कामायनी
जयशंकर प्रसाद
दर्शन

पृष्ठ १०९ से – १२२ तक

 

वह चंद्रहीन थी एक रात ,
जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात ,
उजले - उजले तारक झलमल
प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल ;
धारा बह जाती बिंब अटल ;
खुलता था धीरे पवन-पटल ,
चुपचाप खड़ी थी वृक्ष पाँत ,
सुनती जैसे कुछ निजी बात ।

धूमिल छायाएँ रहीं घूम ,
लहरी पैरों को रही चूम।

"माँ ! तू चल आयी दूर इधर ,
संध्या कब की चल गयी उधर ।
इस निर्जन में अब क्या सुंदर--
तू देख रही, हाँ बस चल घर
उसमें से उठता गंध-धूम"
श्रद्धा ने वह मुख लिया चूम।

"माँ ! क्यों तू है इतनी उदास ,
क्या मैं हूँ तेरे नहीं पास ,
तु कई दिनों से यों चुप रह ;
क्या सोच रही है ? कुछ तो कह ;

यह कैसा तेरा दुःख-दुसह ,
जो बाहर-भीतर देता दह ,
लेती ढीली-सी भरी सांस ,
जैसे होती जाती हताश।"

वह बोली--"नील गगन अपार ,
जिसमें अवनत घन सजल भार ,
आते जाते, सुख, दिशि, पल ,
शिशु-सा आता कर खेल अनिल ,
फिर झलमल सुंदर तारक दल ,
नभ रजनी के जुगुनू अविरल ,
यह विश्व अरे कितना उदार !
मेरा गृह रे उन्मुक्त-द्वार ।

यह लोचन-गोचर-सकल-लोक ,
संसृति के कल्पित हर्ष शोक ,
भावोदधि से किरनों के मग ,
स्वाती कन से बन भरते जग ,
उत्थान-पतनमय सतत सजग ,
झरने झरते आलिंगित नग ,
उलझन की मीठी रोक टोक ,
यह सब उसकी है नोक-झोंक ।

जग, जगता आँखें किये लाल ,
सोता ओढ़े तम-नींद-जाल ,
सुरधनु-सा अपना रंग बदल ,
मृति, संसृति, नति, उन्नति में ढल ,
अपनी सुषमा में यह झलमल ,
इस पर लिखता झरता उडुदल ,

अवकाश-सरोवर का मराल।
कितना सुंदर कितना विशाल ;

इसके स्तर-स्तर में मौन शांति ,
शीतल अगाध है, ताप-भ्रांति ,
परिवर्त्तनमय यह चिर-मंगल ,
मुसक्याते इसमें भाव सकल ,
हँसता है इसमें कोलाहल ,
उल्लास भरा सा अंतस्तल ,
मेरा निवास अति-मधुर-कांति ।
यह एक नीड़ है सुखद शांति ।"

"अंबे फिर क्यों इतना विराग ,
मुझ पर न हुई क्यों सानुराग ?"
पीछे मुड़ श्रद्धा ने देखा ,
वह इड़ा मलिन छबि की रेखा ,
ज्यों राहुग्रस्त-सी शशि-लेखा ,
जिस पर विषाद की विष-रेखा ,
कुछ ग्रहण कर रहा दीन त्याग ,
सोया जिसका है भाग्य, जाग।

बोली--"तुमसे कैसी विरक्ति ,
तुम जीवन की अंधानुरक्ति ,
मुझसे बिछड़े को अवलंबन ।
देकर, तुमने रक्खा जीवन ,
तुम आशामयि ! चिर आकर्षण ,
तुम मादकता की अवगत घन ,
मनु के मस्तक की चिर-अतृप्ति ,
तुम उत्तेजित चंचला-शक्ति!

मैं क्या दे सकती तुम्हें मोल ,
यह हृदय ! अरे दो मधुर बोल ,

मैं हँसती हूँ रो लेती हूँ ,
मैं पाती हूँ खो देती हूँ ,
इससे ले उसको देती हूँ ,
मैं दु:ख को सुख कर लेती हूँ ,

अनुराग भरी हूँ मधुर घोल ,
चिर-विस्मृति-सी हूँ रही डोल।

यह प्रभापूर्ण तब मुख निहार ,
मनु हत-वेतन से एक बार ,

नारी माया-ममता का बल ,
वह शक्तिमयी छाया शीतल ,
फिर कौन क्षमा कर दे निश्छल ,
जिससे यह धन्य बने भूतल ,

तुम क्षमा करोगी' यह विचार ,
मैं छोड़ूँ कैसे साधिकार ?"

