दिल्ली: इंद्रप्रस्थ पुस्तक भंडार, पृष्ठ १ से – ११ तक

 

पहिला अध्याय

धर्म क्या है?

धर्म ने हज़ारों वर्ष से मनुष्य जाति को नाको चने चबाऐ हैं। करोड़ों नर नाहरों का गर्म रक्त इसने पिया है, हज़ारों कुल बालाओं को इसने जिन्दा भस्म किया है, असंख्य पुरुषों को इस ने ज़िन्दा से मुर्दा बना दिया है। यह धर्म पृथ्वी की मानव जाति का नाश करेगा कि उद्धार—आज इस बात पर विचारने का समय आगया है।

धर्म के कारण ही धर्म के पुत्र युधिष्ठिर ने जुआ खेला, राज्य हारा, भाइयों और स्त्री को दाव पर लगा कर गुलाम बनाया, धर्म ही के कारण द्रौपदी को पांच आदमियो की पत्नी बनना पड़ा। धर्म ही के कारण अर्जुन और भीम के सामने द्रौपदी पर अत्याचार किये गये और वे योद्धा मुर्दे की भांति बैठे देखते रहे। धर्म ही के कारण भीष्मपितामह और गुरुद्रोण ने पांडवों के साथ कौरवों के पक्ष में युद्ध किया, धर्म ही के कारण अर्जुन ने भाइयों और सम्बन्धियो के खून से धरती को रङ्गा, धर्म ही के कारण भीष्म आजन्म कुंवारे रहे, धर्म ही के कारण कुरुओं की पत्नियो ने पति से भिन्न पुरुषो से सहवास करके सन्तान उत्पन्न कीं।

धर्म ही के कारण राम ने राज्य त्याग वनोवास लिया, धर्म ही के कारण दशरथ ने रामको वनोवास दिया, धर्म ही के कारण रामने सीता को त्यागा, शूद्र तपस्वी को मारा, विभीषण को राज्य दिया।

धर्म ही के कारण राजा हरिश्चन्द्र राज्य पाट छोड़ भंगी के नौकर हुए, धर्म ही के कारण बलि ठगे गये, धर्म ही के कारण कर्ण को अपने कुण्डल और कवच देने पड़े।

धर्म के कारण राजपूतों ने सिर कटाये, उनकी स्त्रियो ने अपने स्वर्ण शरीर भस्म किये, रक्त की नदी बही। धर्म ही के कारण शंकर और कुमारिल ने, दयानन्द और चैतन्य ने, कठोर जीवन व्यतीत किये।

आज धर्म के लिये हमारे घरों मे तीन करोड़ विधवाऐं चुपचाप आंसू पीकर जी रही हैं। ७ करोड़ अछूत कीड़े मकोड़े बने हुए हैं। धर्म ही के कारण पाखण्डी, घमण्डी और गवर्गण्ड ब्राह्मण सर्व श्रेष्ठ बने हुए हैं। धर्म ही के कारण पत्थरों की भद्दी और बेहूदी अश्लील मूर्तियाँ तक पूज्यनीय बनी हुई हैं। धर्म ही के कारण पत्थर को परमेश्वर कहने वाले पेशेवर गुनहगार पुजारी लाखों स्त्री पुरुषों से पैरो को पुजाते हैं। धर्म ही के कारण भंगी प्रातःकाल होते ही अपनी बहू बेटियों सहित औरों का मलमूत्र सिर पर ढोता है, धर्म ही के कारण आज हिन्दू, मुसलमान और ईसाई एक दूसरे के जानी दुश्मन बने हैं।

धर्म के कारण ही सिक्खों ने मुग़ल काल में अंग कटवाये बच्चों को दीवार में चुनवाया, धर्म ही के कारण रोमनकैथालिकों के भीषण अत्याचार की भेंट लाखों ईसाई हुए, धर्म ही के कारण नीरों ने ईसाइयों को मसाल की भांति जलवाया। धर्म ही के कारण मुसलमानों ने पृथ्वी भर को रोंद डाला और मनुष्य के गर्म खून में तलवार रंगी। धर्म ही के लिये ईसाइयों ने प्राणों का विसर्जन किया।

आज धर्म के लिये सिपाही युद्ध-क्षेत्र में सन्मुख के मनुष्य को मारता है, धर्म ही के कारण वेश्याएं अपनी अस्मत बेचती हैं, धर्म ही के कारण कसाई पशु वध करता है। धर्म ही के कारण जीवहत्या करके मन्दिरों में बलि दी जाती है।

