दृश्य-दर्शन
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: सुलभ ग्रंथ प्रचारक मंडल, पृष्ठ ९४ से – १०० तक

 
पटना।

पटना या पाटलीपुत्र भारत का बहुत प्राचीन नगर है। यद्यपि यह नगर उतना पुराना नहीं जितनी देहली, तो भी यह देहली की तरह कई दफे उजड़ा और कई दफे बसा है। इसमें भी कई राजवंशों की जड़ें जमी और जम कर उखड़ गई,और कितने ही राजप्रासाद ऊँचे उठकर भूमि सम हो गये। पटना अब वह पुराना पाटलीपुत्र नहीं तथापि अब भी पुरातत्व-वेत्ता लोग उसकी भूमि के नीचे दबे हुए प्राचीन खंडहरों में उसके प्राचीन वैभव को ढूंढ़ते फिरते हैं।

सन् ईसवी से कोई पांच सौ वर्ष पूर्व मगधदेश के राजा अजात- शत्रु ने मिथिला-प्रान्त के तत्कालीन राजा को परास्त किया और

विजित शत्रु की शक्ति पर सदा दृष्टि रखने के लिए गङ्गा के किनारे बसे हुए पाटली नामके एक छोटे से गांव में एक किला बनाया। अजातशत्रु के पौत्र ने इसी किले के नीचे एक नगर बसाया जो कुसु
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मपुर,पुष्पपुर और पाटलीपुत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ। यही नगर बढ़ता बढ़ता मगध साम्राज्य की राजधानी हुआ।

सम्राट-चन्द्रगुप्त मौर्य ने पाटलीपुत्र को अपने विशाल साम्राज्य की राजधानी बनाया। उसी के समय में यूनानी राजदूत मेगास्थनीज भारत में आया। वह कई वर्ष पाटलीपुत्र में रहा। पाटलीपुत्र के

विषय में उसने जो कुछ लिखा है उससे विदित होता है कि पाटलीपुत्र उस समय सोन और गङ्गा के सङ्गम पर बसा हुआ था। वह कोई साढ़े चार कोस लम्बा और पौन कोस चौड़ा था। उसकी चहारदीवारी लकड़ी की थी, जिसमें ६४ फाटक और ५७० बुर्जे थीं। चहारदीवारी की चारों ओर एक गहरी और चौड़ी खाई थी, जिसमें सोन-नदी का जल भरा रहता था। राजमहल लकड़ी का बना हुआ था । वह अन्य देशों के राज-प्रासादों से कहीं बढ़ कर सुन्दर था। उसके स्तम्भों पर सुनहली चित्रकारी थी। राजमहल के चारों ओर बड़ा भारी बाग था, जिसमें नाना प्रकारके सुन्दर सुन्दर वृक्ष थे। उसमें कई जलाशय भी थे, जिनमें मछलियां क्रीड़ा किया करती थी। नगर के प्रबन्ध का भार एक राज-सभा के ऊपर निहित था,जो सम्राट् की ओर से नियत थी। इस राजसभा के तीस सदस्य थे,जिन्हें पांच पांच के दल में विभक्त कर के छः स्वतन्त्र उपसभायें बनी थीं। यही उपसभायें नगर के भिन्न भिन्न विभागों का कार्य देखती थीं। पहली उपसभा नगर की शिल्पकला की रक्षा करती थी। दूसरी का यह काम था कि वह नगर में आये हुए विदेशियों को किसी प्रकार का कष्ट न होने दे। तीसरी इस बात का हिसाब रखती
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थी कि नगर में आज कितने आदमी मरे और कितने उत्पन्न हुए, जिससे कर वसूल करने में सुभीता रहे। चौथी नगर के व्यवसा- यियों से कर वसूल करती थी। पांचवी और छठी उपसभाओं का सम्बन्ध भी नगर के वाणिज्य-व्यवसाय ही से था। ये सभायें नगर के बाजारों, मन्दिरों और अन्य संस्थाओं का भी काम देखती थीं। उस समय भा भारत में कई अच्छी अच्छो सड़कें थीं। राजधानी पाटलीपुत्र से एक सड़क आरम्भ होती थी, जो एक हज़ार मील से अधिक लम्बी थी और भारत की पश्चिमोतर सीमा तक जाती थी।

