दो बहनें
रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक हजारी प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: विश्वभारती ग्रंथालय, पृष्ठ ४६ से – १०० तक

 

ऊर्मिमाला

नीरद ने रिसच का जो काम लिया था वह समाप्त हो गया। उसने लेख को यूरोप के किसी वैज्ञानिक समाज के पास भेज दिया। उस समाज ने उसकी प्रशंसा की और साथ ही साथ नीरद के लिये एक स्कालरशिप भी जुट गई,-उसने निश्चय किया कि वहीं के विश्वविद्यालय में डिग्री लेने के लिये समुद्र का रास्ता लेगा। विदा लेते समय कोई करुण वार्तालाप नहीं हुआ। चलते समय बार-बार सिर्फ़ यही कहता रहा, "मैं जाता हूँ पर मुझे डर है कि तुम अपने कर्तव्य-पालन में शिथिलता का परिचय दोगी।" ऊर्मि ने कहा, "आप कोई फ़िक्र न करें।" नीरद ने जवाब दिया, "कैसे चलना होगा, पढ़ाई-लिखाई किस प्रकार होगी इन बातों के लिये एक विस्तृत नोट दिए जा रहा हूँ।" "ऊर्मि ने कहा, "मैं ठीक इसीके अनुसार ही चलूँगी।"

"लेकिन तुम्हारी उस आलमारी की किताबों को मैं अपने घर में बंद कर देना चाहता हूँ।" "ले जाइए" कहकर ऊर्मि ने कुंजी उसके हाथ में दे दी। सितार की ओर एक बार नीरद की नज़र पड़ी किन्तु फिर दुविधा में पड़कर रुक गया।

आख़िरकार नितान्त कर्तव्य के अनुरोध से ही नीरद को कहना पड़ा, "मुझे केवल एक डर है। शशांकबाबू के घर की ओर तुम्हारा आना-जाना अधिक होता रहा तो इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम्हारी निष्ठा कमज़ोर हो जायगी। यह मत समझना कि शशांकबाबू की मैं निंदा कर रहा हूँ। वे बहुत ही अच्छे आदमी हैं। काम-धाम में उस प्रकार का उत्साह और वैसी बुद्धि मैंने बहुत कम बंगालियों में देखी है। उनका एकमात्र दोष यही है कि वे किसी भी आदर्श को नहीं मानते। कहता हूँ, उनके लिये कई बार मुझे भय होता है।"

इसपर से शशांक के अनेक दोषों की बात उठी और साथ ही नीरद इस अत्यन्त शोचनीय दुर्भावना को भी दबाकर नहीं रखसका कि उनमें बहुत से ऐसे दोष अभी ढके हुए हैं जो उम्र बढ़ने के साथ ही साथ एक-एक करके प्रबल आकार में प्रकट होंगे। लेकिन यह सब होने पर भो नीरद मुक्त-कंठ से ही स्वीकार करना चाहता है कि वे बहुत भले आदमी हैं। उसीके साथ यह भी कहना चाहता है कि उनके संगदोष से और उनके घर की आबहवा से अपने-आपको बचाना ऊर्मि के लिये विशेष आवश्यक है। अगर ऊर्मि का मन उनकी समान-भूमि पर उतर आवे तो अधःपतन होगा।

ऊर्मि बोली, "आप इतने अधिक उद्विग्न क्यों हो रहे हैं।"

"क्यों हो रहा हूँ सुनोगी? बुरा तो नहीं मानोगी?"

"आप ही से सब बात सुनने की शक्ति पाई है। जानती हूँ, सहज नहीं है तो भी सहन कर सकती हूँ।"

"तो कहता हूँ, सुनो। तुम्हारे स्वभाव के साथ शशांकबाबू के स्वभाव का सादृश्य है। यह बात मैंने देखी है। उनका मन एकदम हल्का है। वही तुमको अच्छा लगता है। बताओ सच कहता हूँ कि नहीं?"

ऊर्मि सोचने लगी, यह आदमी सर्वज्ञ तो नहीं है। निस्संदेह वह अपने बहनोई को ख़ूब पसंद करती है, इसका प्रधान कारण यह है कि शशांक खिलखिलाकर हँस सकता है, ऊधमी है, मज़ाक करता है और ठीक जानता है कि ऊर्मि को कौन सा फूल पसंद है और किस रंग की साड़ी उसे भाती है। ऊर्मि ने कहा, "हाँ, वे मुझे अच्छे लगते हैं यह बात ठीक है।"

नीरद ने कहा, "शर्मिला दीदी का प्रेम स्निग्ध गम्भीर है। उनकी सेवा मानों एक पुण्य-कर्म है। अपने कर्तव्यकर्म से वे छुट्टी नहीं लेतीं। उसीके प्रभाव में शशांकबाबू ने एकाग्र चित्त से काम करना सीखा है। किन्तु जिस दिन तुम भवानीपुर जाती हो उसी दिन उनका आवरण हट जाता है। तुम्हारे साथ नोक-झोंक शुरू हो जाती है, वे तुम्हारे केश के काँटे निकालकर जूड़ा खोल देते हैं, तुम्हारे हाथ में पढ़ने की किताब देखकर ऊँची आलमारी के सिरे पर रख देते हैं। टेनिस खेलने का शौक़ अचानक प्रबल हो उठता है, बहुत से काम पड़े हों तो भी।"

ऊर्मि को मन ही मन मानना पड़ा कि शशांक इस प्रकार शरारत करते हैं इसीलिये उसे अच्छे लगते हैं। उनके पास जाने पर उसका अपना लड़कपन तरङ्गित हो उठता है। वह भी उनके ऊपर कम अत्याचार नहीं करती। दीदी उन दोनों की शरारत देखकर अपनी शान्त, स्निग्ध हँसी हँसती रहती हैं। कभी-कभी मीठी फटकार भी बताती हैं लेकिन वह भी दिखावा ही होता है।




नीरद ने उपसंहार में कहा, "जहाँ तुम्हारा अपना स्वभाव प्रश्रय न पावे वहीं तुम्हें रहना चाहिए। मैं अगर नज़दीक रहता तो कोई चिन्ता नहीं थी क्योंकि मेरा स्वभाव तुमसे एकदम उल्टा है। तुम्हारा मन रखने के लिये उसे एकदम मिट्टी में मिला देने का काम मुझसे कभी भी नहीं हो सकता।"

ऊर्मि ने सिर झुकाकर कहा, "आपकी बात सदा याद रखूँगी।"

नीरद ने कहा, "मैं तुम्हारे लिये कुछ किताबें रख जाना चाहता हूँ। जिन अध्यायों पर मैंने निशान लगा दिए हैं उन्हें विशेष रूप से पढ़ना, आगे चलकर काम आएगा।"

ऊर्मि को इस सहायता की ज़रूरत थी, क्योंकि इधर उसके मन में बीच-बीच में आशंका होने लगी थी। सोचा करती; 'शायद पहले के उत्साह की झोंक में मैं ग़लती कर बैठी हूँ। शायद डाक्टरी मेरे अनुकूल नहीं पड़ेगी।'

नीरद को निशान लगाई हुई किताबें उसके लिये कठोर बन्धन का काम करेंगी, उसे धारा के विरुद्ध खींच ले चलेंगी। नीरद के चले जाने के बाद ऊर्मि अपने ऊपर और भी कठिन अत्याचार करने लगी। कालेज जाती, और बाक़ी समय अपने को मानों ज़नानख़ाने में बन्द करके रखती। दिन भर के बाद घर लौटती। लौटने पर उसका थका हुआ मन जितना ही छुट्टी पाना चाहता, उतनी ही निठुरता के साथ उसे अध्ययन की ज़ंजीरों में बाँधकर रोक रखती। पढ़ाई अग्रसर नहीं होती, एफ ही पन्ने पर मन बारंबार व्यर्थ ही चक्कर काटता रहता, तो भी यह हार नहीं मानना चाहती। नीरद मौजूद नहीं है इसीलिये उसकी दूरवर्ती इच्छाशक्ति उसपर अधिक प्रभाव डालने लगती है।

जब काम करते-करते पहले की बातें बार-बार मन में चक्कर काटने लगतीं तो वह अपने को सबसे अधिक धिक्कार देती। युवकों में उसके अनेक भक्त थे। उन दिनों उसने किसी की उपेक्षा भी की है और किसी के प्रति मन आकर्षित भी हुआ है। प्रेम परिणत नहीं हुआ लेकिन प्रेम की इच्छा उस समय मृदु-मन्द वासन्ती वायु के समान मन में घूमती रही है। इसीलिये वह अपने मन में गुनगुनाकर गान करती। अच्छी लगनेवाली कविताओं की नक़ल कर लेती। जब मन अत्यन्त उतावला हो जाता तब सितार बजाने लगती। आजकल किसी-किसी दिन सायंकाल जब आँखें किताब से उलझी रहती हैं, वह अचानक चौंक उठती है और ऐसा मालूम होता है कि उसके मन में पुराने दिनों के किसी ऐसे मनुष्य का चित्र घूम रहा है जिसे उसने कभी विशेष प्रश्रय नहीं दिया। यहाँ तक कि उस आदमी का अविश्राम आग्रह उन दिनों उसे नाराज़ किया करता। आज शायद उसका वही आग्रह ऊर्मि को भीतरी अतृप्ति को वेदना को उसी प्रकार स्पर्श कर रहा है, जिस प्रकार तितली के क्षणिक हल्के पङ्ख फूल को वसन्त का स्पर्श दे जाते हैं।

इन विचारों को वह जितने ही वेग से मन से दूर करना चाहती, उतनी ही तेज़ी से उस वेग का प्रतिघात भी उसके मन में उन्हीं विचारों को ठेल देता। डेस्क पर नीरद का एक फोटोग्राफ रखा है। उसकी ओर एक-टक देखता रहती। उस मुख में बुद्धि की दीप्ति तो है परन्तु आग्रह का कोई चिह्न नहीं। वह उसे पुकारता ही नहीं, तो फिर उसके प्राण जवाब दें तो किसे दें? मन ही मन सिर्फ़ यही जप किया करती, 'कैसी प्रतिभा है, कैसी तपस्या है, कैसा निर्मल चरित्र है, कैसा अचिंतनीय मेरा सौभाग्य है!'

