दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग/आठवां परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ३० से – ३५ तक

 
आठवां परिच्छेद।

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कुलतिलक।

जगतसिंह सेना लेकर अपने पितासे विदा हुए और विशेष बीरता प्रकाश पूर्वक पठानों में हलचल मचा दिया! उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि पांच सहस्त्र सेना से कतलूखां के पचास सहस्त्र सेना को सुवर्णरेखा पार उतार दूंगा। यद्यपि अभी तक कार्य्य सिद्ध नहीं हुआ था परन्तु उनके कर्तव्य की श्लाघा सुनकर मानसिंह ने समझा कि जगतसिंह द्वारा प्राचीन राजपूत गौरव पुनः प्रसिद्ध होगा।

जगतसिंह भलीभांति जानते थे कि पांच सहस्त्र सेना से पचास सहस्त्र सेना परास्त करना संपूर्ण भाव से असंभव है बरन प्राण बचना कठिन है। अतएव उन्होने ऐसी प्रणाली स्थापित की कि जिसमें संमुख संग्राम न करना पड़ै और अपनी सेना को सर्वदा छिपाये रहते थे। कधी सघन जङ्गल, कधी घाटी और कधी पहाड़ों की खोहों में रहते जिसमें किसी प्रकार किसी को उनका स्थान न मालूम हो और जहां कहीं सुन पाते कि पठानों की सेना अमुक स्थान पर है तुरन्त छापा मार कर उनका नाश करते थे। और बहुतेरे भेदिये कुंजड़े, कसाई, भिक्षुक, उदासी, और ब्राह्मण का भेष बनाये फिरा करते थे और पठानों की सेना का शोध लिया करते थे और पहिले से जाकर मार्ग में छिपे रहते थे जहां किसी पठान सेना को आते देखा वहीं निकल कर मार कूट के सब छीन लेते थे। इस प्रकार जब अनेक पठान सेना मारी गई तब तो वे बहुत व्याकुल हुए और राजपूतों से संमुख संग्राम करने की टोह में फिरने लगे परन्तु जगतसिंह का पता काहे को लगता था।

जगतसिंह अपनी पांचो सहस्त्र सेना को एकत्र नहीं रखते थे कहीं सौ कहीं दो सौ इस प्रकार उनको भिन्न २ स्थानों में ठहरा दिया था और सर्वदा एक स्थान में भी नहीं रहते थे, मारा कूटा और चल दिया। कतलूखां के पास नित्य यही सम्वाद आता था कि आज चार सौ मरे कल हज़ार मरे, अर्थात सोते बैठते सर्व काल में अमङ्गल समाचार मिलता था। अन्त को लूट पाट सब बन्द हो गई और सेना सब दुर्ग में जा छिपी, आहारादि की भी कठिनता होने लगी। इस उत्तम शासन सम्वाद को सुनकर महाराज मानसिंह ने पुत्र को यह पत्र लिखा।

"कुल तिलक! मैंने जाना कि तू पठान वंश को निर्मूल करेगा अतएव यह दश सहस्र सेना और तुम्हारी सहायता के निमित्त भेजता हूं।"

कुमार ने उत्तर लिखा।

"महाराज यदि आपने और सेना भेजी तो अति उत्तम है नहीं तो आपके चरणों के प्रभाव से इसी पांच सहस्र सेना से मैं अपनी प्रतिज्ञा पालन करता" और सेना लेकर अपूर्व वीरता प्रकाश करने लगे।

अब देखना चाहिये कि शैलेश्वर के मन्दिर में जिस सुन्दरी से साक्षात हुआ था उसका ध्यान जगतसिंह को कुछ रहा या नहीं।

जिस दिन अभिराम स्वामी ने क्रोध करके बिमला को घर से निकाल दिया उसके दूसरे दिन संध्या को वह बैठी अपनी कोठरी में 'कंघी चोटी' कर रही थी। तीस बर्ष की बुढ़िया भी श्रृंगार करती है! क्यों नहीं, मन तो नहीं बूढ़ा होता और विशेषकर के रूपवती तो सर्वदा जवानही रहती हैं। हां कुरूपाके जवानी और बुढ़ापे में भेद होता है। बिमला तो रूप और रस दोनों से भरी पूरी थी वरन पुराना चावल और भी अच्छी तरह खिलता है। उसके लाल २ ओठों को देख कर कौन कहता कि बुढ़िया है, काजल लगे हुए मारू नयनों के कटाक्ष अपने सामने तरुणियों को क्या समझते थे। गोरे २ बदन पर नागिन सी लटैं गालों पर लटकती हुई कैसी भली मालूम होती थी। देखो! बायें हाथ से बालों को पकड़ कर कंघी करती हुइ मूर्ति को दर्पण में देखती और मुसकिराती और धीरे २ रस राग गाती हुई बिमला शांतीपुर की झीनी साड़ी के अंचल से घुटने के बीच में छातियों को छिपाये हुए कामारि के मन में भी काम उपजाती है।

जूड़े को बांंध बेणी पीठ पर लटका दी और एक इतर सुगन्धमय रूमाल से मुंह को पोंछ महोवे की बीड़ी खाय ओठों पर धड़ी जमाय मुक्तामय कंचुकी कस और अंग २ सिजिल कर गुच्छेदार गुरगावी पैर में पहिन गले में वही युवराजदत्त माला धारण किये हुए बिमला तिलोत्तमा के घर चली।

तिलोत्तमा इस रूप को देख कर चकित हो हंस के बोली।

क्यों! आज तो बड़ा मोहनी रूप बनाया है।

बिमला ने कहा 'तुमको क्या?'

