दुखी भारत/९ अछूत—उनके मित्र और शत्रु

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १२६ से – १३६ तक

 
नवाँ अध्याय
अछूत—उनके मित्र और शत्रु

मिस मेयो ने अपनी पुस्तक के कुछ अध्यायों में भारतवर्ष की अस्पृश्यता का वर्णन किया है। इन अध्यायों के मुख्य विषय के, कि भारतवर्ष में अस्पृश्यता है, सत्य होने में कोई सन्देह नहीं। परन्तु केवल सत्य का ही निरूपण करना तो मिस मेयो का उद्देश्य नहीं है। मिस मेयो को एक चञ्चल पत्रकार की सी शिक्षा मिली है और उसे सनसनी उत्पन्न करनेवाले काल्पनिक दृश्यों के उपस्थित करने में बड़ा मज़ा आता है। यही कारण है कि उसने तिल का ताड़ बनाया है और बहुत सी असत्य बातें गढ़ ली हैं। वास्तविकता जितने का प्रमाण दे सकती है उससे कहीं अधिक गाढ़ा रङ्ग उसने अपने चित्रों पर चढ़ाया है। इस सम्बन्ध में हमारा जो उज्ज्वल कृत्य है—सुधार आन्दोलनों के साथ शीघ्रता से बढ़ती हुई सहानुभूति और उद्धार कार्य्य आदि—उसका कहीं अणु-मात्र भी अस्तित्व नहीं मिलता। भारतीय सुधारकों को जितना मिलना चाहिए उतना भी श्रेय देने को वह कदापि तैयार नहीं। वह स्वभावतः यही सोचती है कि नीच जातियों और अछूतों का उद्धार एक-मात्र ईसाई धर्म के द्वारा हो सकता है। वह आपके दिल में यह बात जमाना चाहती है कि अछूतों का सबसे सच्चा मित्र ब्रिटिश शासक है। वही उन्हें उच्च जातियों के अत्याचार से बचाने का सदा प्रयत्न करता रहता है। अन्यत्र की भाँति यहाँ भी उसके वर्णन में कुछ सत्य है, कुछ असत्य है और सबसे भयङ्कर असत्य का वह रूप है जिसे अर्द्ध सत्य कहते हैं।

उदाहरण के लिए उसने अपनी पुस्तक के १५२ पृष्ठ पर अपना जो वक्तव्य प्रकाशित किया है उसी पर ध्यान दीजिए। वह हमें यह विश्वास दिलाना चाहती है कि जो अछूत ईसाई-धर्म ग्रहण कर लेते हैं वे 'सब जातिबन्धन से मुक्ति पा जाते हैं।' खेद है कि बात ऐसी नहीं है। मैसूर की सेंसस रिपोर्ट[] में मिस्टर वि॰ एन॰ नरसिंह आयङ्गर के निम्न-लिखित अनुभव मदरास प्रान्त के लिए भी उतने ही सत्य हैं जितने कि मैसूर के लिए। कुछ कम या अधिक वे समस्त भारतवर्ष के सम्बन्ध में लागू हो सकते हैं। मिस्टर आयङ्गर लिखते हैं:—

"ईसाइयों के 'रोमन कैथलिक सम्प्रदाय का मत हिन्दुनों में बड़ी शीघ्रता और सरलता के साथ प्रचलित हो सकता है क्योंकि धर्म परिवर्तन करनेवालों को स्वजातीय और सामाजिक रवाजों से, जो भारतीय समाज के बड़े प्रबल अङ्ग हैं, पृथक् करने की उसकी नीति नहीं है। जन-गणना की खोजों के मार्ग में रोमन कैथलिक ईसाइयों के कतिपय ऐसे वर्ग मिले हैं जो शान्ति के साथ अपनी इन सब रीतों और रिवाजों को मानते चले आरहे हैं जिन्हें स्वधर्म परिवर्तन से पहले मानते थे। वे अब भी विवाहों और उत्सवों के अवसर पर 'कलश' की पूजा करते हैं, ब्राह्मण ज्योतिषियों और पुरोहितों को बुलाते हैं, हिन्दू धार्मिक चिह्नों का उपयोग करते हैं और दूसरी भिन्न भिन्न आनन्दमय रिवाजों को पकड़े हुए हैं। उससे उन्हें एक बड़ी सुविधा यह है कि उनका, अपने हिन्दू स्वजातियों से, जो प्रति दिन काम पड़ता रहता है, उसमें बहुत कम अड़चनें उपस्थित होती हैं।"