एक बात में नीरद की जीत हुई है, उसे भी बता देना आवश्यक है। नीरद के साथ ऊर्मि के विवाह की बात
जब तै हुई तो शशांक और उसीके समान कुछ और शक्की आदमियों ने व्यंग्य किया। कहा, 'राजाराम बाबू सीधे आदमी हैं, समझ रक्खा है कि नीरद आडियलिस्ट है। उसका आइडियलज्म़ चुपचाप ऊर्मि के रुपयों की थैली के भीतर जो अंडा से रहा है सो उसे क्या लम्बे सुन्दर वाक्यों से ढका जा सकता है? उसने निश्चय ही अपने आपको उत्सर्ग किया है लेकिन जिस देवता के निकट उत्सर्ग किया है उसका मन्दिर इम्पीरियल बैंक में है। हम लोग सीधे श्वसुर को बता देते हैं कि रुपये की ज़रूरत है और वह रुपया पानी में नहीं पड़ेगा, बल्कि उन्हींकी लड़की की सेवा में लगेगा। लेकिन ये महान् पुरुष हैं, कहते हैं महान् उद्देश्य के लिये विवाह करेंगे। उसके बाद नित्य ही उस उद्देश्य का तरजुमा श्वसुर की चेक-बुक के रूप में करते रहेंगे।'

नीरद जानता था कि ऐसी बातों का उठना अपरिहार्य है। ऊर्मि से बोला, 'मेरे विवाह करने की एक शर्त है; तुम्हारे रुपयों में से मैं एक पैसा भी नहीं लूँगा, मेरी अपनी कमाई ही मेरा एकमात्र अवलम्बन होगी।' श्वसुर ने जब उसे यूरोप भेजने का प्रस्ताव किया तो वह किसी प्रकार राज़ी नही हुआ। इसके लिये उसे बहुत दिनों तक इन्तेज़ार भी करना पड़ा। उसने राजाराम बाबू को बताया, 'अस्पताल की स्थापना के लिये आप जितना रुपया देना चाहते हैं अपनी लड़की के नाम जमा कर दीजिए। मैं जब अस्पताल का भार लूँगा तो कोई वृत्ति नहीं लूँगा। मैं डाक्टर हूँ, मेरी जीविका के लिये कोई चिन्ता नहीं।'

इस एकांत निःस्पृहता को देखकर राजाराम की भक्ति उसपर और भी दृढ़ हो गई और उर्मि ने खूब गर्व अनुभव किया। इस गर्व का उचित कारण उपस्थित होने की वजह से शर्मिला का मन नीरद पर से बिल्कुल विरूप हो गया, बोली "उफ़, देखूँ यह दिमाग़ कितने दिनों तक रहता है!" इसके बाद से नीरद अपनी आदत के अनुसार जब अत्यन्त गम्भीर भाव से कुछ कहने लगता तो शर्मिला बातचीत के बीच में से अचानक उठ पड़ती और गर्दन टेढ़ी करके बाहर निकल जाती। कुछ दूर तक उसके पैरों की आवाज़ सुनाई पड़ती। ऊर्मि की ख़ातिर कुछ बोलती तो नहीं किन्तु उसके न बोलने की व्यंजना काफ़ी तेज से तपी होती।

शुरू-शुरू में नीरद हर मेल की चिट्ठी में चार-पाँच पन्ने का विस्तारित उपदेश देता रहा। कुछ दिन बाद एक टेलीग्राम देकर सबको अचरज में डाल दिया: लंबी संख्या के रुपयों की ज़रूरत है, पढ़ाई के लिये। जो गर्व इतने दिनों तक ऊर्मि का प्रधान सम्बल था उसमें काफ़ी चोट लगी किन्तु मन में थोड़ी सांत्वना भी मिली। ज्यों-ज्यों दिन बीतने लगे और नीरद की अनुपस्थिति लम्बी होती गई, त्यों-त्यों ऊर्मि का पहले का स्वभाव कर्तव्य के घेरे के भीतर सूराख़ खोजने लगा। अपनेको नाना बहानों से भुलाया भी करती और पश्चाताप भी करती। ऐसी आत्मग्लानि के समय नीरद को रुपये-पैसे से सहायता करने में उसका सन्तप्त मन थोड़ी सांत्वना पा जाता।

ऊर्मि टेलिग्राम को मैनेजर के हाथ में देकर संकोच से बोली, 'काकाजी, रुपये--'

मैनेजर बाबू ने कहा, 'कुछ समझ में नहीं आ रहा। हम तो यही जानते थे कि रुपया उधर अस्पृश्य ही समझा जाता है।' मैनेजर नीरद को पदन्द नहीं करते थे।

ऊर्मि बोली, 'लेकिन विदेश में--' बात आधे में रुक गई।

काकाजी ने कहा, 'इस देश का स्वभाव विदेश की
मिट्टी में बदल जा सकता है यह मुझे मालूम है--लेकिन हम लोग उसके साथ ताल मिलाएँगे कैसे!'

ऊर्मि बोली, 'रुपया न मिलने से शायद तकलीफ़ में पड़ जाएँ'--

'बहुत अच्छा बेटी, भेज रहा हूँ, फ़िक्र मत करो। लेकिन इतना कह रखता हूँ कि यह शुरुआत है, ख़ात्मा नहीं।

यह जो ख़ात्मा नहीं सो इसका प्रमाण थोड़े दिनों बाद ही और भी बड़ी अदद के रुपये की माँग से मिल गया। इस बार सेहत का तक़ाज़ा है। मैनेजर ने मुँह गम्भीर करके कहा, 'शशांकबाबू के साथ सलाह करनी चाहिए।'

ऊर्मि व्यस्त होकर बोल उठी, 'और चाहे जो करो, दीदी के घर यह ख़बर न जाने पावे।'

'अकेले यह ज़िम्मेवारी लेना मुझे अच्छा नहीं लगता।'

'एक दिन तो रुपया उनके हाथ में जाएगा ही।'

'हाँ, लेकिन उसके आगे देखना होगा कहीं पानी में न चला जाय।

'किन्तु उनके स्वास्थ्य की बात तो सोचनी ही होगी।'

'अस्वास्थ्य नाना जाति का होता है, यह ठीक किस श्रेणी का है, साफ़ समझ नहीं पा रहा हूँ। यहाँ लौट आने पर शायद हवा बदलने से स्वस्थ हो जाय। लौटती पैसेज की व्यवस्था करके बुला भेजा जाय।'

लौटने के प्रस्ताव से ऊर्मि बहुत अधिक विचलित हो उठी और सोचा, इसका कारण यही है कि नीरद का उच्च उद्देश्य कहीं बीच ही में बाधा न पावे।

काका ने कहा, 'इस बार तो रुपये भेजे देता हूँ लेकिन मालूम होता है, इससे डाक्टर साहेब का स्वास्थ्य और भी बिगड़ जाएगा।'

राधागोविन्द ऊर्मि का थोड़ी दूर का सम्बन्धी है। काका की बात का इशारा उसे लगा। मन में सन्देह हुआ। सोचने लगा, 'दीदी को शायद बताना ही पड़ेगा'। इधर अपनेको ही धक्का देकर बार बार प्रश्न करती 'तुम्हें यथोचित दुःख क्यों नहीं हो रहा?'

इसी समय शर्मिला के रोग ने चिन्ता में डाल दिया। भाई की बीमारी की बात याद करने से भय मालूम होता। अनेक डाक्टर अनेक ओर से व्याधि को आवास-गुहा खोज निकालने में जुट पड़े। शर्मिला ने क्लान्त हँसी हँसकर कहा, 'सी. आई. डी. वालों के हाथ से अपराधी तो निकल जाएगा, चोट खाकर मरेगा निरपराध।'

शशांक ने चिन्तित होकर कहा, देह की तलाशी यथाशास्त्र चलती रहे किन्तु चोट किसी प्रकार नहीं लगने दी जाएगी।'

इसी समय शशांक के हाथ में दो बड़े-बड़े काम आए, एक गंगा के किनारे जूट मिल में और एक टालीगञ्ज की ओर मीरपुर के ज़मींदारों के नये उद्यानगृह में। जूट मिल की कुली-बस्ती का काम ख़त्म करने की मीयाद तीन महीने की थी। नाना स्थानों में कुछ ट्यू बवेल बैठाने का काम था। शशांक को बिल्कुल फ़ुरसत नहीं थी। शर्मिला की बीमारी से प्रायः ही उसे रुक जाना पड़ता, हालाँ कि उसकी उत्कंठा काम के लिये बराबर बनी रहती।

इतने दिन विवाह हुए हो गए, लेकिन शर्मिला को ऐसी कोई बीमारी नहीं हुई जिसे लेकर शशांक को विशेष चिन्तित होना पड़े। इसीलिये इस बार की इस बीमारी के उद्वेग से उसका मन बच्चों की तरह छटपटा उठा है। काम-काज छोड़कर, घूम-फिरकर बिस्तर के पास निरूपाय भाव से आकर बैठ जाता। सिर पर हाथ
फेरता और पूछता, 'कैसा लग रहा है?' शर्मिला उसी समय जवाब देती, "तुम बेकार चिंता मत करो; मैं अच्छी ही हूँ।" यह बात विश्वास करने योग्य नहीं होती, लेकिन फिर भी शशांक विश्वास करके शीघ्र ही छुट्टी पा जाता क्योंकि विश्वास करने की उसकी इच्छा प्रबल थी।

शशांक ने कहा, "ढेंकानल के राजा का एक बहुत बड़ा काम हाथ आया है। प्लैन के बारे में दीवान से बात करनी होगी। जितनी जल्दी हो सकेगा लौट आऊँगा, डाक्टर के आने से पहले।"

शर्मिला ने अनुयोग के साथ कहा, "मेरे सिर की क़सम, जल्दी करके काम ख़राब न कर देना। मैं जानती हूँ, तुम्हें उनके देश तक जाने की ज़रूरत है। ज़रूर जाना, नहीं जाओगे तो मैं अच्छी नहीं रहूँगी। मेरी देखरेख करनेवाले बहुत हैं।"