मैं जानना चाहता हूं कि सारी पृथ्वी में हज़ारों वर्ष से ऐसे उत्पात मचाने वाला, यह महाभयानक धर्म क्या वस्तु है। यह क्यों नहीं मनुष्य को मनुष्य से मिलने देता? क्यों नहीं मनुष्य को शान्ति से रहने देता? क्यों नहीं मनुष्य को आज़ाद होने देता? इसने शैतान की तरह दिमाग़ को गुलाम बना लिया है। जो मनुष्य जिस रङ्ग में रङ्गा गया, उस के विरुद्ध नहीं सोच सकता—प्राण दे सकता है, यह इस प्रबल शक्तिशाली धर्म की करामात है। वेश्या समझती है, कसब करना ही हमारा धर्म है, विवाहित होकर गृहस्थ बनना नहीं। अछूत समझता है, औरों का मैला ढोना ही हमारा धर्म है, उत्तम वस्त्र पहिनकर उच्चासन पर बैठना नही। ब्राह्मण सोचता है सब से श्रेष्ठ होना ही हमारा धर्म है, किसी की भी प्रतिष्ठा करना नहीं। सिपाही समझता है जिसकी नौकरी करते हैं, उसके शत्रु का हनन करना ही हमारा धर्म है, दूसरा नहीं। पुजारी समझता है, इस पत्थर को सर्व सिद्धि दाता भगवान् समझना ही हमारा धर्म है इससे भिन्न नहीं। मुसलमान समझता है, कि काफिर को कतल करना ही हमारा धर्म है दूसरा नहीं। विधवा समझती है मरे हुए पति के नाम पर बैठना, और सब के अत्याचार चुप-चाप सहना ही उसका धर्म है इसके विपरीत नहीं। जल्लाद समझता है कि अपराधी को फांसी देना ही धर्म है इसके विपरीत नही। गरज इस जादूगर धर्म के नाम पर पाप पुण्य अच्छा बुरा जो कुछ मनुष्य को समझा दिया गया है, मनुष्य उस में विवश हो गया है उससे वह अपने मस्तिष्क का उद्धार नहीं कर सकता।

इस धर्म को भिन्न भिन्न समयों में भिन्न भिन्न रीति से लोगों ने मनन किया। बहुत से लोगों ने उसे केवल आध्यात्मिक बताया। बहुतों ने शरीर के साथ भी उसका संसर्ग कायम किया। परन्तु जब से मनुष्य ने धर्म शब्द पहचाना, तब से धर्म के नाम पर—हत्या, पाखण्ड, छल, कपट, व्यभिचार, जुआ, चोरी, हराम खोरी, बेवकूफी, ठगी, धूर्तता, अपराध ओर पाप सभी प्रशंसा और क्षमा की दृष्टि से देखे गये। इस धर्म का यहाँ तक बोलबाला हुआ कि धर्म के नाम से ऐसी बहुत सी चीज़े बेची जाने लगीं जिनका धर्म से कोई सम्बन्ध न था। नदियों में स्नान करना धर्म, चिउंटियों और कीड़ों को खाने को देना धर्म, कपड़ा पहनना धर्म, गरज—चलना, फिरना, उठना, बैठना, सभी में धर्म का असर घुसड़ गया।

