देवांगना/सिद्धेश्वर का कोप

[ ६८ ]सिद्धेश्वर का कोप



सिद्धेश्वर क्रोधपूर्ण मुद्रा में अपने गुप्त कक्ष में बैठे थे। इसी समय माधव ने रस्सियों से बाँधकर लिच्छवि राजमहिषी सुकीर्ति देवी को उनके सामने उपस्थित किया। सम्मुख आते ही सिद्धेश्वर ने कहा—"तुम्हें मालूम है देवी सुनयना, कि मंजु भाग गई है?"

"तो क्या हुआ, मन्दिर में अभी बहुत पापिष्ठा हैं?"

"परन्तु क्या तुमने उसके भागने में सहायता दी है?"

"दी, तो फिर?"

"मैं तुम्हें और उसे दोनों को प्राणान्त दण्ड दूँगा।"

"बड़ी सुन्दर बात है। जिसे राजरानी पद से च्युत कर विधवा और पतिता देवदासी बनाया-जिसकी बच्ची को पतित जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य किया और जिसे वासना की सामग्री बनाना चाहते थे-उसी को अब प्राणदण्ड भी दो।"

"चुप रहो सुनयना देवी!"

"क्यों चुप रहूँ? मैं ढोल पीटकर संसार को बताऊँगी कि मैं कौन हूँ, और तुमने मेरे साथ किया है!"

"तुम जो चाहो कहो। कौन तुम पर विश्वास करेगा?"

सुनयना ने चोली से एक छोटी-सी वस्तु निकालकर उसे दिखाई और कहा, "इसे तो तुम पहचानते हो सिद्धेश्वर, जानते हो, इसमें किसका खून लगा है? इसे देखकर तो लोग विश्वास कर लेंगे?"

उन वस्तु को देखकर सिद्धेश्वर भयभीत हुआ। उसने कहा :

"देवी सुनयना, इस प्रकार आपस में लड़ने-झगड़ने से क्या लाभ होगा! तुम मुझे उस खजाने का शेष आधा बीजक दे दो, मैं तुम दोनों को मुक्त कर दूँगा––बस।"

"प्राण रहते यह कभी नहीं होगा।"

"तो तुम्होर प्राण रहने ही न पावेंगे।"

"जिसने प्राण दिया है-वही उसकी रक्षा भी करेगा, तुम जैसे श्रृगालों से मैं नहीं डरती।"

"मैंने उसे पकड़ने के लिए सैनिक चर भेजे हैं। वह जहाँ होगी-वहाँ से पकड़ ली जायेगी और मैं तेरे सम्मुख ही उसे अपनी अंकशायिनी बनाऊँगा।"

सिद्धेश्वर ने आपे से बाहर होकर कहा—"माधव, ले जा इस सर्पिणी को और डाल दे अंधकूप में।" [ ६९ ]माधव उसे लेकर चला गया। कुछ देर तक सिद्धेश्वर भूखे व्याघ्र की भाँति अपने कक्ष में टहलता रहा। फिर उसने बड़ी सावधानी से एक ताली अपनी जटा से निकाल लोहे की सन्दूक खोली और उसमें से एक ताम्र-पत्र निकालकर उसे ध्यान से देखा तथा फलक पर लकीरें खींचता रहा। कभी-कभी उसके होंठ हिल जाते और भृकुटि संकुचित हो जाती। परन्तु वह फिर उसे ध्यान से देखने लगता।

इसी समय उसे कुछ खटका प्रतीत हुआ। उसने आँखें उठाकर देखा तो दिवोदास नंगी तलवार लिए सम्मुख खड़ा था। सिद्धेश्वर उछलकर दूर जा खड़ा हुआ। उसने कहा—"तू यहाँ कैसे आया रे धूर्त भिक्षु?"

"इससे तुझे क्या?"

"क्या ऐसी बात?" उसने खूँटी से तलवार उठाकर दिवोदास पर आक्रमण किया।

दिवोदास ने पैतरा बदलकर कहा—"मेरी इच्छा तेरा हनन करने की नहीं है।"

"परन्तु मैं तो तुझे अभी टुकड़े-टुकड़े करके भगवती चण्डी को बलि देता हूँ।" सिद्धेश्वर ने फिर वार किया। परन्तु दिवोदास ने वार बचाकर एक लात सिद्धेश्वर को जमाई। सिद्धेश्वर औंधे मुँह भूमि पर जा गिरा। दिवोदास ने ताम्रपट्ट उठाया और अपने वस्त्र में रख लिया।

सिद्धेश्वर ने गरजकर कहा—"अभागे, वह पत्र मुझे दे!"

"वह तेरे बाप की सम्पत्ति नहीं है रे धूर्त।"

"तब ले मर”, उसने अन्धाधुन्ध तलवार चलाना प्रारम्भ किया। दिवोदास केवल बचाव कर रहा था, इसी से वह एक घाव खा गया। इस पर खीझकर उसने एक हाथ सिद्धेश्वर के मोढ़े पर दिया। सिद्धेश्वर चीखकर घुटनों के बल गिर गया। इसी समय माधव तलवार लेकर कक्ष में कूद पड़ा। उसने पीछे से वार करने को तलवार उठाई ही थी, कि सुखदास ने उसका हाथ कलाई से काट डाला। माधव वेदना से मूर्च्छित हो गया। इसी समय सुयोग पाकर दोनों भाग निकले। भागते-भागते सुखदास ने कहा—"वहाँ-कुंज में बिटिया छिपी बैठी है। तुम उसे लेकर और दीवार फाँदकर वाम तोरण के पीछे आओ, वहाँ अश्व तैयार है। मैं उधर व्यवस्था करता हूँ।"

यह कहकर सुखदास एक ओर जाकर अन्धकार में विलीन हो गया। दिवोदास उसके बताए स्थान की ओर दौड़ चला।

संकेत पाते ही मंजु निकल आई। दिवोदास ने कहा :

"तुम्हारा कार्य हुआ?'

"हाँ! और तुम्हारा?"

"हो गया?"

"तब चलो।"

"किन्तु वह वृद्ध?”

"उन्हें मैंने आगे भेज दिया है।" "तब चलो।" दोनों काम तोरण के पृष्ठ भाग की ओर वृक्षों की छाया में छिपते हुए चले। दिवोदास एक वृक्ष पर चढ़ गया। उसने मंजु को भी चढ़ा लिया और दोनों दीवार फाँद गये। दिवोदास ने कहा—"यहाँ, अश्व तो नहीं है!" [ ७० ]"पर रुकना निरापद नहीं, हमें चलना चाहिए।"

"चलो फिर, अश्व आगे मिलेंगे।"

दोनों अन्धकार में विलीन हो गए।