दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ बीसवां परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग  (1918) 
द्वारा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह
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बीसवां परिच्छेद।
दीप निर्वाण।

जब से तिलोत्तमा आसमानी के सङ्ग आयेशा से बिदा हुई तब से किसी को उसका पता नहीं मिला। तिलोत्तमा, विमला, आसमानी और अभिराम स्वामी किसी का कहीं पता नहीं मिलता था।

जब मोगल पठानों में सन्धि हो गयी, बीरेन्द्रसिंह और उसके परिजनों का दुःख समझ दोनों दल वालों ने यह स्थिर किया कि बीरेन्द्रसिंह की स्त्री और कन्या को ढूंढ कर मान्दारणगढ़ में स्थापन करें अतएव उसमान, इसाखां और मानसिंह आदि ने बहुत ढूंढा पर उनका कहीं पता न मिला। अन्त को मानसिंह ने निराश होकर एक अपने अनुचर को वहां नियत किया और उससे कह दिया कि 'जब वीरेन्द्रसिंह की स्त्री और कन्या का पता मिले तुम उनको बुला कर यहां स्थापन करके हमारे पास चले आना हम तुमको पुरस्कार देंगे और तुमको दूसरी जागीर देंगे।

यह प्रबंध कर मानसिंह पटने को चले।

मरने के समय कतलूखां ने जगतसिंह से जो कुछ कहा था वह सब राजकुमार को स्मरण था और उन्होंने तन मन धन से उन सवों के ढूंढने में यत्न किया पर व्यर्थ उनका कोई विवरण नहीं मिला।

जब मानसिंह का डेरा गिरने लगा जगतसिंह को वह पत्र स्मरण हुआ जो जङ्गल में मिला था। उसे खोल कर जो देखा तो उसमें केवल इतना लिखा था।

यदि धर्म का भय हो यदि का मय हो तो इस
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पत्र को पढ़ कर आप अकेले इस स्थान पर चट आवे। इति निषदन। अहं ब्राह्मणः।'

पत्र पढ़ कर राजकुमार को बड़ा आश्चर्य हुआ। मन में सोचने लगे कि अब क्या करना उचित है? किसी शत्रु नेन इस पत्र को भेजा हो। परन्तु ब्रह्मशाप का जो बड़ा भय था इस से अपनी सेना को आगे बढ़ने की आज्ञा दी और बोले 'तुम लोग हमारी राह न देखना हम वर्द्धमान अथवा राजमहल में आकर तुम को मिलेंगे।' और आप अकेले उसी शाल बन को चले!

पूर्वोक्त झोपड़ी के समीप पहुंच कर घोड़े को पेड़ में बांध दिया और इधर उधर देखने लगे परन्तु कहीं कोई मनुष्य न देख पड़ा। तब उसके भीतर घुसे देखा तो उसी तरह एक ओर कबर और एक ओर चिता पनी है। चिता पर एक ब्राह्मण नीचे मुंह किये बैठा रो रहा था।

राजकुमार ने पूछा 'महाशय, आपही ने मुझको खुलवाया था?

ब्राह्मण ने सिर उठाया तो राजकुमार ने अभिराम स्वामी को पहिचाना और मन में विस्मय, कौतूहल और आह्माद तीन प्रकार का भाव उत्पन्न हुआ। प्रणाम करके व्यग्रता से बोले--

'मैंने तो आप के दर्शन मिलने के लिये बड़ा उद्योग किया पर क्या कहूं। आए यहां क्या करते है?

अभिराम स्वामी ने आंसू पोछ कर कहा 'अब तो यही रहता हूँ।'

स्वामीजी का उत्तर समाप्त नहीं होने पाया कि युवराज ने फिर पूछा 'आपने मुझको क्यों स्मरण किया? आप रोत क्यों है?

