निर्मला
प्रेमचंद

पृष्ठ १५९ से – १७० तक

 
 

तेरहवां परिच्छेद

जो कुछ होना था हो गया, किसी की कुछ न चली डॉक्टर साहब निर्मला की देह से रक्त निकालने की चेष्टा कर ही रहे थे कि मन्साराम अपने उज्ज्वल चरित्र की अन्तिम झलक दिखा कर इस भ्रम-लोक से विदा हो गया! कदाचित् इतनी देर तक उसके प्राण निर्मला ही की राह देख रहे थे। उसे निष्कलङ्क सिद्ध किए बिना वे देह को कैसे त्याग देते? अब उनका उद्देश्य पूरा हो गया! मुन्शी जी को निर्मला के निर्दोष होने का विश्वास हो गया; पर कब? जब हाथ से तीर निकल चुका था—जब गुसाफ़िर ने रिकाब में पाँव डाल लिये थे!

पुत्र-शोक से मुन्शी जी को जीवन भार-स्वरूप हो गया! उस दिन से फिर उनके ओंठों पर हँसी न आई! यह जीवन अब उन्हें व्यर्थ सा जान पड़ता था! कचहरी जाते; मगर मुक़दमों की पैरवी करने नहीं, केवल दिल बहलाने के लिए! घण्टे-दो घण्टे में वहाँ से उकता कर चले आते। खाने बैठते तो कौर मुँह में न जाता! निर्मला अच्छी से अच्छी चीजें पकाती;पर मुन्शी जी दो-चार कौर से अधिक न खा सकते! ऐसा जान पड़ता कि कौर मुँह से निकला आता है! मन्साराम के कमरे की ओर जाते ही उनका हृदय टूक-टूक हो जाता था! जहाँ उनकी आशागों का दीपक जलता रहता था,वहाँ अब अन्धकार छाया हुआ था! उनके दो पुत्र अब भी थे;लेकिन जब दूध देती हुई गाय मर गई,तो बछिया का क्या भरोसा? जव फलने-फूलने वाला वृक्ष गिर पड़ा, तो नन्हे-नन्हे पौधों से क्या आशा? यों तो जवान-बूढ़े सभी मरते हैं, लेकिन दुख इस बात का था कि उन्होंने स्वयं लड़के की जान ली। जिस दम यह बात याद आ जाती,तो ऐसा मालूम होता था कि उनकी छाती फट जायगी-मानो हृदय बाहर निकल पड़ेगा!

निर्मला को पति से सच्ची सहानुभूति थी। जहाँ तक हो सकता था,वह उनको प्रसन्न रखने की फिक्र रखती थी;और भूल कर भी पिछली बातें ज़बान पर न लाती थी। मुन्शी जी उससे मन्साराम की कोई चर्चा करते शरमाते थे। उनकी कभी-कभी ऐसी इच्छा होती कि एक बार निर्मला से अपने मन के सारे भाव खोल कर कह दूं;लेकिन लज्जा जबान रोक लेती थी। इस भाँति उन्हें वह सान्त्वना भी न मिलती थी,जो अपनी व्यथा कह डालने से-दूसरों को अपने ग़म में शरीक कर लेने से-प्राप्त होती है। मवाद बाहर न निकल कर अन्दर ही अन्दर अपना विष फैलाता' जाता था-दिन-दिन देह घुलती जाती थी!

