नाट्यसंभव/तीसरा दृश्य
तीसरा दृश्य।
(रंगभूमि का परदा उठता है)
(सिर पर लकड़ी का बोझा और हाथ में फूलों की डाली। लिए भरत मुनि के दो चेले आते हैं)
दमनक। (पृथ्वी में लकड़ी का बोझा और फूलों की डलिया पटक कर) शिव शिव। बोझा ढोते २ जान निकल गई। (सिर पर हाथ फेरता है)
रैवतक। (बोझा उतार कर) क्यों भाई! चांद गंजी होगई। क्या! ऐं।
दमनक। (अंगड़ाई ले और गर्दन पर हाथ फेर कर) चलो जी, वाह! हमारा दस फूल गया और तुम्हें ठट्ठा सूझा है।
रैवतक। अजी! तपोवन में रहकर ऋषि मुनियों की सेवा करना और सांप का खिलाना बराबर है।
दमनक। तो तुम्हीं रात दिन गाड़ी के बैल की तरह जुते रहो। हम धाए ऐसे धंधे से। रात दिन जूझते रहे। तो तुम भले और हम भले। पर जरा भी हाथ पैर ढीला किया कि चट गुरूजी लाल २ आंखें कर घोंटने उगते हैं। क्यों जी! इतना अंधेर! ऐं! भिक्षा मांग कर सबकी सब सामने ला धरो उसमें! से जो कुछ मिला तो जलपान या नहीं तो कोरा उपास। रैवतक। पर तुमने तो कभी उपास नहीं किया होगा!
दमनक। नहीं किया सही, फिर इससे क्या? मुनियों की ऐसीरीत है तो एक न एक दिन हमारे भी करम फूटैंगे।
रैवतक। भला जब जो होगा देखा जायगा, अभी से क्यों इतने उबल रहे हो।
दमनक। रहो जी, कैसी बातें करते हो। घड़ी पर भी जी को चैन नहीं मिलता। जब देखो तव 'यह करो और वह करो' की फुलझड़ी छुटा करती है। चूल्हे में जाय ऐसा काम!
रैवतक। (हंस कर) और भाड़ में जा तू! पागल न जाने कहां का।
दमनक। (झिझक कर) वचा! तू तड़ाक करोगे तो दो झापड़ लगावेंगे। हटो! हम ऐसे उजड्ड से नहीं बोलते।
रैवतक। अच्छा! बुद्धिसागरजी क्षमा कीजिए, आप आप ही हैं आपकी क्या बात है। ल्यो जाने दो, आओ। थोड़ी देर जी बहलावै।
दमनक। अब तुम राह पर आए। (घूमकर) अच्छा। यहीं टहलो! कैसी सुन्दर छाया है।
(दोनों टहलते हैं)
रैवतक। क्यों भाई। कैसी ठंढी हवा चल रही है।
दमनक। इसीसे जी हराभरा होगया। थोड़ी देर टहलने सेही थकावट दूर होगई। 'ताना दिरना दीम् तानानाना' (बगल बजाकर गाता है)
(मुलतानी तिताल)
तारे दानी तुम तनन दिरना।
तदीयनरे तदीयनरे तारेदानी यललो-
यलललुम लुमलुमं यलायलाय ललल
लेना॥ द्रद्रतुं द्रद्रतुं द्रतन दिरना॥
रैवतक। बस करो, बहुत भया। जरा इधर तो देखो। अहा! शरद ऋतु भी कैसी सुहावनी होती है? मानो प्रकृति देवी ने संसार की सर्व झंझटों से हाथ खींचकर शांति का सुन्दर जोड़ा पहिना हो! अहा!
कवित्त।
नील नभ बीच सेत वारिद विहार करैं-
सीतल समीर सुच्छ सोहै वेगरह है।
सथरे सरोवर सरोज विकसाने वेस-
गुप्तत मधुप ओप आनन जरद है॥
करत कलोलैं हंस आवत विदेसन तें-
वनत संजोगी माज मायल मरद है॥
पावन लगी हैं सुख अवला नवेली यह-
कैसी मनभावन सुहावन सरद है॥१॥
दमनक। ठहरो जी! बस लगे न एक संग चरखा ओटने। अरे हमारे पास तो नवेली हवेली हई नहीं। फिर हमें प्रानप्यारी का सुख दुःख कहां? यहां तों जोडू न जांता उठल्लू से नाता!!! क्या करैं बड़ी बेबसी है। ब्रह्मचारी बनकर गुरु से विद्या पढ़ना शुद्ध झखमारही नहीं, यरन जान पर खेलना है। रात दिन पिसते २ देह सूख कर कांटासी होगई। देखैं घर पहुंचते २ हाड़ चाम भी रहते हैं कि नहीं। (मन में) अपने राम तो अब खुर्या जाला और जपमाला जल में डालकर यहांसे रमते बनेंगे।
रैवतक। ओ सिड़ी। एक नई कथा सुनावैं?