शशांक के मन में विराट् ऐश्चर्य खड़ा करने का संकल्प दिनरात जगा रहता। उसका आकर्षण ऐश्वर्य के प्रति नहीं बल्कि उसके बड़प्पन को ओर था। कुछ बड़ी चीज़ गढ़ सकना ही पुरुष की ज़िम्मेवारी है। रुपये-पैसे को तभी तक तुच्छ समझकर अवज्ञा की जा सकती है जब तक उससे केवल दिन कटते हैं। जब उसकी चोटी ऊँची कर दी जाती है तो सर्वसाधारण उसके प्रति श्रद्धा प्रकट करने लगते हैं। इसलिये नहीं कि उससे उनका उपकार होता है बल्कि उसके बड़प्पन को देखने से ही चित्त में स्फूर्ति का सञ्चार होता है। शर्मिला के सिरहाने बैठकर शशांक के मन में जब उद्वेग चला करता, तो उस समय वह यह यह सोचे बिना नहीं रह पाता कि उसके कार्य की सृष्टि किस जगह अनिष्ट की आशंका है। शर्मिला जानती है कि शशांक की यह भावना कृपण की भावना नहीं, बल्कि अपनी अवस्था के निचले तल से ऊपर की ओर जय-स्तम्भ खड़ा कर देने के लिये पुरुषार्थ की भावना है। शशांक के इस गौरव से शर्मिला गौरवान्वित थी। इसीलिये पति उसके रोग की तीमारदारी में उलझकर कामकाज में ढिलाई करे, यह बात सुखकर होने पर भी उसे अच्छी नहीं लगती। इसीलिये उसे बार-बार वह कामकाज की ओर लौटा देती।

इधर अपने कर्तव्य के बारे में शर्मिला की उत्कंठा का कोई अन्त नहीं। आज वह खाट पकड़े है और उधर नौकर-चाकर न जाने क्या कर रहे हैं। उसके मन में बिल्कुल सन्देह नहीं कि वे लोग रसोई में ख़राब घी दे रहे ह, स्नान-घर में यथासमय गर्म पानी देना भूल जाते हैं, बिस्तर को चादर नहीं बदलते, मोरियों में मेहतर की झाडू नियमित रूप से नहीं पड़ती। उधर धोबी के कपड़े मिलाकर न सम्हालने से कैसी गड़बड़ी हो जाती है, यह तो जानी हुई बात है। वह रह नहीं पाती, चुपके से बिछौने से उठती और पूछताछ करने जाती, पीड़ा बढ़ उठती, बुखार चढ़ जाता, डाक्टर समझ ही न पाता कि क्या हुआ।

अन्त में ऊर्मिमाला को उसकी दीदी ने बुला भेजा। बोली, "कुछ दिन अपना कालेज रहने दे, मेरी गिरस्ती को रक्षा कर, बहन। नहीं तो निश्चिन्त होकर मर भी नहीं पाऊँगी।"

यह इतिहास जिन लोगों ने पढ़ा है वे लोग यहाँ आकर ज़रा व्यंग्य की हँसी हँसकर कहेंगे, 'समझ लिया। समझने के लिये बहुत ज़्यादा बुद्धि की ज़रूरत नहीं। जो घटनेवाला होता है वह घट ही जाता है, और वही काफ़ी भी होता है। ऐसा भी समझने का कोई कारण नहीं कि भाग्य का खेल ताश के पत्तों को छिपाकर चला करेगा--शर्मिला की ही आँखों में धूल झोंककर।'

दीदी की सेवा करने चली हूँ, यह सोचकर ऊर्मि के मन में ख़ूब उत्साह हुआ। इस कर्तव्य की ख़ातिर बाक़ी सब काम बन्द रखना पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है। इसके सिवा यह जो शुश्रूषा का काम है सो तो उसके भावी डाक्टरी के काम से सम्बद्ध ही है, यह दलील भी उसके मन में उठी। ख़ूब आडम्बर के साथ उसने एक चमड़े से बँधा हुआ नोटबुक ख़रीदा। उसमें रोग के दैनिक ज्वारभाटे का हिसाब रखने के लिये आड़ी-तिरछी लकीर खींची गईं। बाद में चलकर डाक्टर उसे अनभिज्ञ समझकर उसकी अवज्ञा न करे, इसलिये उसने निश्चय किया कि जहाँ कहीं भी दीदी के रोग के सम्बन्ध में जो कुछ भी लिखा मिल जायगा, उसे पढ़ लेगी। एम. एस-सी की परीक्षा में उसका एक विषय शरीरतत्त्व था। इसलिये रोग-तत्त्व के पारिभाषिक शब्दों को समझने में उसे कष्ट नहीं होगा। अर्थात्दी दीदी की सेवा के उपलक्ष्य में उसका कर्तव्य-सूत्र टूट नहीं जायगा बल्कि और भी ज्यादा एकाग्र मन से कठिनतर प्रयोग के द्वारा वह उसी कर्तव्य का अनुसरण करेगी--यह बात मन में स्थिर करके उसने पढ़ने की किताबें और बही-खाता बैग में भरकर भवानीपुर के मकान में प्रवेश किया। दीदी की बीमारी को लेकर रोगतत्त्वसम्बन्धी पुस्तकों के छानने का सुयोग नहीं मिला, क्योंकि विशेषज्ञ लोग भी रोग की संज्ञा निणय नहीं कर सके थे।

ऊर्मि ने सोचा, उसे शासनकर्ता का काम मिला है। इसीलिये उसने मुख गम्भीर करके दीदी से कहा, "डाक्टर की बात जिसमें ठीक-ठीक पालन की जाए उसे देखने का भार मेरे ऊपर है। देखो, मेरी बात मानकर चलना होगा, यह मैं कहे देती हूँ।"

दीदी उसकी जवाबदेही के आडम्बर को देखकर हँसी। बोली, 'यही तो देख रही हूँ, अचानक गम्भीर होना किस गुरु से सीखा तूने! नई दीक्षा है, इसीलिये इतना उत्साह है। मेरी बात मानकर तू चलेगी, इसीलिये तो मैंने तुझे बुलाया है। तेरा अस्पताल तो अभी बना नहीं लेकिन मेरी घर ,बस्ती बन चुकी है। तब तक यही भार सँभाल। तेरी दीदी को ज़रा छुट्टी मिले।"

रोग-शय्या के पास से ऊर्मि को दीदी ने जबर्दस्ती हटा दिया। आज दीदी के गृह राज्य में प्रतिनिधि का पद उसका है। वहाँ अराजकता फैली हुई है। शीघ्र ही इसका प्रतिकार होना चाहिए। इस गृहस्थी के सर्वोच्च शिखर पर जो एकमात्र पुरुष विराजमान हैं उनकी सेवा में कोई मामूली त्रुटि भी न हो, इस महान् उद्देश्य के लिये सम्पूर्ण त्याग-स्वीकार ही इस घर के छोटे बड़े समस्त अधिवासियों की साधना का एकमात्र विषय है। शर्मिला के मन से यह बात किसी प्रकार दूर होना नहीं चाहती कि वह बेचारे अत्यन्त निरुपाय हैं और देह-यात्रा के निर्वाह में शोचनीय भाव से अकर्मण्य हैं। जब देखती है कि चुरुट की आग से भले आदमी का आस्तीन ज़रा जल गया है और उस तरफ़ ध्यान ही नहीं तो उसे हँसी भी आती है और मन स्नेहसिक्त भी हो उठता है। प्रातःकाल मुँह धोकर सोने के कमरे में रखे हुए कल की टोंटी को खुला ही छोड़कर इञ्जीनियर काम की हड़बड़ी में बाहर दौड़ा चला जाता है। लौटकर आता है तो देखता है, फ़र्श पर पानी जमा है और कार्पेट नष्ट हो गया है। शुरू में ही शर्मिला ने इस स्थान पर कल लगाने के विषय में आपत्ति की थी। जानती थी कि इस पुरुष के हाथ से बिस्तर के पास ही उस कोने में प्रतिदिन जल और स्थल मिलकर एक पङ्किल काण्ड खड़ा कर देंगे।

किन्तु इतने बड़े इंजीनियर को रोके कौन! वैज्ञानिक सुविधा की दुहाई देकर हर तरह की असुविधाओं को जटिल कर देने में ही उसका उत्साह था। ख़ाहमख़ाह न जाने क्या एक बार दिमाग़ में आया कि बिल्कुल अपने ओरिजिनल प्लान के अनुसार एक स्टोव तैयार कर बैठा। उसके इधर दरवाज़ा, उधर दरवाज़ा, इधर एक चोंगा, उधर और एक चोंगा, इधर आँच की फ़िजूलख़र्ची! बचाकर तेज़ करने का और उधर एक ओर ढालू रास्ते से राख के एकदम गिर जाने का विधान-उसके बाद सेंकने का, तलने का, उबालने का, पानी गर्म करने का-नाना प्रकार के छेद-छाद, गुहा-गह्वर, कल-कौशल! इस फल को उत्साह की भंगी और भाषा में ही मान लेना पड़ा,-व्यवहार के लिये नहीं, शांति सद्भाव की रक्षा के लिये। यह है वयस्क शिशुओं का खेल! बाधा देने से अनर्थ होता है, और फिर भी दो दिन में भूल जाते हैं। हमेशा की बँधी व्यवस्था में मन रमता नहीं, कुछ विचित्र सृष्टि करता है, और स्त्रियों की ज़िम्मेवारी यह है कि मुँह से उनकी बात में हामी भर दें और काम अपने ढँग से करती रहें। इस प्रकार के स्वामी-पालन की ज़िम्मेवारी शर्मिला इतने दिनों से ढोती आ रही है।