ति० भला बता तो आज किसका घर घालेगी?

बि०। मैं कुछ करूंगी तुझको क्या? तिलोत्तमा ऐसा उत्तर पाय लज्जा से उदास हो गई। तब बिमला ने हंस कर कहा मैं बड़ी दूर जाऊंगी।

तिलोत्तमा फिर प्रफुल्ल बदन हो गयी और पूछने लगी कि कहां जायगी।

बिमला मुंह पर हाथ रख कर हंसने लगी और बोली अनुमान करो कि मैं कहां जाऊंगी और तिलोत्तमा उसका मुंह देखने लगी तब बिमला ने उसका हाथ पकड़ लिया और 'सुनो' कह खिड़की के समीप ले गई और धीरे से कान में बोली "शैलेश्वर के मन्दिर में जाऊंगी वहां एक राजपूत्र से भेंट करनी है।

तिलोत्तमा के शरीर पर रोमांच हो आया और वह चुप रही।

बिमला फिर बोली कि अभिराम स्वामी से हमसे बात हुई थी और उन्हीं ने कहा कि जगतसिंह के सङ्ग तिलोत्तमा का संयोग हो नहीं सकता, तुम्हारा बाप न मानेगा। उनसे इसकी चरचा चला कर बिना लात खाये बच जांंय तो बड़ी भाग।

तिलोत्तमा के चेहरे का रंग उतर गया और मुंह लटका कर बोली 'फिर क्या होगा?'

वि० । क्यों? मैं राजपुत्र को बचन दे आई हूं, आज रात को उनसे मिलकर सब समाचार कहूंगी। अब कुछ चिन्ता नहीं है, देखें वे फिर क्या करते हैं। यदि उनको तेरा प्रेम होगा तो-इतने में तिलोत्तमा ने कपड़े से उसका मुंह बंद कर दिया और कहने लगी "तेरी बातों के सुनने से मुझको लज्जा होती है, तेरे जहां जी में आवे तहां जा न मेरी बात और किसी से कहना न और किसी की बात मुझसे कहना"। बिमला हंस कर बोली "फिर क्यों इतना भाव करती हो?"

तिलोत्तमा ने कहा तू जा यहां से? अब मैं तेरी बात न सुनूंगी।

वि० । तब मैं मन्दिर में न जाउं—!

ति० । मैं क्या तुझको कहीं जाने को मना करती हूं जहां जी चाहे जा न।

बिमला हंसने लगी और बोली कि तब मैं मन्दिर में न जाऊंगी।

तिलोत्तमा ने सिर झुका के कहा—जा।

बिमला फिर हंसने लगी और कुछ कालान्तर में बोली अच्छा तो मैं जाती हूं और जब तक मैं न आऊं सो न जाना?'

तिलोत्तमा ने मुस्किरा के अपनी सम्मति प्रकाश की।

जाते समय बिमला ने एक हाथ तिलोत्तमा के कन्धे पर धर दूसरे से उसकी दाढ़ी चूम ली और उसके बिदा होते तिलोत्तमा के आँखों से आंसू टपक पड़े।

द्वार पर आसमानी ने आकर विमला से कहा—सर्कार तुझको बुलाते हैं।

तिलोत्तमा ने सुन कर चुपके से आकर "यह श्रृंगार उतार के जाना"। कहा

बिमला बोली "कुछ भय नही है" और विरेन्द्रसिंह के बैठक में चली गई। सिंह जी सैन कर रहे थे और एक दासी पैर दाबती थी और दूसरी पंखा झलती थी। पलंग के पास खड़ी होकर बिमला ने पूछा "महाराज की क्या आज्ञा है?"

बीरेन्द्रसिंह ने सिर उठा कर देखा और चकित हो कर कहा "विमला! आज तू सज के कहां निकली?" विमला ने कुछ उत्तर न दिया और फिर पूछा कि 'मुझ को क्या आज्ञा होती है?,

बीरेन्द्र ने पूछा तिलोत्तमा कैसी है? अभी कुछ क्लेश सुनने में आया था, अबतो अच्छी है न?

वि०| आप की कृपा से अच्छी है।

बी०| अच्छा थोड़ी देर मुझको पंखा तो झल, आसमानी तू जा तिलोत्तमाको बुला ला और वह पंखा रखकर चली गई।

बिमला ने "इशारे से" आसमानी को द्वार पर ठहरने को कहा।

बीरेन्द्र ने दूसरे दासी से कहा "लक्षिमिन? तू मेरे लिये पान तो लगा ला" और वह भी चली गई।

बी०| बिमला सच बता आज तूने श्रृंगार क्यों किया है।

बि०| कुछ काम है।

बी०| क्या काम है बता न?

बि०| अच्छा सुनिए, और कामोद्दीपक कटाक्ष से वीरेन्द्र की ओर देखने लगी और बोली "मैं अपने यार के पास जाती हूं" और तुरन्त वहां से चल खड़ी हुई.

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