दमनक। सिड़ी कहने वाले के सिर पर तिड़ी पड़ती है। यह जानते हैं कि नहीं!
रैवतक। तुम तो बेपानी मेजा उतारने लगते हौ।
दमनक। तुम्हारी बातही जो वे सिरपैर की होती है। अच्छा अपनो रामकहानी तो सुनाओ।
रैवतक। हमारी नहीं। स्वर्ग की।
दमनक। ऐं स्वर्ग की।
रैवतक। हां वर्ग में भी इन्द्र की।
दमनक। क्या! क्या!! कहो तो सही?
रैवतक। हमने गुरुजी से सुना है कि हत्यारे असुर लोग इन्द्राणी को हरण करके लेगए हैं, इसलिये इन्द्र बहुतही उदास हो रहा है।
दोहा।
बहै सहस लोचन सदां, द्वै सहस्र जलधार।
सूखि इन्द्र पीरो भयो, विरहागिन तन जार॥
दमनक। वाह। यह तो बड़ी रंगीली और नई कहानी सुनाई। पर इससे गुरुजी को क्या काम!
रैवतक। गुरूजी ने उसके दुःख दूर करने की प्रतिज्ञा की है कि इसका उपाय हम करैंगे।
दमनक। (मन में) यह तो वही वात हुई कि "बाहरवाले खाजायं औ घर के गावे गीत"। अपने चेला का दुःख दूर करतेही नहीं, इन्द्र का खेद मिटाने चले। (प्रगट) तो अव इन्द्रानी कहां हैं?
रैवतक। गंधमादन पर्वत पर राक्षसों के शिविर में।
दमनक। (मुहं चिढ़ा कर) क्योजी! इन्द्र के सामने से उनकी प्रानप्यारी स्त्री को असुर लोग लूट लेगए और उन से कुछ भी न बन पड़ा? ऐं! यह तो बड़ी लज्जा की बात है। तो फिर अब अपनी रानी को इन्द्र अपनाबैंगे या सीता की शांति यह भी स्त्री को त्याग कर श्री रामचन्द्र की लीक पकड़ैंगे?
रैवतक। क्योंरे मूर्ख! छोटे मुह बड़ी बात! राम राम! सती शिरोमणि शची देवी के लिये तू ऐसे कठोर वचन कहता है? छिः। ऋषियों के आश्रम में रहकर अभी तक तू निरा बैल ही रहा!
दमनक। (उछल कर) और तू गधा बन गया। उल्लू न जानै कहां-का। चुपरह, कलका छोकड़ा औ हम्ही को सिखाने आया है। बचा! यह पण्डिताई अपने घर छौंकना।
रैवतक। हां जी! अच्छी बात कहुई लगतीही है। रहो बचाजी! हम गुरूजी से तुम्हारी सारी दिठाई कह देंगे, तब देखना तुम्हारी कैसी पूजा होती है। समझाने से उलटा गाली गलौज करते हौ।
दमनक। पर पहिले छेड़छाड़ तो तुम्ही करते हौ? (मनमें) यह रैवतवा साला बड़ा खोटा है। जो कहीं सचमुच गुरुजी से कह देगा तो बहा बखेड़ा मचेगा। इसलिये इसे चटकाना अच्छा नहीं। नजाने आज कहां से यह दुष्ट हमारे संग लगा (प्रगट) नहीं भैया! रैवतक! अब कभी ऐसी बात न कहेंगे। जाने दो, देखो हम तुम देना एक जगह रहते हैं, इसलिये आपस में टंटा फरना अच्छा नहीं है। लो देखो! हम तुम्हें हाथ जोड़ते हैं (हाथ जोड़ता है)।
रैवतक। (उसका हाथ थाम कर) सुनो भाई! यह ऋषियों का आश्रम है। यहां पर बिना विचारे कोई बात मुख से नहीं निकालनी चाहिये। अभी जो कहीं कोई सुन लेता वा शाप वाप दे बैठता तो लेने के देने पड़ जाते, कहीं पता भी न लगता और तुम्हारे सङ्ग हम भी सोने जाते।
दमनक। (मन में) वाहरे ठाठ! इतना कहा, मानो बहुत बुरा किया। और जो जोड छीन लेगये उनसे यह श्री पलने वाला कोई नहीं है कि तुम्हारे मह में कै दांत हैं। ठीक है "टेढ़ जान शङ्का सब काहू, वक्र चन्द्रमा ग्रमैं न राहू" और इन रेवतवा का रङ्गता देखा! हमारे पर रोव जमाकर अपना बड़प्पन दिखलाता है। (डरकर) ओ बाबा! जो कोई शाप ताप देदेता तो क्या होता? ऐं! अब यहां रहना अपने प्राण गँवाना है।
रैवतक। (हँसकर) क्या सोच रहे हो दमनक!
दमनक। अपना सिर!!!