इतने दिन तो कट गए। अपने को हटाकर शशांक की दुनिया की कल्पना शर्मिला कर ही नहीं सकती। आज डर लग रहा है कि मृत्यु का दूत आकर जगत् और जगद्धात्री के बीच विच्छेद न पैदा कर दे। यहाँ तक कि उसे आशंका हुई कि मृत्यु के बाद भी शशांक का दैहिक अयत्न शर्मिला के विदेही आत्मा को शांतिहीन बना रखेगा। भाग्य से ऊर्मि थी। वह उसकी तरह शांत नहीं है, तो भी उसकी ओर से कामकाज चला लेती है। यह काम भी तो लड़कियों के हाथ का ही काम है। उस स्निग्ध हाथ का स्पर्श पाए बिना पुरुषों के प्रतिदिन के जीवन के प्रयोजन में रस ही नहीं रह जाता। सब कुछ जाने कैसा श्रीहीन हो जाता है। इसीलिये ऊर्मि जब अपने सुन्दर हाथों में छुरी लेकर सेब के छिलके छड़ाती और काट-काटकर उन्हें सजाती है, नारंगी के कोओं को सँभालकर सफ़ेद पत्थर की थाली में एक ओर रखती है, बेदाने के दानों को जतन से सजा देती है तो शर्मिला अपनी बहन के भीतर मानों अपने-आपको ही पाती है। बिस्तर पर सोए-सोए उससे हमेशा काम की फ़रमाइश किया करती है-

'उनके सिगरेट केस को भर देना ऊर्मि'; 'नहीं देख रही है रूमाल मैला हो गया है? बदलने का ख़्याल ही नहीं';

'वह देख, जूता सीमेंट और बालू में जमकर ठोस-सा बन गया है। बेहरा को साफ़ कर देने का हुक्म देने का भी होश नहीं है उन्हें;

'तकिए का गिलाफ़ बदल देना, बहन';

'फेंक दे उन फटे काग़ज़ों को टोकरी में';

'एक बार आफ़िसवाला कमरा तो देख आ ऊर्मि, मैं निश्चित कह सकती हूँ कि कैशबक्स की चाभी डेस्क पर फेंककर वे बाहर चले गए हैं';

'फूलगोभी के पौधे उठाकर रोपने का समय हो आया, याद रखना';

'माली से कहना, गुलाब की डालें छाँट दें';

'वह देखो, कोट की पीठ में चूना लगा है-इतनी जल्दी क्या है, थोड़ा रुको न-ऊर्मि, ले तो बहन, ज़रा ब्रश कर दे।'

ऊर्मि किताब-पढ़ी लड़की है, कामकाजी लड़की नहीं, तो भी उसे बड़ा आनंद आता। जिस कड़े नियम में वह थी, उससे बाहर आकर जो भी कामकाज था, वह सभी अनियम के समान ही लगता था। इस गृहस्थी की कर्मधारा के भीतर ही भीतर जो उद्वेग है, जो साधना है, वह तो उसके मन में नहीं है; उस चिन्ता का सूत्र उसको दीदी के भीतर है। इसीलिये ये काम उसके लिये खेल हैं। एक प्रकार की छुट्टी–उद्देश्य विवर्जित उद्योग हैं। वह जहाँ इतने दिनों तक थी उससे यह दुनिया संपूर्ण स्वतंत्र है, यहाँ उसके सामने कोई लक्ष्य उँगली नहीं उठाए है और फिर भी दिन काम से भरेपूरे हैं। विचित्र काम है यह। ग़लती होती है, त्रुटि होती है लेकिन उसके लिये कोई कठिन जबावदेही नहीं। दीदी यदि थोड़ा डाँटने की चेष्टा भी करती हैं तो शशांक हँसकर उड़ा देता है, मानों ऊर्मि की ग़लती में ही एक प्रकार का रस है। वस्तुतः आजकल इन लोगों की घर-गिरस्ती में से ज़िम्मेवारी की गंभीरता चली गई है। भूलचूक से कुछ आता-जाता नहीं---ऐसी ही एक ढीली अवस्था पैदा हो गई है। शशांक के लिये यही बड़े आराम और कौतुक का विषय है। ऐसा जान पड़ता है जैसे पिकनिक चल रही हो। और ऊर्मि जो किसी बात से चिंतित नहीं होती, दुःखित नहीं होती,लज्जित नहीं होती, सब कुछ से उच्छूसित हो जाती है, इससे शशांक के अपने मन के गुरुभार कर्म का पीड़न हल्का हो जाता है। काम ख़त्म होते ही---यहाँ तक कि न होने पर भी--उसका मन घर आने को उत्सुक हो उठता है।

यह तो मानना ही पड़ेगा कि ऊर्मि कामकाज में चतुर नहीं। तो भी ध्यान से देखने पर एक स्पष्ट होती है कि चाहे काम के द्वारा न हो, अपने आपको देकर ही उसने इस घर के एक बहुत दिनों से चले आनेवाले अभाव को पूरा किया है। निर्दिष्ट भाषा में बताना कठिन है कि वह अभाव क्या था। इसीलिये शशांक जब घर लौटता तो वहाँ की हवा लहराती हुई छुट्टी की हिलोर का अनुभव करता। वह छुट्टी केवल घर की सेवा में, केवल अवकाश मात्र में नहीं होती, बल्कि उसका एक रसमय स्वरूप है। असल में ऊर्मि के अपने ही छुट्टी के आनंद ने यहाँ के समूचे सूनेपन को पूर्ण कर दिया है, दिन और रात को चंचल कर रखा है। वह निरन्तर चांचल्य कर्मक्लान्त शशांक के रक्त को दोलायित कर देता है। दूसरी ओर शशांक ऊर्मि को लेकर आनंदित है, इस बात की प्रत्यक्ष उपलब्धि ही ऊर्मि को आनन्द देती है। इतने दिनों तक ऊर्मि ने यह सुख पाया ही नहीं। वह केवल अपने अस्तित्वमात्र से ही किसी को प्रसन्न कर सकती है--यह बात बहुत दिनों से उसके निकट दबी रह गई थी: इसीसे उसकी वास्तविक गौरव-हानि हुई थी।

शशांक का आहार-विहार यथा-अभ्यास चल है कि नहीं, ठीक समय पर ठीक चीज़ का आयोजन हुआ या नहीं, यह बात इस घर के प्रभु के मन में गौण हो गई है; प्रभु यों ही अकारण ही प्रसन्न हैं। शर्मिला से शशांक कहता, "तुम छोटी-मोटी बातों को लेकर इतना परेशान क्यों होती हो। अभ्यास में ज़रा फेर-बदल होने से कुछ असुविधा तो होती नहीं, बल्कि वह अच्छा ही लगता है।"


इन दिनों शशांक का मन ज्वार-भाटे के बीच में पड़ी हुई नदी की भाँति हो गया है। कामकाज का वेग ठिठक-सा गया है। किसी ज़रा-सी देर के लिये या बाधा से मुश्किल हो जायगी, नुकसान होगा, ऐसी उद्वेगजनक बातें सदा नहीं सुनाई देतीं। ऐसा कुछ यदि प्रकट भी होता है तो ऊर्मि उसकी गम्भीरता की तोड़ देती है, हँस देती है---मुँह का गंभीर भाव देखकर कहती है, 'आज तुम्हारा हौआ आया था क्या!---वही हरी पगड़ी वाला, जाने-किस देश का दलाल! डरा-धमका गया है शायद?"

शशांक विस्मित होकर कहता, "तुम उसे कैसे जान गई?"

"मैं उसे ख़ूब पहचानती हूँ। उस दिन जब तुम बाहर चले गए थे तो वह आकर अकेला बरामदे में बैठा रहा। मैंने ही उसे बहुत तरह की बातों में भुला रखा था। उसका घर बीकानेर में है। उसकी स्त्री मर गई है, मच्छरदानी में आग लगने से। नई शादी की फ़िराक़ में है।"

"तो अब से जब मैं निकल जाया करूँगा तब वह रोज़ ही आया करेगा। जब तक स्त्री नहीं मिल जाती तब तक उसके स्वप्न का रंग तो जमा रहेगा।"

"मुझे बता जाना कि उससे कौन-सा काम पटा लेना होगा। उसके रङ्ग ढङ्ग से मालूम होता है, मैं पटा सकूँगी।"

आजकल शशांक की आमदनी के खाते में निन्यानबे के ऊपर की जो मोटी-मोटी संख्याएँ चलन्त अवस्था में हैं वे यदि बीच-बीच में सन्न करें तो उसमें व्यस्त हो उठने योग्य चांचल्य नहीं दिखाई देता। सायंकाल रेडियो के पास कान लगाए रहने का उत्साह अब तक शशांक मजुमदार में अनभिव्यक्त ही था। आजकल जब ऊर्मि उसे इसीके लिये खींचकर ले जाती है तब यह विषय न तो तुच्छ ही मालूम होता है और न समय ही व्यर्थ जान पड़ता है। हवाई जहाज़ का उड़ना देखने के लिये एक दिन सुबह-सुबह उसे दमदम तक जाना पड़ा था, वैज्ञानिक कौतूहल उसका प्रधान आकर्षण नहीं था। न्यू मार्केट में शापिंग करने का यही उसका श्रीगणेश है। इसके पहले शर्मिला बीच बीच में मछली-मांस फल-मूल साग-सब्ज़ी खरीदने वहाँ जाती थी। वह जानती थी कि यह कार्य विशेष भाव से उसीके विभाग का है। यहाँ शशांक उसकी सहायता करेगा, यह बात कभी उसके मन में भी नहीं आई, उसने चाही भी नहीं। लेकिन ऊर्मि तो ख़रीदने नहीं जाती, वह सिर्फ़ चीज़ा को उलटपुलटकर देखती फिरती है, मोलभाव करती है और यदि शशांक ख़रीद देना चाहता है तो उसका मानीबैग छीनकर अपने बैंग की हाजत में डाल लेती है।

शशांक के काम के लिये ऊर्मि के दिल में जरा भी दर्द नहीं था। कभी-कभी वह ज़्यादा बाधा देने के कारण शशांक की डाँट भी खा गई थी, पर उसका फल ऐसा शोकावह हुआ कि उसकी शोचनीयता दूर करने में शशांक को दुगुना समय देना पड़ा। इधर तो ऊर्मि की आँखों में वाष्प सञ्चार और उधर अपरिहार्य कार्य की ताक़ीद! आख़िर सङ्कट में पड़कर उसने घर के बाहर के चैम्बर में काम-काज ख़त्म कर देने की कोशिश की। लेकिन तीसरा पहर बीतते न बीतते वहाँ रहना दुःसह हो जाता जिस दिन किसी कारण से विशेष देर हो जाती उस दिन ऊर्मि का अभिमान दुर्भेद्य मौन के अन्तराल में दुर्जय हो उठता। इस रुध्द् अश्रु की कुहेलिका में आच्छन्न मान शशांक को आनन्दित करता। भले आदमी की तरह कहता, 'ऊर्मि तुम बात नहीं करोगी, इस सत्याग्रह की रक्षा करना उचित है, किन्तु धर्म की दुहाई है, नहीं खेलने का प्रण तो तुमने किया नहीं।' इसके बाद शशांक हाथ में टेनिस बैट लेकर चला आता। खेलते समय जब जीत के नज़दीक आता तो जान-बूझ-कर हार जाता। जो समय नष्ट होता उसके लिये फिर दूसरे दिन उठकर पश्चाताप किया करता। किसी छुट्टी के दिन सायंकाल शशांक जब दाहिने हाथ में लाल-नीली पेंसिल लेकर बाएँ हाथ की अंगुलियों को बिना कारण सिर के बालों में फैरता हुआ, आफ़िस-डेस्क पर बैठकर किसी एक दुस्साध्य कार्य को करने के लिये मशगूल था, उसी समय ऊर्मि आकर बोली, "तुम्हारे उस दलाल के साथ तै किया है कि वह आज मुझे परेशनाथ का मन्दिर दिखाने को ले जाएगा। चलो मेरे साथ, मेरे भले जीजाजी!"

