं,
कौन बिंदु है रुक जाने का यह जैसे कुछ ज्ञात नहीं।
प्राणी निज-भविष्य चिंता में वर्तमान का सुख छोड़े,
दौड़ चला है बिखराता-सा अपने ही पथ में रोड़े।

इसे दंड देने में बैठी या करती रखवाली मैं,
यह कैसी है विकट पहेली कितनी उलझन वाली मैं ?
एक कल्पना है मीठी यह इससे कुछ सुंदर होगा,
हाँ कि, वास्तविकता से अच्छी सत्य इसी को वर देगा ।"

चौंक उठी अपने विचार से कुछ दूरागत-ध्वनि सुनती ,
इस निस्तब्ध-निशा में कोई चली आ रही है कहती-
"अरे बता दो मुझे दया कर कहाँ प्रवासी है मेरा ?
उसी बावले से मिलने को डाल रही हूँ मैं फेरा।

रूठ गया था अपनेपन से अपना सकी न उसको मैं ,
वह तो मेरा अपना ही था भला मनाती किसको मैं !
यही भूल अब शूल-सदृश हो साल रही उर में मेरे ,
कैसे पाऊँगी उसको मैं कोई आकर कह दे रे !"

इड़ा उठी, दिख पड़ा राजपथ धुँधली सी छाया चलती ,
वाणी में थी करुण - वेदना वह पुकार जैसे जलती ।
शिथिल शरीर, वसन विशृंखल कबाड़ी-अधिक अधीर खुली।
छिन्नपत्र मकरद लुटी सी ज्यों मुरझायी हुई कली।

नव कोमल अवलंब साथ में वय किशोर उँगली पकड़े ,
चला आ रहा मौन धैर्य-सा अपनी माता को जकड़े ।
थके हुए थे दुखी बटोही वे दोनों ही माँ-बेटे ,
खोज रहे थे भूले मनु को जो घायल हो कर लेटे ।

इड़ा आज कुछ द्रवित हो रही दुखियों को देखा उसने ,
पहुँची पास और फिर पूछा 'तुमको बिसराया किसने ?
इस रजनी में कहाँ भटकती जाओगी तुम बोलो तो ,
बैठो आज अधिक चंचल हूँ व्यथागाँठ निज खोलो तो ।

जीवन की लंबी यात्रा में खोये भी हैं मिल जाते ,
जीवन है तो कभी मिलन है कट जाती दु:ख की रातें ।"
श्रद्धा रुकी कुमार श्रांत था मिलता है विश्राम यहीं ,
चली इड़ा के साथ जहाँ पर वह्नि शिखा प्रज्वलित रही ।

सहसा धधकी वेदी ज्वाला मंडप आलोकित करती ,
कामायनी देख पायी कुछ पहुँची उस तक डग भरती ।
और वही मनु ! घायल सचमुच तो क्या सच्चा स्वप्न रहा ?
आह! प्राणप्रिय ! यह क्या ? तुम यों ! घुला हृदय, बन नीर बहा ।

इड़ा चकित, श्रद्धा आ बैठी वह थी मनु को सहलाती ,
अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था व्यथा भला क्यों रह जाती ?
उस मूर्च्छित नीरवता में कुछ हल्के-से स्पंदन आये ,
आँखें खुलीं चार कोनों में चार बिंदु आकर छाये ।

उधर कुमार देखता ऊँचे मंदिर, मंडप, बेदी को,
यह सब क्या है नया मनोहर कैसे ये लगते जी को ?
माँ ने कहा--"अरे आ तू भी देख पिता हैं पड़े हुए",
"पिता ! आ गया लो" यह कहते उसके रोयें खड़े हुए ।

"मां जल के, कुछ प्यासे होंगे क्या बैठी कर रही यहाँ ?"
मुखर हो गया सूना मंडप यह सजीवता रही कहां ?
आत्मीयता घुली उस घर में छोटा-सा परिवार बना ,
छाया एक मधुर स्वर उस पर श्रद्धा का संगीत बना।

"तुमुल कोलाहल कलह में
मैं हृदय की बात रे मन !

विकल होकर नित्य चंचल ,
खोजती जब नींद के पल ,
चेतना थक-सी रही तब ,
मैं मलय की वात रे मन !

चिर-विषाद-विलीन मन की
इस व्यथा के तिमिर-वन की ;
मैं इस उषा-सी ज्योति-रेखा
कुसुम-विकसित प्रात रे मन !

जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,
यातकी कन को तरसती
उन्हीं जीवन-घाटियों की,
में सरस बरसात रे मन !

पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जी रहा झुक ,
इस झुलसते विश्वदिन की
मैं कुसुम-ऋतु-रात रे मन!

