दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग/ छठवां परिच्छेद

दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक गदाधर सिंह

वाराणसी: माधोप्रसाद, पृष्ठ २१ से – २५ तक

 

उनके शरीर में अस्त्रों के घाव बहुत हैं इसलिये अभी चिकित्सालय में हैं।

बिमला ने सुनकर कहा 'सब अमंगलही है। भाग्य को क्या करें! जब राजपुत्र आरोग्य हो जाय मेरी यह याचना है कि यह पत्र उनको दे देना अभी अपने पास रक्खो।'

उसमान ने पत्र फेर कर कहा 'यह काम हमारे योग्य नहीं है। राजपुत्र चाहे किसी अवस्था में हों बन्दी तो है। बन्दियों के पास बिना पढ़े हम लोग कोई पत्र नहीं जाने देते और स्वामी की आज्ञा भी ऐसी ही है।'

बिमला ने कहा, इसमें कुछ आप की निन्दा स्तुति नहीं लिखी है आप संशय न करें। और स्वामी की आज्ञा? स्वामी तो आपही हैं।'

उसमान ने कहा 'और २ कामों में तो मैं पिता के बिरुद्ध कर भी सक्ता हूं पर ऐसे विषयों में कुछ नहीं कर सक्ता। तुम्हारा कहना है कि इस पत्र में कोई बुरी बात नहीं लिखी है मैं मानता हूं पर नियम बिरुद्ध नहीं कर सकता। मुझ से यह काम न होगा।

बिमला ने उदास होकर कहा 'अच्छा तो पढ़कर दे देना।'

उसमान ने पत्र ले लिया और पढ़ने लगे।


छठवां परिछेद।
बिमला का पत्र।

'युवराज! मैं ने बचन दिया था कि एक दिन पता बताऊंगी। आज वह दिन आगया, मैंने स्थिर किया था कि तिलोत्तमा को राजसिंहासन पर बैठा कर पता बताती पर वह न होने पाया अब तो यह बोध होता है कि कुछ दिन में सुन्ने में आवेगा कि तिलोत्तमा भी एक थी और उसके सङ्ग बिमला भी कोई थी इसीलिये आपको यह पत्र लिखती हूँ। मैं बड़ी पापिन हूं मैंने अनेक अनुचित कर्म किये हैं। जब मैं मर जाऊंगी लोग निन्दा करेंगे और मुझ को अपवादक कहेंगे उस समय कौन मुझको कलंकशून्य सिद्ध करेगा? ऐसा कौन हितकारी है? हां एक है और वह थोड़ेही दिनों में इस लोक को त्याग परलोक को सिधारेगा, अभिराम स्वामी से मैं उरिन नहीं हो सकी। मैंने विचारा था कि एक दिन आपकी दासियों में मैं भी हूंगी। आपने भी एक दिन हमारे निजों की भांति काम किया है। हा! मैं यह बात किस्से कह रही हूं? अभागिनियों के दुर्भाग्य ने संपूर्ण हितकारियों का नाश कर डाला। जो हो आप हमारी इस बात का स्मरण रखना। जब लोग हमको कुलटा और गणिका कहेंगे तो आप कहियेगा कि बिमला नीच थी, अभागिन थी किन्तु गणिका नहीं थी। जिनका अभी परलोक हुआ है उनके साथ इस दासी का शास्त्रनियमानुसार पाणिग्रहण हुआ था। बिमला विश्वासघातिनी नहीं है।

अद्यपर्यन्त यह बातें छिपी थीं आज इसको कौन पतियाता है? यदि पत्नी थी तो दासी का काम क्यों करती थी? सुनिये मान्दारणगढ़ के समीपवर्त्ती एक ग्राम में शशिशेखर भट्टाचार्य रहते थे। युवा अवस्था में उन्होंने रीत्यानुसार विद्याध्ययन किया किन्तु इस्से उनका स्वाभाविक दोष दूर नहीं हुआ। और सब गुण उनमें बहुत अच्छे थे केवल एक दोष था किन्तु वह तो जवानी का दोष था।

मान्दारणगढ़ के जयधरसिंह के एक सेवक की स्त्री बड़ी सुन्दर थी। स्वामी उसका सेना में सिपाही था इसकारण प्रायः बाहर रहा करता था। शशिशेखर की आंख उसपर पड़ी थोड़ेही दिनों में उसका पैर भर आया।

अग्नि और पाप दोनों छिप नहीं सक्ते यह बात शशिशेखर के बाप के कान तक पहुंची। उन्होंने कुलकलंक के छुड़ाने के लिये उस स्त्री के स्वामी को तुरन्त बुलवा भेजा और अपने पुत्र का उचित शासन किया। इस अपमान के कारण शशिशेखर उदास होकर घर से चल दिये और काशी में पहुंचे। वहां एक महान पण्डित का नाम सुन उन्हीं के पास पढ़ने लगे। वेद में अच्छे थे ज्योतिष में भी बहुत बढ़े, अध्यापक का भी मन पढ़ाने में लगने लगा।

