नाट्यसंभव
किशोरीलाल गोस्वामी

पृष्ठ ३० से – ४२ तक

 

चौथा दृश्य।
(परदा उठता है)
(स्थान नन्दनवन का एक प्रान्त)
(आगे र वीणा लिए भरत मुनि और पीछे २ मृदङ्ग लेकर दमनक और रैवतक आते हैं)

भरत। (घूम कर और देखकर) यद्यपि आजकल जाड़े के दिन है, पर यहां सदैव वसन्तऋतु ही विराजमान रहती है। अहा! फूलों से लपटी हुई शीतल, मंदसुगन्ध पवन कैसी अच्छी लगती है। वृक्षों पर बैठे हुए पक्षी गण कैसे चहचहा रहे हैं! फूलों पर झूमते हुए मतवाले भौंरे कैसा आनंद दे रहे हैं? और अपने अपने घोंसलों की ओर जाते हुए आकाशविहारी विहङ्गगण चित्त को कैसा प्रसन्न कर रहे हैं! (ऊपर देखकर) यद्यपि सूर्य्य अस्त हो गए हैं, पर तौ भी यहां स्वाभाविक तेज के कारण कहीं अंधेरे का नाम नहीं है। वाह पूर्व दिशा में चन्द्रमा का भी उदय हुआ है। थोड़ी देर में जब इसकी निर्मल चांदनी चारों ओर वन में छिटकैगी, तब सङ्गीतकी तरङ्ग ऐसा अपूर्व रंग दरसावेगी कि जिसका अनुभव केवल रसज्ञजनही कर सकते हैं (ठहर कर) अहा! देखते २ तारावली के बीच में गोल पन्द्रमा धमकने लगा।

(नेपथ्य में सनसनाहट)
(सब कान लगाकर सुनते हैं)

दमनक। ऐं! गुरुजी। यह क्या सुनाई देने लगा?

भरत। जान पड़ता है कि कुसुम सरोवर में स्नान कर अप्सरा जन आ रही हैं।

दमनक। (आश्चर्य्य से) क्या! वही अप्सरा, जिनकी कथा पुराणों में सुनी है!

भरत। हां वही।

(सब एक ओर खड़े होते हैं और आकाश मार्ग में आती हुई अप्सराएं दिखाई देती हैं)

दमनक। (अप्सराओं को देखकर मन में) अहा हा हा, धन्यभाग! बलिहारी! २ ऐं। स्वर्ग की स्त्रियां इतनी सुन्दर होती हैं? जो सदा कानों से सुना करते थे; वह आज आंखों से देखा। भला! मृत्युलोक की स्त्रियों में ऐसा-रूप कहां?

रैवतक। (अप्सराओं को देखकर मन में) अहा! यही स्वर्ग की सुन्दरी हैं। इन्हीं के प्राप्त करने के लिए लोग असंख्य रुपये खर्च कर बड़े २ यज्ञ यागादिक किया करते हैं। आज गुरूजी की कृपा से हमारे ऐसे अभागे के भीनेत्र सफल हुए। अहाहा! कैसी अपूर्व छटा है?

कवित्त।
जोड़ा जरीदार कसी कंचुकी करार, घेर-
दार घूंघुराले सोभासहज अपार हैं।
भृकुटी कमान दृग बान मुखपान सोहै-
अङ्ग अङ्ग भूखन अदूखन बहार हैं॥
गोरी मतिभोरी जैसे अमी की कटोरी, झूमैं-
अलकैं अमोल लोल लोचन उदार हैं।
आवत अनन्द सों सुराङ्गना सुहागभरी-
पहरात पंख थहरात कुच भार हैं॥

(देवाङ्गनाओं के झुंड निकल जाते हैं और दमनक टकटकी बांधे खड़ा रह जाता है)

भरत। (दमनक-की ओर देखकर) अरे यह तो इतने सेही पागल होगया (उसके सिर पर हाथ रखकर) अरे। चेत चेत!! ओ दमनक!!!