मभिराम स्वामी ने कहा कि 'मैं जिस कारण रो रहा हूँ उसीके लिये बुलाया है तिलोतमा अब मरती है।' [ ८४ ]राजकुमार धीरे से उसी स्थान पर बैठ गए पूर्व कालीन बातें स्मरण होने लगी और कलेजा मसकने लगा। देवालय का प्रथम दर्शन, शैलेश्वर के सामने की प्रतिक्षा, कोठरी का मिलना और परस्पर का रोना, रात की घटना, तिलोत्तमा की मूर्छा, कारागार सम्मिलन, निज संकल्प और सर्वोपरि इस समय वन में का मरना सोचकर राजकुमार का हृदय फटने और अग्नीसा जलने लगा। कुछ देर चुपचाप बैठें रहें अभिराम स्वामी ने कहा 'जिस दिन बिमला ने यवन को बध करके अपने हृदय की हुताशन शीतल की, उस दिन से मैं कन्या दौहित्री को लिये मुसलमानों के भय से नाना स्थान में भ्रमण करता रहा। उसीदिन से तिलोत्तमा दुखित है और रोग का कारण तो तुम जानतेही हो।

जगतसिंह को चोट पर चोट लगी!

'उसी दिन से उसको लिये २ मैं औषध करता फिरता हूँ। मैंने युवा अवस्था में वैद्यक पढ़ा था और अनेक रोगियों को अच्छा भी किया था परन्तु इसके हृदय के रोग की कोई औषध नहीं है। इस स्थान को निर्जन देख आज पाँच सात दिन से यहीं टिका हूँ। दैव संयाग से तुम भी यहां आन पड़े। पहिले मैंने सोचा था कि यदि तिलोत्तमा को आरोग्य न हुआ तो एक बेर तुम से और भेंट करा के उस के चित्त को शान्ति करूँगा इसी लिये तुम को लिखा था मैंन समझा था कि दो दिन में इस का समय और समीप आ जायगा इसी कारण तुम को दो दिन बाद पत्र खोलने को लिखा था। जिस को मैं डरता था वही समय आन पहुँचा है। जीवन दीप निर्वाण हुआ चाहता है।'

यह कह कर अभिराम स्वामी फिर रोने लगे। जगतसिंह भी रोते थे। [ ८५ ]स्वामी ने फिर कहा 'एकाएक तुम को तिलोतमा के समीप ले चलना उचित नहीं है कौन जाने अधिक आनन्द सहन न कर सके। मैंने पहले से उससे कह रक्खा है कि तुम को बुलाया है तुम्हारे आने की सम्भावना है।

मैं पहिले उससे तुम्हारे आने का समाचार कह आऊं फिर तुम को ले चलूं।'

यह कह कर स्वामी जी भीतर चले गये। थोड़ी देर में फिर आकर बोले 'आओ।'

राजपुत्र उनके सङ्ग चलें। देखा तो एक कोने में एक टूटी चारपायी पर जर्जर शरीर तिलोत्तमा पड़ी है। अब भी उसका लावण्य प्रात कालीन नखत की भांति चमकता था। पट्टी के समीप एक विधवा स्त्री बैठी लेप कर रही थी। पहिले राजकुमार ने उस को नहीं चीन्हा--जधानी का देखा बुढ़ापे में पहिचाना नहीं जाता।

जब वे तिलोत्तमा के समीप खड़े हुए उस समय उस की आखें बन्द थी। अभिराम स्वामी ने पुकार कर कहा 'तिलोतमा राजकुमार जगतसिंह खड़े हैं।'

तिलोत्तमा ने आंस खोल कर जगतसिंह की ओर देखा--वह दृष्टि कोमल और स्नेह मयी थी! तिरस्कार का लेश भी न था। देखतेही उसने आंखें नीची कर लीं और आंसू की धारा बहने लगी। राजकुमार से फिर रहा न गया, लज्जा दूर भागी। तिलोत्तमा के पैताने गिर पड़े और रोने लगे।

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