नाट्यसंभव/प्रस्तावना
श्रीहरिः।
श्रीश्रीवाग्देवतायै नमः।
रूपक।
प्रस्तावना।
(नाट्यशाला का परदा उठता है)
दोहा।
जग सिरजै, मेटै, भरै, सदा नाटकाकार।
सूत्रधार संसार को मंगलमय निरधार॥
सूत्रधार। (नांदी पढ़कर) अहा! आज हमारा कैसा सुप्रभात है कि बहुत दिनों पर फिर नाटक खेलने के लिए बुलाए गए। हा! एक दिन वह भी था कि रात दिन इस काम के मारे सांस नहीं मिलती थी और एक दिन यह भी है कि खाली हाथ घर बैठे बरसों बीत जाते हैं, पर नाटक खेलने के लिए कोई पूछता-ही नहीं। इससे केवल हिन्दी भाषा कीही अवनति नहीं होती, बरन संग २ हिन्दूसमाज का भी अधःपतन हुआ जाता है। चिल्लाते २ थकगए तौ भी ऐसा
पारा पिलाया है कि किसीके कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। (चारों ओर देखकर) संसार में जब जब जिस २ देश की उन्नति हुई, तब तब उस उस देश के साहित्य के कारण। पर हाय! कैसी लज्जा की बात है कि जिस साहित्य के प्रधान अङ्ग नाटक से यह देश एक समय उन्नति की सीमा लांघ कर भूमंडल के सभी देशों का शिक्षागुरू बना था, आज उसीकी ऐसी दुर्दशा हो और वहीं के निवासी आंखों पर पट्टी बांधे हुए रसातल को चले जाते हैं। (खेद नाट्य करता है) सभी कोई इस बात को मुक्त कंठ से स्वीकार करैंगे कि यह अलौकिक गुण नाटकही में है कि जिसके द्वारा अनेक विभिन्न समाज औ विभिन्न प्रकृति के लोगों का मन एक रसमय हो जाता है। चाहे कोई कैसीही प्रकृति का क्यों न हो, पर नाटक से उसकी मति जिधर चाहे उधर फेरी जा सकती और जैसा चाहे वैसा काम निकाल लिया जा सकता है। (घूमकर) और देखो, नाटक से बढ़कर कोई ऐसा दूसरा उपाय नहीं है, जिससे सर्वसाधारण को सामाजिक-दशा का वर्तमान चित्र दिखाकर उसका पूरा पूरा सुधार किया जाय।
किन्तु हा! मूढ़ता से जकड़े हुए हिन्दुओं के करम में न जाने अभी कौनसा दुःख भोगना बदा है कि अपनी
और देश तथा समाज की दुर्गति देखकर भी नहीं देखते। यह सब मूर्खता के लक्षण नहीं तो क्या हैं? (ठहर कर) अरे हम फिर वही पुराना पीटना पीटने लगे और! यह तो भूलही गए कि आज हम कौनसा रूपक खेलने के लिए आए हैं? अच्छा! पारिपार्श्वक को बुलाकर पूछै। (घूमकर और नेपथ्य की ओर देखकर) अरे भावक!!!
(नेपथ्य में)
आर्य्य। हम आए।
पारिपार्श्वक। (आकर) कहो क्या विचार है?
सूत्रधार। परम माननीय संगीत और साहित्य विशारद
सूर्यपुराधिपति श्रील श्रीयुक्त श्री राजा राजराजेश्वरी
प्रसादसिंह साहब बहादुर ने आज हमें नाटक खेलने
की आज्ञा दी है।
पारिपार्श्वक। यह तो हम भी जानते हैं।
सूत्रधार। तो फिर कौनसा रूपक दिखलावें?
पारिपार्श्वक वाह ! ऐसी जल्दी भूल गए? सुनो श्रीमान्
राजा साहब ने "नाट्यसम्भव" रूपक खेलने के
लिए अनुमति दी है, कि जिसको देखकर लोग इस
विद्या के महत्व को अच्छी तरह समझैं और इसकी
ओर झुककर अपने देश तथा समाज की उन्नति करैं।
सूत्रधार! तुमने ठीक कहा। अहाहा श्रीमान् राजा साहब
का विचार कैसा उदार और प्रशंसनीय है? परन्तु यह रूपक किसका बनाया है?
पारिपार्श्व़क। उन्हीं श्रीमान् के परमस्नेही हिन्दी भाषा के कवि तथा लेखक पण्डित किशोरीलाल गोस्वामी जी ने रचा है।
सूत्रधार। (हर्ष से) क्यों न हो! जैसे सुयोग्य और गुणग्राही श्रीमान् राजा साहब हैं वैसेही रसिक और सुलेखक श्रीगोस्वामीजी भी हैं। बस फिर क्या पूछना है? सोना और सुगन्ध! (घूमकर) इसमें सन्देह नहीं कि इसका अभिनय देखकर रसिकजनों का मन मोहित होगा और इस विद्या में लोगों की श्रद्धा भी होगी (सामने देखकर) अहा! देखो श्रीमान् राजा साहब महोदय अपने दलबल सहित रङ्गभूमि में पधारे, तो चलो हमलोग भी अपना २ काम देखैं।
पारिपार्श्वक हां! चलो। अब विलम्ब केहि काज!
(दोनों गए)
इति प्रस्तावना।