निर्मला
प्रेमचंद

पृष्ठ १७१ से – १७५ तक

 
 

चौदहवाँ परिच्छेद

तीनों बातें एक ही साथ हुईं—निर्मला की कन्या ने जन्म लिया, कृष्णा का विवाह निश्चित हुआ; और मुन्शी तोताराम का मकान नीलाम हो गया! कन्या का जन्म तो साधारण बात थी! यद्यपि निर्मला की दृष्टि में यह उसके जीवन की सबसे महान् घटना थी; लेकिन शेष दोनों घटनाएँ असाधारण थीं! कृष्णा का विवाह ऐसे सम्पन्न घराने में क्यों कर ठीक हुआ? उसकी माता के पास तो दहेज के नाम कौड़ी भी न थी; और इधर बूढ़े सिन्हा साहब जो अब पेन्शन लेकर घर आ गये थे, बिरादरी में महा लोभी मशहूर थे। वह अपने पुत्र का विवाह ऐसे दरिद्र घराने में करने पर कैसे राज़ी हुए? किसी को सहसा विश्वास न आता था। इससे भी बड़े आश्चर्य की बात मुन्शी जी के मकान का नीलाम होना था। लोग मुन्शी जी को अगर लखपती नहीं, तो बड़ा आदमी अवश्य समझते थे। उनका मकान कैसे नीलाम हुआ? बात यह थी कि मुन्शी जी ने एक महाजन से कुछ रुपये कर्ज लेकर एक गाँव रहन रक्खा था।उन्हें आशा थी कि साल आध साल में यह रुपये पटा देंगे।फिर दस-पाँच साल में उस गाँव पर भी कब्जा कर लेंगे। वह जमींदार असल और सूद के कुछ रुपये अदा करने में असमर्थ हो जायगा। इसी भरोसे पर मुन्शी जी ने वह मामला किया था। गाँव बहुत बड़ा था-चार-पाँच सौ रुपया नफा होता था;लेकिन मन की सोची मन ही में रह गई । मुन्शी जी दिल को बहुत समझाने पर भी कचहरी न जा सके । पुत्र-शोक ने उनमें कोई काम करने की शक्ति ही नहीं छोड़ी! कौन ऐसा हृदय-शून्य पिता है जो अपने पुत्र की गर्दन पर तलवार चला कर चित्त को शान्त करले?

महाजन के पास जब साल भर तक सूद न पहुँचा; और न उसके बार-बार बुलाने पर मुन्शी जी उसके पास गये यहाँ तक कि पिछली बार उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि हम किसी के गुलाम नहीं हैं; साहू जी जो चाहें करें, तब साहू जी को गुस्सा आ गया। उसने नालिश कर दी। मुन्शी जी पैरवी करने भी न गये । एकतरफ़ा डिग्री हो गई! यहाँ घर में रुपये कहाँ रखे थे? इतने ही दिनों में मुन्शी जी की साख भी उठ गई थी। वह रुपये का कोई प्रवन्ध न कर सके। आखिर मकान नीलाम पर चढ़ गया। निर्मला सौर में थी। यह खबर सुनी, तो कलेजा सन्न सा हो गया! जीवन में और कोई सुख न होने पर भी धनाभाव की चिन्ताओं से मुक्त थी! धन मानव-जीवन में अगर सर्व-प्रधान वस्तु नहीं, तो वह उसके वहुत निकट की वस्तुअवश्य है। अब और अभावों के साथ यह चिन्ता भी उसके सिर सवार हुई, उसने दाई द्वारा कहला भेजा मेरे सब गहने बेच कर घर को बचा लीजिये; लेकिन मुन्शी जी ने यह प्रस्ताव किसी तरह स्वीकार न किया।

उस दिन से मुन्शी जी और भी चिन्ता-यस्त रहने लगे। जिस धन का मुख भोगने के लिए उन्होंने विवाह किया था,वह अब अतीत की स्मृति-मात्र था। वह मारे ग्लानि के अब निर्मला को अपना मुँह तक न दिखा सकते थे। उन्हें अब उस अन्याय का अनुमान हो रहा था,जो उन्होंने निर्मला के साथ किया था,और कन्या के जन्म ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी-सर्वनाश ही कर डाला!