चन्द्रगुप्त के पात्र सम्राट अशोक के समय में भी पाटलीपुत्र की बड़ी उन्नति हुई। मौर्य-वंश का अन्तिम राजा बृहद्रथ था। उसका सेनापति पुष्यमित्र उसे मार कर स्वयं राजा बन बैठा। पाटलीपुत्र पुष्यमित्र और उसके स्थापित किये हुए सुङ्ग नाम के राजवंश के दस राजों की राजधानी रहा । इस वंश का उत्तराधिकारी कण्व-वंश हुआ। उसकी भी राजधानी पाटलीपुत्र ही रहा। सन् ईसवी से कुछ वर्ष पूर्व ही कण्व-वंश का अन्त हो गया और साथ ही पाटलीपुत्र का वैभव भी क्षीणप्राय हो गया।

कण्व-वंश के पश्चात् दक्षिण के आन्ध्र-वंश ने उन्नति पाई;परन्तु उसकी सत्ता कुछ ही समयके उपरान्त नष्ट हो गई। सन्ई सवी की पहली शताब्दी के बीच से लेकर चौथी शताब्दी के आरम्भ तक भारत में अराजकता-सी फैली रही। उस समय देशभर में कई छोटे छोटे राज्यों का उदय हुआ। उनमें सदा परस्पर लड़ाई-झगड़ा होता रहा। विदेश से शक,हूण आदि कितनी ही यवन
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जातियां आ आकर यहां बस गई। चौथी शताब्दी के आरम्भ में गुप्त-वंश का उदय हुआ। ३२६ ईस्वी में समुद्रगुप्त राजा हुआ। अपने बाहुबल से समुद्रगुप्त ने एक बार फिर भारतीय साम्राज्य की नींव डाली। उसका साम्राज्य हुगलो से चम्बल तक और हिमालय से नर्मदा तक फैला । आसाम और हिमालय की तराई तक के नरेशों ने उसकी अधीनता स्वीकार की। गुप्त वंश के इस अभ्यु- त्थान के साथ पाटलीपुत्र के गुप्त भाग्य ने भी पलटा खाया। उसे फिर एक बार एक विशाल साम्राज्य को राजधानी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

छठी शताब्दी के अन्त में गुप्तवंश का भी नाश हो गया । मध्य एशिया के श्वेत हूणों का वह शिकार हो गया। पाटलीपुत्र का पतन भी तभी से आरम्भ हो गया। पांचवी शताब्दी के आरम्भ में फाहियान नाम का एक चीनी यात्री भारत में आया था। उस समय पाटलीपुत्र मगध-प्रदेश की राजधानी था। वह पाटलीपुत्र में कोई

तीन वर्ष रहा। महाराज अशोक के बनवाये हुए छः सात सौ वर्ष के पुराने टूटे फूटे राजमहल को देखकर फाहियान को बड़ा दुःख हुआ। इस विषय में उसने अपने यात्रा-वृत्तान्त में लिखा है कि अशोक ने इस महल को देवताओं से अवश्य बनवाया होगा। इसकी ऊँची ऊँची दीवारें,भव्य द्वार और चौखटें बनाना मनुष्य का काम नहीं। राजमहल के पास ही दो बौद्ध संघाराम थे, जिनमें छः सात सौ साधु रहते थे। ये साधु अपनी विद्वत्ता के लिए प्रसिद्ध थे। दूर दूर से लोग अपनी धर्म-पिपासा की तृप्ति के लिए इनके पास आते थे। प्रसिद्ध
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ब्राह्मण विद्वान् मञ्जुश्री भी इन्हीं दो बौद्ध संघारामों में से एक में रहा करता था। उस समय पाटलीपुत्र में कितने ही ऐसे औषधालय थे, जहां बिना जाति अथवा जन्म देश के विचार के सब प्रकार के रोगियों की मुफ्त चिकित्सा होती थी ! रोगियों के आराम का बड़ा खयाल रक्खा जाता था। उनको सुपच भोजन मिलने की भी उचित व्यवस्था थी।

सातवीं शताब्दी के मध्य में दूसरा चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत में आया। उसने पाटलीपुत्र को बड़ी बुरी दशा में पाया। केवल नगर की टूटी फूटी चहारदीवारी मात्र उस समय उसके भूतपूर्व महत्व की चिन्ह-स्वरूप शेष रह गई थी। कुछ आवादी भी थी। चिरकाल तक पाटलीपुत्र को इसी अवस्था में पड़ा रहना पड़ा। लगभग एक हज़ार वर्ष के बाद, १५४० ईसवी में, पाटलीपुत्र के भाग्य ने फिर पलटा खाया। शेरशाह ने बादशाह हुमायूं को परास्त करके सूरवंश की नींव डाली। पाटलीपुत्र, जो अब पटना कहलाता था,सूरवंश की राजधानी बना। परन्तु अधिक समय तक श्री सम्पन्न न रह सका। थोड़े ही वर्ष बाद हुमायूं के बेटे अकबर ने सूरवंश का उच्छेद करके पटना का रामधानीत्व भी नष्ट कर दिया।

