दृश्य-दर्शन
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: सुलभ ग्रंथ प्रचारक मंडल, पृष्ठ १३१ से – १४७ तक

 
नेपाल ।

नेपाल की गिनती उन राज्यों में है जो स्वाधीन गिने जाते हैं।

पर जैसे हैदरावाद, मैसूर और काश्मीर इत्यादि राज्यों में अंगरेज़ों का रेजीडेंट रहता है वैसे ही नेपाल में भी रहता है। यह देश कोई ५०० मील लम्बा और १२० मील चौड़ा है। इसका क्षेत्रफल कोई ६०,००० वर्ग मील है। हिमालय के दक्षिणी भाग की दो चोटियों के बीच कोई १५ मील लम्बा और उतनी ही चौड़ी समतल जगह है। नेपाल वाले उसीको नेपाल कहते हैं। पर और देशवाले गोर्खा लोगों के सारे देश को नेपाल कहते हैं। नेपाल का कुछ ही हिस्सा ऐसा है जहाँ विदेशी जाने पाते हैं। नेपाली लोग विदेशियों को अपने देश में बेरोकटोक सब कहीं न कहीं जाने देते। यह सिद्धान्त यूरप वालों को पसन्द नहीं, क्योंकि इसके कारण झगड़े की जड़ पादरी साहव का प्रवेश वहां नहीं होता।
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नेपाल बिलकुल पहाड़ी देश है। हिमालय की सब से ऊँची चोटी अवरिष्ट (२९,०० २ फुट) नेपाल ही की सीमा के भीतर है। उसका नेपाली नाम दूध-गङ्गा है। नेपाल की हद का उत्तरी हिस्सा ऐसा है जहाँ बहुत करके साल भर वर्फ जमा रहता है । वह कभी नहीं गलता ; घोड़ा बहुत बना ही रहता है। नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में है। वह समुद्र की सतह से कोई ४,००० फुट की ऊँचाई पर है। नेपाल का दक्षिणी हिस्सा हिन्दुस्तान से मिला हुआ है। उसे तराई कहते हैं। वहाँ की ज़मीन नीची है। उसमें सघन जङ्गल हैं और साल, शीशम इत्यादि बहुत पैदा होता है । जहां जङ्गल नहीं है वहां खेती होती है। दक्षिणी हिमालय की नन्दा देवी,धवलगिरि,दयाभङ्ग और काञ्चन-गङ्गा आदि चोटियाँ भी नेपाल ही के अन्तर्गत हैं।

घाघरा,कोसी और गण्डक आदि नदियाँ नेपाल से होकर बहती हैं। ये नदियाँ बहुत बड़ी हैं। इनके बीच का सारा पहाड़ी देश नेपाल के राज्य में शामिल है। इनमें से एक एक नदी में सात सात आठ आठ नदियाँ और आकर गिरती हैं। उनमें काली,श्वेत गङ्गा,रावती, नारायणी और दूधकोसी मुख्य हैं। नेपाल में पहाड़ों की भी कमी नहीं । और नदिओं की भी नहीं । पहाड़ों की तो बात ही क्या ? सारा नेपाल ही पर्वतमय है ! पर नदियां भी बीस पच्चीस से कम नहीं ।

नेपाल की आबोहवा एक सी नहीं। जो जगह जितनी ऊँची है उसकी आबोहवा उतनी ही अधिक ठण्डी है । नेपाल के तीन भाग किये जा सकते हैं। उत्तरी,दक्षिणी और बीच का। मैदान की

जमीन से उत्तरी हिस्सा १०,००० से २९,००० फुट तक ऊँचा है और
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दक्षिणी हिस्सा सिर्फ ४,००० फुट तक। पहाड़ी ज़मीन, जिसमें थोड़ी बहुत खेती होती है, साल के जङ्गल और तराई इसी दक्षिणी हिस्से में शामिल हैं। बीच का हिस्सा मैदान से ४,००० फुट से लेकर १०,फुट तक ऊँचा है। हर हज़ार फुट की ऊँचाई पर कोई तीन अंश सरदी अधिक बढ़ती है। पर पश्चिम की तरफ का देश कम सर्द है। वहाँ पानी भी कम बरसता है ; क्योंकि बादल ऊँचे ऊँचे पहाड़ों को पार नहीं कर सकते ; इसी तरफ़ रह जाते हैं।