"अब मैं रह सकती नहीं मौन ,
अपराधी किंतु यहाँ न कौन ?

सुख-दुःख जीवन में सब सहते ,
पर केवल सुख अपना कहते
अधिकार न सीमा में रहते ,
पावस - निर्भर - से वे बहते ,

रोके फिर उनको भला कौन ?
सबको वे कहते—शत्रु हो न !'

अग्रसर हो रही यहाँ फूट ,
सीमाएँ कृत्रिम रहीं टूट ,

श्रम-भाग वर्ग, बन गया जिन्हें ,
अपने बल का है गर्व उन्हें ,
नियमों की करनी सष्टि जिन्हें ।
विप्लव की करनी वृष्टि उन्हें ,

सब पिये मत्त लालसा घूँट ;
मेरा साहस अब गया छूट।

मैं जनपद-कल्याणी प्रसिद्ध ,
अब अवनति कारण हूँ निषिद्ध ,

मेरे सुविभाजन हुए विषम ,
टूटते, नित्य बन रहे नियम ,
नाना केंद्रों में जलधर-सम ,
घिर हट, बरसे ये उपलोपम ।

यह ज्वाला इतनी है समिद्ध ,
आाहुति बस चाह रही समृद्ध ।

तो क्या मैं भ्रम में थी नितांत ,
संहार-बध्य, असहाय दांत ,

प्राणी विनाश-मुख में अविरल ,
चुपचाप चलें होकर निर्बल !
संघर्ष कर्म का मिथ्या बल ,
ये शक्ति-चिह्न, ये यज्ञ विफल ,

भय की उपासना ! प्रणति भ्रांत !
अनुशासन की छाया अशांत !

तिस पर मैंने छीना सुहाग ,
हे देवि ! तुम्हारा दिव्य-राग ,

मैं आज अकिंचन पाती हूँ ,
अपने को नहीं सुहाती हूँ ,

</poem>

मैं जो कुछ भी स्वर गाती हूँ ,
वह स्वयं नहीं सुन पाती हूँ ,

दो क्षमा, न दो अपना विराग ,
सोयी चेतनता उठे जाग।"

"है रुद्र-रोष अब तक अशांत ”,
श्रद्धा बोली, "बन विषम ध्वांत !

सिर चढ़ी रही ! पाया न हृदय
तू विकल कर रही है अभिनय ,
अपनापन चेतन का सुखमय ,
खो गया, नहीं आलोक उदय ,

सब अपने पथ पर चलें श्रांत ,
प्रत्येक विभाजन बना भ्रांत।"

जीवन धारा सुन्दर प्रवाह ,
सत्, सतत, प्रकाश सुखद अथाह ,

ओ तर्कमयी ! तू गिने लहर ,
प्रतिबिंबित तारा पकड़, ठहर ,
तू रुक-रुक देखे आठ पहर ,
वह जड़ता की स्थिति, भूल न कर ,

सुख-दुख का मधुमय धूप-छाँह ,
तूने छोड़ी यह सरल राह।

चेतनता का भौतिक विभाग--
कर, जग को बाँट दिया विराग ,

चिति का स्वरूप यह नित्य-जगत ,
वह रूप बदलता है शत-शत ,
कण विरह-मिलन-मय नृत्य-निरत
उल्लासपूर्ण आनंद सतत

</poem>

तल्लीन-—पूर्ण है एक राग,
झंकृत है केवल 'जाग जाग !'

मैं लोक-अग्नि में तप नितांत ,
आहुति प्रसन्न देती प्रशांत ,

तू क्षमा न कर कुछ चाह रही ,
जलती छाती की दाह रही ,
तो ले ले जो निधि पास रही ,
मुझको बस अपनी राह रही,

रह सौम्य ! यहीं, हो सुखद प्रांत ,
विनिमय कर दे कर कर्म कांत।

तुम दोनों देखो राष्ट्र-नीति ,
शासक बन फैलाओ न भीति ,

मैं अपने मनु को खोज चली ,
सरिता, मरु, नग या कुंज-गली,
वह भोला इतना नहीं छली !
मिल जायेगा, हूँ प्रेम-पली ,

तब देख कैसी चली रीति ,
मानव ! तेरी हो सुयश गीति ।"

बोला बालक, "ममता न तोड़ ,
जननी ! मुझसे मुँह यों न मोड़ ,

तेरी आज्ञा का कर पालन ,
वह स्नेह सदा करता लालन--
मैं मरूँ जिऊँ पर छुटे न प्रण,
वरदान बने मेरा जीवन !

