दो बहनें  (1952) 
द्वारा रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक हजारी प्रसाद द्विवेदी
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ज्ञातव्य

'दो बहनें' उपन्यास बँगला के 'दुई बोन' का हिन्दी अनुवाद है। मूल उपन्यास सन् १९३३ में पहली बार 'विचित्रा' नामक मासिक पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास के सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ का एक अपूर्व पत्र 'विचित्रा' की उसी वर्ष की श्रावण-संख्या में छपा था। इससे उपन्यास की कथा-वस्तु और चरित्रों पर बहुत-कुछ प्रकाश पड़ता है। पत्र का हिन्दी अनुवाद नीचे दिया जाता है :

"तुमने लिखा है, तुम्हारी बान्धवी ने मेरे कत्पित उपन्यास 'दुई बोन' के भाग्य-विभ्राट का सारा दोष शशाङ्क के मत्थे मढ़ा है। उन्होंने ध्यान नहीं दिया कि दोष वस्तुतः प्रकृति मायाविनी का है। मनुष्य के चलने-फिरने के रास्ते में वही अपना निष्ठुर चौर-फन्दा पसार रखती है; असन्दिग्ध मन से चलते चलते अचानक पथिक ऐसी जगह कदम रख बैठता है जहां ढका हुआ गडढा होता है। शशाङ्क की संसारयात्रा की राह देखने में पक्की ही थी मगर उसके चलने के हक में थी रपटीली। अभागा सिर के बल गिरने से पहले इस बात को ख़ुद ही काफ़ी साफ तौर से नहीं समझ पाया। दिन अच्छे ही गुज़र रहे थे लेकिन जिस पुल पर से होकर गुज़र रहे थे [ १२२ ]उसकी चुनाई में कहीं एक सन्धि थी। कारण, शशाङ्क और शर्मिला में भीतर-भीतर जोड़ नहीं मिली; तथापि ऊपर-ऊपर से छुपी हुई दरार पर नज़र भी नहीं पड़ी। अचानक बाहर से भहराकर गिरने से पहले क्या वे लोग कोई इस बात को जान सके थे? जब जान सके तब तो नसीब ही फुट चुका था। नेक सलाह देने वाले कहेंगे, फुटे नसीब पर बैण्डेज बाँधकर भले आदमी की तरह उसी पुराने रास्ते पर ठोकर खाते-खाते, लाठी टेककर लँगड़ाते-लँगड़ाते चलने जाना ही कर्तव्य है। शशाङ्क भी उसी तरह चलता जाता मगर शर्मिला कह बैठी; उस तरह चलने में किसी पक्ष को सुख नहीं होगा:--—स्पर्धापूर्वक उसने अपने विशेष प्लान के अनुसार भाग्य में संशोधन करने का प्रस्ताव जनाया। किन्तु भाग्य के लेखे पर कलम चलाना इतना आसान नहीं। इसे समझा ऊर्मिमाला ने। भूचाल-केन्द्र के ऊपर कच्चे माल-मसाले डाँवाडोल आवास में आश्रय लेने की राज़ी नहीं हुई। इसीलिये भाग खड़ी हुई। इसके बाद क्या हुआ सो कौन बताए। समय के साथ शायद ऊपर का कटा हुआ दाग़ मिट गया, मगर बीच-बीच में धक्का खाकर अन्दर की टूटी-फटी नसों में क्या आज भी पीड़ा टीस नहीं उठती? पीड़ा जिसे मिलती है उसीपर हम लोग मुन्सिफ़ी किया करते हैं लेकिन पीड़ा मिटाने का सारा दायित्व क्या हमेशा उसीका होगा? बिजली गिरने [ १२३ ]से आदमी मर गया: तुमने कह दिया, पूर्वजन्म के पापों का फल है! इससे तो केवल दोष देने की अन्ध इच्छा ही साबित होती है, दोष नहीं साबित होता।