'इधर कुछ दिनों से मुन्शी जी और उन डॉक्टर साहब में जिन्होंने मन्साराम की दवा की थी,याराना हो गया था। वेचारे कभी-कभी आकर मुन्शी जी को समझाया करते,कभी-कभी अपने साथ हवा खिलाने के लिए खींच ले जाते!उनकी स्त्री भी दो-चार बार निर्मला से मिलने आई थी। निर्मला भी कई बार उनके घर हो आई थी;मगर वहाँ से जब वह लौटती,तो कई दिन तक उदास रहती।उस दम्पति का सुखमय जीवन देख कर उसे अपनी दशा पर दुःख हुए बिना न रहता था। डॉक्टर साहव को कुल २००मिलते थे;पर इतने ही में दोनों आनन्द से जीवन व्यतीत करते थे। घर में केवल एक महरी थी,गृहस्थी का बहुत सा काम स्त्री को अपने ही हाथों करना पड़ता था। गहने भी उसकी देह पर बहुत कम थे;पर उन दोनों में वह प्रेम था,जो धन की तृण वरावर पर्वाह नहीं करता! पुरुष को देख कर स्त्री का चेहरा खिल उठता था। स्त्री को देख कर पुरुप निहाल हो जाता था। निर्मला के घर में धन इससे कहीं अधिक था-आभूषणों से उसकी देह फटी पड़ती थी-घर का कोई काम उसे अपने हाथ से न करना पड़ता था; पर निर्मला सम्पन्न होने पर भी अधिक दुखी थी;और सुधा विपन्न होने पर भी सुखी! सुधा के पास कोई ऐसी वस्तु थी,जो निर्मला के पास न थी;जिसके सामने उसे अपना वैभव तुच्छ जान पड़ता था। यहाँ तक कि वह सुधा के घर गहने पहन कर जाते शरमाती थी!

एक दिन निर्मला डॉक्टर साहब के घर आई,तो उसे बहुत उदास देख कर सुधा ने पूछा-बहिन,आज बहुत उदास हो,वकील साहब की तबीयत तो अच्छी है न? निर्मला-क्या कहूँ सुधा!उनकी दशा दिन-दिन खराब होती जाती है-कुछ कहते नहीं बनता-न जाने ईश्वर को क्या मन्जूर है?

सुधा-हमारे बाबू जी तो कहते हैं कि उन्हें कहीं जल-वायु बदलने के लिए जाना जरूरी है,नहीं तो कोई भयङ्कर रोग खड़ा हो जायगा। कई बार वकील साहब से कह भी चुके हैं;पर वह यही कह दिया करते हैं कि मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ-मुझे कोई शिकायत नहीं। आज तुम कहना!

निर्मला-जब डॉक्टर साहब की नहीं सुनते,तो मेरी क्या सुनेंगे?

यह कहते-कहते निर्मला की आँखें डबडबा गई;और वह शङ्का, जो इधर महीनों से उसके हृदय को विकल करती रहती थी,मुंह से निकल पड़ी। अब तक उसने उस शङ्का को छिपाया था;पर अब न छिपा सकी। बोली-बहिन,मुझे तो लक्षण कुछ अच्छे नहीं मालूम होते! देखें,भगवान् क्या करते हैं?

सुधा-तुम आज उनसे खूब जोर देकर कहना कि कहीं जल-वायु बदलने चलिए। दो-चार महीने बाहर रहने से बहुत सी बातें भूल जाएँगी। मैं तो समझती हूँ,शायद मकान बदल डालने से भी उनका शोक कुछ कम हो जायगा। तुम कहीं बाहर जा भी तो न सकोगी! यह कौन सा महीना है?

निर्मला-आठवाँ महीना बीत रहा है। यह चिन्ता तो मुझे और भी मारे डालती है। मैंने तो इसके लिए ईश्वर से कभी प्रार्थना नहीं की थी! यह बला मेरे सिर न जाने क्यों मढ़ दी? मैं बड़ी अभागिनी हूँ बहिन! विवाह के एक महीने पहले पिता जी का देहान्त हो गया। उनके मरते ही मेरे सिर सनीचर सवार हुए! जहाँ पहले विवाह की बातचीत पकी हुई थी,उन लोगों ने आँखें फेर ली। वेचारी अम्माँ जी को हार कर मेरा विवाह यहाँ करना पड़ा। अव छोटी बहिन का विवाह होने वाला है। देखें, उसकी नाव किस घाट जाती है?

सुधा-जहाँ पहले विवाह की बातचीत हुई थी,उन लोगों ने इन्कार क्यों कर दिया?

निर्मला-यह तो वे ही जान;पिता जी ही न रहे,तो सोने की गठरी कौन देता?

सुधा-यह तो नीचता है! कहाँ के रहने वाले थे? निर्मला-लखनऊ के। नाम तो याद नहीं,आवकारी के कोई बड़े अफसर थे।

सुधा ने गम्भीर भाव से पूछा-और उनका लड़का क्या करता था?