खास नेपाल अर्थात् वह भाग जो पहाड़ों के बीच, दरी के रूप में है, बहुत तर है। इसी भाग में काठमण्डू है। वहां की ज़मीन अत्यन्त उर्वरा है। वहाँ धान खूब होता है। जो ज़मीन कुछ ऊंची है उसमें गेहूं होता है। पहाड़ों के पास की जमीन सब से अच्छी है। वहाँ धान भी होता है और गेंहू भी। कहीं कहीं एक साल में दो दो तीन तीन फसलें होती हैं।

नेपाल में अक्तूबर से मार्च तक सर्दी रहती है और जनवरी-फरवरी में सख्त जाड़ा पड़ता है। अप्रैल से सितम्बर तक की आबोहवा तर रहती है ; गरमी अधिक नहीं पड़ती। मार्चसे मई और सितम्बर से दिसम्बर तक का मौसम बहुत अच्छा होता है। जून, जुलाई और अगस्त में वर्षा होती है;

नेपाल में कई जाति के आदमी बसते हैं। उनमें से भोटिया,मगर,

गुरुंग, नेवार, किराती, लेपचा और लिम्बू मुख्य हैं । भूटान की तरफ बहुत ऊँची जगहों में भोटिया लोग रहते हैं। वे तिब्बत की भाषा
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बोलते हैं। उनके कपड़े-लत्ते,चाल-ठाल,रीति-रवाज और शकल-

सूरत तिबत वालों से मिलती है । नेपाल के बीच में,पश्चिम की तरफ़, कम ऊँची पहाड़ियों पर मगर और अधिक ऊँची पहाड़ियों पर गुरूँग जाति के लोग रहते हैं । नेवार लोग खास नेपाल की दरी में,और किराती और लिम्बू नेपाल के पूर्व रहते हैं। लेपचा जाति के लोग सिकम के पास की पहाड़ियों पर रहते हैं। इन सब की गिनती मंगोलियन शाखा के आदमियों में हैं, अर्थात् मंगोलिया में रहने वालों की शकल-सूरत जैसी होती है उससे इन लोगों की शकल-सूरत मिलती है। इनके सिवा नेपाल में एक और जाति के आदमी रहते हैं। वे पार्वती या पर्वतिया कहलाते हैं। तेरहवीं सदी में हिन्दुस्तान से जो लोग भाग कर नेपाल चले गये थे। उनके और पहाड़ी स्त्रियों के समागम से इन लोगों की उत्पत्ति हुई है। मगर,गुरूंग और पर्वतिया जाति वालों के समूह का नाम गोर्खा या गोर्खाली है। बङ्गाल के भूतपूर्व लफ्टिनेंट गवर्नर,और बम्बई के गवर्नर, सर रिचर्ड टेम्पल का यह मत है। उन्होंने एक किताब लिखी है। उसी में आपने अपना यह मत प्रकाशित किया है। नेपाल में काठमण्डू से ४० मील पश्चिम की तरफ़ गोर्खा नाम का एक शहर है। उसी के नाम पर गोर्खा लोगों का नाम पड़ा है। नेपाल की दरी में जो लोग रहते हैं,उनमें नेवार जाति वालों की संख्या सब से अधिक है। नेपाल में पहले इन्हीं लोगों का प्रभुत्व था। ७६८ ईसवी के लगभग गोर्खा लोगों ने नेपाल में अपना राज्य स्थापित किया। चपांग, कुसूदा और अवालिया लोग भी नेपाल के भीतरी जङ्गलों और तराइयों में रहते हैं।
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ये लोग वहाँ के आदिम निवासी हैं और हिन्दुस्तान के गोड, भील और सौंताल आदि को तरह अलभ्य और जङ्गली हैं।

पहले नेपालियों में गोत्र या कुल का भेद न था। पर जब से हिन्दुस्तानियों ने नेपाल में कदम रक्खा और धीरे-धीरे पर्वतिया जाति की उत्पत्ति हुई तब से यह बाल भी वहां हो गई। पर्वतिया लोगों में थापा,बिसनायत,भण्डारी,अधिकारी,कार्की और दानी इत्यादि कुल भेद प्रचलित हैं। इन लोगों के सम्पर्क से मगर लोगों में राना और थापा आदि भेद हो गये हैं। पर गुरुंग जाति में इस भेद-भाव का अभी तक प्रचार नहीं हुआ।

गोर्खा लोग पर्वतिया भाषा बोलते हैं ! वह संस्कृत से निकली है। जब से हिन्दुस्तानियों का प्रवेश नेपाल में हुआ तभी से इस भाषा की नीव वहाँ पड़ी। नेपाल के पुराने प्रभु नेवार लोगों की भाषा और ही है। उसका नाम नेवारी है। और और जाति वालों में से कुछ तो तिबत को भाषा बोलते हैं और कुछ सिकम और भुटान की।

