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दशवां अध्याय

धर्म नीति

जिस काम में विचार शक्ति को काम में न लाया जाय वह काम बेवकूफी में दाखिल है। आजकल प्रायः संसार भर के धर्म बेवकूफी ही कहलाए जा सकते हैं। क्योंकि प्रायः सर्वत्र ही यह कहा जाता है कि धर्म के काम में अक्ल को दख़ल नहीं है। परन्तु मैं यह जानना चाहता हूँ कि धर्म के काम में अक्ल को दख़ल क्यों नहीं है। धर्म क्यों इतना बेसिर पैर की चीज़ है, क्यों युक्ति और नीति रहित है कि उस में सोचने विचारने से पाप लगता है।

मैं यह कहता हूँ कि मस्तिष्क की सम्पूर्ण शक्ति का यदि कहीं पर उपयोग हो सकता है—तो वह धर्म ही है। धर्म ही को गीता ने कर्म कह कर पुकारा है। कौन काम कर्म है, कौन नहीं—गीता कहती है कि यह निर्णय करने में बड़े २ धुरन्धर शास्त्री विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। [ १६७ ]

हम ने पीछे किसी अध्याय में कणाद मुनि के वैशेषिक सूत्र "यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः" इस पर प्रकाश डाला है। इस वाक्य के साथ वहाँ जो और पंक्तियाँ लिखी हैं उन पर प्रत्येक पाठक को भली भाँति मनन करना चाहिये।

उस से अधिक मैं यह कहना चाहता हूँ कि सब से उत्तम धर्म वही है जिस में नीति की मर्यादा का अधिकाधिक पालन किया गया हो। यद्यपि आज संसार भर के मनुष्य नीति से धर्म को पृथक् किया चाहते हैं। परन्तु मेरी राय में यह असम्भव है।

नीति का निर्माण रीतियों पर चला है। सृष्टि के आदि से आज तक लोग अच्छी रीतियाँ चलाते और बुरी छोड़ते रहे हैं। बहुधा ऐसा होता है कि लोक लाज या दबाव से बहुत मनुष्य कुछ बुरे काम नहीं करते और कुछ अच्छे कर गुज़रते हैं। यद्यपि बुरे कामों के लिये उनके मन में इच्छा और भले कामों के लिये अनिच्छा रहती है। परन्तु कुछ ऐसे भी मनुष्य होते हैं जो मरने जीने या हानि लाभ की तनिक भी परवा बिना किये, नीति मार्ग पर चले ही जाते हैं। इन दोनों प्रकार के मनुष्यों में अन्तर तो होता ही है। और वह अन्तर यही है कि अन्तरात्मा से काम करने वाले लोगों की नीति ही धर्म नीति है। यदि नीति और धर्म का समावेश न किया जायगा तो नीति कभी भी अच्छे मार्ग पर न चल कर कुराह पर ही चलेगी। वास्तव में बीज धर्म है और नीति का जल सिंचन करने से ही उस में शुभ अंकुर लगता है। केवल नीति के परिणाम स्वरूप ही हम अच्छे विचारों का निर्णय [ १६८ ]कर सकते हैं। मनुष्य का साधारण ज्ञान हमें बताता है कि दुनिया कैसी है—परन्तु नीति हमें यह बताती है कि वह कैसी होनी चाहिये। और धर्म हमें उस लक्ष्य तक पहुँचाता है।

मनुष्य को उचित है कि वह शरीर, मन और मस्तिष्क की अलग २ जाँच करे। वह इस बात पर भी ग़ौर करे कि अन्याय, स्वार्थ, दुष्टता और अभिमान के क्या परिणाम होते हैं। यदि मनुष्य धर्म और नीति को संयुक्त करके विचारों का एक नक़शा (प्लान) तैयार कर ले और फिर उन पर वह अमल करे तो वह सही उतरेगा। नक़शा बताता है कि घर कैसा बनेगा, घर बन जाने पर नक़शा व्यर्थ है। इसी प्रकार नीति और धर्म के विपरीत आचरण करके नीति पर विचार करना व्यर्थ है।