भारतवर्ष की १९११ ई॰ की जन-गणना के विवरण में लिखा है कि 'साधारणतया यह कहा जा सकता है कि कैथलिक सम्प्रदाय तो जाति-विचार को सहिष्णुता से देखता है परन्तु प्रोटेस्टैंट सम्प्रदाय इसका विरोधी है[]। उसी विवरण में एक कैथलिक पादरी का यह मत उद्धृत किया गया है कि 'दक्षिण भारत के ईसाई-संघों की रचना इस सिद्धान्त पर हुई है कि किसी व्यक्ति को ईसाई बनाने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह व्यक्ति अपनी जाति और जातीय गुणों को त्याग दे। वे, अर्थात् ईसाई धर्म में सम्मिलित किये गये लोग, सदैव ऐसे ही रहे हैं (अर्थात् अपने स्वाभाविक और भौगोलिक अर्थ में वे सदा हिन्दू रहे हैं) और जिस जाति से मत परिवर्तन कर वे ईसाई हुए हैं, उसी जाति के अधिकार और दर्जे उन्हें प्राप्त हुए हैं। १९२१ ई॰ की जन गणना के अनुसार ब्रिटिश भारत में गोरे, ऐंग्लो इंडियन और भारतीय ईसाइयों की सम्मिलित संख्या ४७,५४,०६४ थी। इनमें लगभग ३० लाख तो केवल मद्रास प्रान्त और दक्षिणी राज्यों में मिलाकर थे। सम्पूर्ण भारत में रोमन कैथलिक सम्प्रदायवालों की संख्या १८,२३,०७९ थी। इनके अतिरिक्त एक बड़ी संख्या 'सीरियन' ईसाइयों की और अन्य ईसाई सम्प्रदायों की है जो कि जाति-बन्धन से बँधे हुए हैं। दक्षिण भारत में रोमन कैथलिक सम्प्रदाय के गिर्जों में ईसाइयों की भिन्न भिन्न जातियों के बैठने के लिए विशेष स्थान नियुक्त कर दिये जाते हैं।

दलितोद्धार के सम्बन्ध में सहानुभूति और उत्साह प्रदर्शित करने के लिए मिस मेयो ने ब्रिटिश सरकार पर बधाइयों की जो वृष्टि की है वह वास्तविकता से और भी दूर है। मिस मेयो यह सिद्ध करना चाहती है कि अब जो उच्च जाति के हिन्दू अपनी नीची जाति के भाइयों की उद्धार की चिन्ता प्रदर्शित कर रहे हैं उसका कारण मानवीय सद्भाव इतना नहीं है जितना उनका यह विचार कि अछूतों की उपेक्षा करने से उनका समाज राजनैतिक ख़तरे में पड़ जायगा। परन्तु यदि राजनैतिक उद्देश्य से हिन्दुओं के कतिपय वर्ग प्रेरित हुए भी हैं तो इससे कोई आश्चर्य्य नहीं करना चाहिए क्योंकि नौकरशाही के तो समस्त प्रेम, घृणा और पक्षपात के भाव पूर्णरूप से इन्हीं उद्देशों पर अवलम्बित रहते हैं। नौकरशाही की सहानुभूति के लिए अछूत अभी बिलकुल हाल का आविष्कार है। नौकरशाही को अब यह पता चला है कि भारतवासियों की स्वराज्य की आकांक्षाओं के विरुद्ध अछूत बड़े ही मूल्यवान् हथियार हैं। भारतवर्ष में राष्ट्रवादियों के प्रजातान्त्रिक शासन की माँग के विरुद्ध अछूतों का होना सरकार के लिए एक बड़ा बहाना मिल गया है। उनके नाम पर सरकार व्यवस्थापिका सभाओं में अपने आदमियों के लिए कुछ स्थान सुरक्षित रख सकती है। अछूतों को मताधिकार देना सरकार के लिए ख़तरे की बात हो सकती है। परन्तु स्वार्थसिद्धि के लिए उसे अपनी पैतृक भावना यथेष्ट सुन्दर प्रतीत हो रही है और उस दशा में जब कि अछूतों की ओर उसे व्यवस्थापिका सभाओं में अधिक नामज़द सहायक मिल सकते हैं।