(नेपथ्य में)
कवित्त।
आयु बल वुद्धिधन जन नित नित छीजै-
क्रो ध लाभ मद माह काम नेक दहुरे।
छोडि भ्रमजाल या कराल काल जानिढिग-
राधिका गुपाल के चरन दाऊ गहुरे ॥
चारिहू पदारथ में आदि अन्त धारि उर-
गुरु उपदेस मान ज्ञान ध्यान लहुरे॥
त्यागि के लुजान जग चीता के समान यह-
चीता सोई चीता अब सीताराम कहुरे॥
(दोनो कान लगाकर सुनते हैं)
(लकड़ी औ फूलों का चंगेर उठाता है)
दमनक। देखो भाई! गुरुजी से कुछ कहना सुन्ना मत। समझे न!
रैवतक। हम क्या ऐसे छिछोरे हैं जो इधर की उधर लगाया करैंगे। पर फिर कभी ऐसी ऊट पटाँग बात मत बोलना। (गया)
दमनक। इसकी नटखटी तो देखो! हमारे ऊपर दबाव डालता है। (नदी में स्नान कर हाथ में कमंडल लिये भरत मुनि आते हैं)
भरत। (दमनक की ओर देख फर) क्यारे दमनक! आज तू इतना उदास क्यों है रे! किसी से कुछ कहासुनी तो नहीं भई। ऐं।
दमनक। (मन का भेद छिपा कर) कुछ तो नहीं, हां आज आप सवेरे से कहां पधारे थे? देखिये, दोपर हुआ चाहता है (मन में) खोजते र हमारी टांग टूट गई।
भरत। तो इससे क्या?
दमनक। (मन में) मारे भूख के जान निकल रही है और कहते हैं, इससे क्या (प्रगट) यही कि आपने कहा है कि "मध्यान्हे भोजनं कुर्यात्" अर्थात् दोपर तक भोजन कर लेना चाहिये। सो आज देर जो हुई।
भरत। तो क्या चिंता है रे!
दमनक। (मन में) हम मरें तो बखेड़ा मिटै। (प्रगट) पूजापाठ होम करते २ संझा हो जायगी तो आन निर्जला एकादशी करनी पड़ेगी? देखिये दोपर ढलने में अब देर क्या है?
भरत। (हंस कर) अच्छा तू हमारी फिकर मत कर। यह ले (फल देते हैं) नन्दनवन से तेरे लिये यह फल लाये हैं।
दमनक। (मन में) ऊंट के मुंह में जीरा (प्रगट) ऐ गुरूजी इतने में क्या पेट भर जायगा?
भरत। (हंस कर) पेट न ठहरा भरसाईं ठहरी। पहिले खा तो सही, फिर पूछियो। आठ दिन तक भूख प्यास का नाम भी न लेगा।
दमनक। ऐं! ऐं। ऐसा? (फल साता है)
भरत। (हंस कर) वाह! तैनें तो लग्गा लगाही दिया। (मन में) हमने इस सूदे बालक पर बहुतही श्रम का भार डाल दिया है कि जिसमें शरीर नीरोग रहे। पर अभी यह अज्ञान और चंचल है, इससे कमी २ घबरा जाता है। कहीं ऐसा न हो कि उकता कर भाग जाय। क्योंकि इन होनहार लड़के पर हमारी बड़ी ममता है। अच्छा एक दिन इसे भी स्वर्ग की सैर करा दें, जिसमें भागने न पावे। (प्रगट) अरे दमनक! यह कैसा है रे!
दमनक। हां गुरूजी! यहा मीठा है। अहा! कैसा सुन्दर स्वाद है। ऐसा फल तो कभी सपने में भी नहीं खाया था।
भरत। (हँस कर) अच्छा आज तुझे भी नन्दन वन की बहार दिखावेंगे। वहां ऐसे २ फलों का जगल है, जितना चाहे तोड़ लीजो।
दमनक। (प्रसन्न होकर) अहा! धन्य गुरूजी! (चरण छूना चाहता है)
भरत। (पीछे हटकर) अरे जूठे हाथ से यह क्या करता है?
दमनक। (हाथ जोड़कर) भूल गये, गुरुजी! क्षमा करियेगा। हां! नन्दन वन की ओर कब चलियेगा?
भरत। संध्या पूजा करके। परन्तु वहां तुम परिश्रम भी करना पड़ेगा।
दमनक। (मन में) यह "परिश्रम" साढ़े साती सनीचर की भांति हमारे पिंड पड़ा है। यह क्या बिना मान लिये पीछा छोड़ेगा? (ठहर कर) पर मीठा फल जो ढेर सा मिलेगा।
भरत। चल! आश्रम में होम होने लगा, वह धुआँ उठता है (अँगुली से दिखाते हैं)
दमनक। जो आज्ञा (हाथ धोकर लकड़ी और फूलों की डलिया उठाता है)
(आगे २ भरत और पीछे र दमनक का प्रस्थान)
परदा गिरता है।
इति तीसरा दृश्य।