शशांक ने गिड़गिड़ाकर कहा, "ना भई, आज नहीं, इस समय उठना कठिन है।"

काम-काज के गुरुत्व से ऊर्मि को ज़रा भी डर नहीं लगता, बोली, "अबला रमणी को हरी पगड़ीवाले के साथ अरक्षित अवस्था में छोड़ देने में तुम्हें सङ्कोच नहीं होता, यही तुम्हारी शिवेलरी है?"

आख़िरकार उसकी खींचतान से शशांक को काम-काज छोड़कर मोटर हाँकनी पड़ी। इस प्रकार का उत्पात हो रहा है इसका आभास जब शर्मिला को मिलता तो वह बहुत नाराज़ होती क्योंकि उसके मत से पुरुष की साधना के क्षेत्र में स्त्रियों का अधिकार प्रवेश किसी प्रकार क्षम्य नहीं। शर्मिला ऊर्मि को बराबर छोटी बच्ची-जैसी ही जानती आई है। आज भी उसके मन में यही धारणा है, सो कोई बात नहीं, लेकिन इसीलिए दफ़्तर तो लड़कपन करने की जगह नहीं है! अतएव ऊर्मि को बुलाकर ख़ूब डाँट बताती। उस -डाँट-फटकार से कुछ निश्चित फ़ायदा हो सकता था, लेकिन पत्नी के कद्ध कंठस्वर को सुनकर शशांक स्वयं आकर दरवाज़े के बाहर खड़ा हो जाता और आँख मिचकाकर ऊर्मि को आश्वासन देता। ताश का पैक दिखाकर इशारा करता, जिसका भाव यह होता कि चलो आओ, आफिस में बैठकर तुम्हें पोकर का खेल सिखाऊंगा। यह ताश खेलने का समय बिल्कुल नहीं था और न खेलने की बात मन में लाने लायक़ समय या अभिप्राय ही उसका था। लेकिन बड़ी बहन की कड़ी फटकार से ऊर्मि के मन में जो पीड़ा होती वह ऊर्मि की अपेक्षा उसे ही ज़्यादा लगती। वह खुद ही ऊर्मि को अनुनय करके या थोड़ा सा डाँटकर भी कार्यक्षेत्र से हटा देता किन्तु शर्मिला इसी बात को लेकर ऊर्मि को डाँटेगी, यह बात उसके लिये दुःसह थी।

शर्मिला शशांक को बुलाकर कहती, "जिस बात पर भी वह मचलेगी उसी बात पर तुम ध्यान देने लगो तो चलेगा कैसे। इससे वक्त-बे-वक्त तुम्हारे काम का नुक़सान जो होता है।"

शशांक कहता, "आहा, बेचारी बची है, यहाँ कोई उसका संगी साथी नहीं; ज़रा खेलने-खाने का मौक़ा न मिलने स जिएगो कैसे!"

यह तो हुआ नाना प्रकार का लड़कपन। उधर शशांक जब कोई मकान बनाने का प्लैन बनाता रहता तो ऊर्मि उसकी बग़ल में कुर्सी खींचकर बैठ जाती, कहती, समझा दो। सहज ही समझ भी लेती, गणित के नियम उसे बिल्कुल जटिल नहीं लगते। शशांक अत्यन्त प्रसन्न होता। उसे प्राब्लम देता, वह हल कर लाती। कम्पनी के स्टीमलंच पर शशांक जब काम की देखरेख में निकलता तो वह हट फर बैठती, 'मैं भी जाऊँगी।' सिर्फ़ जाती ही नहीं, मापजोख का हिसाब लेकर बहस भी करती। शशांक पुलकित हो उठता। भरपूर कवित्व की अपेक्षा इसका रस ज्यादा होता इसीलिये अब चेम्बर का काम जब वह घर ले आता तो मन में आशंका नहीं रहती। लकीर खींचनेवाले हिसाब के काम में उसे साथी मिल गया है। ऊर्मि को बग़ल में बैठाकर समझा-समझाकर काम करता। यद्यपि काम बहुत तेज़ी से अग्रसर नहीं होता तो भी समय की लंबाई सार्थक जान पड़ती।

यही शर्मिला को काफ़ी धका लगता। ऊर्मि के लड़कपन को भी वह समझती है, गृहस्थी न चलाने की त्रुटि को भी वह स्नेहपूवक सह लेती है, लेकिन व्यवसाय के क्षेत्र में पति के साथ स्त्री-बुद्धि के दूरत्व को उसने स्वयं अनिवार्य मान लिया था। वहीं ऊर्मि का अबाध आना-जाना उसे ज़रा भी अच्छा नहीं लगता। यह एकदम हिमाकत है। अपनी-अपनी सीमाएँ मानकर चलने को ही गीता ने स्वधर्म कहा है। मन ही मन अत्यन्त अधार होकर ही एक दिन उसने ऊर्मि से पूछा, "अच्छा ऊर्मि, वह सब आँकना, मापना, हिसाब लगाना तुझे क्या सचमुच अच्छा लगता है।"

'मुझे बहुत अच्छा लगता है दीदी।'

शर्मिला ने अविश्वास के स्वर में कहा, 'अच्छा लगता है! उन्हें ख़ुश करने के लिये दिखाया करता है कि अच्छा लगता है।'

यही सही; खिलाने-पिलाने में सेवा-यत्न के द्वारा शशांक को प्रसन्न करना तो शर्मिला को अच्छा ही लगता है। लेकिन इस तरह की ख़ुशी उसकी अपनी ख़ुशी के साथ मेल नहीं खाती।

शशांक को बार-बार बुलाकर कहती, "इसके साथ बेकार समय क्यों नष्ट करते हो। उससे तुम्हारे काम का कितना हर्ज होता है! छोटी बच्ची है, उसे यह सब क्या समझ में आएगा।'

शशांक कहता, 'मुझसे कम नहीं समझती। और समझता, इस प्रशंसा से दीदी आनन्दित हुई होंगी। नादान!

अपने कार्य के गौरव से शशांक ने जब अपनी स्त्री के प्रति मनोयोग को छोटा किया था तब शर्मिला ने उसे अगत्या नहीं मान लिया था, इससे उसने गवे ही अनुभव किया था। इसीलिये इन दिनों अपने सेवा-परायण हृदय के दावे को उसने बहुत कुछ कम कर लिया। वह कहती, 'पुरुष राजा की जाति के हैं, उन्हें बराबर ही दुःसाध्य कर्म का अधिकार प्रशस्त करना होता है। नहीं तो वे स्त्रियों से भी नीचे हो जाते हैं क्योंकि स्त्रियाँ अपने स्वाभाविक माधुर्य और प्रेम के जन्मजात ऐश्वर्य से ही प्रतिदिन संसार में अपने आसन को सहज ही सार्थक किए रहती हैं। पुराने जमाने के राजा लोग बिना प्रयोजन के ही राज्य जीतने के लिये निकल पड़ते थे। उनका उद्देश्य राज्य-लाभ करना नहीं, बल्कि नये सिरे से पौरुष का गौरव प्रमाणित करना हुआ करता था। इस गौरव में स्त्रियों को बाधा नहीं देनी चाहिए।' शर्मिला ने बाधा नहीं दी, स्वेच्छा से शशांक को लक्ष्य-साधना के सम्पूर्ण पथ को छोड़ दिया। एक समय उसने अपने सेवा-जाल में शशांक को फाँस रक्खा था। मन में कष्ट होने पर भी उसने उस जाल को शिथिल कर दिया। सेवा अब भी पर्याप्त करती है लेकिन अद्श्य नेपथ्य में रहकर।

लेकिन हाय, आज उसके पति का यह कैसा पराभव धीरे-धीरे प्रकट होता जा रहा है! रोगशय्या से यह सब तो नहीं देख सकती पर काफ़ी आभास पा जाती है। शशांक का मुँह देखते ही समझ सकती है कि वह हमेशा कुछ अजीब तरह के आवेश में रहता है। यह रत्ती भर की लड़की कितने थोड़े समय में इस कर्म-कठिन पुरुष को इतनी बड़ी साधना के आसन से विचलित किए दे रही है! पति की यह अश्रद्धेयता शर्मिला को रोग की पीड़ा से भी अधिक दुःख दे रही है।

शशांक के आहार-विहार वेश-वास आदि को व्यवस्था में अनेक प्रकार की त्रुटि हो रही है इसमें कोई संदेह नहीं। जो पथ्य उसे विशेष रुचिकर है, खाने के समय अचानक देखा जाता है वही अनुपस्थित है। इसकी क़ैफ़ियत मिलती है किन्तु यहाँ किसी क़ैफ़ियत को नहीं। आज तक माना नहीं गया। ऐसी असावधानता यहाँ अक्षम्य थी, कठोर शासन-योग्य मानी जाती थी; इसी विधिबद्ध संसार में आज इतना बड़ा युगांतर उपस्थित हुआ है कि गुरुतर त्रुटियाँ भी प्रहसन के समान हो गई हैं। दोष किसे दें! ऊर्मि यदि दीदी के निर्देश के अनुसार रसोईघर में बेत के मोढ़े पर बैठकर पाक-प्रणाली के परिचालन कार्य में नियुक्त होती और साथ ही साथ मिसरानी जी के पूर्वजावन की बातों की आलोचना चलती रहती तो ऐसे ही समय शशांक अचानक आकर कहता, 'इस समय वह सब रहने दो।

'क्यों क्या करना होगा?'