दलित जातियों पर नौकरशाही की कृपा का एक रूप जो प्रकट हुश्रा है वह यह है कि उसने इन जातियों से सम्बन्ध रखनेवाले लोगों की संख्या मनमाने तौर से बढ़ा कर दिखाई है। हमें मर्दुमशुमारी के एक अफ़सर की बात मालूम है जिसने अपनी इच्छा के अनुसार क़लम की एक चाल में सहस्रों जङ्गली जातियों को, जिन्होंने अपने आपको हिन्दू बतलाया था, पशुपूजकों में सम्मिलित कर दिया। अछूतों की संख्या निश्चित करने में जिस भाव से काम लिया गया था वह भी ठीक इसी प्रकार काल्पनिक प्रतीत होता है। कदाचित् इस लीला में कोई नियम और राजनैतिक उद्देश्य भी है। भारत सरकार ने पहले पहल १९१७ ईसवी में अपनी शिक्षा-सम्बन्धी पञ्च-वार्षिक रिपोर्ट में अछूतों की संख्या देने की चेष्टा की थी। उस पञ्च-वार्षिक रिपोर्ट में दी गई सूची के अनुसार जिन लोगों की गणना दलित जातियों में की गई थी, उनकी संख्या ३ करोड़ १ लाख या ब्रिटिश भारत[] की हिन्दू और जङ्गली जातियों की संख्या की १९ प्रतिशत थी।

तब से इस संख्या में बड़ी वृद्धि हुई है। और स्वयं १९२१ के विवरण में कुल संख्या ५ करोड़ २१ लाख के लगभग पहुँच गई। सम्भवतः इस अङ्क में बहुत-सी ऐसी जातियाँ सम्मिलित कर ली गई हैं जो वास्तव में अछूत हैं। बात यह है कि 'जो जाति एक स्थान पर अछूत या दलित समझी जाती है उसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि दूसरे स्थान पर भी वह ऐसी ही समझी जाय।' परन्तु मर्दुमशुमारी के अफ़सर का अनुमान है कि यह संख्या ५ करोड़ ५ लाख और ६ करोड़ के बीच में होगी। यहाँ हम भी एक अनुमान कर सकते हैं। सर हेनरी शार्प की शिक्षा-सम्बन्धी रिपोर्ट में ब्रिटिश भारत की दलित जातियों की कुल संख्या ३ करोड़ १ १/२ लाख दी हुई है। इस गणना के अङ्कचक्र में आदि बाशिन्दों की संख्या लगभग १ करोड़ दी हुई है और क़ानून न माननेवाली जातियों की संख्या १/२ लाख है। तीनों क़िस्मों का पृथक् पृथक् दिखाया जाना अच्छा ही था पर यदि आपको अछूतों के लिए बृहत् संख्या की आवश्यकता हो तो इन तीनों संख्या-योगों को एक में सम्मिलित कर देने से सरल उपाय और क्या हो सकता है? इस सरल प्रयोग से आपको ब्रिटिश भारत के लिए लगभग ४ करोड २ लाख की संख्या प्राप्त हो जायगी। जिसका यह अर्थ हुआ कि सम्पूर्ण भारत में मिलाकर यह संख्या ५ करोड़ २ लाख होगी। क्या इसी सरल प्रयोग के द्वारा १६२१ ई॰ के मर्दुमशुमारी के अफ़सर ने अछूतों की संख्या निश्चित की है?[]