इस नकली, झूठे और निकम्मे धर्म का भाव भी बहुत ऊंचा चढ़कर उतरा। रोम के पोप मरने वालों से उनके पाप स्वीकृत करके स्वर्ग के नाम हुण्डी लिखाते थे। लाखों रुपये हड़प लेते थे। गया के पण्डे स्त्रियों तक को दान करा लेते थे। काशी और प्रयाग में लोग प्राण तक देते थे। परन्तु आज कल धर्म का दर कूड़े कर्कट से भी गिरा हुआ है। मन्दिर के पत्थर के सामने एक पाई फेंक देने से धर्म हो जाता है। फटे कपड़े किसी दरिद्र को दे डालने से भी धर्म होजाता है। जूंठन किसी भूखे को दे देने से भी धर्म हो जाता है। किसी खास नदी मे एक गोता लगाने, बड़, पीपल के ३-४ चक्कर लगाने, तुलसी का एकाध पत्ता चबाने, गाय का पिशाब पीने आदि से भी धर्म प्राप्त होजाता है। एकाध दिन भूखा रह कर फिर भाँति भाँति के माल उड़ाने से भी धर्म होता है। माथे पर साढ़े ग्यारह नम्बर का साइनबोर्ड लगाने पर भी धर्म होता है। किसी पाखण्डी ब्राह्मण को आटा, दाल दे देने, कुछ खिला पिला देने, या किसी भिखारी को एकाध धेला पैसा दे देने से भी, धर्म होता है। रास्ते चलते किसी सिन्दूर लगे पत्थर को सिर नवा देनेसे भी धर्म होता है। अगड़म बगड़म कोई खास श्लोक जिसे कोई भी पाखण्डी बता सकता है जाप करने से धर्म होता है। नहाने से धर्म होता है, नङ्गा बैठकर और मेंढक की तरह उछल कर चौके में जाकर खाने से धर्म होता है। रात को न खाने से धर्म होता है। हाथों से बाल नोच लेने से, गन्दा पानी पीने से, मलमूत्र जमीन में गाड़ देने से धर्म होता है। मनों घी और सामग्री को अग्नि में फूंक देने से भी धर्म होता है।

अरे अभागे मनुष्यो! ज़रा यह भी तो सोचो—धर्म आखिर क्या बला है। तुम उस के पंजे में क्यो फंसे हो? जातियों की जातियों का इस धर्म संघर्ष में नाश हो गया पर धर्म को मनुष्यों ने न पहचाना, बौद्धों ने सारी पृथ्वी को एक बार चरणों में झुकाया पीछे उन्होंने रक्त की नदियां बहाईं अन्त में नष्ट हुए। ईसाइयों ने भी मनुष्यों में हाहाकार मचाया। मुसलमानों ने शताब्दियों तक मनुष्यों को सुख की नींद न सोने दी। धर्म, मनुष्य जाति के हृदय पर पर्दा बना खड़ा है। पर मनुष्य उस से सचेत नहीं होता, सावधान नहीं होता।

ईसाइयों और मुसलमान के धर्म शास्त्र की चर्चा मैं छोड़ता हूँ। मेरी इस पुस्तक का सम्बन्ध केवल हिन्दुओं के धर्म से है, मैं हिन्दू-धर्म की पुस्तकों पर ही अधिकतर कुछ कहना चाहता हूँ। हिन्दुओं की धर्म पुस्तकों के मुख्य तीन विभाग हैं। प्रथम विभाग में वेद, उपनिषद् और सूत्रग्रन्थ, दूसरे विभाग में स्मृतियां और तीसरे में पुराण हैं। यद्यपि हिन्दू जाति इन सभी पुस्तकों को धर्म-ग्रन्थ मानती है परन्तु इन सब में अनन्त मत भेद हैं; और इसी का यह फल है कि हिन्दू जाति धार्मिक दृष्टि से इतने भागों में विभक्त है कि जितने भागों में पृथ्वी की कोई भी जाति नहीं। प्रत्येक के प्रथक् २ विश्वास हो रहे हैं। अकेले वेद और उसके साहित्यको धर्म ग्रन्थ मानने वालोंके सम्प्रदायोंकी ही गिनती करना कठिन है। स्मृतियों का काल, वर्णन, सब एक दूसरे के प्रतिकूल है। और पुराणों का तो हाल यह है कि उन से वेद और प्राचीन साहित्य से प्रत्यक्ष में कोई तारतम्य ही नहीं दृष्टि आता। इन में जिस ने जिस सम्प्रदाय को माना—वहीं उस का विश्वासी हो गया। इन भिन्न २ सम्प्रदाय, विश्वास और भावना के अधिकारियों के आचार विचार भी भिन्न २ हैं। कुछ लोग वेद को अपौरुषेय और यज्ञपरक मानते हैं। उनके मत में वेद ज्ञान का भण्डार और ईश्वरकृत है, कुछ लोग वेद को अपौरुषेय किन्तु यज्ञपरक मानते हैं। उनका मत है कि वेद ईश्वर कृत हैं और उस में ज्ञान नहीं—यज्ञ के उपयोगी मन्त्र मात्र हैं। उन मन्त्रों के अर्थों से कुछ मतलब नहीं, केवल मन्त्रों में कुछ शक्तिशाली प्रभाव है जो फल देता है। कुछ लोग वेद को ऋषियों द्वारा प्रणीत और ऐतिहासिक वस्तु मानते हैं। अन्ततः वेदो को यज्ञपरक मानने वाले हिन्दू जाति में अधिक हुए हैं। सायण और महीधर जैसे भाष्यकार और निरुक्तकार भी इसी मत के हुए। एक समय ऐसा आया कि यज्ञ ही हिन्दुओं का सर्वोपरि धर्म हो गया और सैकड़ों वर्ष तक चला। उस यज्ञ में क्या २ पाप पुण्य न हुये। यज्ञों के लिये घोड़े छोड़े जाते, युद्ध होते, राजाओं को व्यर्थ आधीन किया जाता, यज्ञ केलिये दिग्विजय की जाती, रक्त की नदियां बह निकलती। यज्ञों में राजा करोड़ों की सम्पदा ब्राह्मणों को दान करके भिखारी बन जाते। पीछे यज्ञों में पशु बध हुए। और भी भयानक स्थिति तो तब हुई, जब यज्ञ विधान तान्त्रिकों के हाथ में आये और मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि तथा भैरव, भैरवी, चण्डी, काली, कराली की सिद्धियां भी यज्ञों द्वारा ही सिद्ध की जाने लगीं।

