देवांगना/कापालिक के चंगुल में

देवांगना
चतुरसेन शास्त्री

नई दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ ७१ से – ७३ तक

 

कापालिक के चंगुल में



गहन अँधेरी रता में मंजु और दिवोदास ने निविड़ वन में प्रवेश किया। मंजु ने कहा—"माँ का कहना है कि वह जो सुदूर क्षितिज में दो पर्वतों के श्रृंग परस्पर मिलते दीखते हैं, उनकी छाया जहाँ एकीभूत हो हाथी की आकृति बनाती है, वहीं निकट ही उस गुप्त कोष का मुख द्वार है। इसलिए हमें उत्तराभिमुख चलते जाना चाहिये। विन्ध्य-गुहा को पार करते ही हम कौशाम्बी-कानन में प्रवेश कर जाएँगे।"

"परन्तु प्रिये, यह तो बड़ा ही दुर्गम वन है, रात बहुत अँधेरी है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। बादल मँडरा रहे हैं। एक भी तारा दृष्टिगोचर नहीं होता। वर्षा होने लगी तो राह चलना एकबारगी ही असम्भव हो जायेगा।"

"चाहे जो भी हो प्रिय, हमें चलते ही जाना होगा। जानते हो, उस बाघ ने अपने शिकारी कुत्ते हमारे लिए अवश्य छोड़े होंगे। चले जाने के सिवा और किसी तरह निस्तार नहीं है।"

"यह तो ठीक है, पर मुझे केवल तुम्हारी चिन्ता है प्यारी, तुम्हारे कोमल पाद-पद्म तो कल ही क्षत-विक्षत हो चुके थे। तुम कैसे चल सकोगी?"

"प्यारे! तुम्हारे साथ रहने से तो शक्ति और साहस का हृदय में संचार होता है। तुम चले चलो।"

और वे दोनों निविड़ दुर्गम गहन वन में घुसते चले गये। घनघोर वर्षा होने लगी। बिजली चमकने लगी। वन-पशु इधर-उधर भागने लगे, आँधी से बड़े-बड़े वृक्ष उखड़कर गिरने लगे। कँटीली झाड़ी में फँसकर दोनों के वस्त्र फटकर चिथड़े-चिथड़े हो गये। शरीर क्षतविक्षत हो गया। फिर भी वे दोनों एक-दूसरे को सहारा दिए चलते चले गए। अन्ततः मंजु गिर पड़ी। उसने कहा—"अब नहीं चल सकती।"

"थोड़ा और प्रिये, वह देखो उस उपत्यका में आग जल रही है। वहाँ मनुष्य होंगे। आश्रय मिलेगा।"

मंजु साहस करके उठी, परन्तु लड़खड़ाकर गिर पड़ी। उसने असहाय दृष्टि से दिवोदास को देखा।

दिवोदास ने हाथ की तलवार मंजु के हाथ में देकर कहा—"इसे मजबूती से पकड़े रहना प्रिये," और उसे उठाकर पीठ पर लाद ले चला।

प्रकाश धीरे-धीरे निकट आने लगा। निकट आकर देखा-एक जीर्ण कुटी है। कुटी के बाहर मनुष्य मूर्ति भी घूमती दीख पड़ी। परन्तु और निकट आकर जो देखा तो भय से

दिवोदास का रक्त जम गया। मंजु चीख मारकर मूर्च्छित हो गई।

उन्होंने देखा-कुटी के बाहर छप्पर के नीचे एक कापालिक मुर्दे की छाती पर पद्मासन में बैठा है। उसकी बड़ी-बड़ी भयानक लाल-लाल आँखें हैं। उसका रंग कोयले के समान काला है। उसकी जटाएँ और दाढ़ी लम्बी लटक रही है तथा धूल-मिट्टी से भरी है। कमर में एक व्याघ्र चर्म बँधा है। गले में मुण्डमाला है। सामने मद्यपात्र धरा है, आग जल रही है, लपटें उठ रही हैं, कापालिक अधोर मन्त्र पढ़-पढ़कर माँस की आहुति डाल रहा है। माँस के अग्नि में गिरने से लाल-पीली लपटें उठती हैं।

दिवोदास ने साहस करके मंजु को नीचे पृथ्वी पर उतार दिया और शंकित दृष्टि से कापालिक को देखने लगा।

कापालिक ने कहा—

"कस्त्वं?"

"शरणागत?"

"अक्षता सा?"

इसी बीच मंजु की मूर्छा जागी। उसने देखा-कापालिक भयानक आँखों से उसी की ओर देख रहा है। वह चीख मारकर दिवोदास से लिपट गई।

कापालिक ने अट्टहास करके कहा—"माभै: बाले!" और फिर पुकारा : "शार्ं गरव, शार्ं गरव?"

