दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/प्रथम परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ १ से – १० तक

 
दुर्गेशनन्दिनी।

प्रथम खण्ड।




प्रथम परिच्छेद।

देवमन्दिर।

बङ्गदेशीय सम्वत् ९९८ के ग्रीष्मकाल के अन्त में एक दिन एक पुरुष घोड़े पर चढ़ा विष्णुपुर से जहानाबाद की राह पर अकेला जाता था। सायंकाल समीप जान उसने घोड़े को शीघ्र हांका क्योंकि आगे एक बड़ा मैदान था यदि दैव संयोग से अंधेरा होजाय और पानी बरसने लगे तो यहां कोई ठहरने का अस्थान न मिलेगा। परन्तु संध्या हो गई और बादल भी घिर आया और रात होते २ ऐसा अँधेरा छा गया कि घोड़े का चलाना कठिन होगया केवल कौंधे के प्रकाश से कुछ कुछ दिखाई देता था और वह उसी के सहारे से चलता था। थोड़े समय के अनन्तर एक बड़ी आंधी आई और बादल गरजने लगा और साथही पानी भी बरसने लगा और पथिक को मार्ग ज्ञान कुछ भी न रहा। पथिक ने घोड़े की रास छोड़ दी और वह अपनी इच्छानुसार चलने लगा। कुछ दूर जाकर घोड़े ने ठोकर ली, इतने में बिजली भी चमकी और आगे एक भारी श्वेत वस्तु देख पड़ी। उसको
दूना अटारी समझ वह पुरुष घोड़े से उतर पड़ा और जाना कि घोड़े ने इसी पत्थर की सीढ़ी में ठोकर खाई थी। समीपवर्ती गृह का अनुभव कर उसने घोड़े को स्वेच्छा विहार करने को छोड़ दिया और आप धीरे २ सीढ़ी टटोल २ चढ़ने लगा और विद्युत प्रकाश द्वारा जान लिया कि जिसको अटारी समझा था वह वास्तविक देवमन्दिर है परन्तु कर स्पर्श द्वारा जाना कि द्वार भीतर से बन्द है। मन में चिन्ता करने लगे कि इस जन्य शून्य स्थान में इस समय भीतर से मन्दिर को किसने बन्द किया और वृष्टि प्रहार से घबरा कर केवाड़ा भड़भड़ाने लगे। जब कपाट न खुला तो चाहा कि पदाघात करें परन्तु देवमन्दिर की अप्रतिष्ठा समझ रुक गए तथापि हाथही से ऐसे ऐसे धक्के लगाये कि केवाड़ा खुल गया। ज्योंही मन्दिर में घुसे कि भीतर चिल्लाने का शब्द सुनाई दिया और एकाएक वायु प्रवेश से भीतर का दीप भी ठंडा होगया परन्तु यह न मालूम हुआ कि मन्दिर में कौन है, मनुष्य है, कोई मूर्ति है या क्या है। निर्भय युवा ने मुस्करा कर पहिले उस मंदिर के अदृश्य देवता को प्रणाम किया और फिर बोला कि “मन्दिर में कौन है?” परन्तु किसी ने उत्तर न दिया केवल आभूषण की झनझनाहट का शब्द कान में पड़ा, टूटे द्वार से वायु प्रवेश के रोकने के निमित्त दोनों कपाटों को भली भांति लगा कर पथिक ने फिर कहा “जो कोई मन्दिर में हो सुनो, मैं शस्त्र बांधे द्वार पर विश्राम करता हूं यदि कोई विघ्न डालेगा फल भोगेगा यदि स्त्री हो तो सुख से विश्राम करे राजपूत के हाथ में जब तक तलवार है कोई तुम्हारा रोआं टेढ़ा नहीं कर सकता।”

मन्दिर में से स्त्री स्वर में यह शब्द सुनाई दिया कि “आप कौन हैं?”

पथिक ने घबड़ा कर यह उत्तर दिया, जान पड़ता है कि यह शब्द किसी सुन्दरी का है। “तुम मुझको पूछकर क्या करोगी?”

