दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ इक्कीसवां परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ ८६ से – ८८ तक

 
इक्कीसवां परिच्छेद ।

स्वप्न ।

पिताहीन अनाथिनी कृशित अवस्था में शय्या पर पड़ी थी और राजकुमार उसके समीप खड़े थे। दिन रात जगतसिंह उसकी सेवा में लगे रहते थे और बार २ उसके मुख की ओर देखते थे।

कहां लश्कर ? कहां सेना ? डेरा उखाड़ सेना पटने पहुंची। नौकर सब क्या हुए ? दारुकेश्वर के तीर पर बैठे अपने प्रभु की राह देख रहे हैं । प्रभु कहां हैं ? मूखती हुई कुसुमलता को अपने अश्रुवारि से सींच रहे हैं वह लता फिर हरी होने लगी। इस संसार में स्नेह के समान कोई व्याधि नहीं है और प्रणय के समान कोई औषधि है, नहीं तो यह हृदयब्याधि असाध्य हो जाती।

जैसे निर्वाणोन्मुख दीप थोड़ा २ तेल का सहारा पाकर यकायक जग उठता है, जैसे ग्रीष्मकाल की सूखी लत्ता अषाद के पानी के पड़तेही लहलहा उठती है, अगतसिंह को पाकर तिलोत्तमा भी उसी भांति दिन प्रति पुनर्जीवित होने लगी। जब कुछ शक्ति हुई तो उठ कर चारपाई पर बैठने लगी और कथा वार्ता करने लगी। मानसिक अनेक अपराध स्वीकार किया। अनेक अन्यथा आशा मन में उत्पन्न हुई और फिर फिर स्वयं नष्ट हुई उसकी सब कथा कह सुनाया। जागते,सोते अनेक स्वप्न देखा था वह कह सुनाया। एक दिन रुनाशय्या पर पड़ी अचेतन अवस्था में एक स्वप्न देखा था वह भी कह सुनाया।

सपैनो बसन्त शोमा परिपूर्ण किसी पहाड़ी पर जगतसिंह के संग कीड़ा कर रही थी बहुत से फूल एकत्र करके दो

माला गूंधी, एल अपने गले में पहिनी और दूसरी जगतसिंह के गले में डाल दी किन्तु राजकुमार की माला तलवार में लग कर टूट गई ! 'अब तुम्हारे गले में माला न पहिनाऊंगी पैर में बेड़ी डालूंगी' यह कहकर उसको बेड़ी का आकार बनाने लगी जब बेड़ी डालने चली तो जगतसिंह हट गए। वह पकड़ने लगी तो वे और हटे। तिलोत्तमा पीछे २ दौड़ने लगी और जगतसिंह पहाड़ी से उतरने लगे। मार्ग में एक झरना मिला, राजकुमार तो फांद कर पार निकल गए तिलात्तमा इधर उधर फिरने लगी, इस आशा से कि पानी जहां कम हो वहां से उतरें पर जिधर देखा उघर और पानी विशेष देख पड़ा और क्रमशः नदी का आकार होगया। इतने में जगतसिंह लोप होगए। करारी उंची थी और वह चलते २ थक गई थी। पैर से खिसक २ कर मिट्टी नदी में गिरती थी और बड़ा भयंकर शब्द होता था। तिलोत्तमा ने चाहा कि फिर ऊपर चढ़े पर चला नहीं जाता था वहीं बैठकर रोने लगी। इतने में कतलुखां की आत्मा आकर मार्ग छेक कर खड़ी हुई और गले की कुसुममाला 'जंजीर' होगई, हाथ की सुमिरनी पैर पर गिर पड़ी। अकस्मात कतलूखां ने उस को घुमा कर नदी में फेंक दिया।

स्वप्न वृत्तान्त समाप्त कर तिलोत्तमा सजल नेत्र कर बोली 'युवराज यह केवल स्वप्न नहीं, मैंन जो फूल की बेड़ी आपके लिये बनाई थी वह वास्तविक लोहे की हो कर मेरे ही पैरों में आ पड़ी। फूल की माला जो मैंने पहनाई थी वह तो असि द्वारा कट गई।'

राजकुमार ने हंस के अपनी कमर से तलवार खोल कर तिलोत्तमा के पैर के नीचे रख दिया और बोले---

'लो मैन मसि तुम्हारे सामने घरदी अब फिर माला

पहिनाभो देखो मै तुम्हारे सामने इस तरवारि को दो खण्ड कर डालता हूं।'

जब तिलात्तमा ने कुछ उत्तर नहीं दिया राजकुमार ने फिर कहा 'प्यारी मैं हंसी नहीं करता।'

तिलोत्तमा ने लज्जा से मुंह नीचा कर लिया।

उसी दिन सन्ध्या समय अभिराम स्वामी कोठरी में बैठे पोथी बांच रहे थे, कि जगतसिंह भी उन के समीप जाकर बैठे और बोले 'महाशय में एक बात पूछता हूं कि तिलोत्तमा अब यहां से दूसरे स्थान को चल सकती है फिर इस टूटे घर में रहने का क्या कारण है ? कल यदि दिन अच्छा है तो मान्दारणगढ़ को चलिये और यदि भापको अस्वीकार न हो तो कन्यादान देकर हमको कृतार्थ कीजिये।'

अमिराम स्वामी पोथी फेंक उठ खड़े हुए और राजकुमार को गले लगा लिया, इसका कुछ ध्यान नहीं हुआ कि पोथी पैर के नीचे दबी है।

जब राजकुमार स्वामी के निकट आरहे थे, बिमला उनके मन का भाव समझ कर पीछे २ चली और बाहर खड़ी होकर सब बात सुनती रही। राजकुमार ने बाहर आकर देखा कि बिमला ने फिर पूर्व भाव धारण कर लिया है और हंस रही है, आसमानी का बाल नोचती है और खिलखिलाती है। आसमानी इस अपमान का कुछ ध्यान न करके बिमला को अपने नाचने की परीक्षादे रही है। राजकुमार बगलिया कर निकल गए।

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