गोर्खा लोग हिन्दू धर्म के अनुयायी हैं। नेवार लोगों में से कुछ हिन्दू हैं और कुछ बौद्ध । जो हिन्दू हैं वे शैवमार्गी नेवार कहलाते हैं और जो बौद्ध हैं वे बौद्ध मार्गी नेवार। पर सच पूछिए तो बौद्धमार्गी नेवारों का ठीक ठीक कोई धर्म ही नहीं। वे हिन्दुओं के देवी-देवताओं को भी पूजते हैं। और बुद्ध को भी पूजते हैं। लिम्बू,किराती,भोटिया ओर लेपचा भी बौद्ध हैं। नेपाल में व्यापार, कारीगरी और कृषि प्रायः नेवार लोगों ही के हाथ में है।

नेपाल में साधारण आदमियों का भोजन चावल और तरकारी
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है। जो समर्थ हैं वे मांस भी खाते हैं। हिरन और जङ्गली सूअर भी लोग खाते हैं। नेवार और गुरूँग जाति के आदमी भैंस तक खाते हैं। इस देश की तरह नेपाल में भी लोग खूब बहुविवाह करते हैं। जो धनी हैं उनको एक से अधिक स्त्रियां रखने का अकसर शौक होता है। पर विधवा-विवाह का निषेध है ! नेपाल में सती की चाल अभी तक बनी हुई है। जब नेपाल के प्रसिद्ध मन्त्री जङ्ग बहादुर की मृत्यु हुई तब उनकी रानी उनके मृत शरीर के साथ सती हो गई। गोर्खा लोगों में व्यभिचार बहुत निषिद्ध है। इसके लिए स्त्री और पुरुष दोनों को कठिन दण्ड दिया जाता है। पर नेवार लोगों में विवाह बन्धन और व्यभिचार आदि का विचार उतना कड़ा नहीं। किसी किसी का मत है कि नेवार जाति की स्त्रियाँ कभी विधवा ही नहीं होती।

नेपाल की फौज में पर्वतिया, मगर और गुरूंग लोग ही अधिकता से भरती किये जाते हैं। पर इस देश की अँगरेजी गोर्खा पलटनों में और जाति के आदमी भी ले लिये जाते हैं। वे सभी गोर्खा

कहलाते है। गत एप्रिल में जो भूकम्प हुआ था, उसने धर्मशाला में इसी गोर्खा जाति की एक अंगरेजी पलटन के डेढ़ दो सौ आदमियों का संहार कर डाला था। ये लोग बड़े बहादुर होते हैं। इनकी बहादुरी पर गवर्नमेंट बहुत खुश है। इसीसे लार्ड किचनर ने बहुत सा चन्दा इकठ्ठा करके मृत गोर्खा लोगों के कुटुम्बियों की सहायता की है। जनरल सेल हिल बहुत दिनों तक एक गोर्खा पल्टन में रहे हैं। वे कहते हैं कि गोर्खा लोग बड़े बहादुर, श्रम-सहिष्णु,आज्ञाकारी,स्वच्छ-हृदय,स्वाधीन-चेता और आत्मावलम्बी होते हैं। अपने मुल्क
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में वे विदेशियों को नहीं घुसने देते;उनसे द्वेष करते हैं। वे अपनी स्त्रियों को बहुत अच्छी तरह रखते हैं। इसीसे स्त्रियां भी उनकी खब सेवा-शुश्रूषा करती हैं। पर ये लोग ज़रा कुन्दजेहन होते हैं और कवायद परेड सीखने में अधिक दिन लगाते हैं। जब ये फौज में भरती होते हैं तब बहुत मैले रहते हैं। इसलिए पहले इनको सफ़ाई पर सबक़ देना पड़ता है। इनमें जुआ खेलने की बुरी आदत होती है। पहाड़ी मुल्क में पैदल सिपाहियों के काम में कोई इनकी बराबरी नहीं कर सकता। इनका स्वदेशी हथियार खुड़की है।

नेपाल में गुलामी की चाल अभी तक जारी है। वहीं प्रायः सब समर्थ आदमियों के यहाँ गुलाम रहते हैं गुलाम की कीमत कोई १५० रुपये तक होती है। स्त्रियाँ भी गुलाम का काम करती हैं। उनकी कीमत कुछ अधिक देनी पड़ती है । सुनते हैं,गुलाम स्त्रियों का चाल-चलन अच्छा नहीं होता। गुलामों के मालिक अपने गुलामों के साथ अच्छा वर्ताव करते हैं।