भारत-सरकार के वार्षिक कार्य्य-विवरण के सम्पादक श्रीयुत कोटमैन ने अधिक बड़ी संख्या को स्वीकार करके परिस्थिति को सरल कर दिया है। वे सर्वत्र ६ करोड़ अछूतों का उल्लेख करते हैं। मिस मेयो और भी आगे बढ़ती है और केवल ब्रिटिश भारत में ही ६ करोड़ अछूत बतलाती है। सरकारी रिपोर्ट में दिये गये अङ्क ५ करोड़ ३ लाख से ६ करोड़ तक सम्पूर्ण भारत के लिए हैं। इसी में देशी रियासतें भी सम्मिलित हैं। और भी भयङ्कर परिणाम निकालने के लिए मिस मेयो ने इन अङ्कों का बड़ी चतुरता के साथ प्रयोग किया है।

१९१७ ई॰ में अर्थात् सुधार क़ानून के कार्य्यरूप में परिणत, होने से कुछ ही समय पूर्व सरकार को अछूतों का राजनैतिक मूल्य भली भाँति ज्ञात नहीं था। इसलिए उस समय वह उन पर अपनी कृपा का व्यर्थ व्यय भी नहीं कर रही थी।

संयुक्त-प्रान्त में अछूतों की कुल संख्या ८३,७४,५४२ बतलाई गई थी। इनमें से केवल १०,९२४ पढ़ते थे। अर्थात् ८०० में १ स्कूल में था। पञ्जाब में कुल संख्या २१,०७,५९३ बतलाई गई थी। उसमें से केवल ३,४५३ स्कूल में थे। मध्यप्रान्त में कुल संख्या ३० लाख थी। उसमें में केवल २६,६६८ स्कूल में थे। केवल मदरास में अछूतों की जन-संख्या ५६,८६,३४२ थी। इसका लगभग १/२ स्कूलों में था। इन अङ्कों में ईसाई मत ग्रहण करनेवाले अछूत भी सम्मिलित हैं। बङ्गाल में अछूतों की संख्या ६७,४२,९१३ थी। इसमें से करीब ८१,००० पढ़ते थे। बम्बई में कुल संख्या १६,३५,८९६ थी, जिसमें से करीब ३०,५६८ शिक्षा पा रहे थे। बिहार उड़ीसा में इनकी संख्या १२,३६,३०० थी जिसमें से १९,८४१ शिक्षा पा रहे थे। १९१७ ई॰ की सरकारी रिपोर्ट का वह सम्पूर्ण पैराग्राफ़ पढ़ने में बड़ा आनन्द आता है जिसमें अछूत जातियों में शिक्षा-प्रचार के उपायों का विवरण दिया गया है। एक बात यहाँ ध्यान में रखने की है कि इस सम्बन्ध में मिस मेयो जब ईसाई धर्मप्रचारकों के उद्योगों का वर्णन करती है तब वह भारतीय संस्थानों में केवल अखिल भारतवर्षीय सेवा-समिति का उल्लेख करती है और शेष किसी का, आर्य्यसमाज तक के कार्य्यों का कहीं नाम भी नहीं लेती।

अछूतों में हिन्दुओं की भिन्न भिन्न संस्थाएँ शिक्षा-प्रचार के लिए जो कार्य्य कर रही हैं उसका संक्षिप्त विवरण सरकारी पञ्च-वार्षिक रिपार्ट[]में इस प्रकार मिलता है:—