फिर शब्द हुआ कि “मैं डरती हूं।”

युवा ने कहा “मैं कोई हूं मुझको कोई उचित नहीं है कि मैं तुमको अपना पता बताऊं परन्तु मेरे रहते स्त्रियों को किसी प्रकार का भय नहीं है।”

उस स्त्री ने कहा “तुम्हारी बात सुनकर हमको बड़ा साहस हुआ, नहीं तो हम मरी जाती थीं, वरन अभी तक हमारी सखी घबराई हुई है। हम सांझ को इस शैलेश्वर की पूजा को आई थी जब पानी बरसने लगा हमारे कहार और दास दासी हमको त्याग कर नहीं मालूम कहां चले गये।”

युवा ने उनको सन्तोष दिया और कहा कि “तुम चिन्ता मत करो अभी विश्राम करो कल प्रातःकाल तुम्हारे घर तुम्हें पहुंचा दूंगा।” स्त्री ने यह सुन कर कहा “शैलेश्वर तुम्हारा भला करें।”

आधी रात को आंधी पानी बन्द हो गया तब युवा ने कहा “तुम थोड़ी देर धीर धारण पूर्वक यहां ठहरो मैं नि-कट ग्राम से एक दिया जला लाऊं।”

यह बात सुन कर उस सुन्दरी ने कहा, महाशय ग्राम दूर है इस मन्दिर का रक्षक समीपही रहता है, चांदनी निकल आई है, बाहर से उसकी कुटी देख पड़ेगी वह अकेला इस उजाड़ में रहता है इस कारण अग्नि की सामग्री सर्वदा उसके गृह में रहती है।

तदनुसार युवा ने बाहर आकर रक्षक के गृह को देखा और द्वार पर जाकर उसको जगाया। रक्षक ने भय के मारे पहिले द्वार नहीं खोला परन्तु भीतर से देखने लगा कि कौन है, बहुत देखा पर पता नहीं लगा परन्तु मुद्रा प्राप्ति का अनुभव कर बड़े कष्ट से उठा और बहुत ऊंच नीच सोच विचार द्वार खोल कर दीप जला दिया।

पथिक ने दीपक प्रकाश द्वारा देखा कि मन्दिर में सङ्गमरमर की एक शिव मूर्ति स्थापित है और उस मूर्तिके पिछाड़ी दो कामिनी खड़ी हैं। एक जो उसमें से नवीन थी दीपक देखतेही सिमट कर सिर झुका के बैठ गई परन्तु उसकी खुली हुई कलाई में मणिमय माड़वाड़ी चूड़ी और विचित्र कारचोबी का परिधान और सर्वोपरि हेममय आ-भरण देख कर ज्ञात हुआ कि यह नीच जाति की स्त्री नहीं है। दूसरी स्त्री के परिच्छेद से मालूम हुआ कि यह उस नवीन की दासी है और वयस भी इसकी अनुमान पैंतीस वर्ष की थी, सम्भाषण समय युवा ने यह भी देखा कि उन दोनों में से किसी का पहिनावा इस देश के समान नहीं है परन्तु आर्य्यदेश वासी स्त्रियों की भांति है। उसने मन्दिर में उचित स्थान पर दीपक को धर दिया और स्त्रियों की ओर मुंह करके खड़ा हुआ। दिये की जोति उनपर पड़ने से स्त्रियों ने जाना कि उनकी उम्र २५ वर्ष से कुछ अधिक होगी और शरीर इतना स्थूल था जैसे देव, और आभा उसकी हेम को भी लज्जित करती थी और उसपर कवचादि राजपूत जाति के वस्त्राभरण और भी शोभा देते थे, कमर में रेशमी परतला पड़ा था और उसमें तलवार लटकती थी और हाथ में एक लंबा बर्छा था, प्रशस्त ललाट में हीरा चमक रहा था और कान में मणि कुण्डल पड़ा था ओर वक्षस्थल में हीरे की माला चित्त को मोहे लेती थी।

परस्पर के समारम्भ से दोनों ओर परिचय निमित्त विशेष व्यग्रता थी किन्तु कोई अग्रसर नहीं हुआ।

पहिले युवा ने अपने को उद्वेग रहित करने की इच्छा कर बड़ी स्त्री से कहा “जान पड़ता है तुम किसी बड़े घर की स्त्री हो परन्तु पता पूछने में संकोच मालूम होता है किन्तु हमारे पता न बताने का जो कारण है वही तुम्हारा भी हेतु नहीं होसक्ता अतएव दृढ़ता पूर्वक जिज्ञासा करता हूं।

स्त्री ने कहा, महाशय हमलोगों को पहिले अपना पता बताना किसी प्रकार योग्य नहीं है।

युवा ने कहा कि पता बतलाने का पहिले और पीछे क्या?