नेपाल में प्रजा की शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध नहीं है। धनवान आदमी अपने लड़कों को प्रायः घर ही पर शिक्षक रख कर पढ़ाते हैं। नेपाल से लड़के इस देश में भी विद्याध्ययन के लिए अकसर आते हैं। नेपाल में भाषा-साहित्य का प्रायः अभाव ही है। पर संस्कृत के अनन्त अलभ्य ग्रन्थ वहाँ विद्यमान हैं । काठमाण्डू में जो राजकीय पुस्तकालय है,उसकी महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने बहुत प्रशंसा की है। कई विद्वान् अंगरेज़ और हिन्दुस्तानी महीनों उसकी पुस्तकों की सूची

  • अब यह बन्द हो गई है।
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बनाते रहे;परन्तु पूरी नहीं बना पाये। जो सूची आज तक प्रका- शित हुई है, उसमें हजारों ग्रन्थ ऐले हैं जो और कहीं प्रायः अलभ्य हैं। उनमें से अनेक ऐसे हैं जिनके नाम तक नहीं सुने गये थे। कितने ही ग्रन्थ युद्धविद्या,पशु-चिकित्सा और गृह-निर्माण पर वहां हैं।

नेपाल की मनुष्य-संख्या ठीक ठीक नहीं मालूम । नेपाल वाले कहते हैं कि उनके देश में बावन लाख आदमी रहते हैं। पर विदेशी यात्रियों का अनुमान है कि वहाँ की आवादी इससे कम है।

नेपाल में चार मशहूर शहर हैं-काठमाण्डू,पाटन,कीर्तिपुर और भटगाँव।

काठमाण्डू वागमठी और विष्णुमती नदियों के सङ्घम पर बसा है। उसकी आवादी ५०,००० के करीब है। मकान कई मंजिले हैं। महाराजाधिराज का राजभवन शहर के बीच में है। वहां अच्छी सड़कें कम है। शहर में सफ़ाई कम रहती है । गली गली में मन्दिर है। एक साहब ने लिखा है कि काठमाण्डू में आदमी कम हैं, मन्दिर अधिक ! मन्दिरों में बत्तखों,बकरों और भैंसों का बलिदान होता है। वहाँ एक मन्दिर बहुत मशहूर है। उसका नाम तलेजू है। एक बाज़ार भी वहाँ बहुत अच्छा है। वह काठमण्डू-टोल कहलाता है। महाकाल का पुराना मन्दिर और रानी-पोखरी नाम का तालाब भी वहाँ मशहूर है।

पाटन का दूसरा नाम ललित पाटन है। वह काठमण्डू से दो ही तीन मील दूर है। वह बहुत पुराना शहर है। उसकी आवादी ६०, ००० के करीब है। यह शहर पहले बहुत अच्छी हालत में था। पर

जब गोर्खा लोगों ने नेपाल सूका र-त्र नेवः लोगों से छीना तब

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उन्होंने इस शहर को छिन्न भिन्न कर डाला। इसमें भी अनेक मन्दिर हैं । यहाँ बौद्ध लोगों के चैतन्य और विहार भी बहुत से हैं। मत्स्येन्द्रनाथ और महाबुध के बहुत पुराने स्थान यहाँ हैं। वहाँ का दरवार नामक प्रासाद बहुत ही अच्छी इमारत है।

कीर्तिपुर एक छोटा सा क़स्बा है। उसमें सिर्फ पांच छः हज़ार आदमी रहते है। गोर्खा लोगों ने राज्य क्रान्ति के समय इसे बे-तरह विध्वस्त कर डाला था। तब से यह बुरी दशा में है। इसमें भैरव और गणेश के मन्दिर अवलोकनीय हैं।

भटगाँव काठमाण्डू से ७ मील है। इसकी आवादी कोई पचास हजार के करीब है। नेपाल में इस शहर की बस्ती सब से अधिक घनी है। देखने में भी यह बहुत सुन्दर है और साफ़ भी यह अधिक है। भटगाँव का दरवार नामक प्रासाद पहले बहुत बड़ा था। अब भी वह देखने लायक है। उसमें एक विशाल फाटक है। उसे लोग “सोने का फाटक" कहते हैं । यह फाटक बहुत प्रसिद्ध है। इसके शिल्पकार्य की फ़रगुसन साहव ने बड़ी प्रशंसा की है। भवानी,भैरव और गणेश के कई मन्दिर यहाँ हैं।