निर्मला कुछ नहीं,कहीं पढ़ता था;पर बड़ा होनहार था।

सुघा ने सिर नीचा करके कहा-उसने अपने पिता से कुछ न कहा? वह तो जवान था,क्या अपने बाप को दवा न सकता था?

निर्मला-अब यह मैं क्या जाने बहिन। सोने की गठरी किसे प्यारी नहीं होती? जो पण्डित मेरे यहाँ से सन्देशा लेकर गया था, उसने तो कहा था कि लड़का ही इन्कार कर रहा है ! लड़ने की माँ अलबत्ता देवी थी । उसने पुत्र और पति दोनों ही को जनन्नया: पर उसकी कुछ न चली !

सुधा- मैं तो उस लड़के को पाती; तो खूब आड़े हार्थों लेती !

निर्मला--रे भाग्य में तो जो लिखा था, वह हो चुका ! बेचारी कृष्ण पर न जाने क्या बीतेगी ?

सन्ध्या सन्य निर्मला के जाने के बाद जब डॉक्टर साहब बाहर ले आए तो सुधा ने कहा क्यों जी, तुम उस आदमी को क्या कहोगे, जो एक जगह विवाह ठीक कर लेने के बाद फिर लोभवश किसी दूसरी जगह सन्बन्ध कर ले ?

डॉक्टर सिन्हा ने स्त्री की और कुतुहल से देख कर कहा ऐसा नहीं करना चाहिए और क्या ?

सुधा-यह क्यों नहीं कहते कि यह घोर नीचता है-परले सिरे का कमीनापन है!

सिन्हा-हाँ, यह कहने में भी सुने इन्कार नहीं !

सुधा-किलका अपराध बड़ा है ? वर का या घर के पिता का?

सिन्हा की समझ में अभी तक नहीं आया कि सुधा के इन प्रश्नों का आशय क्या है । विस्मय से बोले-जैसी स्थिति हो। अगर वर पिता के आधीन हो, तो पिता ही का अपराध समझो !

सुधा-आधीन होने पर भी क्या जवान आदमी का अपना कोई कर्तव्य नहीं है ? अगर उसे अपने लिए नए कोट की जरूरत हो, तो वह पिता के विरोध करने पर भी उसे रो-धोकर वनवा लेता है!क्या ऐसे महत्व के विषय में वह अपनी आवाज़ पिता के कानों तक नहीं पहुंचा सकता? यह कहो कि वर और उसका पिता दोनों ही अपराधी हैं,परन्तु वर अधिक। बूढ़ा आदमी सोचता है-मुझे तो सारा खर्च सँभालना पड़ेगा, कन्या-पक्ष से जितना ऐंठ सकूँ, उतना ही अच्छा! मगर यह वर का धर्म है कि वह यदि बिलकुल स्वार्थ के हाथों विक नहीं गया है,तो अपने आत्म-बल का परिचय दे! अगर वह ऐसा नहीं करता, तो मैं कहूँगी कि वह लोभी भी है और कायर भी! दुर्भाग्यवश ऐसा ही एक प्राणी मेरा पति है;और मेरी समझ में नहीं आता कि किन शब्दों में उसका तिरस्कार करूं?

सिन्हा ने हिचकिचाते हुए कहा-वह... वह... वह दूसरी बात थी। लेन-देन का कारण नहीं था; बिलकुल दूसरी बात थी! कन्या के पिता का देहान्त हो गया था। ऐसी दशा में हम लोग क्या करते? यह भी सुनने में आया था कि कन्या में कोई ऐव है। वह बिलकुल दूसरी बात थी; मगर तुमसे यह कथा किसने कही?

सुधा-कह दो कि वह कन्या कानी थी,कुबड़ी थी या नाइन के पेट की थी या भ्रष्टा थी! इतनी कसर क्यों छोड़ दी? भला सुन तो, उस कन्या में क्या ऐव था?