"मद्रास में यह समस्या विशेष महत्त्व की है। क्योंकि वहाँ परियार, पल्ला, मला, मदिगा, हुलिया और अन्य कई एक जातियाँ पंचम (चाण्डाल) समझी जाती हैं। इन चाण्डालों की संख्या बहुत बड़ी है। इस जाति में रोमन कैथलिक और प्रोटेस्टैंट ईसाइयों के दोनों सम्प्रदाय बड़ी लगन से अपना प्रचार-कार्य्य करते रहे हैं और उन्होंने बहुत से चाण्डालों को ईसाई धर्म में सम्मिलित भी कर लिया है। शिक्षा-विभाग के स्कूलों की संख्या बढ़ गई है। और इन दलित जातियों के उद्धार के कार्य में हिन्दू समाज भी बहुत उत्साह दिखा रहा है। स्कूलों में पञ्चमों के बालकों की संख्या ७२,१९० से बढ़कर १,२०,६०७ हो गई है। केवल पञ्चमों के लिये खोले गए ख़ास स्कूलों का व्यय ६.०८ लाख रुपये से बढ़कर ८.७४ लाख रुपये हो गया है। इसमें सरकारी सहायता ४.८ लाख रुपये हैं। बम्बई में अछूतों के पृथक् स्कूलों की संख्या ५७६ है। इनमें से २११ डिस्ट्रिक्ट बोर्डों के प्रबन्ध से चलते हैं, ८५ म्यूनिसिपैलिटियों के प्रबन्ध से। और २८० स्कूलों को सार्वजनिक संस्थाएँ चलाती हैं। अन्त के २८० स्कूलों के चलाने में मुख्य भाग ईसाई मिशन का है। परन्तु पूना और बम्बई की दलितोद्धार समिति का भी इसमें एक भाग है। इस समिति को सरकारी सहायता भी मिलती है। छात्रों की संख्या २६,२०४ से बढ़कर ३०,५६८ हो गई है। यह सूचित किया गया है कि बङ्गाल में अत्यन्त निम्न जाति के बालकों को भी आरम्भिक पाठशालाओं में भर्ती होने में विशेष कठिनाई नहीं पड़ती। परन्तु तो भी जहाँ इनकी बस्तियाँ अधिक हैं वहाँ सरकार ने इनके लिए पृथक् स्कूल खोल दिये हैं। भारतीय संस्थाओं में बङ्गाल-समाज-सेवा-समिति और अछूतोद्धार-समिति-बङ्गाल और आसाम ने क्रमशः १९ और ६२ स्कूल खोले हैं। संयुक्त-प्रान्त में बोर्डों को हाल ही में यह आज्ञा दी गई है कि जहाँ आवश्यकता और माँग हो वहाँ वे अछूतों और दलित जातियों के लिए निःशुल्क पाठशालाएँ खोलें। रिपोर्ट ने इस दिशा में किये गये उद्योगों की गिनती गिनाई है परन्तु यह भी स्वीकार किया है कि फल अभी तक बड़ा निराशाजनक है। पञ्जाब की रिपोर्ट में ४४ पृथक् स्कूलों का और उनमें पड़नेवाले १,०२२ छात्रों का उल्लेख है। और नक़शे से पता चलता है कि सब प्रकार के स्कूलों में मिलाकर ३,४९१ अछूत बालक शिक्षा पा रहे हैं। अछूत जातियों के लिए शिक्षा-प्रचार का आन्दोलन दृढ़ता पकड़ रहा है; मुख्यतः ईसाई मिशन और आर्यसमाज के उद्योगों के द्वारा। बिहार उड़ीसा में अछूतों के ४१ पृथक स्कूल हैं और इन पर तथा इसी प्रकार के अन्य कार्य्यों पर ७,५९० रुपया व्यय किया गया। मध्य-प्रान्त में अछूतों के ४२ स्कूल हैं जिनमें से आधे से अधिक ईसाई प्रचारकों द्वारा चलाये जाते हैं। पर इस प्रकार की शिक्षण-पद्धति को सरकार की ओर से प्रोत्साहन नहीं मिला। क्योंकि उसका यह सिद्धान्त है कि सर्व-साधारण स्कूलों से केवल जाति-भेद के कारण कोई बालक पृथक नहीं किया जा सकता। और पृथक् स्कूलों को प्रोत्साहन देना मानों इस सिद्धान्त को निर्बल करना है। जातिगत विरोध का भाव धीरे धीरे मिटता जा रहा है। और अछूतों के बालक पूर्व की अपेक्षा अब अपमानजनक बर्ताव के भय से सार्वजनिक पाठशालाओं में भर्ती होने से कम सङ्कोच करते हैं। दिल्ली में १६ मिशन स्कूल हैं और १ म्यूनिसिपल स्कूल।"