नेपाल में गोर्खा भी एक मशहूर शहर है। पर अब उसकी उतरती कला है। जिस समय गोर्खा लोगों का वह प्रधान शहर था उस समय उसकी शोभा कुछ और ही थी। उसमें कोई इमारत देखने लायक नहीं। पर अब भी उसमें कोई दस हज़ार आदमी बसते हैं।

काठमाण्डू से तीन मील पर पशुपतिनगर नाम का एक कसबा है।

वह बागमती नदी के किनारे बसा हुआ है। वहां पशुपतिनाथ का

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प्रसिद्ध मन्दिर है। मन्दिर बहुत बड़ा है। उसके पास कोई योरप निवासी नहीं जाने पाता। पशुपति नगर नेपालियों की काशीपुरी है। मरने के समय लोग वहीं रहने जाते हैं।

नेपाल को सालाना आमदनी एक करोड़ रुपया है। पर सर रिचर्ड टेम्पल साहब को इस पर विश्वास नहीं। आप कहते हैं कि इतनी आमदनी नहीं है ; यह बढ़ा कर बतलाई गई है।

नेपाल में २०,००० फौज हमेशा तैयार रहती है। वह कई पल- टनों में बँटी हुई है। पर नेपाल एक ऐसा देश है जहाँ के सभी मनुष्य हथियार उठाना और लड़ना जानते हैं। उन सब को नियत समय तक युद्ध-विद्या सिखलाई जाती है और जरूरत पड़ने पर वे सब अपने देश की रक्षा के लिए लड़ाई पर भेजे जा सकते हैं। ज़रूरत के समय नेपाल कोई सत्तर अस्सी हज़ार फौज इकठ्ठा कर सकता है। फ़ौज को अँगरेज़ी तरह की कवायद सिखलाई जाती है। सब को एक विशेष प्रकार की वर्दी पहनना पड़ता है। सिपाही सिर पर फेंटा बाँधते हैं। अफसरों के फेटों पर कलँगी,जवाहिरात और चिड़ियों के सुन्दर सुन्दर पंख लगे रहते हैं। फौज के बड़े अफसरों की पोशाक और ही तरह की होती है।

नेपाल में मेगज़ीन,सिलहखाने और दो तीन तरह के तोपखाने

भी हैं। कुछ फ़ौज के पास अँगरेज़ो और कुछ के पास देशी हथियार हैं। पर खुकड़ी हर सैनिक के पास रहती है। गनफील्ड राइफल के नमूने की बन्दूकें भी नेपाल में बनती हैं। नेपाली फ़ौज कवायद-परेड में बहुत होशियार है। उसकी बहादुरी की तो बात ही क्या ? गोर्खा सिपाही संसार में प्रसिद्ध हैं। नेपाल में रिसाला अच्छा नहीं। इस

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बात की वहाँ कमी है। पर हाथी अनेक हैं। दूसरे सभ्य देशों ने नये नये शस्त्र बनाने और युद्ध विद्या में उन्नति करने के इरादे से नये नये आविष्कारों की सृष्टि की है। पर इन बातों में नेपाल बहुत पीछे है। अतएव योरप के किसी सभ्य देश की सेना के सामने नेपाल की सेना अधिक देर तक नहीं ठहर सकती। सर टेम्पल अपनी किताब के पढ़ने वालों से कहते हैं कि ये बातें याद रखने लायक हैं।

नेपाल में एक अँगरेज़ी दूत रहता है। उसे रेज़िडेंट कहते हैं। उसीकी मारफत नेपाल राज्य और हिन्दुस्तान की गवर्नमेंट में, आवश्यकतानुसार,लिखा-पढ़ी होती है। अँगरेज़ी वनिज-व्यापार का वही रक्षक है। रजिडेंट साहब का वहां अच्छा रोब है। उनको ताज़ीम देने के लिये नेपाल के महाराजाधिराज तक अब उठ खड़े होने लगे हैं। गत एप्रिल में एक दरवार हुआ था। उसमें नेपाल नरेश ने अपने आसन से उतर कर रेज़िडेंट की अभ्यर्थना की थी । नेपाल-नरेश महाराजधिराज कहलाते हैं और उनके मन्त्री महाराज । वहाँ मन्त्री ही राज्य के कर्ता,हर्ता और विधाता हैं।

नेपाल का राज्य बहुत पुराना है। वहाँ कलियुग के भी पहले जो राजा हुए हैं उनका पता नेपाली पुस्तकों में लगता है। पहले नेपाल