'इस वक्त मेरी छुट्टी है, चलो विक्टोरिया मेमोरियल की इमारत देख आएँ। उसका घमंड देखकर मुझे क्यों हँसी आती है सो तुम्हें समझा दूंँगा।'

इतने बड़े प्रलोभन से कर्तव्य को छोड़कर जाने के लिये ऊर्मि का मन तत्क्षण चंचल हो उठता। शर्मिला जानती है की पाकशाला से उसकी बहन के अन्तर्धान हो जाने के बाद भी भोजन की उत्कृष्टता में कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तो भी स्निग्ध हृदय का थोड़ा सा यन शाक के आराम को अलंकृत करता है। लेकिन आज आराम की बात उठाने से क्या फायदा, जय कि रोज़ ही साफ़ मालूम होता है कि आराम मामूली हो गया है, पति बिना आराम के भी प्रसन्न है।

इसी ओर से शर्मिला के मन में अशांति का प्रवेश हुआ। रोगशय्या पर करवट बदलती हुई वह बार-बार अपने-आप से कहती, 'मरने से पहले यह बात समझ ही गई! और सब कर सकी हूँ सिर्फ प्रसन्न नहीं कर सकी। सोचा था, ऊर्मिमाला के भीतर अपने-आपको ही देख सकूँगी लेकिन वह तो बिल्कुल एक दूसरी ही लड़की है।' खिड़की के बाहर की ओर ताकती और सोचती 'मेरी जगह यह नहीं ले सकी; उसकी जगह मैं नही ले सकूँगी। मैं चली जाऊँगी तो सिर्फ़ नुक़सान ही होगा लेकिन वह चली जाएगी तो सब शून्य हो जाएगा।'

सोचते-सोचते अचानक याद आ गया कि जाड़ों के दिन आ रहे हैं, गर्म कपड़ों को धूप में देना चाहिए। ऊर्मि उस समय शशांक के साथ पिंग-पांग खेल रही थी, उसे बुला भेजा।

बोली, "ऊर्मि, यह चाभी ले, गर्म कपड़ों को छप्त पर धूप में फैला दे"।




ऊर्मि ने अभी आलमारी में चाभी लगाई ही थी कि शशांक ने आकर कहा, "वह सब बाद में होगा, बहुत समय पड़ा है, खेल ख़त्म कर आओ।"

"लेकिन दीदी"---

"अच्छा, दीदी से छुट्टी माँगे लाता हूँ।"

दीदी ने छुट्टी दे दी और उसके साथ ही बड़ी-सी एक दीर्घ निश्वास भी ली।

दासी को बुलाकर कहा, "ज़रा रख तो दे मेरे सिर पर ठंडे जल की पट्टी।'

यद्यपि बहुत दिनों के बाद एकाएक छूट पाकर ऊर्मि अपने-आपको भूल-सी गई थी तथापि किसी-किसी दिन उसे अपने जीवन की कठोर ज़िम्मेवारी याद आ जाती। वह तो स्वाधीन नहीं, वह अपने व्रत के साथ बँधी हुई है,। उसी व्रत के साथ मिलकर जिस बंधन ने उसे व्यक्ति-विशेष के साथ बाँध रखा है, उसका अनुशासन तो सिर पर मौजूद है ही। उसी आदमी ने तो उसके दैनिक जीवन की तफ़सील ठीक कर दो है। ऊर्मि किसी प्रकार यह अस्वीकार नहीं कर पाती कि उसके जीवन पर उस आदमी का अधिकार हमेशा के लिये हो गया है। जब नीरद पास था तब स्वीकार करना आसान था, मन में ज़ोर रहा करता था। इस समय उसकी इच्छा तो एकदम विमुख हो गई है लेकिन कर्तव्य-बुद्धि पीछे पड़ी हुई है। कर्तव्य-बुद्धि के इस अत्याचार से मन और भी बिगड़ उठता है। अपने ही किए हुए अपराध को क्षमा करना कठिन हो गया इसीलिये अपराध प्रोत्साहन पाने लगा। पीड़ा पर अफ़ीम की प्रलेप देने के लिये यह शशांक के साथ खेल-कूद और आमोद-प्रमोद में अपने को भुला रखने की चेष्टा करती। कहती, इस समय जितने थोड़े-से दिनों के लिये छुट्टी मिली है उतने समय तक यह सब बातें पड़ी रहें। फिर अचानक किसी-किसी दिन ज़ोर से सिर हिलाकर ट्रंक में से बही-खाता निकालती और उनपर मग़ज़ मारने बैठ जाती। अब शशांक की बारी आती। वह किताबों को खींचकर फिर से बक्स में भर देता और उसी बक्स को दबाकर ऊपर बैठ जाता। ऊर्मि कहती, "जीजाजी, यह तुम्हारा बड़ा अन्याय है, मेरा समय मत बरबाद करो।"

शशांक कहता, "तुम्हारा समय बरबाद करने में मेरा भी समय बरबाद होता है। इसलिये जमा-ख़र्च बराबर हुआ।" इसके बाद थोड़ी देर खींचतान करके अंत में ऊर्मि हार मान लेती। यह उसके लिये बहुत आपत्तिजनक है ऐसा भी नहीं लगता। इस प्रकार बाधा पाकर भी कर्तव्यबुद्धि की मार पाँच-छ: दिन तक लगातार जारी रहती, बाद में उसका ज़ोर कम हो आता। ऊपर से कहती, "मुझ कमज़ोर न समझना जीजाजी, मेरे मन में प्रतिज्ञा मज़बूत ही बनी हुई है।"

"यानी?"

"यानी यहाँ से डिग्री लेकर यूरोप में डाक्टरी सीखने जाऊँगी।"

"फिर?"

"फिर अस्पताल स्थापित करके उसकी जिम्मेवारी सँभालूगी।"

"और किसकी ज़िम्मेवारी सँभालोगी? वह जो नारद मुखर्जी नाम का एक इनसफ़रेबुल---"

शशांक का मुँह बंद करके ऊर्मि कहती, "चुप रहो। यदि यह सब बातें कहोगे तो तुम्हारे साथ बिल्कुल तकरार हो जायगी।"

अपने को ऊर्मि ख़ूब कठिन करके कहती, मुझे सत्य बनना होगा, सत्य बनना होगा। --नीरद के साथ उसका जो सम्बन्ध पिताजी स्वयं स्थिर कर गए हैं उसके प्रति सच्ची न हो सकने को वह सतीत्व-धर्म के विरुद्ध समझती।

लेकिन कठिनाई यह थी कि दूसरी ओर से उसको कोई बल नहीं मिलता! वह मानो एक ऐसी लता है जो धरती को तो कसके पकड़े हुई है किंतु आकाश के प्रकाश से वंचित है, उसकी पक्तियाँ पीली पड़ गई हैं। कभी-कभी वह असहिष्णु हो उठती, मन ही मन सोचती, यह आदमी ज़रा ढंग की एक चिट्ठी भी क्यों नहीं लिख सकता!

ऊर्मि ने बहुत दिनों तक कानवेन्ट में पढ़ा था। और कुछ हो या न हो अंग्रेजी वह अच्छी जानती थी। यह बात नीरद को मालूम थी इसीलिये अंग्रेज़ी में लिखकर उसे अभिभूत करने का प्रण नीरद ने कर रखा था। मातृभाषा में चिट्ठी लिखने से आफत से जी छूटता, लेकिन बेचारे को मालूम नहीं कि उसे अंग्रेजी नहीं आती। बड़े-बड़े शब्दों का संग्रह करता, भारी-भरकम किताबी वाक्यों की योजना करता और इस प्रकार पत्र के वाक्यों को बोरों से लदी हुई बैलगाड़ी की तरह बना देता। ऊर्मि को हँसी आती लेकिन हँसने में भी उसे लाज लगती। अपने ही को तिरस्कार करके कहती, बंगाली की अंग्रेज़ी में कोई त्रुटि हो तो उसे लेकर नुक्ताचीनी करना स्नाबरी है।

देश में रहते हुए आमने-सामने बैठकर जब नीरद सदुपदेश दिया करता तो गौरववश उसकी भावभंगी गम्भीर हो उठती। जितना कानों से सुनाई देता उतने से अंदाज़ में उसका वज़न भारी होता, लेकिन लंबी चिट्ठी में अन्दाज़ की गुंजाइश नहीं होती। कमर कसे हुई बड़ी-बड़ी बातें हल्की हो जाती, मोटी आवाज़ से ही वक्तव्य विषय की कमी प्रकट हो जाती।

नीरद का जो भाव नज़दीक रहते समय बर्दाश्त हो गया था वही दूर से उसे सबसे अधिक तकलीफ़ देता। यह आदमी हँसना एकदम जानता ही नहीं! चिट्ठियों में सबसे अधिक इसका अभाव ही प्रकट होता। इस बात में शशांक के साथ उसकी तुलना उसके मनमें अपने-आप आ उपस्थित होती। तुलना का एक बहाना उस दिन अचानक उपस्थित हुआ। कपड़ा खोजते समय बक्स के नीचे से उसीका बुना हुआ एक अधबना जूता निकला। चार बरस पहले की बात याद आ गई। हेमन्त उन दिनों जीवित था। सब लोग दार्जिलिंग गए हुए थे। आनन्द और मौज का अन्त नहीं था। हेमन्त और शशांक ने मिलकर चहल-पहल की धूम मचा दी थी। ऊर्मि अपनी एक मौसी से बुनाई का एक नया काम सीखकर आई थी। भैया के जन्मदिन पर देने के लिये एक जोड़ा जूता बुनने लगी। शशांक ने मज़ाक़ में कहा, "भैया को चाहे और जो दो, जूता मत दो। भगवान् मनु ने कहा है, ऐसा करने से गुरुजन का असम्मान होता है।" ऊर्मि ने व्यंग्य करके कहा, "भगवान् मनु ने इस वस्तु का प्रयोग किसपर करने को कहा है?"