जो मुझको तू यों चली छोड़ ,
तो मुझे मिले फिर यही क्रोड़ !"

"हे सौम्य ! इड़ा का शुचि दुलार ,
हर लेगा तेरा व्यथा-भार ,

यह तर्कमयी तू श्रद्धामय ,
तू मननशील कर कर्म अभय ,
इसका तू सब संताप निश्चय ,
हर ले, हो मानव भाग्य उदय ,

सब की समरसता का प्रचार ,
मेरे सुत ! सुन माँ की पुकार ।"

"अति मधुर वचन विश्वास मूल ,
मुझको न कभी ये जायें भूल ;

हे देवि ! तुम्हारा स्नेह प्रबल ,
बन दिव्य श्रेय-उद्गम अविरल ,
आकर्षण धन-सा वितरे जल ,
निर्वासित हों संताप सकल !"

कह इड़ा प्रणत ले चरण धूल ,
पकड़ा कुमार-कर मृदुल फूल ।

वे तीनों ही क्षण एक मौन--
विस्मृत से थे, हम कहाँ कौन !

विच्छेद बाह्य, था आलिंगन--
वह हृदयों का अति मधुर मिलन ,
मिलते आहत होकर जलकन ,
लहरों का यह परिणत जीवन ,

दो लौट चले पुर ओर मौन ,
जब दूर हुए तब रहे दो न !

निस्तब्ध गगन था, दिशा शांत ,
वह था असीम का चित्र कांत।

कुछ शून्य बिंदु उर के ऊपर ,
व्यथिता रजनी के श्रमसीकर ,
झलके कब से पर पड़े न झर ,
गंभीर मलिन छाया भू पर ,

सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत ,
केवल बिखेरता दीन ध्वांत ।

शत-शत तारा मंडित अनंत ,
कुसुमों का स्तबक खिला वसंत ,

हँसता ऊपर का विश्व मधुर ,
हलके प्रकाश से पूरित उर,
बहती माया सरिता ऊपर ,
उठती किरणों की लोल लहर ,

निचले स्तर पर छाया दुरंत ,
आती चुपके, जाती तुरन्त ।

सरिता का वह एकांत कूल ,
था पवन हिंडोले रहा झूल ,

धीरे-धीरे लहरों का दल ,
तट से टकरा होता ओझल ,
छप छप का होता शब्द विरल ,
थर थर कैंप रहती दीप्ति तरल ;

संसृति अपने में रही भूल ,
वह गंध-विधुर अम्लान फूल ।

तब सरस्वती-सा फेंक साँस ,
श्रद्धा ने देखा आसपास ,

थे चमक रहे दो खुले नयन ,
ज्यों शिलालग्न अनगढ़े रतन,

वह क्या तम में करता सनसन ?
धारा का ही क्या हय निस्वन !

ना, गुहा लतावृत एक पास ,
कोई जीवित ले रहा साँस !

वह निर्जन तट था एक चित्र ,
कितना सुन्दर, कितना पवित्र ?

कुछ उन्नत थे वे शैलशिखर ,
फिर भी ऊँचा श्रद्धा का सिर ,
वह लोक-अग्नि में तप गल कर ,
थी ढली स्वर्ण-प्रतिमा बन कर ,

मनु ने देखा कितना विचित्र !
वह मातृ-मूर्त्ति थी विश्व-मित्र ।

बोले, "रमणी तुम नहीं आह !
जिसके मन में हो भरी चाह ,

तुमने अपना सब कुछ खोकर ,
वंचिते ! जिसे पाया रोकर ,
मैं भगा प्राण जिनसे लेकर ,
उसको भी उन सबको देकर ,

निर्दय मन क्या न उठा करह ?
अद्भुत है तब मन का प्रवाह !

ये श्वापद से हिंसक अधीर ,
कोमल शावक वह बाल वीर ,

सुनता था वह वाणी शीतल ,
कितना दुलार कितना निर्मल !
कैसा कठोर है तब हृत्तल !
वह इड़ा कर गयी फिर भी छल,

तुम बनी रही हो अभी धीर ,
छुट गया हाथ से आाह तीर ।"

प्रिय ! अब तक हो इतने सशंक ,
देकर कुछ कोई नहीं रंक ,

यह विनिमय है या परिवर्त्तन ,
बन रहा तुम्हारा ऋण अब धन ,
अपराध तुम्हारा वह बंधन--
लो बना मुक्ति, अब छोड़ स्वजन--

निर्वासित तुम, क्यों लगे डंक ?
दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट अंक ।”