नीति का नियम यह है कि हमारे अनुभव में जो सचाईयाँ आती जायँ उनके आधार पर हम अपने आचरणों को बनाते जायँ। जो मार्ग सच्चा है, वह चाहे बिल्कुल ही नया और अपरिचित क्यों न हो हमें उसे ग्रहण ही करना चाहिए। इसका यह अर्थ है कि हमें कट्टरता के सभी विचार त्याग देने चाहिए। और कट्टरता को जो आज कल के धर्मों का प्रधान लक्षण है, नीति मूलक धर्म का सबसे बड़ा दुश्मन समझना चाहिए।

उत्तम धर्म नीति क्या है—इस पर विचार करना भी आवश्यक है। अमुक कार्य से हमारा यह लाभ हो सकता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वह धर्मनीति से पूर्ण है। और इसी प्रकार धर्मनीति के कार्य के लिये यह आवश्यक नहीं कि वह लाभदायक [ १६९ ]हो। इसका अर्थ यह है जैसा कि बहुधा लोग किया करते हैं कि वे अपनी भलाई के काम करते हैं। धर्म नीति का आधार न तो मनुष्य की इच्छा पर ही है, और न स्वार्थ ही पर। ऐसे नीति निष्ट और धर्मात्माओं का अभाव नहीं जिन्होंने सत्य शोधने के लिये कष्ट सहे और जानें दीं। इससे हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि धर्म वे निर्णय हैं जो मनुष्य के मत, स्वार्थ और इच्छा से भिन्न है। और उनके आधीन होना मनुष्य के लिये कर्तव्य है।

धर्म नीति के तीन मूल सिद्धान्त हैं। १—सत्य, २—भलाई, ३—ईश्वरीय नियम। ये तीनों चीजें जगत में सदैव रहेंगी, चाहे सारी पृथ्वी के मनुष्य शैतान या अधर्मी क्यों न हो जायँ।

अनीति ही अधर्म है। पहले वह अनीति धर्म से पृथक दीख पड़ती है, पीछे वह धर्म के स्वरूप को प्रकट कर देती है। अन्याय और अन्धविश्वास आँधी की भाँति उठते और अन्त में नष्ट हो जाते हैं। सीरिया और बेविलिन में अधर्म का घड़ा भरते ही फूट गया। रोम अधर्म अनीति पर चलने लगा और नष्ट हो गया। बड़े २ रोमन महापुरुष भी उसकी रक्षा न कर सके। ग्रीस की चतुर प्रजा ग्रीस को अनीति के हाथ से न बचा सकी। फ्रांस का विद्रोह अनीति के ही विरुद्ध था। एक विद्वान का कहना है, अनीति को राज सत्ता सौंप दो—वह टिक न सकेगी।

क्रान्ति एक स्थिर सत्य है जो धर्म या नीति के विपरीत फैले जाल को नष्ट करती है। क्रान्ति सामाजिक जीवन का निरोगीकरण है। [ १७० ]

हम सुकरात, मसीह, कृष्ण, दयानन्द और ऐसे ही हज़ारों लाखों मनुष्यों को इसी क्रान्ति की भेंट होते देखते हैं। जिन्होंने मिथ्या विश्वासों के विपरीत आवाज़ उठाई थी, जिनके कारण समाज निस्तेज़ और प्रभाशून्य होगया था। तत्कालीन सत्ताधारियों ने इन महात्माओं को खूब कष्ट दिया। मसीह को अपराधी के कटेहरे में खड़ा कर, एक पुरुष ने गम्भीरता पूर्वक उसे अपराधी कहकर सूली पर चढ़ा दिया। महा तत्वदर्शी सुकरात को सामने खड़ा कर एक विद्वान् विचारक ने उसे विष पीकर मर जाने की आज्ञा दे दी थी। आज महात्मा गांधी अपना पवित्र और बहुमूल्य जीवन जेल की कलुषित दीवारों में व्यतीत करते हैं। परन्तु ईसा की मूर्ति आधे संसार के राज मुकटों के लिये बन्दनीय है।

अन्ततः हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि सत्य, न्याय, और ईश्वरीय नियमों का पालन करने के लिये हमें निरन्तर क्रान्ति करना चाहिए। और कभी अपने व्यक्ति गत लाभ हानि को इससे सम्बन्धित नहीं होने देना चाहिये।

यदि ऐसा किया जायगा तो मनुष्य जाति का सच्चा धर्म मनुष्य पर सौभाग्य और सुख की वर्षा करेगा और सारे संसार के मनुष्य परस्पर मिलकर सच्चा भ्रातृ भाव प्राप्त करेंगे।

 

इति