शशांक ने मुँह गम्भीर करके कहा, "असम्मान का सनातन अधिकार बहनोई को है। यह मेरा पावना है, सूद समेत अब भारी हो आया है।"

"याद तो नहीं पड़ता।"

"याद पड़ने की बात नहीं है। उस समय तुम निहायत नावालिग़ थीं। इसीलिये जिस दिन शुभ लग्न में तुम्हारी दीदी के साथ इस सौभाग्यवान का विवाह हुआ था उस दिन सुहागरात के कर्णधार का पद तुम नहीं ग्रहण कर सकी। आज उस कर-पल्लव की अरचित कान-मलाई इस करपल्लव-रचित जते के जोड़े में रूप ग्रहण कर रही है। इसके ऊपर मेरा दावा है सो कहे देता हूँ।" शशांक का यह दावा मंजुर नहीं हुआ क्योंकि यह जूता यथासमय प्रणामी के रूप में भैया के चरणों में ही निवेदित हुआ। उसके कुछ समय बाद ऊर्मि ने शशांक का एक पत्र पाया। पाकर वह ख़ूब हँसती रही। वह चिट्ठी आज भी उसके बाक्स में पड़ी हुई है। आज खोलकर उसने उसे फिर से पढ़ा:

"कल तो तुम चली गईं। तुम्हारी स्मृति पुरानी होते-न-होते तुम्हारे नाम एक कलंक की बात फैल गई है। उसे छिपा रखने को मैं कर्तव्य को अवहेलना मानता हूँ।

"मेरे पैरों में एक जोड़ी तालतले की चप्पल बहुतों ने देखी है। किन्तु इससे भी अधिक उसके छेदों को पार करके निकलनेवाली मेरी पद-नख-पंक्ति को ही लोगों ने देखा, जो मेघमुक्त चन्द्रमाला की भाँति दर्शित होती है ( देखो---भारतचन्द्र का 'अन्नदामंगल'। उपमा की यथार्थता के विषय में संदेह हो तो अपनी दीदी से जाँच करा सकती हो। ) आज सबेरे मेरे दफ्तर के वृन्दावन नन्दी ने जब मेरे सपादुक चरणों को स्पर्श करके नमस्कार किया तो मेरी पद-मर्यादा की जो विदीर्णता प्रकट हुई उसकी गौरवहीनता से मेरा मन हिल उठा। मैंने सेवक से प्रश्न किया, 'महेश, बता सकते हो कि किस अनधिकारी के श्रीचरणों में मेरे नये चप्पलों के जोड़े ने गति पाई है?' उसने सिर खुजलाकर कहा, "उस घर की ऊर्मि मौसी के साथ जब आप भी दार्जिलिंग गए थे तो साथ ही साथ चप्पलों की जोड़ी भी गई थी। आपके लौटने के समय एक तो आपके साथ लौटी है लेकिन बाक़ी एक--' उसका मुह लाल हो उठा। मैंने उसे डाँट बताई, 'बस, चुप रह।' वहाँ बहुत-से लोग थे। चप्पल-हरण हीन कार्य है, लेकिन मनुष्य का मन दुबल होता है, लोभ का दमन करना कठिन होता है, वह ऐसा काम कर ही डालता है। ईश्वर शायद क्षमा करते हैं, तो भी अपहरण-कार्य में यदि कुछ बुद्धिमानी का परिचय दिया गया हो तो दुष्कर्म की ग्लानि भी बहुत कुछ कम हो जाती है। लेकिन केवल एक चप्पल !!! धिक् !!!

"जिसने यह काम किया है उसका नाम मैंने यथासंभव गुप्त ही रखा है। वह यदि अपनी स्वभाव-सिद्ध मुखरतावश बेकार चिल्लाना शुरू करें तो भंडाफोड़ हो जायगा। जहाँ मन दुरुस्त होता है वहीं चप्पल को लेकर मनमुटाव निभ सकता है। महेश के समान निन्दकों का मुख एक जोड़ी सुन्दर कलापूर्ण चप्पलों की सहायता से अनायास ही बंद कर सकती हो। ज़रा उसकी हिमाकत तो देखो! पैरों का माप साथ भेज रहा हूँ।"

चिट्ठी पाकर ऊर्मि स्मित हास्य के साथ जूता बुनने बैठी थी किन्तु ख़त्म नहीं कर सकी। काम में उसका उत्साह नहीं रह गया था। आज इस असमाप्त जूते का आविष्कार करके उसने स्थिर किया कि इसे दार्जिलिंगयात्रा के वार्षिक दिन को वह शशांक को उपहार देगी, और कुछेक सप्ताह बाद ही वह दिन आनेवाला था। उसने गहरी लंबी साँस ली--कहाँ गए वे दिन जो हँसी से उज्ज्वल आकाश में हल्के पंखों पर उड़ जाया करते थे! आज तो अवकाशहीन कर्तव्य-कठोर मरु-जीवन सामने फैला हुआ है!

आज होली का दिन है। मुफ़स्सिल के काम से आज होली खेलने में शशांक को योग देने का समय प्राप्त नहीं था। इस दिन की बात वे लोग भूल ही गए थे। ऊर्मि ने आज शय्यागता दीदी के चरणों में अबीर चढ़ाकर प्रणाम किया। इसके बाद खोजती-खोजती शशांक के आफ़िस के कमरे में जा पहुँची जहाँ वह डेस्क पर झुका हुआ लिख रहा था। पीछे से जाकर ऊर्मि ने उसके सिर पर अबीर मल दी, काग़ज़ पत्र लाल हो उठे। फिर तो मत्तता का ज़ोर शुरू हो गया। डेस्क पर दावात में लाल स्याही थी। शशांक ने उसे ऊर्मि की साड़ी पर ढाल दिया। हाथ पकड़कर उसीके आँचल से अबीर निकालकर ऊर्मि के मुँह पर मल दिया। फिर दौड़-धूप, धक्कामुक्की, शोर गुल। स्नानाहार का समय निकल गया, ऊर्मि की ऊँची हँसी के उच्छास से सारा मकान मुखरित हो उठा। आखिरकार शशांक के अस्वास्थ्य की आशंका से दूत पर दूत मेजकर शर्मिला ने दोनोंको निवृत्त किया।

दिन बीत गया, रात बहुत ढल आई। पुष्पित कृष्णचूड़ा की शाखाओं को नीचे छोड़कर पूर्णचन्द्रमा अनावृत आकाश में उठ आया। अचानक फागुनी हवा का झोंका झरझर शब्द करता हुआ बगिया के समस्त पेड़-पौधों पर तरङ्गित हो उठा, नीचे की छाया के जाल ने उसका साथ दिया। खिड़की के पास ऊर्मि चुपचाप बैठी थी। उसे किसी तरह नींद नहीं आ रही थी। छाती में रक्त का हिल्लोल शांत नहीं हुआ था। आम की बौंर की सुगंध से मन भर उठा था। आज वसन्त में माधवीलता की प्रत्येक मज्जा में फूल खिलाने की जो वेदना जाग्रत थी, मानो वही वेदना ऊर्मि की समस्त देह को भीतर से उत्सुक कर रही थी। पास के नहाने के घर में जाकर उसने सिर धोया। गीले तौलिए से बदन पोंछ लिया। बिस्तर पर करवट बदलते बदलते थोड़ी देर बाद स्वप्नजड़ित निद्रा से वह आविष्ट हो गई।

रात को तीन बजे नींद खुली। चाँद उस समय खिड़की के सामने नहीं था। घर में अन्धकार, बाहर प्रकाश और छाया से जड़ित सुपारीवृक्षों की वीथिका। ऊर्मि के वक्षस्थल को चीरकर जैसे रुलाई उमड़ आई जो किसी प्रकार रुकना नहीं चाहती। तकिए में मुँह ढककर वह रोने लगी। प्राणों की यह रुलाई थी, भाषा में इसके लिये शब्द नहीं, अर्थ नहीं। पूछने पर यह क्या बता सकती कि कहाँ से उसके देह और मन में वेदना का यह ज्वार उद्वेल हो उठा है और बहा ले जा रहा है दिन की कर्म-सूची---रात की सुख-निद्रा को।

सबेरे जब उसकी नींद खुली तो घर में धूप आ गई थी। सबेरे के काम में फाँक पड़ गया। थकान की बात याद करके शर्मिला ने उसे क्षमा किया। किस बात के अनुताप से ऊर्मि आज अवसन्न थी? क्यों उसे लग रहा है कि उसकी हार शुरू हो गई है। दीदी से आकर बोली, "दीदी मैं तो तुम्हारा कोई काम कर नहीं सकती, कहो तो घर लौट जाऊँ।" आज तो शर्मिला यह नहीं कह सकी कि 'नहीं, मत जा।' बोली, "अच्छा, तू जा। तेरी पढ़ाई-लिखाई का नुक़सान हो रहा है। बीच-बीच में जब समय मिले तब देख जाना।"

शशांक उस समय काम पर निकल गया था। मौक़ा देखकर ऊर्मि उसी दिन घर लौट गई।

शशांक उस दिन यान्त्रिक चित्र खींचने का एक सेट ख़रीदकर घर लौटा। ऊर्मि को देगा, उसे यह विद्या सिखाने की बात थी। लौटकर उसे यथास्थान न देखकर शर्मिला से आकर पूछा, 'ऊर्मि कहाँ गई?"

शर्मिला बोली, "यहाँ उसकी पढ़ाई-लिखाई में असुविधा हो रही थी इसीलिये घर चली गई।'

"कुछ दिन असुविधा भोग करने के लिये तो वह तैयार होकर ही आई थी। अचानक आज ही असुविधा की बात कैसे उठी?"