"तुम देवि ! आह कितनी उदार ,
यह मातृ-मूर्त्ति है निर्विकार ,

हे सर्वमंगले ! तुम महती ,
सबका दुःख अपने पर सहती ,
कल्याणमयी वाणी कहती ,
तुम क्षमा निलय में हो रहती ,

मैं भूला हूँ तुमको निहार--
नारी-सा ही, वह लघु विचार ।

मैं इस निर्जन तट में अधीर ,
सह भूख व्यथा तीखा समीर ,

हाँ भावचक्र में पिस पिस कर,
चलता ही आया हूँ बढ़ कर ,
इनके विकार सा ही बन कर ,
मैं शून्य बना सत्ता खोकर ,

लघुता मत देखो वक्ष चीर ,
जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।"

"प्रियतम ! यह नत निस्तब्ध रात ,
है स्मरण कराती विगत बात ,

वह प्रलय शांति वह कोलाहल ,
जब अर्पित कर जीवन संबल ,
मैं हुई तुम्हारी थी निश्छल ,
क्या भूलूँ मैं , इतनी दुर्बल ?

तब चलो जहाँ पर शांति प्रात ,
मैं नित्य तुम्हारी, सत्य बात।

इस देव-द्वंद्व का वह प्रतीक--
मानव ! कर ले सब भूल ठीक ,

यह विष जो फैला महा-विषम ,
निज कर्मोन्नति से करते सम ,
सब मुक्त बनें, काटेंगे भ्रम ,
उनका रहस्य हो शुभ-संयम ,

गिर जायेगा जो है अलीक ,
चल कर मिटती है पड़ी लीक । "

वह शून्य असत या अंधकार ,
अवकाश पटल का वार पार ,

बाहर - भीतर उन्मुक्त सघन ,
था अचल महा नीला अंजन ,
भूमिका बनी वह स्निग्ध मलिन ,
थे निनिमेष मनु के लोचन ,

इतना अनंत था शून्य-सार ,
दीखता न जिसके परे पार।

सत्ता का स्पंदन चला डोल ,
आवरण पटल की ग्रंथि खोल,


                           तम जलनिधि का बन मधुमथन,
                           ज्योत्स्ना सरिता का आलिंगन,
                           वह रजत गौर, उज्ज्वल जीवन,
                           आलोक पुरुष! मंगल चेतन!
केवल प्रकाश का था कलोल,
मधु किरणों की थी लहर लोल।
                    
बन गया तमस था अलक जाल,
सर्वांग ज्योतिमय था विशाल,
                           अंतनिनाद ध्वनि से पूरित,
                           थी शन्य-भेदिनी--सत्ता चित्,
                           नटराज स्वयं थे नृत्य-निरत,
                           था अंतरिक्ष प्रहसित मुखरित,
स्वर लय होकर दे रहे ताल,
थे लुप्त हो रहे दिशाकाल।

लीला का स्पंदित आह्लाद,
वह प्रजा-पुंज चितिमय प्रसाद,
                          आनंद पूर्ण तांडव सुन्दर,
                          करते थे उज्ज्वल श्रम सीकर,
                          बनते तारा, हिमकर, दिनकर,
                          उड़ रहे धूलिकण-से भूधर,
संहार सृजन से युगल पाद--
गतिशील, अनाहत हुआ नाद।

बिखरे असंख्य ब्रह्मांड गोल,
युग त्याग ग्रहण कर रहे तोल,

                          विद्युत् कटाक्ष चल गया जिधर,
                          कंपित संसृति बन रही उधर,

चेतन परमाणु अनंत बिखर ,
बनते विलीन होते क्षण भर !

यह विश्व झूलता महा दोल ,
परिवर्त्तन का पट रहा खोल ।

उस शक्ति-शरीरी का प्रकाश ,
सब शाप पाप का कर विनाश--

नर्त्तन में निरत, प्रकृति गल कर
उस कांति सिंधु में घुल-मिलकर ,
अपना स्वरूप धरती सुन्दर ,
कमनीय बना था भीषणतर

हीरक-गिरि पर विद्युत-विलास ,
उल्लसित महा हिम धवल हास ।

देखा मनु ने नर्त्तित नटेश ,
हत चेत पुकार उठे विशेष--

यह क्या ! श्रद्घे ! बस तू ले चल ,
उन चरणों तक, दे निज संबल ,
सब पाप-पुण्य जिसमें जलजल ,
पावन बन जाते हैं निर्मल ,

मिटते असत्य-से ज्ञान-लेश ,
समरस, अखंड, आनंद-वेश"!