बारहवें दिन सौर से निकल कर निर्मला नवजात शिशु को गोद में लिए पति के पास गई। वह इस अभाव में भी इतनी प्रसन्न थी, मानो उसे कोई चिन्ता नहीं है! बालिका को हृदय से लगा कर वह अपनी सारी चिन्ता भूल गई थी! शिशु के विकसित और हर्ष-प्रदीप्त नेत्रो को देख कर उसका हृदय प्रफुल्लित हो रहा था! मातृत्व के इस उद्गार में उसके सारे क्लेश विलीन हो गए थे! वह शिशु को पति की गोद में देकर निहाल हो जाना चाहती थी, लेकिन मुन्शी जी कन्या को देख कर सहम उठे। गोद में लेने के लिए उनका हृदय हुलसाया नहीं; पर उन्होने एक बार उसे करुण-नेत्रों से देखा; और फिर सिर झुका लिया। शिशु की सूरत मन्साराम से बिलकुल मिलती थी!

निर्मला ने उनके मन का भाव कुछ और ही समझा! उसने शत-गुण स्नेह से लड़की को हृदय से लगा लिया; मानो उनसे कह रही है- अगर तुम इसके बोझ से दबे जाते हो, तो आज से मैं इस पर तुम्हारा साया भी न पड़ने दूंगी। जिस रत्न को मैं ने इतनी तपस्या के बाद पाया है, उसका निरादर करते हुए तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता? वह उसी क्षण शिशु को गोद से चिपटाए हुए अपने कमरे में चली आई; और देर तक रोती रही! उसने पति की इस उदासीनता को समझने की ज़रा भी चेष्टा न की; नहीं तो शायद वह उन्हें इतना कठोर न समझती। उसके सिर पर उत्तरदायित्व का इतना बड़ा भार कहाँ था,जो उसके पति पर आ पड़ा था? क्या वह सोचने की चेष्टा करती, तो इतना भी उसकी समझ में न आता?

मुन्शी जी को एक ही क्षण में अपनी भूल मालूम हो गई। माता का हृदय प्रेम में इतना अनुरक्त रहता है कि भविष्य की चिन्ता और बाधाएँ उसे जरा भी भयभीत नहीं करती! उसे अपने अन्तःकरण में एक अलौकिक शक्ति का अनुभव होता है, जो बाधाओं को उसके सामने परास्त कर देती है। मुन्शी जी तुरन्त दौड़े हुए घर में आए; और शिशु को गोद में लेकर बोले-मुझे याद आता है, मन्सा भी ऐसा ही था-बिलकुल ऐसा ही!

निर्मला-दीदी जी भी तो यही कहती हैं!

मुन्शी जी-बिलकुल वही बड़ी-बड़ी आँखें और लाल-लाल ओंठ हैं। ईश्वर ने मुझे मेरा मन्साराम इस रूप में दे दिया। वही 'माथा है, वही मुँह, वही हाथ-पाँव! ईश्वर,तुम्हारी लीला अपार है!! सहसा रुक्मिणी भी आ गई। मुन्शी जी को देखते ही बोली--देखो बाबू,मन्साराम है कि नहीं? वही आया है! कोई लाख कहे,मैं न मानेंगी,साफ मन्साराम है। साल भर के लगभग हो भी तो गया।

मुन्शी जी-बहिन,एक-एक अङ्ग मिलता है! वस,भगवान् ने मुझे मेरा मन्साराम दे दिया। (शिशु से) क्यों री,तू मन्साराम ही है? छोड़ कर जाने का नाम न लेना,नहीं फिर खीच लाऊँगा! कैसे निष्ठुर होकर भागे थे। नाजिर पकड़ लाया कि नहीं? बस कह दिया,अब मुझे छोड़ कर जान का नाम न लेना। देखो बहिन, कैसा टुकुर-टुकुर ताक रही है?

उसी क्षण मुन्शी जी ने फिर से अभिलाषाओं का भवन बनाना शुरू कर दिया। मोह ने उन्हें फिर संसार की ओर खींचा। मानव-जीवन! तू कितना क्षण-भद्र है;पर तेरी कल्पनाएँ कितनी दीर्घायु! वही तोताराम जो संसार से विरक्त हो रहे थे,जो रात-दिन मृत्यु का आवाहन किया करते थे,तिनके का सहारा पाकर तट पर पहुँचने के लिए पूरी शक्ति से हाथ-पॉव मार रहे हैं।

मगर तिनके का सहारा पाकर कोई तट पर पहुंचा है?