१९१७ ई॰ से, अर्थात् जब से सरकार ने भारत में राजनैतिक ध्येय के सम्बन्ध में अपनी नीति की घोषणा की तब से दलित जातियों से बहुत कुछ राजनैतिक लाभ उठाया गया है। स्वराज्य आन्दोलन के विरुद्ध ब्रिटिश विरोधियों के हाथ में वे एक अमोघ अस्त्र हैं। भारतवर्ष के सरकारी कर्मचारी ही नहीं किन्तु लन्दन 'टाइम्स' जैसे ब्रिटिश समाचारपत्र भी इन जातियों की पिछड़ी हुई दशा और राष्ट्रवादी भारतीयों के विरुद्ध इनकी 'राजभक्ति प्रदर्शन' का प्रायः प्रयोग करते हैं। विशेष अवसरों पर विशेष प्रदर्शन किये जाते हैं और उनका व्यय केन्द्रीय या प्रान्तीय शासन के अधीन गुप्त और प्रकाशन कोष से दिया जाता है। एक ऐसे ही प्रदर्शन ने मिस मेयो की पुस्तक के एक अध्याय—'दर्शनीय ज्योति' के लिए ख़ूब सामग्री दे दी है और उसी से उसने लगभग ६ पृष्ठ लिख डाले हैं। मिस मेयो ने प्रिन्स आफ़ वेल्स को वह ज्योति बनाया है जिसे अछूत लोग आश्चर्य्य के साथ देखते हैं और मुग्ध हो जाते हैं। अब मिस मेयो की सरस भाषा का प्रयोग देखिए।
दुखी भारत

श्री पं॰ मदनमोहन मालवीय

वह उनके आश्चर्य्य को हर्ष में परिणत करती है, हर्ष को मुग्धता में और मुग्धता को उन्माद में।

१९२१ ईसवी में जब युवराज ने भारतवर्ष की यात्रा की तब भारतीय राष्ट्रवादियों ने, उनके सम्मान करने के लिए जितने जलसों और स्वागतों का प्रबन्ध किया गया था, उन सबका बहिष्कार करने की घोषणा कर दी। इसलिए सरकारी कर्मचारियों को टोके जाने योग्य उपायों का सहारा लेना पड़ा। कतिपय स्थानों में उन्होंने गाँव के भोले भाले मनुष्यों को ला खड़ा किया। उनके आने जाने के लिए व्यय का प्रबन्ध किया और जहाँ आवश्यकता पड़ी वहाँ बिना मूल्य भोजन और पोशाक की भी व्यवस्था की। ग्रामवासी तमाशा देखने की इच्छा से आये। जिस राजभक्ति की वाक़यद का मिस मेयो ने वर्णन किया है सम्भवतः वह भी हुई थी। परन्तु युवराज की मुस्कुराहट आदि छोटी मोटी सब बातों का विस्तारपूर्वक वर्णन करने में उसने स्वयं अपनी कल्पना से काम लिया है। और सम्भवतः यह पाठकों पर केवल यह प्रभाव डालने के लिए लिखा कि वे अपने मन में इसे किसी ऐसे व्यक्ति का लिखा वर्णन समझें जिसने सब बातों को स्वयं अपने नेत्रों से देखा हो। किसी प्रकार भी हो, युवराज को देखने पर अछूतों की हार्दिक भावनाओं और उनके उन्मत्त नृत्यों का उसने जो वर्णन किया है वह भारतवासियों को उसकी कल्पना का एक आविष्कार-मात्र प्रतीत होता है।

