दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/छठवां परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ २४ से – २७ तक

 

छठवां परिच्छेद ।
असावधानता ।

गढ़ के अग्रभाग में जिसके नीचे से दामोदर नदी बेग पूर्वक बहती थी तिलोत्तमा एक बंगले में बैठी जल का प्रवाह देख रही थी सायंकाल हो गया और पश्चिम ओर सूर्य्य अस्त होने लगे हेमवरणगन सम्मिलित नीलाम्बर का प्रतिबिम्ब बहते हुए जल में थरथराता था और उस पार की ऊंची २ अटारी और लम्बे लम्बे वृक्ष बिमल आकाश में चित्र के समान देख पड़ते थे, दुर्ग में मोर और हंस सारस आदि कोलाहल कर रहे थे और कहीं २ रात्रिकाल उपस्थित जान पक्षिगण बसेरों में चुहचुहाते थे और काननागत सुगन्धमय मंद वायु जल स्पर्श पूर्वक शरीर को छू कर शीतल करता था, उसके बेग से केश और अंचल के उड़ने की कुछ और ही शोभा थी।

तिलोत्तमा के रूप राशि के बर्णन में लेखनी थरथराती है और उपनाम भी लज्जायुक्त होकर इधर उधर मुंह चुराते फिरते हैं। सच है किशोर अवस्था में ऐसी स्थिरता और कोमलता संयुक्त लावण्य की उपमा को कौन तुल सकता है? एक बार देखने से जिसकी मधुर मूर्ति सदा चित्त पर चढ़ी रहती है और बालक युवा और वृद्ध सब को चलते फिरते जागते और सोते हर पल में एक रस प्रेम उपजाती है ऐसी अनुपम मन मोहिनी की असीम सुन्दरता का बखान करके कौन अपयश ले?

यदि किसी प्रकार नयन पथ द्वारा इस अपार शोभा राशि की झलक ध्यान में आजाय तो सन्ध्या समीर सञ्चिलित बसन्त लता की भांति मन सदा चलायमान रहे। यद्यपि उस की वय सोलह वर्ष की हो चुकी थी परन्तु इधर स्त्रियों की तरह उसके 'हाथ पैर' पुष्ठ नहीं हुए थे अभी वह बालिका ही बोध होती थी। मन्दवारिप्रवाह स्वभाव प्रकाशक काले घूंघरवाले केश दोनों पार्श्वों में सुन्दर प्रशस्त ललाट के ऊपर होकर कपोल गण्ड और पेटी पर्यन्त लटके हुए चित्र काव्य की निन्दा करते थे बड़े २ स्वच्छ कुटिलता रहित स्पष्ट और सरल ने‌‍‍त्र सर्वत्र सर्व्वकाल एक रस रहते थे परन्तु चाहने वालों के चित्त को देखतेही पलकपाश संकोच द्वारा फंसा लेते थे। सुडौल कीरवत नासा और कोमल रक्तबर्ण अधर सधर की जोड़ी गोल २ लोल कपोलों के बीच में अपूर्व छबि दिखलाती थी। और यदि एक बार मन्द मुसकान की प्रभा उन पर छा जाय फिर तो बड़े २ योगी मुनि और सिद्ध तपस्वियों के ध्यान छूट जाते थे। सुगढ़ित अस्थूल और कोमल शरीर की शोभा लिखते नहीं बनती। बांह में हीरा मणि के बाजूबन्द, नरम कलाई में मारवाडी चूड़ी उङ्गलियों में अँगूठी और छल्ले और गले में मेखला मोहनमाला और नौ नगे का हार और भी विशेष प्यारा मालूम होता था।

ऐसी रूपवती कामिनी अकेले बङ्गले में बैठी क्या करती है? क्या सायंकाल के आकाश की शोभा देखती है? पर आखें तो उसकी नीचे को देखती हैं। क्या नदी तीर के सुगन्ध वायु का रस लेरही है? किन्तु माथे में स्वेद के कण क्यों है? और वायुतो उसके चन्द्रानन के एक ही भाग में लगती है, क्या गौओं के चरने की शोभा देखती है। परन्तु वे तो धीरे२ घर चली जाती हैं। क्या पक्षी कलरव सुनती है? लेकिन उसका मुंह उदास है। वह कुछ देखती भालती नहीं है किन्तु किसी बात की चिन्ता कर रही है।

ऐसी कौन चिन्ता उसके जी में समाई है? अभी तो वह बालिका है, जान पड़ता है कि कुटिल कामदेव ने आज इसको पहिले पहिल अपना शिष्य किया है।

दासी ने दिया जला दिया और तिलोत्तमा एक पुस्तक लेकर दीप के समीप बैठी। अभिराम स्वामी ने उसको संस्कृत पढ़ाया था पहिले उसने कादम्बरी उठाई और थोड़ी सी पढ़कर धरदी और फिर सोचने लगी। एक पुस्तक और उठा लाई उसको भी थोड़ी पढ़कर फेंक दी अबकी गीत गोबिन्द लाई थोड़ी देर तो मन लगाकर पढ़ती रही जब 'मुखरमधीरं त्यज: मञ्जीरं रिपुमित्रकेलिष लोलम' चरण आया तो लज्जायुत मुस्किरा कर पुस्तक को बंद करके धर दिया और चुपचाप शय्या पर बैठ रही। पासही लेखनी और मसिदानी धरी थी पट्टी पर 'ए' 'उ' 'ता' 'क' 'स' 'म' घर द्वार वृक्ष मनुष्य इत्यादि लिखने लगी और एक ओर की पट्टी भर गई, जब कहीं स्थान न रहा तो फिर सोचने लगी और अपने करनी पर हंसी और उस लेख को पढ़ने लगी 'वासवदत्ता' 'के' 'ई' 'इ' 'य' 'एक' 'वृक्ष' शिव 'गीतगोबिन्द' विमला, लता, पता, हिजि, बिज, गढ़, सबनाथ और क्या लिखा था ?

'कुमार जगतसिंह'

यह नाम पढ़कर लज्जा के मारे तिलोत्तमा का मुंह लाल हो गया। फिर अपने मन में सोचा कि घर में कौन है जो लज्जा करैं और दो तीन चार बेर उस नाम को धोखा और चोरों की भांति द्वार की ओर देखती थी और फिर २ उस नाम को पढ़ती थी।

जब कुछ काल बीत गया तो मन में डरी कि कोई देख न ले और शीघ्र पानी लाकर सब को धो डाला किन्तु सन्तोष नहीं हुआ और एक कपड़े से पोंछ डाला फिर पढ़ कर देखा कि कहीं मसी का लेश तो नहीं रह गया। अभी चित्त की स्थिरता नहीं हुई और फिर पानी लाकर सब को धोया और वस्त्र से पोंछा तथापि भ्रान्ति बनी रही।