शशिशेखर एक शूद्री के गृह के समीप रहते थे उसको एक जवान कन्या थी वह प्रायः भट्टाचार्य महाराज की सेवा में रहा करती थी उस को इनसे गर्भ रह गया और मेरा जन्म हुआ। सुनतेही गुरु ने कहा 'शिष्य! मेरे यहां पापियों का काम नहीं है। जाओ अब काशी में मुंह न दिखलाना।

शशिशेखर लज्जा के मारे काशी से चल दिये और मेरी माता को भी घर से निकाल दिया।

बेचारी मुझको लेकर एक मड़ैया में रहने लगी और मजूरी करके पेट पालती थी। कोई बात नहीं पूछता था। पिता का भी कुछ समाचार नहीं मिला। कई वर्ष के अनन्तर एक धनी पठान बंगदेश से दिल्ली जाते समय काशी में उतरा था रात के कारण कहीं टिकने को स्थान नहीं मिलता था। उसके सङ्ग में उसकी स्त्री और एक छोटासा बालक भी था। उन्होंने हमारी मां की मड़ैया के समीप आकर निवेदन करके रात के टिकने की आशा मांगी। पठान के सङ्ग एक सेवक भी था। माता मेरी दरिद्र तो थी पर दयालु भी थी। धन की लालच से या जैसे हो उसने उनको स्थान दिया और एक ओर दीप जला कर पठान और उसके साथी लेटे।

उन दिनों काशी में लड़के बहुत चोरी जाते थे। मैं छ: वर्ष की थी मुझको सुध नहीं है किन्तु माता के मुंह से जैसा सुना है कहती हूं।

रात को दीप जल रहा था कि एक चोर सेन देकर पठान के बालक को ले चला। मेरी आंख खुली और मैंने चोर को देखा। उसको बालक ले जाते देख मैं चिल्लाई और सब जाग पड़े।

पठान की स्त्री ने देखा कि शय्या पर बालक नहीं है और चिल्लाने लगी। चोर उस समय चारपाई के नीचे था पठान ने उसका बाल पकड़ कर खींच लिया। जब चोर ने बहुत बिन्ती की तो उन्होंने तरवार से उसके कान में छेद करके छोड़ दिया।

यहां तक पढ़ कर उसमान में विमला ने पूछा 'तुम्हारा कभी और भी कोई नाम था?'

विमला ने कहा हां था पर वह मुसलमानी नाम था इसलिये पिताने दूसरा नाम रक्खा।

'वह नाम क्या था? माहरू!'

विमला ने विस्मित होकर कहा 'आप कैसे जानते हैं?'

उसमान ने कहा 'मैं वही बालक हूं जिसको चोर लिये जाता था।'

विमला को बड़ा आश्चर्य हुआ उसमान फिर पत्र पढ़ने लगे।

दूसरे दिन जाते समय पठान ने माता से कहा 'तुम्हारी कन्या ने जैसा मेरा उपकार किया है उसके प्रति उपकार करने की हम को सामर्थ नहीं है। परन्तु तुमको यदि कोई वस्तु चाहती हो तो मुझ से कहो मैं दिल्ली जाता हूं वहां से भेज दूंगा यदि द्रव्य चाहिये तो वह भी भेज सक्ता हूँ।

माता ने कहा 'मुझको धन नहीं चाहिये। मेरी मजूरी मुझको अच्छी है। किन्तु यदि आपकी पहुंच जहाँपनाह तक हो तो ––'

बात पूरी नहीं होने पाई कि पठान ने कहा 'हां ठीक है मैं राजदरबार में तुम्हारा काम कर सक्ता हूं'।

माता ने कहा 'तो वहां इस कन्या के बाप का पता लगा कर मुझको लिख भेजियेगा'।

पठान ने हुंकारी भरी और एक अशरफी निकाल कर माता के हाथ धरी और उसने ले लिया। अपने कहने के अनुसार उसने वहां जाकर पिता की खोज में बहुतेरे राजपूत भेजे पर कहीं पता न लगा।

चौदह वर्ष के अनन्तर राजपूतों ने लिखा कि पिता दिल्ली में हैं शशिशेखर नाम छोड़ कर अभिराम स्वामि नाम रक्खा है। जब यह सम्बाद आया माता मेरी मर चुकी थी।

यह सम्बाद सुन कर फिर मुझ से काशी में न रहा गया। कुल भर में मेरे केवल पिता जीते थे और सो भी दिल्ली में, तो मैं काशी में क्या करती। अतएव मैं अकेली पिता के पास चली गई। पिता मुझको देखकर पहिले रूखे हुए परन्तु जब मैं बहुत रोई गाई तब मुझको दासी हो के रहने की आज्ञा दी और माहरू नाम छोड़ विमला नाम रक्खा। मैं पिता के घर में रह कर रात दिन उनकी सेवा में लगी रहती थी और जिस प्रकार वह प्रसन्न रहते वही काम करती थी। पिता भी मेरी सेवा देख कर स्नेह करने लगे।

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