दमनक। (चौंक कर) ऐं! ऐं! क्या है २ गुरूजी! क्या कहते हैं।

भरत। तेरा सिर! सिड़ी न जाने कहां का! सावधान हो

रैवतक। अरे भाई! दमनक! शांत हो जाओ! जो कहीं कोई देवता शाप वाप देदेगा तो हमलोग भसम होजायंगे।

दमनक। (डर कर) ऐं ऐं! शाप! हाय वापर मरे। क्यों गुरूजी! यह बात सच है? यहां भी शाप का बखेड़ा लगा है? (मन में) हम तो जानते थे कि मुनियों के आश्रम मेंही शाप का पाप घुसा है, पर नहीं, यहा भी वही उपाधि लगी है।

भरत। (हँस कर) रैवतक सच कहता है। देख, अभी तक तू भला चङ्गा है यही आश्चर्य मान।

दमनक। (मृदङ्ग पटक कर) लीजिये गुरुजी! हमें अभी अपने घर पहुंचा दीजिये। हम स्वर्ग की सैर से धाये। अब तो जीते जी कभी भूल कर भी स्वर्ग में पांव न रक्खैंगे। हमने झखमारा जो यहां आये। ऐसे स्वर्ग से तो हमारी टूठी फूटी मड़ैयाही अच्छी है कि जहां शापताप का तो प्रपंच नहीं है। हमें ऐसा स्वर्ग नहीं। चाहिये (अपना कान ऐंठता है)

रैवतक। देखो! फिर कभी अप्सराओं की ओर आंखें फाड़ फाड़ कर मत देखना।

दमनक। नहींजी जो भया सो भया। हम क्या इतने मूर्ख हैं कि बार बार ठोकर खायंगे। (मन में) हमने सुना है कि स्वर्ग की मत वाली अप्सराजन सुन्दर युवा पुरुषों को देखकर मोहित होजाती हैं, पर हमारा क्या खाक रूप है, जो वह इस पर रीझैंगी?

(नेपथ्य में)
"जरा आइना लेकर अपना मुंह तो देख मल्लू।"
(सुनकर संब एक दूसरे का मुंह देखते हैं)

भरत। क्यों बच्चा! अभी पेट भरा कि नहीं, या कुछ और फल चखने की इच्छा है?

रैवतक। अप्सराओं के पाने की लालसा अभी मिटी कि नहीं। (मन में) इस मूर्ख के कारण कहीं हमलोगों के सिर कोई आफत न आवै।

(नेपथ्य में अट्टहास्य के संग)
हमलोग ऐसी पत्थर की नहीं हैं कि मानसिक अपराध के लिये शाप देती फिरें।
(सब कान लगा कर सुनते हैं)

दमनक। (डर कर आश्चर्य् से) क्यों गुरूजी। आप तो तपस्या से तीनों काल की बातें जान लेते हैं, पर इन स्त्रियों ने हमारे मन का भेद कैसे जान लिया?

भरत। बेटा! यह देवलोक है। यहां के निवासी हस्तामलक की भांति त्रिकाल की बातें जान लेते हैं।

दमनक। तो गुरूजी! "हम अब सङ्गीत साहित्य छोड़कर वेद पढ़ेंगे।

रैवतक। (जल्दी से) क्या क्या?

भरत। इसलिए कि जिसमें यज्ञ करके स्वर्ग को लूटलें। क्यों? रेवतक। क्यों दमनक! क्या यह बात सच है?