यज्ञों का विरोधी दल उपनिषदों का भक्त मण्डल रहा। उस ने भक्तों को धर्म का काम मानने से इन्कार कर दिया। वह केवल मनन करने, ज्ञान प्राप्त करने और ज्ञानी होने ही को धर्म मानने लगे। ऐसे लोग एकान्तवासी, त्यागी, तपस्वी और मुनि बने। ये दोनों ही दल समय २ पर खूब ही संघर्ष करते रहे।

बौद्धों के उदय के साथ हिन्दुओं का यज्ञ करने वाला धर्म दब गया था। वह फिर उभरा और तब यज्ञ नष्ट हो गये थे। यज्ञों के स्थान पर मूर्तियों की पूजा हिन्दुओं का सर्वोपरि धर्म बन गया। उस मूर्ति पूजा में भी शैव वैष्णव और शाक्त तीन प्रधान सम्प्रदाय हुए। तीनों परस्पर विरोधी-शत्रु और विचार में एक दूसरे के सर्वथा विरोधी रहे।

तत्त्ववेत्ता और दार्शनिक लोगों की मध्ययुग में ख़ूब धाक रही। और इन्होंने धर्म के नियमों को प्रायः उच्छृंखल रीति से समझा तर्क और विवेक के चक्र व्यूह में बुद्धि को घुमाया। इसमें सब से अधिक चमत्कार योगशास्त्र ने प्रकट किया। योग के अद्भुत और अव्यवहारिक चमत्कारों पर आज भी पृथ्वी के मनुष्य विश्वासी हैं। एक हद तक योग भी उच कोटि का धर्म बन गया। जो कोई भी योगी हो सकता है, उसके लिये यह निर्विवाद बात है कि पूर्णतया धर्मात्मा और ईश्वर भक्त है।

स्मृतियां सूत्र ग्रन्थों के आधार पर बनी। धर्मसूत्र और गृहसूत्र बनते ही गये, जब तक यज्ञों के प्रपंच बढ़ते गये। पीछे तो इन स्मृतियों ने अनगिनत जातियाँ, अनगिनत आचार, अनगिनत लोकाचार मनुष्य समाज में उत्पन्न कर दिये।

पुराणों ने अन्तिम प्रभाव पैदा किया और भिन्न भिन्न प्रकार के महात्म्य, श्रद्धा पैदा करने वाली कहानियाँ, नये से नये ढकोसले और वे सिर पैर की बातें धर्म सम्पुट की भाँति उनमें भर दीं। लोग अन्धविश्वास और अज्ञान के पूर्ण वशीभूत होगये।

इन सभी धर्म ग्रन्थों में कुछ न था यह मेरा कहना नहीं। पुराणों से इतिहास की अप्रतिम सामग्री आज भी हमें उपलब्ध हो सकती है। तर्क, मीमांसा, योग और सांख्य मे बहुत बुद्धि गम्य बातें हैं। परन्तु यदि कोई वस्तु नहीं है तो धर्म। इन सभी धर्म ग्रन्थ कहाने वाली पुस्तकों ने यदि किसी विषय में हमें अन्धा और गुमराह बनाया है तो केवल धर्म ने।