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चिर निराशा नीरधर से ,
प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,
मधुप-मुखर , मरंद-मुकुलित,
मैं सजल जलजात रे मन !"



उस स्वर-लहरी के अक्षर सब संजीवन रस बने घुले,
उधर प्रभात हुआ प्राची में मनु के मुदित-नयन खुले।
श्रद्धा का अवलंब मिला फिर कृतज्ञता से हृदय भरे,
मनु उठ बैठे गद्गद होकर बोले अनुराग भरे।

"श्रद्धा ! तू आ गयी भला तो—पर क्या मैं था यहीं पड़ा !"
वही भवन, वे स्तंभ, वेदिका ! बिखरी चारों ओर घृणा ।
आँख बंद कर लिया क्षोभ से "दूर दूर ले चल मुझको ,
इस भयावने अंधकार में खो दें कहीं न फिर तुझको ।

हाथ पकड़ ले, चल सकता हूँ-हाँ कि यही अवलंब मिले,
वह तू कौन ? परे हट, श्रद्धे ! आ कि हृदय का कुसुम खिले ।"
श्रद्धा नीरव सिर सहलाती आंखों में विश्वास भरे ,
मानो कहती तुम मेरे हो अब क्यों कोई वृथा डरे ?"

जल पीकर कुछ स्वस्थ हुए से लगे बहुत धीरे कहने ,
"ले चल इस छाया के बाहर मुझको दे न यहाँ रहने ।
मुक्त नील नभ के नीचे या कहीं गुहा में रह लेंगे ,
अरे झेलता ही आया हूँ--जो आवेगा सह लेंगे ।"

"ठहरो कुछ तो बल आने दो लिवा चलूँगी तुरत तुम्हें ,
इतने क्षण तक" श्रद्धा बोली-"रहने देंगी क्या न हमें ?"
इड़ा संकुचित उधर खड़ी थी यह अधिकार न छीन सकी ,
श्रद्धा अविचल, मनु अब बोले उनकी वाणी नहीं रुकी ।

"जब जीवन में साध भरी थी उच्छृंखल अनुरोध भरा ,
अभिलाषाएँ भरी हृदय में अपनेपन का बोध भरा।
मैं था, सुन्दर कुसुमों की यह सघन सुनहली छाया थी,
मलयानिल की लहर उठ रही उल्लासों की माया थी !

उषा अरुण प्याला भर लाती सुरभित छाया के नीचे
मेरा यौवन पीता सुख से अलसाई आँखें भींचे।
ले मकरंद नया चू पड़ती शरद-प्रात की शेफाली,
बिखराती सुख ही, संध्या की सुन्दर अलके घुँघराली ।

सहसा अंधकार की आँधी उठी क्षितिज से वेग भरी ,
हलचल से विक्षुब्ध विश्व--थी उद्वेलित मानस लहरी ।
व्यथित हृदय उस नीले नभ में छायापथ-सा खुला तभी ,
अपनी मंगलमयी मधुर-स्मिति कर दी तुमने देवि ! जभी ।

दिव्य तुम्हारी अमर अमिट छवि लगी खेलने रंग-रली ,
नवल हेम-लेखा-सी मेरे हृदय-निकष पर खिंची भली।
अरुणाचल मन-मन्दिर की वह मुग्ध-माधुरी नव प्रतिमा ,
लगी सिखाने स्नेह-मयी सी सुन्दरता की मृदु महिमा।

उस दिन तो हम जान सके थे सुन्दर किसको हैं कहते !
तब पहचान सके, किसके हित प्राणी यह दुख-सुख सहते।
जीवन कहता यौवन से--"कुछ देखा तूने मतवाले "
यौवन कहता--"साँस लिये चल कुछ अपना संबल पा ले !"

हृदय बन रहा था सीपी-सा तुम स्वाती की बूंद बनीं ,
मानस-शतदल झूम उठा जब तुम उसमें मकरंद बनीं ।
तुमने इस सूखे पतझड़ में भर दी हरियाली कितनी ,
मैंने समझा मादकता है तृप्ति बन गयी वह इतनी !

विश्व, कि जिसमें दु ख की आँघी पीड़ा की लहर उठती,
जिसमें जीवन-मरण बना था बुदबुद की माया नचती।
वही शांत उज्ज्वल मंगल सा दिखता था विश्वास भरा,
वर्षा के कंदब कानन-सा सृष्टि-विभव हो उठा हरा।

भगवति ! वह पावन मधु-धारा ! देख अमृत भी ललचाये ,
वही, रम्य सौंदर्य्य-शैल से जिसमें जीवन घुल जाये।
संध्या अब ले जाती मुझसे ताराओं की अकथ कथा,
नींद सहज ही ले लेती थी सारे श्रम की विकल व्यथा।

सकल कुतूहल और कल्पना उन चरणों से उलझ पड़ी,
कुसुम प्रसन्न हुए हँसते से जीवन की वह धन्य घड़ी।
स्मिति मघुराका थी, श्वासों से पारिजात कानन खिलता,
गति मरंद-मंथर मलयज-सी स्वर में वेणु कहाँ मिलता!