फिर उसने उत्तर दिया कि स्त्रियों का पताही क्या? जिसका कोई अल्ल नहीं वह अपना पता क्या बतावेंगी? जो सर्वदा पर्दे में रहा करती हैं वह किस प्रकार अपने को प्रख्यात करें? जिस दिन से विधाता ने स्त्रियों को पति के नाम लेने को मना किया उसी दिन से उनको बेपते कर दिया।

युवा ने इसका कुछ उत्तर न दिया क्योंकि उनका मन दुर्चित्त था।

नवीना स्त्री अपने घूंघट को क्रमशः उठाकर सहचरी के पीछे तिरछी चितवन से युवा को देख रही थी। वार्तालाप करते २ पथिक की भी दृष्टि उसपर पड़ी और दोनों की चार आंखें हुंई और परस्पर अलौकिक आनन्दप्राप्ति पूर्वक दोनों के नेत्र ऐसे लड़े कि पलकों को भी अपना सहज स्व
भाव भूल गया और ऊपर ही टँग रहीं परन्तु लज्जा ने झट आकर स्त्री के नैन कपाट को बन्द कर दिया और उसने अपना सिर झुका लिया। जब सहचरी ने अपने वाक्य का उत्तर न पाया तो पथिक के मुख की और देखने लगी और उनके गुप्त व्यवहार को समझ कर उस नवीना से बोली, “क्योंं ! महादेव के मन्दिरही में तूने प्रेमपाश फैलाया ?”

नवीना ने सहचरी से उसकी उङ्गली दबाकर धीरे से कहा ‘चल बक नहीं।’ चतुर सहचरी ने अपने मन में अनुमान किया कि इन लक्षणों से ज्ञात होता है कि आज यह लड़की इस परम सुन्दर युवा पुरुष को देख मदन बाणबिद्ध हुई और चाहे कुछ न हो पर कुछ दिन पर्य्यन्त इसको शोच अवश्य होगा और सब सुख क्लेशकर जान पड़ेगा अतएव इसका उपाय अभी से करना उचित है। पर अब क्या करूं! यदि किसी प्रकार से इस पुरुष को यहां से टालूं तो अच्छा हो। यह सोच बोली कि महाशय स्त्री की जाति ऐसी है कि उसको वायु से भी कलंक लगता है और आज इस आंधी से बचना अति कठिन है, अब पानी बन्द हो गया है धीरे धीरे घर चलना चाहिये।

युवा ने उत्तर दिया कि यदि अकेली इतनी रात को तुम पैदल जाओगी तो अच्छा नहीं, चलो मैं तुमको पहुंचा आऊं, अब आकाश निर्म्मल होगया, मैं अब तक अपने स्थान को चला जाता परन्तु मुझको तुम्हारी रूपराशि सखी का अकेली जाना अच्छा नहीं दिखता, इस कारण अभी तक यहां ठहरा हूँ। कामिनी ने कहा कि आपने हमारे ऊपर बड़ी दया की और कृतघ्नता के भय से हमलोग और कुछ आप से नहीं कह सकते। महाशय स्त्रियों की दुर्दशा मैं आपके

सामने और क्या कहूं हमलोग तो स्वभाविक अविश्वासपात्र हैं यदि आप चलकर हमको पहुंचा आइयेगा तो यह हमारा सौभाग्य है किन्तु जब हमारा स्वामी इस कन्या का पिता पूछेगा कि तुम इतनी रात को किसके सङ्ग आईं तो यह क्या उत्तर देगी।

थोड़ी देर सोच कर युवा ने कहा “कह देना कि हम महाराज मानसिंह के पुत्र जगतसिंह के साथ आईं हैं।”

इन शब्दों को सुन कर उन स्त्रियों को बिज्जुपात के घात समान चोट लगी और दोनों डर कर खड़ी हो गईं। नवीना तो शिव जी की प्रतिमा के पिछाड़ी बैठ गई किन्तु दूसरी स्त्री ने गले में कपड़ा डाल कर दण्डवत किया और हाथ जोड़ कर बोली “युवराज! हमने बिना जाने बड़ा अपराध किया, हमारी अज्ञता को आप क्षमा करें।”

युवराज ने हँसकर कहा यह अपराध क्षमा के योग्य नहीं है यदि अपना पता दो तो क्षमा करूं नहीं तो अवश्य दण्ड दूंगा।

मधुर सम्भाषण से सर्वदा रस का अधिकार होता है इस कारण उस सुन्दरी ने हंस कर कहा कि कहिए क्या दण्ड दीजिएगा, मैं प्रस्तुत हूँ।

जगतसिंह ने भी हंस कर कहा कि मेरा दण्ड यही है कि तुम्हारे साथ तुमको चल कर पहुंचा आऊं।

सहचरी को जगतसिंह के सन्मुख नवीना का पता न बताने का कोई विशेष कारण था जब उसने देखा कि ये साथ चलने को उद्यत हैं तो बड़े संकट में पड़ी क्योंकि फिर तो सब बाते खुल जाएँगी। अतएव सिर झुका कर रह गई।