दमनक। इसमें झूठ क्या है? वेदही में लिखा है कि 'स्वर्गकामो यत्' अर्थात् स्वर्ग के उस प्राप्त करने की इच्छा हो तो यश करना चाहिये।

भरत। स्वर्ग का पाना दाल भात का गस्सा नहीं है। न जाने कितने लोग बराबर यज्ञ करते २ मर मिटते हैं पर उनमें से बिरलेही स्वर्ग में आते हैं। जो केवल यज्ञही करने से स्वर्ग प्राप्त होता तो यहां रहने के लिए किसीको दो अंगुल भी स्थान न मिलता। इतनी कसामसी या भीड़भाड़ होती कि लोग घबराकर यहां से भी कहीं दूसरी जगह भागने की इच्छा करते। और फिर अप्सराओं काली ऐसा टोटा पड़ जाता कि सैकड़े पीछे भी एक २ अप्सरा न पड़ती। और हमारे सङ्कोत औ साहित्य की महिमा तो देख कि तू इसी देह से नन्दन वन की हवा खाने आया है। कोई यज्ञ करने वाला पुरुप सी सदेह यहां की सैल करने आया है?

दमनक। (चारो ओर देख कर) हमें तो यहां कोई भी नहीं दिखाई देता। तो क्या वेद झूठा है?

भरत। दुर मूर्स! ऐसी छोटी बात सुख से निकालता है?

दमनक। तो फिर क्या समझैं?

भरत। इसे यों समझ कि जो लोग बिना किसी कामना के यज्ञादिक वैदिक कर्म का अनुष्ठान करते हैं, उन्हीं को पूरा पूरा फल मिलता है। पर जो लालची लाभ वश बड़े मनोरथों को सोच कर यज्ञ करते हैं, उन्हें बड़ी विघ्न वाधा और विपत्ति झेलनी पड़ती है। यदि सब विघ्नादिकों से छुटकारा पाकर सांगोपाल कर्म समाप्त हुआ तब तो अवश्य वान्छित फल मिला, नहीं तो खाली परिश्रमही हाय लगता है और उलटा नरक वास जो होता है सो घलुए में। अतएव ज्ञानी लोग वेद के तात्पर्य को समझ कर कामना रहित वैदिक कर्म करते हैं।

दमनक। (मन में) ओ बाबा! इसमें बड़ा बखेड़ा भरा है। तो फिर भला हमारे फूटे भाग्य में यह सुख कहां? इतनी झंझट उठाने पर भी जल्दी पूरा २ फल नहीं मिलता और नरक जो मिलता है सो नाना दक्षिणा में (प्रगट) अच्छा गुरुजी अब हम सङ्गीत और साहित्य*[] ही से अपना सन्तोष कर लेंगे। क्योंकि इसमें नरक उरक का तो झगड़ा नहीं लगा है। और वेद की कठिनाई के आगे तो यह विद्या सहज भी है।


रैवतक। तुम्हारे जान यह सहज होगी, पर हमें तो पहाड़ सी दिखाई देती है।

दमनक। गुरु जी ने कहाही है कि कोई विद्या हो, उसका पढ़ना और लोहे के घने का चबाना बराबर है।

भरत। हां ऐसा तो हुई है। और देख तो सही; इस विद्या के कैसे२ माहात्म्य महात्माओं ने कहे हैं।

रैवतक। हां हां गुरुजी! अब इसी की थोड़ी चर्चा होनी चाहिये।

दमनक। हमारी भी यही इच्छा है।

भरत। अच्छा, तो ध्यान देकर तुम दोनों सुनो।

(दोनो सावधानता नाटय करते हैं)

(१) अलभ मनुज तन, तासु मध्य विद्या दुर्लभ अति।
विद्या हू पुनि भये सुदुर्लभ कविता मधि गति॥
कविता हू को पाइ शक्ति बहु दुर्लभ जन को।
शक्ति पाय मन चाहत ना धन अखिल भुवन को।

रैवतक। ठीक है गुरूजी! अब इसे न भूलैंगे। और यह भी तो आपने पढ़ाया है-


(१) नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा॥

(अग्निपुराणे)

(१) धर्म अर्थ अरु काम मोक्ष, यह चारि पदारथ।
सरस काव्य को सेवन करि जन होत कृतारथ॥
अखिल कला रत होड़ प्रीति श्री कीरति पावै।
सुखसागर अवगाहि मानसिक माद बढ़ावै॥

भरत। हाँ तुझे स्मरण है भूला नहीं। और सुन-

(२) अर्थ धर्म अरु कामना, मोक्ष पदारथ चार।
लहै अल्पमति मनुज हु, काव्याहि तें*[] निरधार॥

दमनक। और हमें भी याद है, गुरुजी!