इसके बाद पटना में दो उल्लेखनीय घटनायें और हुई। पहली घटना है,१७६३ ईसवी में लाभग ६० अंगरेजों की हत्या। मीरक़ासिम उस समय बंगाल का नवाब था। उससे और ईस्ट इण्डिया कम्पनी से चुंगी के लेन देन के विषय में,कुछ झगड़ा हो गया। बात यहां तक बढ़ी कि नवाब और कम्पनी में लड़ाई ठन गई । कम्पनी की
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सेना ने पटना पर अधिकार कर लिया; परन्तु नवाब ने पुनः पटना छीन लिया । अन्य नगरों की भी छीना झपटी हुई, जिससे कितने ही अंगरेज मीरक़ासिम के हाथ पड़ गये। ये अंगरेज पटना में कैद किये गये। इसी बीच में मीरक़ासिम को कम्पनी से दो बड़े बड़े युद्धों में हारना पड़ा। वह इस हार से चिढ़ गया। और क्रोध में आकर उसने सब अंगरेज कैदियों को मार डालने का हुक्म दे दिया। बाल्टर रेन्हार्ट नाम का एक स्वीटजरलैंड-निवासी मीरक़ासिम का नौकर था। इसी मनुष्य ने मीरकासिम की आज्ञा से बड़ी निर्दयता के साथ लगभग ६० अंगरेजों की हत्या की।

१८५७ में दूसरी घटना हुई। पटना-नगर से लगी हुई दानापुर की छावनो है । दानापुर में उस समय तीन देशी फौजें थीं। १८५७ में सिपाहो-विद्रोह हुआ। इस डरसे कि कहीं दानापुर की देसी फौजे बिप्लव-कारियों से न मिल जायें;अंगरेज़-अफसरों ने यह निश्चय किया कि उनसे हथियार छीन लिये जायें। फौजसे हथियार मांगने की बात चलने पर वह बिगड़ गई और अन्य विप्लवकारियों से मिल गई। इसका परिणाम बुरा हुआ।

बहुत दिनों बाद, इस वर्ष, फिर पटना के भाग्य ने करवट बदली है। सम्राट् पञ्चम चार्ज की आज्ञा से बङ्गाल से अलग होकर विहार एक स्वतन्त्र प्रान्त बना है और उड़ीसा तथा छोटा नागपुर भी उसीमें जोड़ दिये गये हैं। पटना अब इस नये प्रान्त की राजधानी है।

वर्तमान पटना एक बड़ा लम्बा चौड़ा नगर है । बांकीपुर के मिला

देने से इसकी लम्बाई लगभग चार कोस के हो जाती है। यह नगर
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नील और अफ़ीम के व्यापार का बड़ा भारी केन्द्र है। यहां से चीन को अफ़ीम भेजी जाती है। पर अब चीन वाले अफ़ीम खाना-पीना छोड़ रहे है। इससे यहां का कारोबार अब बन्द होने पर है। यहां साधारण इमारतें तो कितनी ही हैं परन्तु एक देखने लायक है। उसे गोला कहते हैं । १७८३ में ईस्ट-इण्डिया कम्पनी के कर्मचा- रियों ने अनाज भरने के लिए इसे बनवाया था। बाहर से इसकी परिधि लगभग डेढ़ सौ गज़ के है। इसका भीतरी व्यास कोई छत्तीस गज होगा। दीवार इसकी कोई तीस गज ऊँची और चार गज चौड़ी है। सुनते हैं,इसमें लगभग अड़तीस लाख मन अनाज भरा जा सकता है। इसके ऊपर चढ़ने के लिए बाहर से सीढ़ियां बनी हुई हैं। जहाँ सीढ़ियाँ समाप्त होती हैं वह स्थान तीन चार गज़ लम्बा-चौड़ा है। बीच में एक पत्थर है, जिसे उठाने पर भीतर जाने का रास्ता मिलता है। भीतर ज़रा से भी खटके की इतनी प्रतिध्वनि होती है कि गोले के भीतर एक किनारे पर खड़ा हुआ मनुष्य दूसरे किनारे पर खड़े हुए मनुष्य के मन्द से मन्द शब्द को भी सुन सकता है।

[अप्रैल १९१२]