तुमने लिखा है, तुम्हारी बान्धवी मेरी कहानी के सभी पात्रों के प्रति विमुख हैं। तादाद उनकी बहुत थोड़ी है--इने-गिने तीन तो प्राणी हैं--तब भी उनमें से एक भी उनके मन-मुताबिक न उतरा! सो इसके लिये दुःख करने का कारण नहीं; क्योंकि विकासवाद को प्राकृतिक निर्वाचन-प्रणाली साहित्य और समाज में एक-जैसी नहीं होती। समाज में हम जिन्हें मित्रों में शुमार नहीं करते, साहित्य में उन्होंने समादर पाया है--इसके अनेकानेक उदाहरण मिल जाएँगे। आदर्श मानवचरित्र के पैमाने से साहित्य की श्रेष्ठता का न्याय इस देश के समालोचकवर्ग को छोड़कर दुनिया में और कहीं देखने नहीं मिलता। याद है, कभी यह बहस भी अक्सर उठा करती थी कि आदर्श सती नारी की दृष्टि से स्व० बंकिमचन्द्र के भ्रमर और सूर्यमुखी नामक नारी-चरित्रों में आधी-रत्ती के वज़न से श्रेष्ठता का तारतम्य किस विशेष बात या किस ढंग पर निर्भर है? तब मेरी उम्र थोड़ी थी, मगर इसके बावजूद भी मन में यह शिकायत उठा करती थी कि अरसिकेषु रसस्य निवेदन--इत्यादि! क्या यह बात भी समझानी होगी कि साहित्य श्रेयस्तत्व के निर्दोष साँचे में ढाली हुई गुड़ियाँ बनाने का कारखाना [ १२४ ]नहीं है? 'मैकबेथ' नाटक में केवल दो ही प्रधान पात्र हैं, मैकबेथ और लेडी मैकबेथ। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दोनों में से किसीको भी सुकुमारमति पाठक के चरित्रगठन के योग्य दृष्टांत के रूप में व्यवहार नहीं किया जा सकता। 'ऐन्टनी एण्ड क्लियोपैट्रा' शेक्सपीयर के प्रधान नाटकों में अन्यतम है परन्तु यदि क्लियोपेट्रा को प्रातःस्मरणीय पंचकन्याओं में स्थान पाने का अधिकार मिल भी जाए, तब भी उसे साध्वी का आदर्श तो नहीं माना जा सकता; और एन्टनी अपने चरित्र के अनिन्द्य आदर्श के द्वारा ऊँची श्रेणी के बँगला नावेल के नायकों की समश्रेणी में नहीं गिना जा सकता-- यह भी मानना ही होगा। तथापि इसे भी माने बिना नहीं रहा जा सकता कि शेक्सपीयर का यह नाटक ऊँची श्रेणी के बँगला नावेल से कम-से-कम हीन तो किसी क़दर भी नहीं है। महाभारत के धृतराष्ट्र को छोटा नहीं किया जा सकता मगर बड़प्पन की दृष्टि से उनमें भी कमी तो थी ही। और कमी थी किसमें नहीं? स्वयंवर-सभा में भीष्म ही क्या क्षमा के योग्य थे? यहाँ तक कि कवि के प्रिय पात्र पाण्डवों के आचरण में भी कलंक खोजने के लिये विशेष तीक्ष्ण दृष्टि की आवश्यकता न होगी। आधुनिक बंगाल में वेदव्यास जो नहीं पैदा हुए सो अपने पुण्यबल के ही कारण!

दूसरे पक्ष से यह दलील पेश की जा सकती है साहित्य में [ १२५ ]समाजधर्म और शाश्वतधर्म की जो त्रुटियाँ देखने में आती हैं वे उसका शोचनीय परिणाम ही प्रमाणित करने के लिये हैं। अर्थात् इतना ही दर्शाने के लिये कि स्खलन का पथ हमारा अभीष्ट पथ नहीं है। लेकिन देखा तो यह जाता है कि आजकल केवल इतने से ही भलेमानसों का क्षोभ शान्त नहीं होता। मेरे 'घर-बाहर' ('घरे-बाइरे') उपन्यास के सन्दीप या विमला ने कोई गौरवजनक सिद्धि नहीं पाई लेकिन फिर भी अभी उस दिन तक समालोचकों के दरबार में उन्हें सज़ा से रिहाई भी नहीं मिली। तार-स्वर से बारबार यही फ़रमाइश की जाती है कि जैसे भी हो, श्रेष्ठ आदर्श की रचना करना ही होगी। बचकानी ज़िद इसीको कहते हैं--जो चीनी की गुड़िया को बराबर अपनी लालायित रसना से चाटते ही रहना चाहती है!