इस अवसर पर मन्दिर के समीप बहुत से घोड़ों के
आने का शब्द सुनाई दिया और राजपूत ने जल्दी से बाहर निकल कर देखा कि सैकड़ों सवाद चले जाते हैं किन्तु उनके पहिरावे से जाना कि मेरीही सी सेना है। जगतसिंह युद्ध के कारण विष्णुपुर के प्रदेश में जाकर और शीघ्र एक शत अश्वारोहिनी सेना लेकर पिता के पास चले जाते थे। सन्ध्या हो जाने के कारण राजकुमार दूसरी राह पर चले गये और सवार लोग और राह होगए थे। अब इन्होंने उन को देख कर पुकार कर कहा कि “दिल्ली के राजा की जय होय” यह शब्द सुन उन में से एक इनके निकट आया और इन्होंने कहा “धरमसिंह, मैं आंधी पानी के कारण यहीं ठहर गया और तुम्हारी राह देख रहा था।”

धरमसिंह ने प्रणाम कर के कहा कि “हम लोगों ने आपको बहुत ढूंढ़ा परन्तु जब आप न मिले तो घोड़े की टाप देखते चले आते हैं घोड़ा यहीं बट की छांह में खड़ा है अभी लिए आता हूं।”

जगतसिंह ने कहा तुम घोड़ा लेकर यहीं ठहरो और दो आदमियों को भेजो किसी निटकस्थ ग्रामसे एक डोली और कहार ले आवें और शेष सेनासे कहो कि आगे बढ़ें।

धरमसिंह यह आज्ञा पाकर बड़े विस्मित हुए किंतु स्वामि भक्तिता के विरुद्ध जान चुप चाप जाकर सैन्यगण से इस अभिप्रायको कह दिया। उनमें से कितनों ने डोलीका नाम सुन मुसकिरा कर कहा “आज तो नए २ ढङ्ग देखने में आते हैं” और कितनों ने कहा “क्यों नही! राजाओं की सेवाको अनेक स्त्री रहा करतीं हैं।”

इतने में औसर पा घूंघट खोल उस नवीना सुन्दरी ने सहचरीसे कहा क्यों, विमला! तुम ने राजपुत्रको पता क्यों नहीं बतलाया? उसने उत्तर दिया कि इसका समाचार मैं तुम्हारे पिता के सामने कहूंगी अब यह क्या कोलाहल होने लगा?

नवीना ने कहा जान पड़ता है कि राजपुत्र को ढूंढ़ने के लिये कोई सेना आई है। जहां युवराज आप प्रस्तुत हैं वहां तू चिन्ता किस बात की करती है?

इधर राजपुत्र के सवार डोली कहार लेनेको गए उधर वही डोली कहार और रक्षक जो उन स्त्रियों को लेआए थे आन पहुंचे। दूर से युवराज ने उनको देखकर मन्दिर में जा सहचरी से कहा “कि कई सिपाही डोली कहार लिये आते हैं बाहर आकर देखो तो क्या वे तुम्हारे ही आदमी है”? विमला ने बाहर आकर देखातो वही आदमी थे। तब युवराजने कहा कि अब हमारा यहां ठहरना उचित नहीं है यदि ये लोग हमको इस स्थान पर देखलेंगे तो अच्छा न होगा, लो अब मैं जाता हूँ और महादेवजी से यही विनती करताहूँ कि तुम लोग कुशल पूर्वक अपने घर पहुंच जाओ और तुमलोगों से यह निवेदन है कि हमारे मिलने का समाचार इस सप्ताह में किसी से न कहना और न हमको भूल जाना, यह लो अपना स्मारक चिन्ह यह एक सामान्य वस्तु तुम को देता हूं और मैंने जो तुम्हारी सखी का पता नहीं पाया यही एक चिन्ह अपने पास रक्खूंगा यह कह कर और अपने गले से मोती की माला निकाल विमला के गले में डाल दिया। विमला ने इस अमूल्य मणिमाला को पहिन युवराज को प्रणाम करके कहा महाराज मैंने जो आप को पता नहीं बताया इस्से आप अप्रसन्न न हो इसका एक विशेष कारण है परन्तु यदि आपको इसकी बड़ी इच्छा हो तो यह बतलाइये कि आज के पन्द्रहवें दिन आपसे कहां भेंट हो सकती है।

जगतसिंह ने कुछ सोच कर कहा कि आज के पन्द्रहवे दिन रात को मुझ से इसी मन्दिर में भेंट होगी और यदि उस दिन न मिलूं तो जान लेना कि फिर मुझसे भेंट न होगी।

‘ईश्वर आप को कुशल से रक्खे' यह कह कर विमला ने फिर प्रणाम किया।

युवा ने फिर एक बार अतृप्त लोचन से उस सुन्दरी की ओर दृष्टिपात करके और उसकी मन मोहनी मूर्ति को अपने हृदय में स्थापित कर घोड़े पर चढ़ प्रस्थान किया।