सिन्हा-मैं ने देखा तो था नहीं, सुनने में आया था कि उस में कोई ऐव है। सुघा--सबसे बड़ा एव यही था कि उसके पिता का स्वर्गवास हो गया था,और वह कोई लम्बी-चौड़ी रकम न दे सकती थी! इतना स्वीकार करते क्यों झेपते हो? मैं कुछ तुम्हारे कान तो न काट लूँगी। अगर दो-चार फिकरे कहूँ,तो इस कान से सुन कर उस कान से उड़ा देना! ज्यादा ची-चपड़ करूँ,तो छड़ी से काम ले सकते हो। औरत-जात डण्डे ही से ठीक रहती है। अगर उस कन्या में कोई ऐव था,तो मैं कहूँगी कि लक्ष्मी भी वे ऐव नहीं ! तुम्हारी तकदीर खोटी थी, बस! और क्या? तुम्हें तो मेरे पाले पड़ना था!

सिन्हा-तुमसे किसने कहा कि वह ऐसी थी और वैसी थी ? जैसे तुमने किसी से सुन कर मान लिया, वैसे ही हम लोगों ने भी सुन कर मान लिया!

सुधा-मैं ने सुन कर नहीं मान लिया! अपनी आँखों देखा। ज़्यादा बखान क्या करूँ,मैं ने ऐसी सुन्दर स्त्री कभी नहीं देखी थी!!

सिन्हा ने व्यग्र होकर पूछा-क्या वह यहीं कहीं है? सच बताओ उसे कहाँ देखा? क्या तुम्हारे घर आई थी?

सुधा-हाँ,मेरे घर आई थी;और एक बार नहीं,कई बार आ चुकी है। मैं भी उसके यहाँ कई बार जा चुकी हूँ। वकील साहब की वीवी वही कन्या है,जिसे आपने ऐवों के कारण त्याग दिया!

सिन्हा-सच?

सुधा-विलकुल सच! आज अगर उसे मालूम हो जाय कि आप वही महा-पुरुप हैं, तो शायद फिर इस घर में कदमन रक्खे। ऐसी सुशीला, घर के कामों में ऐसी निपुण और ऐसी परम सुन्दरी स्त्री इस शहर में दो ही चार होंगी। तुम मेरा बखान करते हो! मैं उसकी लौंडी बनने के योग्य भी नहीं हूँ! घर में ईश्वर का दिया हुआ सब कुछ है,मगर जब प्राणी ही मेल का नहीं, तो और सब रह कर क्या करेगा? धन्य है, उसके धैर्य को कि उस बुड्ढे खूसट वकील के साथ जीवन के दिन काट रही है! मैंने तो कव का जहर खा लिया होता! मगर मन की व्यथा कहने ही से थोड़े ही प्रकट होती है। हँसती है, वोलती है,गहनेकपड़े पहनती है;पर रोयाँ-रोयाँ रोया करती है।

सिन्हा-वकील साहब की खूब शिकायत करती होगी?

सुधा-शिकायत क्यों करेगी? क्या वह उसके पति नहीं हैं? संसार में अब उसके लिए जो कुछ हैं, वकील साहव हैं! वह बुढ़े हों या रोगी,पर हैं तो उसके स्वामी ही! कुलवती स्त्रियाँ पति की निन्दा नहीं करतीं-यह कुलटाओं का काम है। वह उनकी दशा देख कर कुढ़ती हैं। पर मुंह से कुछ नहीं कहती!

सिन्हा-इन वकील साहव को क्या सूझी थी,जो इस उम्र में व्याह करने चले?

सुधा-ऐसे आदमी न हों,तो गरीब कॉरियों की नाव कौन पार लगाये? तुम और तुम्हारे साथी विना भारी गठरी लिए वात नहीं करते,तो फिर ये बेचारी किसके घर जायँ! तुमने यह बड़ा भारी अन्याय किया है;और तुम्हें इसका प्रायश्चित्त करना पड़ेगा! ईश्वर उसका सुहाग अमर करे;लेकिन वकील साहब को कहीं कुछ हो गया,तो बेचारी का जीवन ही नष्ट हो जायगा। आज तो वह बहुत रोती थी। तुम लोग सचमुच बड़े निर्दयी हो! मैं तो अपने सोहन का विवाह किसी गरीब लड़की से करूँगी।

डॉक्टर साहब ने यह पिछला वाक्य नहीं सुना! वह घोर चिन्ता में पड़ गए। उनके मन में यह प्रश्न उठ-उठ कर उन्हें विकल करने लगा-कहीं वकील साहब को कुछ हो गया तो? आज उन्हें अपने स्वार्थ का भयङ्कर स्वरूप दिखाई दिया! वास्तव में यह उन्हीं का अपराध था। अगर उन्होंने पिता से जोर देकर कहा होता कि मैं और कहीं विवाह न करूँगा,तो क्या वह उनकी' इच्छा के विरुद्ध उनका विवाह कर देते?