श्वास-पवन पर चढ़ कर मेरे दरागतशी वंशी-रव-सी, गूँज उठीं तुम, विश्व-कुहर में दिव्य-रागिनी-अभिनव-सी!
जीवन-जलनिधि के तल से जो मुक्ता थे वे निकल पड़े,
जग-मंगल-संगीत तुम्हारा गाते मेरे रोम खड़े।

आशा की आलोक-किरन से कुछ मानस से ले मेरे,
लघु जलधर का सृजन हुआ था जिसको शशिलेखा घेरे--
उस पर बिजली की माला-सी झूम पड़ी तुम प्रभा भरी,
और जलद वह रिमझिम बरसा मन-वनस्थली हुई हरी !

तुमने हँस-हँस मुझे सिखाया विश्व खेल है खेल चलो ,
तुमने मिलकर मुझे बताया सबसे करते मेल चलो।
यह भी अपनी बिजली के से विभ्रम से संकेत किया ,
अपना मन है, जिसको चाहा तब इसको दे दान दिया।

तुम अजस्र वर्षा-सुहाग की और स्नेह की मधु-रजनी,
चिर अतृप्ति जीवन यदि था तो तुम उसमें संतोष बनी।
कितना है उपकार तुम्हारा आश्रित मेरा प्रणय हुआ,
कितना आभारी हूँ , इतना संवेदनमय हृदय हुआ।

किंतु अधम मैं समझ न पाया उस मंगल की माया को,
और आज भी पकड़ रहा हूँ हर्ष शोक की छाथा को।
मेरा सब कुछ क्रोध मोह के उपादान से गठित हुआ,
ऐसा ही अनुभव होता है किरनों ने अब तक न छुआ।

शापित-सा मैं जीवन का यह ले कंकाल भटकता हूँ,
उसी खोखलेपन में जैसे कुछ खोजता अटकता हूँ।
अंध-तमस् है, किंतु प्रकृति का आकर्षण है खींच रहा,
सब पर, हाँ अपने पर भी मैं झुँझलाता हूँ खीज रहा।

नहीं पा सका हूँ मैं जैसे जो तुम देना चाह रही,
क्षुद्र पात्र ! तुम उसमें कितनी मधु-धारा हो ढाल रही।
सब बाहर होता जाता है स्वगत उसे मैं कर न सका,
बुद्धि-तर्क के छिद्र हुए थे हृदय हमारा भर न सका।

यह कुमार--"मेरे जीवन का उच्च-अंश, कल्याण-कला !
कितना बड़ा प्रलोभन मेरा हृदय स्नेह बन जहाँ ढला।
सुखी रहें, सब सुखी रहें बस छोड़ो मुझ अपराधी को,"
श्रद्धा देख रही चुप मनु के भीतर उठती आँधी को ।

दिन बीता रजनी भी आयी तंद्रा निद्रा संग लिये,
इड़ा कुमार समीप पड़ी थी मन की दबी उमंग लिये।
श्रद्धा भी कुछ खिन्न थकी-सी हाथों को उपधान किये ,
पड़ी सोचती मन ही मन कुछ, मनु चुप सब अभिशाप पिये।

सोच रहे थे, "जीवन सुख है ? ना, यह विकट पहेली है,
भाग अरे मनु ! इंद्रजाल से कितनी व्यथा न झेली है ?
यह प्रभात की स्वर्ण किरन-सी झिलमिल चंचल-सी छाया,
श्रद्धा को दिखलाऊँ कैसे यह मुख या कलुषित काया ?

और शत्रु सब, ये कृतघ्न फिर इनका क्या विश्वास करूँ,
प्रतिहिंसा प्रतिशोध दबा कर मन ही मन चुपचाप मरूँ ।
श्रद्धा के रहते यह संभव नहीं कि कुछ कर पाऊँगा,
तो फिर शांति मिलेगी मुझको जहाँ, खोजता जाऊँगा।'

जगे सभी जब नव प्रभात में देखे तो मनु वहाँ नहीं,
'पिता कहाँ' कह खोज रहा सा यह कुमार अब शांत नहीं।
इड़ा आज अपने को सबसे अपराधी है समझ रही,
कामायनी मौन बैठी-सी अपने में ही उलझ रही।