राजनैतिक प्रचारक के अतिरिक्त और कोई ऐसे कृत्रिम प्रदर्शनों को इतना अधिक महत्त्व नहीं दे सकता, और मिस मेयो निःसन्देह एक राजनैतिक प्रचारिका है। यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकती। अछूतों के लिए ब्रिटिश लोगों के कार्य्यों का वर्णन करते समय वह ऐसे ही प्रदर्शनों और मानपत्रों का विशेष उल्लेख करती है। उस अध्याय के सम्पूर्ण प्रवाह से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उसकी कृति के पीछे राजनैतिक स्वार्थ काम कर रहे हैं।

ताहम इस बात को हम अस्वीकार नहीं कर सकते कि अस्पृश्यता की समस्या एक वास्तविक और जीवित समस्या है। और हिन्दू लोग पूरी गम्भीरता के साथ इसके सुलझाने में लगे हैं। सहस्रों—अक्षरशः सहस्रों हिन्दू इसके विरुद्ध घोर आन्दोलन कर हैं और अछूतों के लिए ऐसी ऐसी शिक्षा-सम्बन्धी और आर्थिक सुविधाओं का सङ्गठन कर रहे हैं जिन पर हमारे नागरिक व्यक्तिगत रूप से प्रतिवर्ष लाखों रुपये व्यय करते हैं। मिस मेयो का यह वक्तव्य कि 'आज भी अस्पृश्यता के अगणित पोषक हैं' सर्वथा असत्य है। और यह कहना भी ठीक नहीं है कि 'उनके (महात्मा गान्धी के) अनुयायियों में से बहुत कम ने कभी यहाँ तक उनका साथ देने की परवाह की है।' १९२६ ई॰ में हिन्दू महासभा के वार्षिक उत्सव के अवसर पर क्या हुआ इसका भी उसने अत्यन्त गलत वर्णन किया है। अछूतों से सम्बन्ध रखनेवाले प्रस्ताव पर जो 'झगड़ा' था वह 'उन लोगों के विरुद्ध जो अछूतों का दुःख दूर करने का प्रयत्न करते हैं' कदापि नहीं था। झगड़ा प्रस्ताव के एक अंश पर, केवल इसी एक अंश पर था कि 'अछूतों' को हिन्दू मन्दिरों में प्रवेश का अधिकार मिलना चाहिए।

समस्त शिक्षित हिन्दू इस बात को स्वीकार करते हैं कि अस्पृश्यता हिन्दू-धर्म के सुन्दर नाम में एक धब्बा है और यह अवश्य मिट जानी चाहिए। महात्मा गांधी ने मिस मेयो से यह बिलकुल ठीक कहा था कि 'विरोध होते हुए भी अस्पृश्यता मिट रही है और बड़े वेग से मिट रही है।' विरोध दिनों दिन निर्बल पड़ रहा है और अस्पृश्यता-निवारण का आन्दोलन बड़ी शीघ्रता के साथ सफलता की ओर जा रहा है।

 

  1. मैसूर की सेंसस रिपोर्ट १८९१ डुबोइस के हिन्दू मैनर्स-आक्स्फोर्ड संस्करण में उद्धृत। पृष्ठ (भूमिका)२७
  2. वही पुस्तक पृष्ठ ६०
  3. भारतीय मनुष्य-गणना का विवरण (१९२१) भाग १, पृष्ठ २२५
  4. उपसंहार में देखिए।
  5. १९१२-१९१७ की शिक्षा सम्बन्धी पञ्च-वार्षिक रिपोर्ट।