सहसा सुधा ने कहा-कहो तो कल निर्मला से तुम्हारी मुलाकात करा दूं। वह भी जरा तुम्हारी सूरत देख ले। वह कुछ बोलेगी तो न;पर कदाचित् एक दृष्टिं में वह तुम्हारा इतना तिरस्कार कर देगी,जिसे तुम कभी न भूल सकोगे! बोलो, कल मिला दूँ? तुम्हारा बहुत संक्षिप्त परिचय भी करा दूंगी।

सिन्हा ने कहा-नहीं सुधा,तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ,कहीं ऐसा गजब न करना! नहीं तो मैं सच कहता हूँ,घर छोड़ कर भाग जाऊँगा!

सुधा-जो काँटा बोया है,उसका फल खाते क्यों इतना डरते हो? जिसकी गर्दन पर कटार चलाई है,जरा उसे तड़पते भी तो देखो! मेरे दादा जी ने पाँच हजार दिये न!अभी छोटे भाई के विवाह में पाँच-छः हजार और मिल जायेंगे। फिर तो तुम्हारे बराब‌र धनी संसार में कोई दूसरा न होगा? ग्यारह हजार बहुत होते हैं; वाप रे वाप! ग्यारह हजार!! उठा-उठा कर रखने लगे,तो महीनों लग जायँ। अगर लड़के उड़ाने भी लगे,तो तीन पीढ़ियों तक चले। कहीं से बातचीत हो रही है या नहीं? इस परिहास से डॉक्टर साहब इतना झेपे कि सिर तक न उठा सके। उनका सारा वाक्-चातुर्य गायब हो गया।नन्हा सा मुंह निकल आया,मानो मार पड़ गई हो। इसी वक्त किसी ने डॉक्टर साहब को वाहर से पुकारा। वेचारे जान लेकर भागे। स्त्री कितनी परिहास-कुशल होती है इसका आज परिचय मिल गया!

रात को डॉक्टर साहव शयन करते हुए सुधा से बोले-निर्मला की तो कोई वहिन और है न?

सुधा-हाँ,आज उसकी चर्चा तो करती थी। उसकी चिन्ता अभी से सवार हो रही है। अपने ऊपर तो जो कुछ बीतना था,वीत चुका; बहिन की फिक्र में पड़ी हुई है! माँ के पास तो अव और भी कुछ नहीं रहा;मजबूरन किसी ऐसे ही बूढ़े बाबा के गले वह भी मढ़ दी जायगी।

सिन्हा-निर्मला तो अब अपनी माँ की मदद कर सकती है। सुधा ने तीक्ष्ण स्वर में कहा-तुम भी कभी-कभी बिलकुल वे सिर-पैर की बातें करने लगते हो। निर्मला बहुत करेगी,तो दोचार सौ रुपये दे देगी,और क्या कर सकती है? वकील साहब का यह हाल हो रहा है,उसे भी तो अभी पहाड़ सी उम्र काटनी है। फिर कौन जाने उनके घर का क्या हाल है। इधर छःमहीने से बेचारे घर बैठे हैं। रुपये आकाश से थोड़े ही बरसते हैं।दस-,बीस हजार होंगे भी तो बैङ्क में होंगे,कुछ निर्मला के पास तो रक्खे न होंगे। हमारा २००) महीने का खर्च है,तो क्या उनका ४००) महीने का भी न होगा?

सुधा को तो नींद आ गई;पर डॉक्टर साहब बहुत देर तक करवटें बदलते रहे! फिर कुछ सोच कर उठे और मेज़ पर बैठ कर एक पत्र लिखने लगे!