भरत। हां हां तू भी सुनादे।

दमनक। (मृदङ्ग पर थाप लगाकर गाता है)

(३) राग रागिनी जाति ताल सुरभेद हियेगहि।
चीन बजावन लत्व मुरज विधि भलीभांति लहि।
काव्य कलाअनुरागि पागि मुद महापुरूप नर।
शब्दरूप केशव समान सो मुक्ति लहै कर॥


(१) धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचतण्यं कलासु च।
करोति कीर्तिं प्रीतिं च साधुकाव्यनिषेधणम्॥

(विष्णुपुराणे)

(२) चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि।
काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निगद्यते॥

(साहित्यदर्पण)

  1. * अथातः साहित्यं व्याख्यात्यामः। सद्य कविकल्पनाविश्वप्रसूनेरादिकारणमूतपदार्यानां संहतिरेव (साहिन्यम्) यथाह सुबन्धुः "कवित्वसम्पादनोपयोगिवस्तुसमूहसंहतिरेव साहित्यम्।
  2. * लोकोत्तराल्हादनाजनकत्वेन सचेनसां हृदयद्रवीभूतकरणसमर्थः कविः सरकर्मणि विशेषः तस्येदङ्काव्यम्। रसात्मकं वाच्यङ्काव्यम्। न नैन विना रमणीऽऽयाति, कुत आत्मत्वात्। आत्मनो राहिव्येन शववदेय नीरसवर्णनत्रकाव्यनाममाक्। (सुबन्धुः)

(३) वीणावादनतत्वतःवरजातिविशारदः।
तालमवाप्रयासेन साक्षनाग प्रयच्छति॥

भरत। शास्त्रों में और भी असंख्य वचन इसकी महिमा से भरे पड़े हैं।

रैवतक। अहा! इतने दिनों तक पढ़ने से जो आनन्द नहीं मिला था वह आज प्राप्त भया।

दमनक। भाई यह तुमने सच कहा।

भरत। अच्छा! अब तुम दोनो काव्य की महिमा वाली वह गीत गाओ जो कल हमने बताई है।

दमनक और रैवतक। जो आज्ञा।

(भरतमुनि बीन बजाते हैं और दोनो मृदङ्ग बजाकर गाते हैं)

राग ईमन।

(९) जग में जगदायक कविता है।
अर्थ धर्म अरु काम मोक्ष जव मिलै, बच्यो अरु का है?
लोकरीति औ नीति सिखावतआनंद देतमहा है।
बनिता ऐसो मधुरबोल कहि उपदेसतकरि चाहे॥


काव्यालापाश्च ये केचिद् गीतिकाव्यखिलामि च।
शब्दमूर्त्तिधरस्यैते विष्णोरंशा महात्मनः॥

(विष्णुपुरारणे)

(१) काव्यं यशतेऽर्थकृते-
व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परनिर्वृतये-
कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥

(काव्यप्रकाशे)

साई पावै सवै मनोरथ जो यामें अवगाहै।
नसै अमंगल भलीभांति, छिति छाये रुचिर छटा है॥

(नेपथ्य में)

क्यों न हो, साक्षात् नङ्गीत के स्वरूप महामुनि भरताचार्य्य के बिना ऐसे अलौकिक अमृत की वर्षा कौन करेगा?