'दुइ बोन' उपन्यास के संबंध में तुम मेरी अपनी व्याख्या भी कुछ सुनना चाहते हो। कहानी की भूमिका में ही मैंने भीतर का रहस्य खोल दिया है। आम तौर पर नारी पुरुष के सम्बन्ध से कभी माँ, कभी प्रिया या कभी दोनोंकी मिलावट हुआ करती है। हमारे यहाँ अनेक पुरुष ऐसे होते हैं जो बुढ़ापे तक माँ की गोद की आबहवा में ही सुरक्षित रहा करते हैं। वे स्त्री के निकट माँ का लाड़-प्यार ही उपभोग्य समझते हैं। विवाह से पहले बंगाल में वर कहता है, 'माँ, तुम्हारे लिये दासी लाने जा रहा हूँ': अर्थात स्त्री माँ के परिशिष्ट के रूप में ही आती है--अल्पा मेटर की पोस्टग्रैज्युएट [ १२६ ]छात्रो की तरह! लड़का माँ के निकट बचपन से ही जो सेवा-जतन पाने का आदी है, बहू उसीको दुहराने की दीक्षा पाती है। थोड़ी-सी स्त्रियों को ऐसा सुयोग मिलता है कि वे स्वतन्त्र रूप से पति की पूर्णता सम्पादन कर सकें, गृहस्थी को संपूर्णतया अपनी ही प्रतिभा से नये सिरे से गढ़ सकें।

किन्तु दूसरी तरफ़ ऐसे पुरुष भी अवश्य होते हैं जो इस आर्द्र प्यार-दुलार के आवेश से आपादमस्तक आच्छन्न रहना पसन्द ही नहीं करते। वे स्त्री को स्त्री के रूप में ही पाना चाहते हैं, चाहते हैं दोनों का अनुसंग। वे जानते हैं कि स्त्री जहाँ यथार्थ रूप से स्त्री होती है, पुरुष वहीं यथार्थ रूप से पौरुष का अवकाश पाता है। अन्यथा उसे आजीवन लालन-रस-लालायित बचपना ही निबाहना होता है। माँ की दासी को लेकर ज़िंदगी बिताने-जैसा दौर्बल्य पुरुष के जीवन में दूसरा नहीं हो सकता।

शशाङ्क ने अपनी स्त्री में नित्य-स्नेह-सतर्क माँ को ही पाया था। इसीसे उसका अन्तर अपरितृप्त ही रह गया था। ऐसी ही अवस्था में उसके कक्षपथ में ऊर्मि के आ पहुँचने से संघात हो बैठा--ट्रैजेडी घटित हो उठी। दूसरी ओर अत्यन्त निर्भरलोलुप नारियाँ भी संसार में अनेक होती हैं। वे लोग ऐसे पुरुष की कामना करती हैं जो उनकी प्राणयात्रा में मोटर-रथ के शोफ़र का काम करेगा। वे चाहती हैं पतिगुरु को--पदधूलि की वे भिखारिणी हुआ करती हैं। [ १२७ ]किन्तु इससे विपरीत जाति की नारियाँ भी अवश्य ही होती हैं जो अतिलालन-असहिष्णु प्रकृत पुरुष को ही चाहती हैं—जिसे पाकर उनका नारीत्व परिपूर्ण होता है। दैवयोग से ऊर्मि उसी जाति की थी। शुरू से ही चालक को लेकर—गुरु को लेकर—उसका दम घुटने लगा था। ठीक ऐसे ही समय उसे एक ऐसा पुरुष मिल बैठा जिसका अपना चित्त अनजाने ही स्त्री को खोज रहा था। जिसके साथ उसकी लीला अपने जीवन की सम-भूमि पर ही संभव हो सकती थी, वही उसकी यथार्थ जोड़ था।

भाग्य की अनहोनी को सुधारने जाकर सामाजिक अनहोनी निदारुण हो उठी। असल मामला यही है। उपसंहार में इतना ही कह रखना चाहता हूँ कि नारी-मात्र के भीतर माँ भी होती है—प्रिया भी होती है। कौन मुख्य है और कौन गौण, कौन अगवाह है और कौन पीछे—इसीके बल पर उनका अपना स्वातंत्र्य निश्चित होता है।"

२७ मार्च, १९३३
[ प्रकाशक ]

प्रकाशक मोहनलाल वाजपेयी

हिन्दी प्रकाशन समिति, विश्वभारती ग्रन्थन-विभाग

शान्तिनिकेतन












मुद्रक श्रीप्रभातकुमार मुखोपाध्याय

शान्तिनिकेतन प्रेस, शान्तिनिकेतन, बीरमम