तब धर्म क्या चीज़ है? जैसा कि हम कह चुके हैं—भङ्गी का धर्म पाखाना साफ करना, वेश्या का कसब कमाना और विधवा का मरे पति के नाम पर बैठी रोया करना धर्म है। उस धर्म की हम चर्चा नहीं करते। धर्मशास्त्रों में धर्म की कैसी व्याख्या है, इस पर थोड़ा प्रकाश डालना चाहते हैं।

मनुस्मृति कहती है कि धीरज, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध ये धर्म के १० लक्षण हैं। इन दशो में सिपाही का धर्म हिंसा तो नहीं आया? इस में सत्यासत्य की व्याख्या भी नहीं की गई। अब इस श्लोक में वर्णित लक्षणों को बुद्धि की कसौटी पर कस कर हम देखते हैं।

सब से प्रथम सत्य को लीजिये। सत्य धर्म का लक्षण है। मैं सत्य बोलने का व्रत लेता हूँ। मेरे पास १० हज़ार रुपये ज़मीन में अत्यन्त गोपनीय तौर पर गड़े हैं, उसका पता चलना भी सम्भव नहीं। हज़ार पांच सौ ऊपर भी मेरे पास हैं। एक दिन चोर ने गला आ दबाया। कहा "जो है रख दो, वरना अभी छुरा कलेजेके पार है।" अब आप कहिये क्या मुझे सत्य कह देना चाहिये कि इतना यह रहा और १० हज़ार यहाँ ज़मीन में गड़ा है? मेरी राय में ऐसा सत्य महामूर्खता का लक्षण होना चाहिये। जब दुर्योधन की मृत्यु का समाचार धृतराष्ट्र ने सुना, तो उन्हीं ने पूंछा—वह भीम कैसा बली है जिस ने मेरे बेटे दुर्योधन को मार डाला, उसे मेरे सन्मुख लाओ, मैं उसे छाती से लगा कर प्यार करूंगा। तब कृष्ण ने उन के सामने लोहे की मूर्ति सरका दी, जिसे बलपूर्वक इस भाँति अन्धे धृतराष्ट्र ने मसल डाला कि सचमुच यदि भीमसेन उनके हाथ में चढ़ गये होते तो उन की चटनी बन जाती। अब मैं पूंछता हूँ कि यहां छल करके कृष्ण ने अधर्म किया या नहीं।

हिंसा की बात भी विचारनी चाहिये। मैं एक चींटी को मार कर हत्यारा कहाता हूँ, परन्तु एक सिपाही असंख्य मनुष्यों का वध करके भी वीर कहाता है। क्यों? युद्ध में भी तो हत्या होती है, ऐसी हत्याऐं करने वाले पापी अधार्मिक क्यों नहीं।

इसी प्रकार प्रत्येक लक्षण को हम यदि कसौटी पर कसें तो हम धर्म के इन दश लक्षणों पर निर्भर नहीं रह सकते।

दर्शन-शास्त्र बताते हैं "यतो अभ्युदयः निःश्रेयस सिद्धि सधर्मः" जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस दोनों की प्राप्ति हो वही धर्म है। अभ्युदय का अर्थ है ऐहिलौकिक सर्वोच्च सुख, जिस में सब प्रकार की व्यक्तिगत और सामूहिक स्वाधीनता अधिकार प्रणाली, जीवन तारतम्य की धाराएं आगई। निःश्रेयस का अर्थ है—पारलौकिक सर्वोच्च स्थिति, अर्थात् मुक्ति। मुक्ति का अर्थ यह है कि जीवन के अन्तस्तल में मनुष्य की सब वासनाएं, इच्छाएं तृप्त हो जायें, उसका मन सब वस्तुओं से विमुक्त होजाये, उस के सब बन्धन नष्ट हो जाये। वह जन्म न धारण करे। यही मुक्ति है।

मुक्ति के लिये मनुष्य को ऐहिलौकिक कर्म इस भावना से करने अनिर्वाय हैं कि वह उनमें तनिक भी लिप्त न हो, और ऐसा व्यक्ति अभ्युदय की प्राप्ति नही कर सकेगा। इसीलिये ऐसे मनुष्य जो मुक्ति की भावना के लिए ऐहिलौकिक सब स्वार्थों और