(सब सुनकर इधर उधर देखते हैं और इन्द्र का प्रतिहारी आता है)

प्रतिहारी। (प्रणाम करके) मुनिवर की जय होय।

भरत! चिरंजीवी होवो। कहो पिंगाक्ष! किधर चले।

प्रतिहारी। आपका सङ्गीत सुनकर महाराज शचीपति बड़े मोहित हुए हैं।

भरत। यह हमारे दोनो शिष्य (दमनक और रैवतक को अङ्गुली से दिखाकर) गा रहे थे। अच्छा देवेन्द्र इस समय कहां विराजे हैं?

प्रतिहारी। (मन से) ओहो ! जिनके चेले ऐसा गाते हैं कि जिसे सुनकर इन्द्र भी मोहित होगए तो फिर भरतमुनि के गाने का क्या पूछना है? सच है! इसीसे तो गन्धर्व विद्याधर आदिमभी भरत मुनि के आगे भट्टीत विद्या में सिर झुकाते हैं और अप्सराओं की तो कुछ गिनती ही नहीं।

भरत। (मुसक्याकर) ऐं तुम सोच क्या रहे हौ प्रतिहारी। नहीं, योंही कुछ। हां सुनिये,पाकशासन वैजयन्त प्रासाद से अकुलाकर इस सन्ध्या के सुहावने समय में कुसुम सरोवर के तीर आकर चक्रवाक मिथुन के विछोह को देख बहुतही बिकल हो रहे थे, पर आपके शिष्यों के सङ्गीत को सुनकर वे फिर सावधान हुए हैं।

भरत। परन्तु तुम्हें किसलिए देवेन्द्र ने भेजा है?

प्रतिहारी। महाराज ने आपसे निवेदन किया है कि हमारे चित्तविनोद का उपाय आप शीघ्र करिये और दर्शन दीजिये।

भरत। देवेन्द्र से हमारी ओर से समझाकर कहना कि हम बहुत जल्दी इसका उपाय करके उनसे मिलेंगे और आशा है कि उनका मनोरथ शीघ्र पूरा होगा।

प्रतिहारी। जो आज्ञा (प्रणाम करके जाता है)

रैवतक। (मन में) अहा! तपस्या का प्रभाव धन्य है कि जिस के आगे स्वर्ग के रहनेवाले देवता भी सीस नवाते हैं!

दमनक। (मन में) हमारे बड़े भाग्य हैं कि ऐसे गुरु हमें मिले कि जिनका मुँह देवता भी जोहा करते हैं।

भरत। अरे तुम दोनो थोड़े से फूल बीनकर उस ओर (अंगुली से बताकर) आकाशगङ्गा के तट पर आना। हम आगे चलते हैं।

रैवतक और दमनक। जो आज्ञा।

(भरतमुनि का एक और से प्रस्थान)

दमनक। पहिले तो हम फल तोड़ तो खायंगे पीछे फूल बीना जायगा।

रैवतक। (फूल बीनते २ हंसकर ) पर हाथ धोने के लिए जल कहां से आवैगा?

दमनक। दुत्तेरा बुरा होय। कैसी बाधा डाल दी! छीः!

रैवतक। लो! चटके न! वहीं न फल लेते चलो, मजे में आकाशगङ्गा के किनारे बैठकर दोनो जने भोग लगावैंगे।

दमनक। (मन में) देखो वचा की धूर्तता। अपनी टिक्की पहिले जनाता है। पर हम तो फल जूठे करके इसे अंगूठा दिखा देंगे (प्रगट ) यह तुमने बहुत अच्छा कहां।

(फूल और फैल तोड़ता है)

रैवतक। लो! हमने तो एक टोकरी फूल बीन लिए।

दमनक। देखो हमने कितनी जल्दी तुमसे दूना फूल भी बीना और फल भी तोड़ा।

रैवतक। तुम्हारी क्या बात है, तुम तुम्ही है।

दमनक। भला २ अब चलो सिद्धजी।

(दोनो जाते हैं)
परदा गिरता है।
इति चौथा दृश्य।