में नेवार जाति की प्रभुता थी । नेपाल की दरी में इसी जाति के चार छोटे छोटे राजा राज्य करते थे। उनको राजधानियां काठमा- ण्डू,पाटन,कीर्तिपुर और भटगांव में थी। भटगाँव को छोड़ कर ये सब शहर एक दूसरे से सिर्फ चार चार पांच पांच मील के फासले पर हैं। सिर्फ भटगांव काठमाण्डू से ७ मील है। तेरहवीं सदी में मुसलमानों के

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अत्याचार से तङ्ग आकर उदयपुर के राजघराने के कुछ क्षत्रिय कमाऊं की तरफ़ चले गये। उनके साथ और भी कितने ही क्षत्रिय ,सेवक और सहचर की भाँति,गये। कोई तीन सौ वर्ष तक उन लोगों की सन्तति वहाँ रहती रही और धीरे-धीरे नेपाल की तरफ़ बढ़ती रही। सोलहवीं सदी में द्रव्यशाह नामक एक पुरुष विशेष प्रतापी हुआ। उसने गोर्खानगर को उसके राजा से छीन लिया और आप वहाँ का राजा हो गया। तभी से गोर्खा-राजों के राज्य का सूत्रपात हुआ। अठारवीं सदी के उतरार्द्ध में पृथ्वी नारायण सिंह को गोर्खा की गद्दी मिली। कुछ दिन बाद पाटन,काठमण्डू और भटगाँव के नेवार-राजों में परस्पर विरोध पैदा हुआ। इससे भटगाँव के राजा रजीतमल ने पृथ्वीनारायण शाह से मदद मांगी! इस मदद का फल यह हुआ कि तीन चार वर्ष में पृथ्वीनारायण सिंह ने युद्ध करके, कुटिल नीति से काम लेकर और शत्रुओं में परस्पर द्वेष भाव्य उत्पन्न करा के नेपाल के चारों राज्यों को उद्ध्वस्त कर दिया। इस प्रकार निष्कण्टक होकर आपने नेपाल का प्रभुत्व अपने ऊपर लिया और गोर्खा छोड़ कर काठमाण्डू को अपनी राजधानी बनाया। तब से नेवार-जाति की प्रभुता की समाप्ति हो गई और गोर्खा लोग नेपाल के राजा हुए। इन्हीं गोर्खाओं के वंशज अब तक वहाँ राज कर रहे हैं। १७६८ ईसवी में पृथ्वीनारायण सिंह को नेपाल की गद्दी मिली। उनसे लेकर १८४७ ईसवी तक इतने राजे नेपाल में हुए—पृथ्वीनारायण शाह,प्रतापसिंह शाह,रणबहादुर शाह, गीर्वाण युद्ध विक्रम शाह, राजेन्द्र विक्रम शाह और सुरेन्द्र विक्रम शाह।

पृथ्वीनारायण शाह ने धीरे-धीरे किराती और लिम्बू लोगों का

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भी राज्य छीन लिया और रणबहादुर-शाह ने नेपाली राज्य को कुमाऊं तक बढ़ाया। १७९२ ईसवी में नेपालियों ने तिबत पर चढ़ाई की,पर चीन वालों ने उन्हें वहाँ से भगा दिया। इस चढ़ाई में उन्हें बहुत हानि उठानी पड़ी और अनेच आपदाओं का सामना करना पड़ा। तभी से नेपाल वाले चीन को कर देने लगे। यह कर उन्हें अब तक देना पड़ता है। उस समय तिबत वालों ने भी अंगरेज़ों से मदद मांगी थी और नेपाल वालों ने भी;पर इस्ट इण्डिया कम्पनी ने मदद नहीं दी। यदि देती तो इस समय नेपाल और तिबत की हालत और की और हो हो गई होती:नेपाल की राजगदी के कारण अनेक बार मार काट हुई है। सच पूछिए तो मन्त्री ही वहाँ का राजा है। इस लिए मन्त्री होने के लिए अनेक खून-खरानियाँ हुई हैं और कितने ही लोगों को देश छोड़कर हिन्दुस्तान में भाग आना पड़ा है।

गीर्वाण शुद्ध विकम-शाह के समय में गोरखा लोगों ने किर नेपाल की सीमा का बढ़ाना आरम्भ किया। पश्चिम में वे कांगड़ा तक पहुंच गये और पूर्व में सिकम लक। उन्होंने अंगरेजी राज्य पर

