नाट्यसंभव/विष्कम्भक
श्रीहरिः।
रूपक।
विष्कम्भक।
(रंगभूमि का परदा उठता है)
स्थान नन्दनवन।
(आकाश मार्ग में प्रकाश होता है और वीणा लिए गाती हुई दो अप्सरा आती हैं)
पहिली अप्सरा। (राग जोगिया)
जयजय रुकमिनि रमा सिवानी।
दमयन्ती सावित्री सीता सकुंतला सुररानी॥
जगजननी अघहरनि करनिमहिमङ्गल सब सुखदानी॥
जासु नाम गावत कुलबाला भुवनविदित गुनखानी॥
दूसरी अप्सरा। (राग गौरी)
जयजय सची स्वर्ग की रानी।
सती सिरोमनि पतिअनुरागिनि तीनहुं लोक बखानी
जासु मेरुसों अचल पतिब्रत गावत सुनि विज्ञानी।
सतीमंडली माहिं दिवानिसि जो सादर सनमानी॥
दोनों। (एक सङ्ग) (राग ईमन कल्यान)
अहा यह नन्दन वन सुखदाई।
अखिल भुवन-सुखमा-समूह लहि पाई बहुरि बड़ाही।
जहां विहार करने करन जन कोटिन करत उपाई।
पै पावत कोऊ या सुखकों जनम अनेक गवांई
यह सदा रितुराज बिराजत छाजत मदन सहाई।
सीतल मन्द सुगन्ध पौन जहं हरत खेद् समुदाई॥
कंचन भूमि रतनमय तरवर नव पल्लव उमगाई।
झुके भूमि भरि भारनसोंनिज संपतिगरव मिटाई॥
चहुं मंदार उदार कल्पतकर चंदन सुरभिबढाई।
पारिजात संतान विताननिसोभित अति छबि छाई॥
फूलेफले अघाय सबै तरु नख सिखलों सरसाई।
भरे लेत मन मानो झारिन देववधू नियराई॥
बिकसीं लता सुमन-मन-मोहनि तरुन तरुन लपटाई।
मधुकर-निकर झुंड झनकारनि रस बस रहे लुभाई
नाचैं मोर मोद मनमाने कोकिल कल किलकाई।
बिहरत हरत चित्त पंछीगन चहचहात हरखाई।
कंचन हरिन किलोल करत बहु साखामृग अधिकाई॥
मधुर बैन बोलत सव मिलिजुलि मन नहिं नेक सकाई
रतन जड़ित सोपान मनोहर देखत बनत निकाई।
सुधा सरोवर अति छवि छाजत निर्मल नीर बहाई॥
कनक कंज कल्हार कुसेसय इन्दीवर मनभाई।
करत केलि कारंडव कलरव हंस मधुप सचुपाई।
तरल तरङ्ग रङ्ग बहु भांतिन दरसावै निपुनाई।
विहरै विबुध वारयनितनि सँग अङ्ग २ अरुझाई।
सोई सोभासदन सुहावन आनँद करन सवाई।
लगै आज सुनो केहि कारन हिय जनु खेद जताई॥
(नेपथ्य में)
अरे! यहां पर कौन इस समय गारहा है। ऐं। हमारे देवराज महाराज, महारानी शची देवी के विरह में ऐसे व्याकुल होरहे हैं और तुम लोगों को गाना सूझा है? (दानों डरकर इधर उधर देखने लगती हैं और हाथ में सोने का आसा लिए नन्दन वन का माली आता है)
माली। अरी मतवालियो! इस वन के अधिकारी विद्यावसु गन्धर्व ने आज्ञा दी है कि जबतक महारानी शची देवी आकर इस वन की शोभा नहीं बढ़ातीं, तबतक कोई यहां पर विहार करने या गाने न पावै। सावधान, सावधान!!
दोनो अप्सरा। हे माल्यवान! इस आज्ञा की चरचा हमलोगों के कानों तक नहीं पहुंची थी, पर अब ऐसा अपराध कभी न होगा।
माली। अच्छा २ (गया)
पहिली अप्सरा। (धुन बिरहनी)
याही कारन आज उदासी ह्यां छाई है। याही सों सूनो लागत वन समुदाई है॥
दूसरी अप्सरा।
हाय चली ज्यों गई सकल सोभा या थल की।
सुनत स्रौन यह वज्र वैन छाती दुरि दल की॥
पहिली अप्सरा।
दीख पर नहिं वनितन संग देवन के परिकर।
सबै सोक में सने सची लेगए असुर धर॥
दूसरी अप्सरा।
क्यों न करें उद्धार मारि असुरन को रन में।
करें विहार बहोरि वारवनितन सों वन में॥
पहिली अप्सरा।
ह्वै है सबै संजोग यहै दुरदिन के बीते।
फिरि हैं सुमन सनेहसने लहि मन के चीते॥
दूसरी अप्सरा।
चलो जाइके करैं उमाआराधन हम सब।
ह्वै सुख सूरज उदै, मिटै दुख निसि को तम अब॥
(नेपथ्य में)
हाथ में वज्र लेकर असुरकुल संहार करने वाले महाराजाधिराज देवराज माधवी कुंज की ओर आते हैं। सब कोई हटो, बचो, सावधान हो जाओ।
(दोनों कान लगाकर सुनती हैं)
पहिली अप्सरा। सखी! महाराज इसी ओर आरहे हैं अब चलो यहां से!
दूसरी अप्सरा। हां बहिन! चलो हमलोग भी चलकर भगवती की पूजा करें।
(दोनों गईं)
परदा गिरता।
इति विष्कम्भक।