बात के लहज़े से शर्मिला ने समझा कि शशांक उसीपर संदेह कर रहा है। इस विषय में कोई व्यर्थ का तर्क न करके बोली, "मेरी ओर से तुम उसे बुला लाओ, निश्चय ही उसे कोई एतराज़ नहीं होगा।"

उधर ऊर्मि जब अपने घर लौटकर आई तो देखा कि बहुत दिनों के बाद नीरद की चिट्ठी आकर उसकी प्रतीक्षा कर रही है। मारे डर के वह खोल ही नहीं सकी। मन ही मन जानती थी कि मेरी ओर से अपराध जमा हो गए हैं। नियम भंग की क़ैफ़ियत देने के लिये इसके पहले दीदी की बीमारी का उल्लेख किया था, पर कुछ दिनों से यह क़ैफ़ियत प्रायः मिथ्या हो आई है। शशांक ने विशेष रूप से ज़िद करके शर्मिला के लिये दिन और रात के लिये अलग-अलग नर्सें नियुक्त कर दी हैं। डाक्टर के निर्देशानुसार वे लोग रोगी के घर में आत्मीय स्वजनों का आना-जाना बंद कर दिया करती हैं। ऊर्मि मन ही मन जानती थी कि नीरद दीदी की बीमारी वाली की क़ैफ़ियत को बहुत बड़ी बात नहीं मानेगा। कहेगा, 'यह बेकार की बात है।' सचमुच ही यह बेकार की बात है। मेरी तो वहाँ कोई ज़रूरत नहीं है। पश्चात्ताप-भरे मन से उसने निश्चय किया कि इस बार दोष स्वीकार करूँगी और क्षमा मागूँगी। कहूँगी, 'अब कोई ग़लती नहीं करूँगी, कभी भी नियम भंग नहीं करूँगी।'

चिट्ठी खोलने से पहले बहुत दिनों के बाद उसने नीरद के उसी फ़ोटो को निकाला और मेज़ पर रख दिया। जानती थी, इस चित्र को देखकर शशांक खूब मज़ाक उड़ाएगा। तो भी ऊर्मि उसके मज़ाक से एकदम कुण्ठित नहीं होगी, बिल्कुल नहीं झेंपेगी। यही उसका प्रायश्चित है। दीदी के घर वह इस बात को दबा देती थी कि नीरद के साथ उसका विवाह होगा। दूसरे लोग भी इस प्रसंग को नहीं उठाते थे क्योंकि वह सभी को अप्रिय था। आज मुट्ठी बाँधकर ऊर्मि ने स्थिर किया कि अपने सब व्यवहारों में इस प्रसंग की घोषणा वह ज़ोर के साथ ही किया करेगी। एंगेजमेंट ( मँगनी ) की अंगूठी को कुछ दिनों से उसने छिपा रखा था। निकालकर आज उसे धारण किया। अँगूठी निहायत कम दाम की थी,--- नीरद ने अपनी ईमानदारी-भरी ग़रीबी के गर्व से ही इस सस्ती अँगूठी का दाम हीरे से भी अधिक बढ़ा दिया था। भाव यह था कि 'अँगूठी के दाम से मेरा दाम नहीं निश्चित होता, मेरे दाम ही से अँगूठी का दाम निश्चित होता है।'

इस प्रकार यथासाध्य अपना संशोधन करने के बाद ऊर्मि ने लिफ़ाफा खोला।

चिट्ठी पढ़कर हठात् उछल पड़ी। नाचने की इच्छा हुई पर नाच का उसे अभ्यास नहीं था! बिस्तर पर सितार पड़ा हुआ था, उसे उठाकर सुर बाँधे बिना ही झनाझन झंकार देती हुई जो जी में आया वही बजाने लगी।

ठीक ऐसे ही समय शशांक ने घर में प्रवेश किया। पूछा, "मामला क्या है? शादी का दिन ठीक हो गया क्या?"

"हाँ, जीजाजी, ठीक हो गया।"

"अब किसी प्रकार इधर-उधर होने की गुंजाइश नहीं?"

"बिल्कुल नहीं।"

"तो फिर इसी समय शहनाई का बयाना दे आऊँ, और भीमचन्द्र नाग के संदेश का?"

"तुम्हें कुछ भी नहीं करना होगा।"

"ख़ुद सब कुछ करोगी? धन्य हो वीराङ्गने! और लड़की का आशीर्वाद?"

"उस आशीर्वाद का रुपया मेरे ही पाकेट से गया है।"

"तो मछली के तेल में ही मछली तली गई है! कुछ ठीक समझ में नहीं आया।"

"यह लो समझ लो।"

---कहकर चिट्ठी उसके हाथ पर रख दी। पढ़कर शशांक हाः हा: हाः करके हँस पड़ा। लिखा है, रिसर्च के जिस दुरूह कार्य में नीरद अपने आपको लगा देना चाहता है, वह भारतवर्ष में सम्भव नहीं है। इसीलिये उसे अपने जीवन में एक और बड़ा बलिदान करना पड़ेगा। ऊर्मि के साथ विवाह-सम्बन्ध विच्छिन्न किए बिना अब चल ही नहीं सकता। एक यूरोपीय महिला उसके साथ विवाह करके उसके कार्य में आत्मनियोग करने को तैयार हैं। लेकिन काम तो वही है, भारतवर्ष में हो तो, और विलायत में हो तो। राजारामबाबू ने जिस कार्य के लिये धन देना चाहा था, उसका कुछ हिस्सा यहाँ लगाने में कोई अन्याय नहीं है। उससे मृत व्यक्ति का सम्मान ही होगा।

शशांक ने कहा, "जीवित व्यक्ति को कुछ-कुछ देकर यदि उस दूरदेश में ही जिला रख सको तो बुरा क्या है? क्योंकि यदि रुपया बंद कर दिया जाय तो भूख की ज्वाला से अधमरा होकर यहाँ दौड़ा चला आयगा, यह आशंका है।"

ऊर्मि ने हँसकर कहा, "यदि तुम्हारे मन में यह डर हो तो रुपया तुम्हीं भेजना, मैं तो एक पैसा भी नहीं देती।"

शशांक बोला, "फिर से मन तो नहीं बदलेगा न? मानिनी का अभिमान तो अटल ही बना रहेगा?" "यदि बदला ही तो तुम्हें इससे क्या, जीजाजी?"

"सवाल का सही जवाब दूंँ तो तुम्हारा अहंकार बढ़ जायगा इसीलिये तुम्हारी भलाई के लिये चुप रहता हूँ। पर सोचता हूँ कि इस आदमी का गंडस्थल तो कम नहीं है---अंग्रेज़ी में जिसे कहते हैं चीक।"

ऊर्मि के मन से एक बड़ा भारी बोझ उतर गया---बहुत दिनों का बोझ। छुटकारे के आनन्द में वह ऐसी विह्वल हुई कि कुछ तै हो नहीं कर पाई कि क्या करे, क्या नहीं। कामों को अपनी उस सूची को उसने फाड़कर फेंक दिया। गली में एक भिखमंगा भीख माँग रहा था, उसकी ओर खिड़की से अँगूठी ज़ोर से फेंक दी।

पूछा--"पेन्सिल से निशान बनाई हुई इन पुस्तकों को कोई फेरीवाला क्या ख़रीदेगा?"

"यदि न खरीदे, उसका क्या फलाफल होगा, सुनूँ भला!"

"कहीं इसमें पुराने ज़माने का भूत डेरा न डाले रहे! बीच-बीच में आधीरात को मेरे बिछौने के पास अँगुली उठाकर खड़ा हो जाय तो!"

"ऐसी आशंका हो तो फेरीवाले की प्रतीक्षा करने की ज़रूरत नहीं। मैं खुद ख़रीदूंँगा।" "ख़रीदकर क्या करोगे?"

"हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार अन्त्येष्टि संस्कार। यदि तुम्हारे मन को सान्त्वना मिले तो गया तक जाने को तैयार हूँ।"

"ना, इतनो ज़ियादती बर्दाश्त नहीं होगी।"

"अच्छा, अपनी लाईब्रेरी में पिरामिड खड़ा करके इनकी 'ममी' बनाकर रख छोड़ूँगा।"

"लेकिन, आज तुम अपने काम पर नहीं जा सकोगे।"

"सारा दिन?"

"सारा दिन।"

"क्या करना होगा?"

"मोटर पर चम्पत हो जायँगे।"

"दीदी से छुट्टी मांँग लाओ।"

"ना, लौटकर आऊँगी तभी दीदी से कहूँगी। उस समय मुझपर खूब डाँट पड़ेगी सो बर्दाश्त हो जाएगी।"

"अच्छी बात है। मैं भी तुम्हारी दीदी की डाँट पचा लेने को तैयार हूँ। टायर यदि फट जाय तो दुःखित नहीं हूँगा। घंटे में पैंतालीस मील का रफ्तार से दो चार जनों को कुचलता हुआ जेलख़ाने तक पहुँचने में भी कोई एतराज़ नहीं है किन्तु तीन बार प्रतिक्षा करो कि इस मोटर को रथ-यात्रा को समाप्त करके तुम हमारे ही घर लौट चलोगी।"

"चलूंँगी, चलूंँगी, चलूँगी।"

मोटर-यात्रा के बाद दोनों भवानीपुर के घर में लौट आए किन्तु घण्टे में पैंतालीस मील की रफ्तार का वेग रक्त में तब भी जारी था, वह किसी प्रकार रुकना ही नहीं चाहता। संसार का सारा दायित्व, भय और लज्जा इस वेग के सामने विलुप्त हो गए।

कई दिन तक शशांक को सारे कामकाज भूल गए। मन ही मन उसने समझा कि यह अच्छा नहीं हो रहा है। कामकाज का नुक्सान बहुत भारी होना भी असंभव नहीं। रात को बिस्तर पर सोए सोए वह दुश्चिता-धश दुःसंभावनाओं को बढ़ा-बढ़ाकर देखता। किन्तु दूसरे दिन फिर 'स्वाधिकार प्रमत्त' मेघदूत के यक्ष के समान हो जाता। एक बार शराब पीने पर उसके अनुताप को ढकने के लिये फिर से पीना पड़ता है।