भी आक्रमण किया। इसका फल यह हुआ कि १८१४ ईसवी में नेपाल के साथ अंगरेजों का युद्ध ठन गया। इस युद्ध में पहले अँगरेजों को बहुत तकलीफें उठानी पड़ीं। उनकी सेना का भी बहुत नाश हुआ और उनके कई बड़े बड़े अफसर भी मर गये ! पर पीछे से उनकी कामयावी हुई और अँगरेजों का जितना देश नेपा- लियों ने जीता था उसमें से बहुत सा उन्होंने लौटा दिया । नेपाल के साथ अँगरेजों की पहले दो तीन सन्धियाँ हो चुकी थीं। पर वे नाम मात्र ही के लिये

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थीं। जब नेपाल के साथ अँगरेजों की लड़ाई हुई तब नेपालियों को अँगरेजों का बल विक्रम अच्छी तरह मालूम हो गया। तब, १८१६ ईसवी में,चौथी बार सन्धि हुई। इस सन्धि का नाम सिगौली की सन्धि है । तब से अँगरेजी गवर्नमेन्ट की तरफ से एक रेजिडेण्ट मुस्तकिल तौर पर काठमाण्डू में रहने लगा। उस समय नेपाल-नरेश के मन्त्री जेनरल भीमसेन थापा थे। उन्होंने २५ वर्ष तक काम किया। १८३७ ईसवी में उन पर यह अपराध लगाया गया कि उन्होंने राजा के एक छोटे बच्चे को विष दिया। इसलिए वे कैद किये गये और कैद ही में उन्होंने अपना आत्मघात किया। सुनते हैं,उनके मृतक शरीर की बड़ी दुर्दशा की गई थी।

भीमसेन थापा के बाद कालापांडे को नेपाल नरेश का मन्त्रित्व मिला। उनका राज्य-प्रबन्ध अच्छा न था। १८४३ ईसवी में उनको मातबरसिंह नामक एक योद्धा ने मार डाला और आप मन्त्री हो गया। परन्तु दो ही वर्ष में उसका भी काम तमाम कर दिया गया। वह राजा से मिलने गया था। वहीं उस पर किसी ने गोली चलाई। कोई कहता है,खुद राजा ने चलाई ; कोई कहता है जङ्गबहादुर ने।

जङ्गबहादुर एक बहुत ही होनहार और साहसी युवा थे ; उस समय वे फ़ौज में कर्नल पद पर थे। मातबरसिंह के मारे जाने पर

उन्होंने राज्य कार्य देखना शुरू किया ! पर मन्त्रित्व उनको न मिला । वह गगनसिंह नामक एक पुरुष को मिला। परन्तु एक ही वर्ष बाद उनके जीवन की भी समाप्ति हो गई। १४ सितम्बर १८४६ की शाम को यह घटना हुई । उन पर नेपाल की महारानी की कृपा थी। इसलिए

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उनके वधिक का पता लगाने के लिए सब सरदार राजमहल में बुलाये गये। वहां जंगबहादुर भी उपस्थित थे। बातों बातों में झगड़ा हुआ और गोलियां चलने लगीं। ज़रा देर में नेपाल के ३१ सरदार और कोई सौ आदमी राजमहल के भीतर ही मारे गये। खून की नदी बह निकली। राजा और रानी भयभीत होकर बनारस भाग आये। जङ्गबहादुर के लिए रास्ता साफ हो गया। इसलिए आप निष्कण्टक होकर मन्त्रित्व के आसन पर आसीन हुए। आपने सुरेन्द्रविक्रम शाह को राजा बनाया।

जङ्गबहादुर के पूर्वजों ने नेपाल में अच्छे-अच्छे काम किये थे। वे एक मशहूर घराने के थे। उन्होंने राज्य का अच्छा प्रबन्ध किया। उनके कोई सौ लड़के लड़कियां थीं। उनका सम्बन्ध राज्य के प्रधान प्रधान सरदारों और स्वयं महाराजाधिराज के यहाँ करके, जङ्गबहादुर ने सारे राज-चक्र और सरदार-चक्र को अपने हाथ में कर लिया। उन्होंने अपनी एक कन्या का विवाह नेपाल के युवराज से भी कर दिया। १८५० ईसवी में जङ्गबहादुर इंगलैण्ड गये। वहाँ उनकी बहुत खातिरदारी हुई। इंगलैण्ड में उन्होंने अँगरेजी सभ्यता को ध्यान से देखा और अँगरेज़ों के प्रचण्ड प्रताप का भी अच्छी तरह अनुभव किया। फल यह हुआ कि नेपाल लौट कर उन्होंने अपने देश के कानन में उचित फेरफार किये उन्होंने अङ्ग-भङ्ग करने का दण्ड उठा दिया। सती की प्रथा में भी कुछ रुकावट कर दी गई। सेना में भी सुधार किया गया। सारांश यह कि जङ्गबहादुर ने जिसमें प्रजा और देश का कल्याण समझा उसे करने में सङ्कोच नहीं किया।