एक नंग-धडंग, काला बलिष्ठ युवक लंगोटी कसे, गले में जनेऊ पहने, सिर मुड़ा हुआ, हाथ में भारी खड्ग लिए आ खड़ा हुआ। उसने सिर झुकाकर कहा :

"आज्ञा प्रभु।”

"इन्हें महामाया के पास ले जाकर प्रसाद दे, हम मन्त्र सिद्ध करके आते हैं।" शार्ं गरव ने खोखली वाणी से कहा—"चलो।"

दिवोदास चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल दिया! मंजु उससे चिपककर साथ-साथ चली।

मन्दिर बहुत जीर्ण और गन्दा था। उसमें विशालाकार महामाया की काले पत्थर की नग्न मूर्ति थी। जो महादेव के शव पर खड़ी थी। हाथ में खांडा, लाल जीभ बाहर निकली थी। आठों भुजाओं में शस्त्र, गले में मुण्डमाल सम्मुख पात्रों में रक्त पुष्प तथा मद्य से भरे घड़े धरे थे। एक पात्र में रक्त भरा था। सामने बलिदान का खम्भा था। पास ही एक खांडा भी रक्खा था।

दोनों ने देखा, वहाँ शार्ं गरव के समान ही चार और दैत्य उसी वेश में खड़े हैं। मूर्ति के सम्मुख पहुँच शार्ं गरव ने कर्कश स्वर में कहा—"अरे मूढ़! महामाया को प्रणिपात कर।"

दिवोदास ने देवी को प्रणाम किया। मंजु ने भी वैसा ही किया। एक यमदूत ने तब बड़ा-सा पात्र दिवोदास के होंठों से लगाते हुए कहा—"पी जा अधर्मी, महामाया का प्रसाद है।"

"मैं मद्य नहीं पीता।"

"अरे अधर्मी, यह मद्य नहीं है, देवी का प्रसाद है, पी।" दो यमदूतों ने जबर्दस्ती

वह सारा मद्य दिवोदास के पेट में उड़ेल दिया। भय से अभिभूत हो मंजु ने भी मद्य पी ली। तब उन यमदूतों ने उन दोनों को बलियूथ से कसकर बाँध दिया। फिर बड़बड़ाकर मन्त्र पाठ करने लगे।

मंजू ने लड़खड़ाती वाणी से कहा—"प्यारे, मेरे कारण तुम्हें यह दिन देखना पड़ा।"

"प्यारी, इस प्रकार मरने में मुझे कोई दु:ख नहीं।"

"परन्तु स्वामी, हम फिर मिलेंगे।"

"जन्म-जन्म में हम मिलेंगे, प्रिये-प्राणाधिके।"

इसी समय कापालिक ने आकर कहा—"प्राणियो, आज तुम्हारा अहोभाग्य है, तुम्हारा शरीर देवार्पण होता है।" उसने रक्त से भरा पात्र उठाकर थोड़ा रक्त उनके मस्तक पर छिड़का फिर उनके माथे पर रक्त का टीका लगाया। एक दैत्य ने झटका देकर उनकी गर्दनें झुकायीं। उन पर कापालिक ने स्वस्ति का चिह्न बना दिया। उसके बाद उन दैत्यों ने सिन्दूर से वध्य-भूमि पर भैवरी-चक्र की रचना की। एक दैत्य भारी खांडा ले दिवोदास के पीछे जा खड़ा हुआ।

मंजु ने साहस करके चिल्लाकर कहा—"अरे पातकियो, पहिले मेरा वध करो, मैं अपनी आँखों से पति का कटा सिर नहीं देख सकती।"

कालापिक ने एक बड़ा-सा मद्य पात्र मुँह से लगाया और गटागट पी गया। फिर उसने गरजकर वार करने की आज्ञा दी।

परन्तु इसी क्षण एक चमत्कार हुआ। ब्रह्मराक्षस का खांडा हवा में लहराता ही रहा, और उसका सिर कटकर पृथ्वी पर आ गिरा।

कापालिक क्रोध और भय से थरथरा उठा। उसने कहा—"अरे, किसने महामाया की पूजा भंग की?"

सुखदास ने रक्त-भरा खड्ग हवा में नचाते हुए कहा—"मैंने, रे पातकी! अभी तेरा धड़ भी शरीर से जुदा करता हूँ।"

इसी बीच वृद्ध ग्वाले ने दिवोदास और मंजु के बन्धन खोल दिए। मुक्त होते ही दिवोदास ने झपटकर खांडा उठा लिया। उसने कापालिक पर तूफानी आक्रमण किया। परन्तु कापालिक में बड़ा बल था। उसने खांडे सहित दिवोदास को उठाकर दूर पटक दिया। इसी समय सुखदास का खड्ग उसकी गर्दन पर पड़ा। और वह वहीं लड़खड़ाकर गिर गया। वृद्ध ने भी एक यमदूत को भूमिशायी किया। शेष दो प्राण लेकर भाग गए। दिवोदास घाव खा गये थे। सुखदास ने हाथ का सहारा दे दिवोदास को उठाया। और बोला—"साहस करो भैया, यहाँ से भाग चलो।"

दिवोदास ने कन्धे पर मंजु को लाद लिया। दोनों व्यक्ति नंगी तलवार लिये साथ चले। वर्षा अब बन्द हो गई थी। आकाश स्वच्छ हो गया था। वे बराबर उत्तराभिमुख होते जा रहे थे। मद्य के प्रभाव से मंजु मूर्च्छित हो गई थी। दिवोदास के भी पाँव लड़खड़ा रहे थे। परन्तु वह साथियों के साथ भागा जा रहा था। मंजु उसकी पीठ से खिसकी पड़ती थी। सुखदास उन्हें सहारा दे रहा था। इसी समय एक और से दल अश्वारोही सैनिकों ने उन्हें घेरकर बन्दी बना लिया। सारा उद्योग विफल गया। बेचारे को बाँधकर ले चले। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सिद्धेश्वर के सैनिक थे।