दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ पांचवां परिच्छेद
बीरेन्द्रसिंह का मुखमंडल दीप्तमान हो गया आर बोले 'हां!' बिमला ने दहना हाथ दिखला कर कहा 'इस हाथ का कंकण भी मैंने उतार दिया अब उसका क्या काम है, अब इस को केवल अस्त्र, छूरी आदि भूषण पहिराऊंगी।'
बीरेन्द्रसिंह ने प्रसन्न होकर कहा 'ईश्वर तेरी मनोकामना पूरी करें।'
इतने में जल्लाद ने चिल्ला कर कहा अब 'मैं नहीं ठहर सक्ता।'
बीरेन्द्रसिंह ने बिमला से कहा 'बस अब तुम जाओ।'
बिमला ने कहा 'नहीं, मैं अपनी आंखों से देख लूंगी आज मैं तुम्हारे रुधिर से अपने लाज संकोच को धो डालूंगी।'
'अच्छा जैसी तेरी इच्छा' कहकर बीरेन्द्रसिंह ने जल्लादों को संकेत किया। बिमला देखती रही इतने में ऊपर से कठिन कुठार गिरा और बीरेन्द्रसिंह का सिर भूलोटन कबूतर की भांति पृथ्वी पर लोटने लगा। वह चित्र लिखित क ीसी खड़ी रही न तो उसके आंखों में आंसू आए और न मुंह का रंग पलटा यहां तक कि पलक भी नहीं गिरती थी।
तिलोत्तमा क्या हुई? वह पिता हीन अनाथ कन्या क्या हुई? बिमला भी क्या हुई? कहां से आकर उसने बध भूमि में अपने स्वामी का मरण देखा था? और फिर कहां गयी?
बीरेन्द्रसिंह ने मरते समय अपनी प्रिय कन्या को क्यों नहीं देखा वरन नाम लेते क्रोध के मारे शरीर कांपने लगा? और 'हमारी कन्या नहीं है' कहने का क्या प्रयोजन था? बिमला के पत्र को बिना पढ़े क्यों फेंक दिया? कतलूखां के सामने बीरेन्द्रसिंह ने जो तिरस्कार किया था उसका स्मरण करो–– 'तुम ने मेरे उज्वल कुल में कालिमा लगायी, तिलोत्तमा और बिमला दोनों कतलूखां के उपपत्नी ग्रह में मिलेंगी। संसार की यही गति है! विधना की करतूत ऐसी ही है! रूप, यौवन, सरलता अमलता इत्यादि सब कालचक्र के नीचे पड़कर नष्ट हो जाते हैं।
कतलूखां का नियम था कि जब कोई दुर्ग वा ग्राम पराजय होता था यदि उसमें कोई यौवनवती मनमोहनी पकड़ी जाती तो वह उसकी सेवा में भेजी जाती थी। मान्दारणगढ़ के जय होने के दूसरे दिन कतलूखां ने वहां जाकर बन्दीजनों को यथायोग्य आज्ञा दी और उनकी रक्षा के निमित्त सेना नियोजित की। बिमला और तिलोत्तमा को अपने 'हाथ' में ले आने की आज्ञा दी। इसके अनन्तर और और कामों में लगा रहा। उसने यह सुना था कि राजपूत सेना अपने सेनप जगतसिंह के बन्दी होने का समाचार सुन कहीं आस पास आक्रमण करने के उद्योग में है अतएव तद्विषय उचित प्रबन्ध करने लगा और इसी कारण उसको अपने नवप्राप्त दासी की सेवा के स्वाद लेने का समय नहीं मिला।
बिमला और तिलोत्तमा दोनों दो स्थान पर रक्खी गयीं जिस स्थान में पिताहीन तिलोत्तमा अपने हेमबरण शरीर को धूलिधूसरित कर रही थी उसके देखने की चेष्टा पाठकों के मन में कदापि न होगी क्योंकि बने २ के तो सब साथी होते हैं बिगड़े पर कोई बात नहीं पूछता! बसन्त ऋतु में बारिसंचारित सुन्दर सुगंधमय नवलता को हिलते हुए देख किसका मन नहीं चलायमान होता? वही लता जब किसी आंधी के कारण अपने आधार वृक्ष समेत भूमि पर गिर पड़ती है तो वृक्ष को सबलोग देखते हैं लता को कोई नहीं देखता। लकड़हारे लकड़ी काट लेजाते हैं और वह लता पैरों के नीचे कुचल जाती है।
अब जहां चपल, चतुर, रसिक, दुःखी किन्तु धीरधारी मलिन रूप बनाये बिमला बैठी है वहां चलो।
क्या यही बिमला है? है? है? है! यह क्या दशा हुई, माथे में धूलि भरी है। वह बनारसी दुपट्टा क्या हुआ? वह कारचोबी अंगिया भी तो नहीं है। बस्त्र भी मैला हो गया है और कई स्थान पर फटा भी है। शरीर पर कोई आभरण भी नहीं है। आंखें फूल आई हैं। वह कटाक्ष भी नहीं है। मस्तक में घाव कैसा है? रुधिर बह रहा है।
बिमला उसमान की परीक्षा लेती है।
पठान कुल तिलक उसमान सर्वदा युद्ध को अपना साधन और धर्म समझता था और जय सिध्यर्थ कोई उपाय उठा नहीं धरता था किन्तु पराजितों पर निष्प्रयोजन किसी प्रकार का अत्याचार नहीं होने देता था। यदि कतलूखां स्वयं बिमला और तिलोत्तमा के पीछे न पड़ता तो उसमान उनको किसी प्रकार बन्दी न होने देता। उसी की कृपा से बिमला ने अपने मरते स्वामी का मुंह देखने पाया था और जब उसने जाना कि वह बीरेन्द्रसिंह की स्त्री है उस दिन से और भी दया करने लगा?