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विलायत से लौटने पर लोगों ने उन पर यह दोष लगाया कि समुद्र पार जाने से वे धर्मच्युत हो गये । इससे वे मन्त्री होने लायक नहीं रहे। इन दोषारोपण करने वालों में जङ्गबहादुर के दो भाई भी थे- एक सगे,एक चचेरे । इसमें महाराजाधिराज के एक भाई भी शामिल थे। ये लोग नेपाल से हटा दिये गये और इलाहाबाद में आकर रहने लगे। पर १८५३ ईसवी में उनको नेपाल लौट जाने की आज्ञा मिल गई। १८५७ ईसवी के सिपाही-विद्रोह में जङ्गबहादुर ने बहुत सी फौज भेज कर अँगरेज़-राज की मदद की। इसके उपलक्ष में गवर्नमेंट ने तराई का एक हिस्सा नेपाल को दे दिया और जंगबहादुर को जी० सी० बी० की पदवी से विभूषित किया। १८७३ ईसवी में वे जी० सी० एस० आई० बनाये गये। १८७७ में जंगबहादुर की मृत्यु हुई। अपने समय तक यही एक ऐसे मन्त्री हुए जिनकी स्वाभाविक मृत्यु हुई। महाराज जंगबहादुर के ज्येष्ठ पुत्र जनरल पद्मजङ्ग इस समय प्रयाग में रहते हैं।

१८७५ ईसवी में राजराजेश्वर सातवें एडवर्ड सैर के लिए हिन्दु- स्तान आये थे। उस समय आप "प्रिंस आव वेल्स” कहलाते थे। आपने नेपाल की तराई में शिकार खेला था। शिकार का सब प्रबन्ध महाराज जङ्गबहादुर ने खुद किया था। वे प्रिंस से मिलने आये थे उनके आतिथ्य से प्रिंस बहुत प्रसन्न हुए थे।

महाराज जङ्गबहादुर का शंखे लामा नामक एक योगी पर बहुत प्रेम था। इस योगी को ब्रजोली मुद्रा सिद्ध थी। वह अपने शिश्न से

शंख बजा सकता था और उसी मार्ग से कटोरा भर दूध चढ़ा लेता था

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नेपाल

१८८५ ईसवी में नेपाल के सरदार मण्डल में फिर विद्रोह हुआ। उसमें उस समय के मन्त्री,और जङ्गबहादुर के एक बेटे और एक पोते की जान गई। विद्रोह-कर्ता थे वीर शमसेर जङ्ग राना । शिरच्छेद करने में राक्रम दिखला कर आपने मन्त्री का आसन छीन लिया। तब से आप नेपाल के हर्ताकर्ता हुए। आपको के० सी० एस० आई० का खिताब भी मिला।

नेपाल के वर्तमान नरेश, महाराजाधिराज, और मन्त्री दोनों बहुत योग्य हैं। गत वर्ष तिबत-मिशन को नेपाल से बहुत मदद मिली थी। इस उपलक्ष्य में अँगरेज़ी गवर्नमेण्ट ने मन्त्रीजी को जी० सी० एस० आई० की उपाधि से अलंकृत किया है। २६ अप्रिल,१६०५, को काठमाण्डू में एक दरबार किया गया। उसमें महाराज चन्द्रशमशेर जङ्गु राना बहादुर को रेज़िडेंट साहब ने इस पदवी का सूचक पदक पहनाया। यही राना बहादुर आज कल नेपाल के मन्त्री हैं। दरबार में महाराजाधिराज भी पधारे थे। आपने रेज़िडेंट साहब की अभ्यर्थना उठ कर की थी और एक वक्तृता भी दी थी। आप की वक्तृता को आपके राज-गुरू ने पढ़ कर सुनाया था।

नेपाल के वर्तमान नरेश महाराजाधिराज पृथ्वी वीर विक्रम-शमशेर जङ्गबहादुर शाह का जन्म ८ अगस्त, १८७४, को हुआ था। १७ मार्च १८८१, को आप अपने पितामह की गद्दी पर बैठे थे। आप बहुत रूपवान और गुणवान हैं। आप अँगरेज़ी खूब लिख पढ़ सकते हैं और बोलते भी हैं। आप महाराज जङ्ग बहादुर के दौहित्र हैं।

[जुलाई १९०५]