उसमान कतलूखां का भतीजा था इसलिये वह अन्तःपुर इत्यादि सब स्थानों में जासक्ता था! जहां कतलूखां का बिहारगृह था वहां उसका पुत्र भी नहीं जासक्ता था और उसमान भी नहीं जा सकता था किन्तु उसमान कतलूखां का दहिना हाथ था उसी के पराक्रम से उडिस्सा अधिकार दामोदर नदी पर्यन्त पहुंचा, अतएव पुरजन सब उसको कतलूखां के समान जानते और मानते थे।
इसीलिये आज प्रातःकाल बिमला के प्रार्थनानुसार, मरते समय उस्से उसके पतिसे साक्षात हुआ।
बिमला ने अपने बिधवा होनेके दूसरे दिन जो कुछ अलंकार उसके पास था उसने उतार कर कतलूखां नियोजित दासी को दे दिया।
दासी ने पूछा 'मुझको क्या आज्ञा होती है'।
बिमला ने कहा 'जैसे तू कल उसमान के पास गई थी उसी प्रकार एक बेर और जाओ, कहा कि मैं उनको देखा चाहती हूं। और यह भी कहना कि इस बेर से बस अब तीसरी बार क्लेश न दूंगी।'
दासी ने जाकर वैसाही कहा। उसमान ने कहला भेजा उस महल में हमारे जाने से दोनों की हानि है, उनसे कहो कि हमारे घर आवें।
बिमला ने पूछा 'मैं जाऊंगी कैसे?' दासी ने उत्तर दिया कि उन्होंने कहा है 'मैं उपाय कर दूंगा!'
सन्ध्या समय आयेशा की एक दासी आकर प्रहरी से कुछ कह बिमला को उसमान के समीप ले चली।
उसमान ने कहा 'मैं तुम्हारा और कोई उपकार कर सक्ता हूं?'
बिमला ने कहा एक छोटीसी बात है 'राजकुमार जगतसिंह अभी जीते हैं?'
उ।–– हां जीते हैं।
बि।–– स्वाधीन हैं कि बन्दी?
उ।–– बन्दी तो हैं पर अभी कारागार में नहीं गए हैं। उनके शरीर में अस्त्रों के घाव बहुत हैं इसलिये अभी चिकित्सालय में हैं।
बिमला ने सुनकर कहा 'सब अमंगलही है। भाग्य को क्या करें! जब राजपुत्र आरोग्य हो जाय मेरी यह याचना है कि यह पत्र उनको दे देना अभी अपने पास रक्खो।'
उसमान ने पत्र फेर कर कहा 'यह काम हमारे योग्य नहीं है। राजपुत्र चाहे किसी अवस्था में हों बन्दी तो है। बन्दियों के पास बिना पढ़े हम लोग कोई पत्र नहीं जाने देते और स्वामी की आज्ञा भी ऐसी ही है।'
बिमला ने कहा, इसमें कुछ आप की निन्दा स्तुति नहीं लिखी है आप संशय न करें। और स्वामी की आज्ञा? स्वामी तो आपही हैं।'
उसमान ने कहा 'और २ कामों में तो मैं पिता के बिरुद्ध कर भी सक्ता हूं पर ऐसे विषयों में कुछ नहीं कर सक्ता। तुम्हारा कहना है कि इस पत्र में कोई बुरी बात नहीं लिखी है मैं मानता हूं पर नियम बिरुद्ध नहीं कर सकता। मुझ से यह काम न होगा।
बिमला ने उदास होकर कहा 'अच्छा तो पढ़कर दे देना।'
उसमान ने पत्र ले लिया और पढ़ने लगे।
'युवराज! मैं ने बचन दिया था कि एक दिन पता बताऊंगी। आज वह दिन आगया, मैंने स्थिर किया था कि तिलोत्तमा को राजसिंहासन पर बैठा कर पता बताती पर वह न
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